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अनेकान्त
वर्ष १५
बहुत से अमूल्य तत्व रत्न यों ही नष्ट भ्रष्ट हो जायेंगे। था कि वहां कम खर्च में इसका प्रकाशन हो सकेगा किंतु फिर तो प्राचार्यों की कृति के लोप से हमारा विनय भाव दुःख यही है कि वहाँ जाकर भी पत्र का पाठ वर्ष तक कहां तक बढ़ा हुआ एवं प्रशंसनीय समझा जायगा इसे प्रकाशन नहीं हो सका। आप लोग ही सोचें।"
पत्र के वर्ष २ की प्रथम किरण में पाठ बर्ष के अंतHTRA नाम के मेवा. राल के सम्बन्ध में श्री मुख्तारसाहब ने लिखा है कि श्रम को खोलने और उसका संचालन करने के लिये सन्
ने और उसका संचालन करने के लिये सन "जनवरी सन् १९३४ में बाबू छोटेलाल जी ने अनेकान्त १९२६ की महावीर जयन्ती के शुभ अवसर पर जैन समाज को पुनः प्रकाशित करने की इच्छा व्यक्त की और पत्र दारावर स्थापित किया गया और ममत द्वारा सूचित किया कि मैं अनेकान्त के ३ साल के घाटे के भद्राधम ने अपने उद्देश्य की सिद्धि के लिये 'अनेकान्त लिए इस समय ३६००) रु. एक मुश्त भेंट करने के लिए पत्र निकाला।
प्रस्तुत हूँ आप उसे अब शीघ्र ही निकालें। उत्तर में मैने अनेकान्त चिरस्थायी बने
(मुख्तारसा०) ने लिख दिया कि मैं इस समय वीर सेवा
मन्दिर के निर्माण कार्य में लगा है-जरा भी अवकाश मुझे यह जानकर अतीव प्रसन्नता हुई कि जैनपुरातत्व
नही है। का प्रमुख पत्र 'अनेकान्त' का पुर्नप्रकाशन प्रारम्भ हो रहा
तत्पश्चात् लाला तनसुखरायजी जैन देहली ने पत्र है । इस अवसर पर इसकी पुरातन गति-विधियों पर प्रकाश
के दो वर्ष का घाटा सहन करने का प्राश्वासन दिया तब डालना आवश्यक समझता हूँ।
प्राठ वर्ष बाद पत्र १-११-१९३८ से निकलना प्रारम्भ अनेकान्त दिगम्बर जैन समाज का तो प्रमुख साहित्यिक हुमा । चौथे वर्ष में १० सज्जनों ने ८२६) रु० सहायतार्थ गवेषणात्मक पत्र रहा ही है किन्तु इससे हिन्दी साहित्य प्रदान किए। की भी कम सेवा नहीं हुई। इसके द्वारा बहुत से प्राकृत सन् १९४८ में अनेकान्त के नवें वर्ष में भारतीय ज्ञानहिन्दी, संस्कृत, अपभ्रंशके अज्ञात लेखक एवं ग्रन्थ प्रकाश में पीठ काशी ने पत्र को काफी घाटे में प्रकाशित किया और आए।
एक वर्ष बाद पत्र ज्ञानपीठ से पृथक् होकर ७ माह तक नही ___ इस पत्र का इतिहास जहाँ हमें इसकी गौरव-गाथा से निकला तत्पश्चात् जुलाई १९४९ में देहली से प्रकाशित हुआ अवगत कराता है वहां हमें कुछ शिक्षा भी देता है कि गवे. पत्र को बराबर घाटा लगता रहा और १० वें वर्ष के अन्त षणात्मक पत्र चालू रखना, विशेषतः दिगम्बर जैन समाज में कि० ११-१२ में मुख्तार सा० ने सूचना दी कि १५ माह में असाध्य नहीं तो अति श्रम साध्य अवश्य है । के अर्से में पत्र को ढाई हजार के करीब घाटा रहा । ___आज से ३२ वर्ष पूर्व वीर नि० सं० २४५६ में देहली समाज से केवल २६८ ) की सहायता प्राप्त हुई . ... के समन्तभद्राश्रम से अनेकान्त का प्रथम अङ्क निकला था। ऐसी स्थिति में जब तक इस घाटे की पूर्ति नहीं हो जाती
प्रथम वर्ष में पत्र को ६२२०) का घाटा रहा और तब तक आगे के लिए कोई विचार ही नहीं किया जा संस्था के सदस्यों से प्राप्त सदस्यता सहायता आदि की सकर आमदनी जोड़ने पर १२५२%) का घाटा रहा।
इस पर भी कोई घाटे को वहन करने के लिए तैयार समन्तभद्राश्रम एवं अनेकान्त के संचालन के लिए नहीं हुए प्रतः डेढ़ वर्ष तक पत्र बन्द रहा। इस बीच में देहली उपयुक्त नहीं समझा गया, अतः वीर सेवक संघ की बहुत से भाई मुख्तार सा० को अनेकांत को प्रकाशित करने कार्यकारिणी ने ता. २६-१०-१९३० को समन्तभदाथम के लिए प्रेरित करते रहे किन्तु किसी भी प्रकार से श्री एवं अनेकांत को सरसावा ले जाने का निर्णय किया और मुख्तार सा० पत्र को प्रकाशित करने के लिये तैयार नहीं नवम्बर सन् १९३० में वहाँ ले भी गए। अनेकान्त का हुए। अक्टूबर सन् १९४४ में श्री मुख्तार सा० कलकत्ता सरसावा से प्रकाशन करना तो इसलिए तय किया गया। (१) अनेकान्त वर्ष १ कि० १२ पृ० ६६८-६६६