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प्रनेकान्त
प्रतिष्ठाचार्य को थोड़े अरसे से पहले एक प्रतिष्ठा महोत्सव में हमने इसी तरह करते देखा है । किन्तु जयसेन प्रतिष्ठा पाठ में जहाँ यह विधि लिखी है वहाँ के विवेचन से तो ऐसा अर्थ कदापि नहीं निकलता । वहाँ जैसा कुछ लिखा है बह इस प्रकार है -
नूनं
वर्ष १५
स्थापन, और मुखवस्त्र प्रदान। इन तीनों क्रियाओं की प्रयोग विधि अलग लिख दी है। यही मंत्र इसी रूप में आशाधर प्रतिष्ठापाठ पत्र १०६ में भी लिखकर उसकी प्रयोगविधि वहाँ इस प्रकार बताई है
"मुखवस्त्रदानपूर्वकं यवमालामारोप्य जिनस्य पादाग्रतः सप्तधान्यान्युपहरेत् ।" अर्थात् पहिले मुखवस्त्र देकर फिर यवमाला का आरोपण करे और फिर जिनचरणों के आगे सप्तधान्य भेंट करे । आशाधर जी ने यहां मदन फल ( मैणफल) को यवमाला के साथ लगाने को कहा है जैसा कि उनके निम्न श्लोक से प्रगट है
भक्तद्धिवृद्धिकृदनुक्षणभाविशर्म
निरावृतिचमत्कृति कारितेजो,
नोशक्यमीक्षितवतामपि भावुकानाम् । इत्येवमपितनयानयनेन शंभो - रप्रेमुखाग्रमद्वस्त्रमुपाकरोमि ।। ८५५|| इसकी वचनिका इस प्रकार की है
"अरु नवीन और निरावरणता का चमत्कार करने वाला प्रभु का तेज है सो देखने वारे भव्यनिकू शक्य नहीं है । ऐसे या प्रकार अर्पितनयका अवलंबन कर श्री भगवान् का मुख के अग्रभाग में वस्त्र से परदा करूँ हूँ ।"
"श्रीं ह्रीं अर्हते सर्वशरीरावस्थिताय समदनफलं सप्तधान्ययुतं मुखवस्त्रं ददामि स्वाहा ।" इति मुखाग्रे वस्त्रयवनिकां दत्वा यवमालावलयं जिनपादाग्रतः स्थापयेत् ।' अर्थात् "नों ह्रीं श्रर्हते "मुखवस्त्रं ददामिस्वाहा " इस मन्त्र को बोलकर भगवान् के मुंह के आगे वस्त्र का परदा देकर जपमाला को जिनचरण के आगे रक्खे । यहाँ वचनिकाकार ने और भी स्पष्ट किया है"ऐसे मुखवस्त्र अप्ररोपण । अर मुखनामप्रग्रभाग का है तात बिंब के घड़ा एक परदा भगवान् को प्राड़ देना ऐसा अभिप्राय है । इसहीकू मूलपाठ मे " यवनिकां दत्वा " ऐसा कहा है।"
आगे श्लोक ८६६ में भी इस मुखवस्त्र को हटाने का कथन करते हुये " यवनीं दूरमुदयेत्" पाठ दिया है जिसका अर्थ होता है" "वस्त्र की यवनिका को दूर कर दे ।" यहां ' यवनीं" शब्द से परदा ही बताया है । ब्रह्मचारी जी ने जो सात प्रकार के अनाज की पोटली को प्रतिमा के मुख पर बाँधने को कहा है सो ऐसा कथन ऊपर लिखे मन्त्रों में “सप्तधान्ययुतं मुखवस्त्रं" वाक्य में सप्तधान्य को मुखवस्त्र का विशेषण समझ लेने की भूल से हुआ है। तथा इस मंत्र के "समदनफलं " वाक्य का तो अर्थ ही ब्रह्मचारी जी साफ उड़ा गये हैं । दरअसल में इस मन्त्र में केवल तीन क्रियाओं का संकेतमात्र किया है-यवमाला, सप्तधान्य का
संपत्फला मितगुणावलिमुद्गिरंत्या । राठद्धिवृद्धियवमालिकयचितोऽर्हन्
गोः सप्तधान्यकमदोर्हतु सप्तभंगीम् ॥ म्रव्याय ४- १६२ ।। अर्थ- क्षण भर के बाद होने वाली सुख-संपदा के फलों की प्रचुर गुणावली को बतलाने वाली, और मदनफल व ऋद्धि-वृद्धि ( ये दोनों जड़ी बूटियाँ हैं) युक्त ऐसी जयमाला से जो पूजे गये हैं और जो भक्तों की ऋद्धि-वृद्धि के करने वाले है ऐसे अर्हत भगवान् सप्तधान्यरूपी वाणी की सप्तभंगी को प्राप्त होवे । अर्थात् उनके आगे भेंट किये सप्तधान्य मानों उनकी वाणी के सप्तभंग रूप होश्रो ।
नेमिचन्द्रप्रतिष्ठापाठ पृ० ५६३ में मुखवस्त्र के लिए ऐसा लिखा है- "मुखवस्त्रमेवं कुर्यात् वेदिकायामंतगृहे च ।" मुखवस्त्र ऐसा करे - वेदी पर और भीतरी गृह पर । यहाँ भी मुखवस्त्र का अर्थ परदा ही व्यक्त किया है । वह परदा वेदी और निजमंदिर ( गर्भ गृह) दोनों पर होना चाहिए नेमिचन्द्र प्रतिष्ठापाठ के पूजामुख प्रकरण में लिखा है कि - प्रभात ही जिन मंदिर जावे तो मंदिर के किवाड़ खोल कर पाँव हाँथ धोके निजमंदिर में प्रवेश करे वहाँ परदा हटाकर भगवान् के दर्शन करे ऐसा वर्णन करते हुये " उद्घाटयवदनवस्त्रं" इत्यादि श्लोक लिखा है । इसमें भी मुखवस्त्र' शब्द का प्रयोग परदा के अर्थ में किया है।
और ऊपर उद्धृत जयसेन प्रतिष्ठा पाठ के श्लोक में भी जिस उत्प्रेक्षा से कथन किया है उससे भी 'मुखवस्त्र' का भाव परदा करना ही झलकता है । यहाँ भी भी समझना चाहिए कि -- तिलकदान के बाद मूर्ति की अष्टद्रव्य से पूजा