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वर्ष १५
विनयचन्द्र, बालचन्द्र, त्रिभुवनचन्द्र (विजयचन्द्र) रामचन्द्र, वि० सं० १३५३ से १३७२ तक रहा है। वही समय यशःकीर्ति, अभयकीति, महासेन, कलासेन, कुंदकीति, त्रिभु- माधवसेन का हो सकता है। कहा जाता है कि माधवसेन वनचन्द्र, रामसेन, मनोराम, हरिषेण', गुणसेन, कुमारसेन, का स्वर्गवास दिल्ली में ही हुमा था। प्रतापसेन, माहव (माधव) सेन उद्धरसेन, देवसेन, विमल उद्धरसेन, माववसेन के शिष्य थे, जो बड़े विद्वान, सेन, धर्मसेन, भावसेन सहस्रकीति गुणकीर्ति मलयकीति शमी, गुणशील के धारक और ब्रह्म-पथ के पथिक थे। गुणभद्र, भानुकीति और कुमारसेन ।
इनका समय भी १४वीं शताब्दी का अन्त जान पड़ता है । इस 'गविली' में अपने ही संघ के कुछ विद्वानों का देवसेन-नाम के अनेक विद्वान् हो गए है। प्रस्तुत नाम भी छुटा हुमा जान पाता है। उदाहरणार्थ बालचन्द्र देवसेन उन सबसे भिन्न जान पड़ते हैं। माथुरसंघी एक मुनि के गुरु उदयचन्द्र का नाम छूटा हुआ है। नेमिचन्द देवसेन का उल्लेख दूबकुंड गांव के सं०११५२ के ३ पंक्तियों उदयचन्द, बालचन्द और विनयचन्द ये चारों ही माथुर वाले शिलालेख में मिलता है। जिस पर उनकी मूर्ति भी संघ के विद्वान् थे। इनमें मुनि उदयचन्द की कोई कृति पङ्कित है । यह एक जैन स्तूप स्तम्भ लेख हैं। मेरे अवलोकन में नहीं आई।
१. प्रथम देवसेन वे हैं जो रामसेन के शिष्य थे और किन्तु मुनि बालचन्द की दो अपभ्रंश कथाएं और जिनका जन्म सं० ६५३ बतलाया है, वही संभवतः दर्शनविनयचन्द्र मुनिकी चूनडीरास आदि तीन रचनाएँ उपलब्ध सार के कर्ता थे। हैं। इनका समय विक्रम की १३वी १४वौं शताब्दी होना दूसरे देवसेन वे हैं, जो शक सं० ६२२ (वि० सं० चाहिए; क्योंकि मुनि विनयचन्द के 'कल्याणकरासु' की
७५७) में चन्द्रगिरि पर्वत से स्वर्गवासी हुए थे।
तीसरे देवसेन वे हैं, जिनका उल्लेख दूबकुंड (ग्वालियर) प्रति सं० १४५५ की लिखी हुई मौजूद है । अतएव उनका
के सं०११४५ के शिलालेख में सम्मान के साथ किया गया समय इससे बाद का नहीं हो सकता, किन्तु पूर्ववती हैं। है और जो लाडबागड संघ के उन्नत रोहिणाद्रि थे विशुद्ध
प्रस्तुत माहासेन वा माधवसेन, प्रतापसेन के पट्टधर थे। रत्नत्रय के धारक थे । और समस्त प्राचार्य जिनकी आज्ञा जिन्होंने पंचेन्द्रियों के समूह को जीत लिया था, जिससे वे को नतमस्तक होकर धारण करते थे। यथामहान् तपस्त्री जान पड़ते हैं। विद्वान होने के साथ-साथ
प्रासीद्विशुद्धतरबोधचरित्रदृष्टि
नि शेष सूरि नतमस्तक धारिताज्ञः । वे मंत्र-तंत्र-वादी भी थे। उन्होंने बादशाह अलाउद्दीन
श्री लाटबागडगणोन्नतरोहणाद्रिखिलजी द्वारा प्रायोजित वाद विवाद में विजय प्राप्त कर
माणिक्य भूतचरितो गुरुदेवसेनः ॥ जैनधर्म का उद्योत किया था और दिल्ली के जैनियो का -देखो दूबकुंड शिलालेख, एपिग्राफिका इंडिका वाल्यूम २ धर्म-संकट दूर किया था। अलाउद्दीन खिलजी का समय
पे०२३७-२४०
चौथे देवसेन वे हैं, जो भवनन्दि के शिष्य थे और जिन १. काष्ठासंघ की दूसरी पट्टावली में हरिषेण के स्थान
का उल्लेख वल्लीमले के शिलालेख में किया गया है, जो पर 'हर्षषेण' नाम पाया जाता है।
उत्तरी अर्काट जिले के वनिवास तालुका में है। (जन २. माहवसेन के बाद जैन सि० भा० की पट्टा. लेख संग्रह भा. २) वली में विजयसेनादि का नाम देकर दूसरी शाखा के पांचवें देवसेन वे हैं जो 'सुलोयणाचरिउ' के कर्ता हैं। विद्वानों का नामोल्लेख किया है।
छठे देवसेन वे हैं जो वीरसेन के शिष्य थे और जिनका -देखो, जैन सि० भास्कर भा. १ किरण ४ उल्लेख अमितगति द्वितीय ने सुभाषितरत्नसंदोह में, और ३. देखो, जनग्रन्थ प्रशस्ति संग्रह भा० २, जो अभी जयधवला प्रशस्ति के ४४वें पद्य में किया गया है। वीर सेवा मन्दिर से प्रकाशित हो रहा है।
२. दूबकुंड शिलालेख वाली तीन पक्तियां ये हैं४. देखो, जन सिद्धान्त भास्कर भाग १ किरण ४ में १-सं० ११५२ वैशाख सुदि पञ्चम्यां। प्रकाशित काष्ठासंघ पट्टावली का फुटनोट तथा जैनगजट
२-श्री काष्ठासंघ महाचार्य वर्म श्री देव हिन्दी २ जुलाई सन् १९५९ में प्रकाशित दिल्ली में जैन
३ -सेन पादुका युगलम, (स्तम्भलेख) धर्म नामक लेख
See Archeological survey of India,