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किरण ३
जयसेन प्रतिष्ठापाठ की प्रतिष्ठाविषि का प्रशुद्ध प्रचार
लिखी है। इससे सिद्ध होता है कि तिलकदान-विधि के बाद वचनिका नहीं की है। अर्थ इसका यह है-मुखोद्घाटन के ही मूर्ति पूजनीय होती है। पूजनीय मूर्ति के अंग मुख पर बाद ही सोने के पात्र में रखे क'रादि गंधद्रव्य से युक्त
टिना अयुक्त है। इसी ख्याल से तो जयसेन ने की हुई सुवर्णशलाका को दक्षिण हाथ में लेकर "सोहंस" तिलकदान के बाद अधिवासना विधि में बिब के कंकण
का ध्यान करता हुआ प्राचार्य नयनोन्मीलनयंत्र को दिखा बाँधने का कथन नहीं किया है यह एक खास ध्यान देने कर आगे लिखे श्लोक और मंत्र को पढ़े और सोने की शलाका योग्य बात है।
से नेत्रोन्मीलन करे ।' पृ० १३२ की वचनिका में लिखे इसलिए ब्रह्मचारीजी ने जो मुखवस्त्र विधि में सात- "तिह गंधकरि सुवर्णशलाकाकरि" इस वाक्य से में यही धान्यों को वस्त्र में बांधकर उससे प्रतिमा के मुख को लपे- बताया है कि जिस ककुमादिगंध से नेत्रोन्मीलन मंत्र लिखा टना लिखा है और उसी के मुताबिक आजकल के प्रतिष्ठा- गया है उस गंध को सलाई में लेकर नेत्र में फेरे । इसीसे चार्य जो विधि करते हैं वैसा विधान जयसेन प्रतिष्ठा पाठ बहुत कुछ मिलता-जुलता कथन नेमिचन्द्र-प्रतिष्ठापाठ पृ० आदि किसी भी प्रतिष्ठाग्रंय में नहीं है। यह हम ऊपर बता ५५८ और ५७४ में लिखा है । वहां देख सकते हैं। चुके हैं।
इस विषय में आशाधरजी ने अपने प्रतिष्ठापाठ के (२) पृष्ठ १४२ पर ब्रह्मचारीजी ने नयनोन्मीलन चौथे अध्याय में इस प्रकार लिखा हैक्रिया की विधि इस प्रकार लिखी है "एक रकाबी में यनोन्मील्य समस्तवस्तुविशदोभासोद्भर्ट केवलकपूर जलाकर सुवर्ण की सलाई को रक्वे । और दाहिने ज्ञानं नेत्रमदशि मुक्तिपदवी भव्यात्मनामव्यथा । हाथ में लेकर फिर 'सोहं' मंत्र को ध्याता हुअा १०६ दफे तस्या त्रार्जुनभाजनापितसिताक्षीराज्यकर्पूरयुक्"ओं ह्री श्री अर्हनमः" मंत्र पढ़े। फिर निम्नलिखित श्लोक वक्त्रस्वर्णशलाकया प्रतिकृतौ कुर्वेदृगुन्मीलनम् ॥१८४ ।। व मंत्र पढ़कर नेत्र में मलाई फेरे।" ब्रह्मचारीजी के इस अर्थ-समस्त पदार्थों को स्पष्ट देखने की है उद्भटता कथन का यही आशय है कि कपूर के काजल को सलाई जिसमें ऐसे केवलज्ञानरूप नेत्र को खोलकर जिन्होंने भव्यमें लेकर उसको भगवान् की आँखों में प्रांजे । किन्तु इस जीवों को बाधारहिन मुक्ति पदवी दिखाई उन भगवान् प्रकार का कथन जयसेन प्रतिष्ठा पाठ में तो क्या ? अन्य की प्रतिमा में यहाँ चाँदी के पात्र में रक्खे मिश्री, दूध धृत किसी भी प्रतिष्ठा पाठ में नही है। जयमेन प्रतिष्ठा पाठ कपूर इनमें सोने की सलाई का अग्रभाग डुबोकर उससे में यह कथन दो जगह पाया है पृ० १३२ पर और २८४ नेत्र खोलता है। पर । पृ० १३२ पर मूल मे जो लिखा है उसकी बचनिका इस प्रकार जयसेन प्रतिष्ठापाठ प्रादि किसी भी प्रतिऐसी है
प्ठापाठ में कार जलाकर उसके काजल से नेत्रोन्मीलन "सुवर्णशलाका करि कुकुमकरि (नेत्रोन्मीलनयंत्र को) करना नही लिखा है। न मालूम व शीतलप्रसादजी ने लिखि, लवंग पर रक्त पुप्पनिकरि ‘ों ही थीं अर्ह नम." ऐसा कथन किम प्राधार पर किया है ? अच्छे २ प्रतिष्ठा ऐमा मंत्र एकसौ आठ बार जपि चादी के पात्र में मिश्री चार्य ब्रह्मचारी जी की इसी विधि से काम करते रहे दूध घृत स्थापनकरि तिह गंध करि सुवर्णशलाका करि मूर्ति हैं। इस अशास्त्रीय विधि से अबतक सैकड़ों प्रतिमाओं की के नेत्र में फेरि इन्द्र है सो पूरकनाड़ी बहतां नेत्रोद्घाटन प्रतिष्ठा हो चुकी है। करे।
ब्रह्मचारी जी तो इम विधान में आये मिथी घृत दूध . २८८ पर ऐसा लिखा है-"तदनंतरमेव रुक्मपात्र आदि का भी कोई उल्लेख नहीं करते हैं। ब्रह्मचारीजी ने स्थित कपरयुक्त सुवर्णशलाका दक्षिणपाणी विधृत्य तो जो कुछ उनकी समझ में आया सो लिम्व दिया, किंतु इन 'सोहं स' इति ध्यायन्नाचार्यो नयनोन्मीलन यंत्रं प्रदर्श्य श्लोक प्रतिष्ठाचार्यो का तो कर्तव्य था कि जिन शास्त्रों के मिमं पठेत् ।" आगे श्लोक और मंत्र लिखकर फिर लिखा प्राधार पर से ब्रह्मचारी जी ने प्रतिष्ठाग्रंथ लिखा है उनसे है-"इति स्वर्णशलाकया नेत्रोन्मीलनं कुर्यात् ।" इसकी इसका मिलान करके यथार्थता का पता लगाते।