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जैन अपभ्रश का मध्यकालीन हिन्दी के
भक्ति-काव्य पर प्रभाव
लेखक-डा० प्रेमसागर जैन जिस भांति संस्कृत श्लोक' और प्राकृत 'गाथा छन्द उनको भाषा जनसाधारण की भाषा थी, अतः उसमे गेयके लिए प्रसिद्ध हैं, ठीक वैसे ही अपभ्रंश में 'दूहा' का सबसे परकता अधिक है। श्री उद्योतनसूरि (७७८ ई.) का यह अधिक प्रयोग किया गया। अपभ्रश का तात्पर्य है दूहा- कथन-कि अपभ्रंश का प्रभाव बरसाती पहाड़ी नदियों की साहित्य । यह दो भागों में बांटा जा सकता है-एक तो भांति बेरोक होता है और प्रणयकुपिता नायिका की भांति वह जो भाटों के द्वारा रचा गया और जिसमें शृंगार, वीर यह शीघ्र ही मनुष्यों के मन को वश में कर लेता है - पादि रसों की भावात्मक अभिव्यक्ति है। इसके उदाहरण परमात्मप्रकाश पर पूर्णरूप से घटित होता है। जहाँ तक प्राचार्य हेमचन्द्र के सिद्धहेमशब्दानुशासन' में प्रचुर भाव धारा का सम्बन्ध है, उसमें भी योगीन्दु की उदारता मात्रा में मौजूद है । दूसरा वह, जिपके रचयिता बौद्ध स्पष्ट परिलक्षित होती है। वे किसी सम्प्रदाय अथवा धर्म सिद्ध और जैन साधक थे। तिलोप्पाद, सरहपाद और विशेष की संकुचित सीमानों में आबद्ध नहीं हुए। उन्होंने कण्हपाद आदि का दूहासाहित्य 'दोहा-कोष' में प्रकाशित मुक्त प्रात्मा की भांति ही उन्मुक्तता का परिचय दिया। हो चुका है । जैन साधकों का साहित्य एक संकलित रूप उनका जिन शिव और बुद्ध भी बन सका। उनके द्वारा में तो नहीं, किन्तु पृथक् पृथक् पुस्तकाकार या किसी निरूपित परमात्मा की परिभाषा में केवल जैन ही नहीं पत्रिका में प्रकाशित होता रहा है । कुछ ऐसा है जो हस्त- अपितु वेदांती, मीमांसक और बौद्ध भी समा सके । उन्होंने लिखित रूप में उपलब्ध है।
अजैन शब्दावली का भी प्रयोग किया। परमात्मप्रकाश परमात्मप्रकाश अपभ्रश का सामर्थ्यवान् ग्रंथ है । इसके अध्यात्म का ग्रथ है, जैन या बौद्ध ग्रय नहीं । इसके दो अधिरचयिता आचार्य 'योगीन्दु' एक प्रसिद्ध कवि थे। उनका कारों में १२६ और २१६ दोहे हैं। इस पर ब्रह्मदेव की समय ईसा की छठी शताब्दी माना जाता है।' उन्होंने इस संस्कृत टीका और प. दौलतराम की हिन्दी टीका महत्त्वग्रंथ का निर्माण अपने शिष्य प्रभाकर भट्ट को अध्यात्म का पूर्ण है। यह ग्रन्थ डा. ए. एन. उपाध्ये के सम्पादन में विषय समभाने के लिए किया था । अत उसमें एक अध्या- बम्बई से प्रकाशित हो चुका है। पक की सरलता, मधुरता और पुनरावृत्ति वाली बात
योगसार नाम के ग्रन्थ के रचयिता भी योगीन्दु ही माजूद है। योगान्दु न स्वय स्वाकार किया है कि शिष्य थे । इसमें १०८ दोहे हैं । इसका विषय परमात्मप्रकाश से को समझाने के लिए शब्दो को बारम्बार दोहराना पड़ा मिलता-जलता है। किन्त इसमें वैसी सरसता नहीं है । डा.
र रूपको का भी प्रयोग किया ए० एन० उपाध्ये ने इसका भी सम्पादन किया है । इसका गया है। उनके पद्य कोमलता और माधुर्य से युक्त हैं। प्रकाशन परमात्मप्रकाश के साथ ही बम्बई से हुआ था। १. देनिए मिद्धहेमराब्दानुशासन, डा० पी० एल.
३. देखिए वही, प्रस्तावना, पष्ठ १०६ और अपभ्रंश वैद्य संपादित, भण्डारकर प्रोरियण्टल रिसर्च इन्स्टी
काव्यत्रयी, गायकवाड़ ओरिण्टयल सीरीज, बड़ौदा, ट्यूट से प्रकाशित, सन् १९३६, अब संशोधित
श्री एल० बी० गान्धी लिखित प्रस्तावना, संस्करण १६५८ में फिर छपा है।।
पृ०६७-६८। २. परमात्मप्रकाश, डा० ए० एन० उपाध्ये लिखित- ४. श्री ब्रह्मदेव ईस्वी तेरहवीं शताब्दी में और पं. प्रस्तावना, पृ०६७।
दोलतराम अठारहवीं शताब्दी में हुए थे।