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जैन अपभ्रश का मध्यकालीन हिन्दी के भक्ति-काव्य पर प्रभाव
उसके परे कोई नहीं जा सकता। प्राचार्य योगीन्दु ने भी मझधार में डूबने के समान माना है। दादू का कथन लिखा है, "जिसके मन में निर्मल प्रात्मा नहीं बसता, उस भी मिलता-जुलता है-कोई द्वारिका दौड़ता है, कोई कासी का शास्त्र-पुराण और तपश्चरण से भी क्या होगा?"८ और कोई मथुरा, किन्तु साहिब तो घट के भीतर मौजूद अर्थात् निष्कल ब्रह्म के बसने से मन भी शुद्ध हो जाएगा, है।' संत कवियों की यह मान्यता अपभ्रंश कवियों में उसकी गन्दगी रहेगी नहीं । विषय कषायों से संयुक्त मन अधिकाधिक देखी जाती है। परमात्मप्रकाश में लिखा जब निरंजन को पा लेता है, तो वह मोन का हकदार बन है-प्रात्मदेव न तो देवालय में रहता है, न शिला में, न जाता है । इसके अतिरिक्त तन्त्र और मन्त्र उसे मोक्ष नहीं लेप्य में और न चित्र में, वह तो समचित्त में निवास करता दिला सकते । श्री महचन्द ने भी दोहा-पाहड़ में लिखा है। योगीन्दु ने योगसार में भी लिखा-श्रुतकेवली (सब है, "निष्कल परम जिन" को पालेने से जीव सब कमों से विद्यामों का पूर्ण जानकार) ने कहा है कि तीथों में, देवामुक्त हो जाता है, पावागमन से छूट जाता है और अनंत लयों में देव नहीं है, वह तो देह देवालय में विराजमान सुख प्राप्त कर लेता है।"
रहता है इसे निश्चित समझो। यह सांसारिक जीव उसके
दर्शन मन्दिरों में करना चाहता है, ऐसा उपहासास्पद है।" कबीर मादि संत कवियों ने 'साहिब' को घट के भीतर मूनि रामसिंह ने पाहड़-दोहा में उनको मूर्ख कहा है, जो देखने के लिए कहा। उन्होंने स्पष्ट ही लिखा कि देवालय, शिव को देवालयों में दढते फिरते हैं, वे अपने देह-मन्दिर को मस्जिद, मूति और चित्र प्रादि में वह' नहीं रहता । वहाँ नही देखो, जहाँ वह विराजमान है। महात्मा मानन्द उसका हूँठा जाना व्यय ही होगा। इसी भाँति उन्होंने तिलक का कानतीर्थयात्रा को भी निःसार माना। तीर्थों में भगवान नहीं
अठसठि तीरथ परिभमइ, मूढा मरहिं भमनु । रहता। 'भ्रम विधाराण को अज' में कबीरदास ने लिखा
अप्पा विन्दु न जाणही, प्रागंदा घट महि देउ अणंतु है-यह दुनियाँ मन्दिरो के आगे सिर झुकाने जाती है, ... परन्तु हरि तो हृदय के भीतर रहते हैं, तू उसी में लौ
२. पाहण केरा पूतला, करि पूजे करतार ।
इही भरोग जे रहे, ते बूडे काली धार ।। लगा।' इसी भाँति उन्होंने पत्थर की मूति के पूजने को
देखिए वही, पहला दोहा. ७. केवल मन परिबज्जियउ हि सो ठाइ अगाइ। ३. दादू केई दौड़े द्वारिका, केई कासी जाहिं ।
तस उरि सत्रु जगु संचरद परइ ण को विजाइमा केई मथुरा को चले, साहिब घट ही माहिं ।। ८. अामा णिय-मणि गिम्मल उणियमें यस ण जामु । दादू की वाणी, यशपाल संपादित, दिल्ली, सत्य पुराण तव-चरणु मुक्नु वि करहि कि तासु ॥
पृ० १६ का अन्तिम पद परमात्मप्रकाश, १९८, पृ० १०२ ४. देउ ण दे उले णवि सिलए णवि लिप्पड़ णवि चित्ति । ६. जेण णिरंजणि मणु धरिउ विसय-कसाहि जंतु ।
अखउ णिरंजगु णाणमउ सिउ संठिउ सम-रित्ति ॥ मोक्खहं कारगु एत्तडउ अण्णु ण तंतु ण मतु ।।
परमात्मप्रकाश, १२१२३, पृ० १२४ वही, १११२३, पृ० १२५ ५. तित्यहि देवलि देउ णवि इम सुइकेवलि-वृत्तु । १०. झायहिं णिक्कुलु परम जिगु कम्मट्ठहविणि मुकका देहा-देवलि देउ जिणु एहउ जाणि णिरत्तु ॥४२॥
प्रावण-गवण-विवजियउ, लहु (हू) मगंतु चउक्कु ।। देहा-देवलि देउ जिणु जणु देवलिहिं णिएइ । महचन्द, पाहुड दोहा, आमेर शास्त्र भण्डार की हस्त- हासउ महु पडिहाइ इहु सिद्ध भिक्ख भमेइ ॥४३॥ लिखित प्रति,
१वां,दोहा। ६. मूढा जोव इ देवलई लोयहि जाइं किया। १. कबीर दुनियां देहुरे, सीस नवांवग जाइ।
देह ण पिच्छइ अप्पणिय जहि सिउ संतु ठियाई।१८०। हिरदा भीतर हरि बस, तूं ताही सौं ल्यो लाइ॥
पत, तू ताहा सा ल्या लाइ॥ ७. देखिए 'प्राणदा' की हस्तलिखित प्रति, (मामेर कबीर ग्रन्थावली, भ्रमविधासण को अङ्ग, ११वां दोहा शास्त्र भण्डार, जयपुर) तीसरा पद्य ।