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अनेकाल
कबीरदास ने सबसे बड़ा काम यह किया कि उस अव्यक्त ब्रह्म को प्रेम का विषय बनाया। अभी तक वह केवल ज्ञान के द्वारा प्राप्तव्य माना जाता था। पं० रामचन्द्र शुक्ल की दृष्टि में निर्गुण ब्रह्म से प्रेम करने की बात सूफियों से भाई, भारतीय भरती में उसका बीज भी नहीं था । किन्तु आत्मा से प्रेमपरक प्रणय की परम्परा जैनकाव्यों में उपलब्ध होती है और उसका प्रारम्भ अपभ्रंश के दूहा- साहित्य से ही नहीं, अपितु उसके भी बहुत पूर्व से मानना होगा। यह तो स्पष्ट ही है कि मुनिरामसिंह के पाहुड़-दोहा पर प्राचार्य कुन्दकुन्द के भावपाड़ का प्रभाव है । प्राचार्य कुन्दकुन्द का समय वि० सं० की पहली शती माना जाता है । कबीरदास ने निर्गुग-भक्ति के क्षेत्र में दाम्पत्य रति का रूपक घटित किया । उन्होंनेब्रह्म कोपति और जीव को पत्नी बनाया । 'हरि मेरा पीव में हरिकी बहुरिया को लेकर प्रेम
विविध पहलुओं पर कबीरने लिखा, तन्मय हो के लिखा । ब्रह्म को पति बनाने की बात पाहुड़ दोहा में भी उपलब्ध होती है। मुनि रामसिंह ने लिखा में सगुणी हैं और दिय निर्गुण-निलक्षण और निःसंग, घत. एक ही देहरूपी कोठे में रहने पर भी हमारा अंग से अंग न मिल सका। आगे चलकर हिन्दी के जैन काव्य में दाम्पत्य-प्रेम का सरस उद्घाटन हुम्रा । उनमें सर्वोत्कृष्ट थे महात्मा श्रानन्दघन | उनकी रमा रूपी दुलहिन ने परमात्मा रूपी पिय से प्रेम किया फिर दर्शन, मिलन और तादात्म्य जन्य मानन्द का अनुभव किया। वैसे बनारसीदास, भगवतीदास, द्यानतराय, मनराम भादि जैन हिन्दी के कवियों ने माध्यात्मिक भक्ति में दाम्पत्य रतिको प्रमुखता दी । किन्तु रूपक के रूप में भी अश्लीलता नहीं प्रापाई, यह उनकी विशेषता थी । शालीनता और मर्यादा बनी रही। पति-पत्नी का प्रेम चलता रहा और प्राध्यात्मिकता भी निभती रही ।
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ब्रह्म के प्रति प्रेम की भावात्मक अभिव्यक्ति ही रहस्यवाद कहलाती है। कबीर के रहस्यवाद की सबसे बड़ी विशेषता है 'समरसी भाव' । प्रात्मा और परमात्मा के एक होने — तादात्म्य होने को समरसता कहते हैं।
१. देखिए पाहुडदोहा १०० व पद्य, पृ० ३०
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रसता इसलिए कहा कि दोनों के एक होने से ब्रह्मानन्द मिलता है उसे ही रख कहते हैं प्रारमा भर परमात्मा के तादात्म्य को लेकर जैन परम्परा में कुछ भिन्नता है। जैन प्राचार्यों की 'आत्मा' एक अखण्ड ब्रह्म का खण्ड अंश नहीं है, मत उसके बड़ा में मिलने जैसी बात उत्पन्न ही नहीं होती । किन्तु प्रारमा शुद्ध होकर परमात्मा बनती है । श्रात्मा के तीन भेद हैं- बहिरात्मा अन्तरात्मा और परमात्मा । बाह्यश्रात्मा इतनी मिथ्यावंत होती है कि वह पूर्ण शुद्धता प्राप्त ही नहीं कर सकती। अन्तरात्मा में शुद्ध होने की ताकत होती है, किन्तु वह अभी पूर्ण शुद्ध है नहीं । परमात्मा आत्मा का पूर्णशुद्ध रूप है ।" रहस्यवाद में श्रात्मा के दो ही रूप काम करते करते हैं - एक तो वह जो अभी परमात्म-पद को प्राप्त नहीं कर सका है और दूसरा वह जो परमात्मा कहलाता है। पहले में बहिरात्मा और प्रन्तरात्मा शामिल हैं और दूसरे में केवल परमात्मा पहला अनुभूति कर्ता है और दूसरा अनुभूतितत्त्व |
चाहे प्रात्मा ही ब्रह्म बनती हो अथवा वह ब्रह्म में मिलती हो, समरसता मौर वम्जन्य धनुभूति का मानन्द जैन का प्यों में उपलब्ध होता है। कबीर ने लिखा है, 'पाणी ही ते हिम भया, हिम गया बिनाइ । जो कुछ था सोई भया, अब कछू कद्या न जाय || 3" ठीक ऐसा ही जैन कवि बनारसीदास का कथन है-"य मोरे पट मैं पिय माहि । जन तरंग ज्यों द्विविधा नाहि ॥ ४" द्विविधा के मिटने की बात भगवतीदास भैया" ने भी कही, "जब
अपनो जिउ आप लो, तब तेजु मिटी दुविधा मन की ।"" हिन्दी कवियों की यह समरसता अपभ्रंश के दूहा काव्य में ज्यों की त्यों उपलब्ध होती है। आभार्य
२. परमात्मप्रकाश, १1११-१५, पृ० २०-२४ ३. कबीर ग्रन्थावली, परचा की बंग, १७ वां दोहा ४. बनारसीदास, अध्यात्मगीत, १६ वां पत्र, बनारसीविलास, जयपुर, पु० १६१
५. भगवतीदास "भैया शतमष्टोतरी ३५ वां कवित्त, ब्रह्मविलास, जैनग्रन्थरत्नाकर कार्यालय, बम्बई सन् १९२६६०, पृ० १६
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