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जैन-साहित्य में मथुरा
लेखक-डॉ० ज्योति प्रसाद जैन उत्तरप्रदेश राज्य के मथुरा जिले के मुख्य नगर मथुरा में भी शूरसेन राज्य की गणना है और उसकी राजधानी को जैनधर्म के इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है । इस मथुरा बताई गई है। यद्यपि 'भगवतीसूत्र' के १६ प्रदेशों नगर के प्राचीन नामान्तर उत्तरमथुरा, मधुरा, मधुपुरी, या जनपदों में शूरसेन देश या उसकी राजधानी मथुरा का मधुपूना, महुरा, मथुला आदि मिलते हैं। पूर्वकाल में उल्लेख नहीं है, तथापि 'प्रज्ञापनासूत्र' की २५१ मार्य देशों यह ब्रजमंडल की और उसके पूर्व शूरसेन जनपद की राज- की सूची में वे सम्मिलित हैं । 'ज्ञाताधकथासूत्र' में उल्लिधानी थी। प्राचार्य जिनमेन स्वामि कृत 'आदिपुराण' खित नगरनामों में मथुरा और पांडुमथुरा, दोनों के नाम (पर्व १६, श्लोक १५५) के अनुसार कर्मभूमि के आदि में मिलते हैं। 'स्थानांगसूत्र' (वृत्तिसहित, पृ० ४५३), प्रथम तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव के आदेश से देवराज इन्द्र 'निशीथचूर्णि' आदि ग्रन्थों में जम्बूद्वीप के अन्तर्गत भारत ने जिन ५२ देशों का इस भूतल पर निर्माण किया था उनमें वर्ष की जिन दश महानगरियों या महाराजधानियों का यह देश भी जो कालान्तर में शूरसेन देश के नाम से प्रसिद्ध उल्लेख है उनमें भी मथुरा का नाम है। दक्षिण भारत के हुमा, सम्मिलित है। उसकी राजधानी मथुरा का भी उसी दिगम्बराचार्यों ने अपने ग्रंथों में पांड्यदेशान्तर्गत मदुरा समय निर्माण होने से उसकी गणना भारतवर्ष की प्राध या दक्षि गमथुरा से, जिसे पांड्यमथुरा भी कहते हैं, भेद नगरियों में की जाती है। पुन्नाटसंघी जिनसेन सूरि कृत करने के लिए इस नगर का उल्लेख प्राय: उत्तरमथुरा 'हरिवंश' में उल्लिखित प्राचीन भारत के १८ महाराज्यों नाम से किया है। कहीं-कहीं देश का नाम भी शरसेन के
- स्थान पर सौरदेश मिलता है। इस मथुरा की स्थिति उस नाथ वह है जो त्रिभुवन का एकमात्र यति या योगी है। प्राचीन मध्यदेश के अन्तर्गत बताई गई है जो मगध से जैन महात्मा मानन्दघन ने भी अपने ब्रह्म के ऐसे ही स्थण पर्यन्त विस्तृत था और जैनमुनियों का निर्बाध अनेक पर्यायवाची दिये हैं। उन्होंने भी इनका पौराणिक विटा क्षेत्र था। अर्थ नहीं लिया है। उनका राम वह है जो निजपद में रमे, इसके अतिरिक्त प्रत्या
इसके अतिरिक्त, अत्यन्त प्राचीन पाठ 'निर्वाणभक्ति' रहीम वह है जो दूसरों पर रहम करे, कृष्ण वह है जो की 'महराए अहिच्छित्ते' गाथा में प्रसिद्ध सिद्ध क्षेत्र एवं कर्मों को करसे, महादेव वह है जो निर्वाण प्राप्त करे, पाश्व तीर्थस्थान के रूप में मयरा का स्पष्ट उल्लेख है। इसी वह है जो शुद्ध प्रात्मा का स्पर्श करे, ब्रह्म वह है जो प्रकार 'निशीथचूर्णि' में "उत्तरावहे धम्मचक्कं मथुराए प्रात्मा के सत्य रूप को पहचाने । उनका प्रात्मब्रह्म देवणिम्मियो थूभो" शब्दों द्वारा मथुरा के 'देवनिर्मित निष्कर्म, निष्कलंक और शुद्ध चेतनमय हैं। इससे स्पष्ट स्तूप' को उत्तरापथ का धर्मचक्र स्थल बताया है। प्राचार्य है कि कबीर और मानन्दघन दोनों ही का राम दशरय सोमदेव (१०वीं शती ई.) के समय तक भी मथुरा के का पुत्र नहीं था। वह अवाङमानसगोचर था। क्रमश.
इस 'देवनिर्मित स्तूप' की प्रसिद्ध तीर्थ स्थल के रूप में १. कबीर ग्रंथावली, ३२७ वां पद ।
पूर्ववत् ही ख्याति थी। बृहत्कल्पभाष्य की एक अनुश्रुति के २. निज पद रमे राम मी कहिये, रहीम करे रहमान री। अनुसार 'उत्तरापथ के इस महत्त्वपूर्ण नगर के अन्तर्गत ६६
करशे कर्म कृष्ण सो कहिये, महादेव निर्वाण री॥ ग्रामों के निवासी अपने गृहद्वारों के ऊपर नथा चतुप्पथों परसे रूप पारस सो कहिये, ब्रह्म चिन्हे सो ब्रह्म री। पर जिन मूर्तियों की स्थापना करते थे।' इह विध साधो पाप पानन्दघन, चेतनमय नि.कर्म री॥ सन् १३३१ ई. के लगभग जिनप्रभमूरि विरचित
बम्बई, पद ६७ वां। 'विविध तीर्थकल्प' के अन्तर्गत 'मथुरापुरीकल्प' में वर्णित