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अनेकान्त
वर्ष १५
में सब प्रकार से भोजन का त्याग करना चाहिये इसे रात्रि देश त्याग रूप से और मुनियों के सर्व देश त्याग रूप से भोजन त्याग नाम का छठा अणुव्रत कहा है।
होता है। दोनों के लिए इसका उल्लेख ग्रन्थों में "अणुव्रत, इन सब प्रमाणों मे खास तौर से मुनियों के भी छठा इस सामान्य नाम से ही किया गया है। अणूव्रत बताया है किन्तु मुनियों के साथ अणुव्रत शब्द की पं० आशाधर ने भगवती आराधना, की अपनी मूलारासंगति किसी तरह बैठाती नहीं इस पर मैने एक शंका धना दर्पण, नाम की टीका में भी इस छठे अणुव्रत पर इस "जैन संदेश, साप्ताहिक में समाधानार्थ भेजी थी जिसका प्रकार प्रकाश डाला है :-देखो-पाश्वास ६ गाथा समाधान भाग २१ अंक १६ पृष्ठ ६ पर प्रकाशित हुआ है ११८५-८६ पृष्ठ ११७६। किन्तु उसमें शंका का कुछ भी समाधान नहीं हुआ-समा- "ततो महाव्रत संपूर्णतामिच्छ-रात्रि भोजन विरमणं धान का कोरा प्रपंच किया गया है। प्रस्तु
षष्ठमणुव्रतमनुतिष्ठे देव । अगुव्रतत्वं चास्य दिवाभोज___दूसरे भी कुछ विद्वानों के साथ मैने इस पर ऊहापोह नस्यापि करणान् । यदादु :-छठे अणुव्वदे राइ भोयणादो किया परन्तु किसी से कुछ भी समाधान प्राप्त नहीं हुमा। वेरमण मिति । एक रोज मै भी ग्राशाधर कृत सटीक अनगार धर्मामृत देख अर्थ :-महाव्रतों की सम्पूर्णता चाहने वाले (मुनियों) रहा था यकायक उसमें कुछ मुझे इसका सुन्दर और युक्ति को रात्रि भोजन त्याग नाम का छठा अणवत पालन करना युक्त समाधान मिल गया अाज उसे विज्ञ पाठकों के लिए ही चाहिए। इस व्रत की 'अणु, संज्ञा दिन में भोजन करने नीचे प्रकट किया जाता है :
की अपेक्षा से है । अति त्याग सिर्फ रात्रि भोजन का ही है अनगार धर्मामृत (पृष्ठ ३०३) अध्याय 6 श्लोक १५० इस कालिक अपूर्णता की दृष्टि से यह अगु लघु व्रत है। में-रात्रि भोजन त्याग नाम के छठे अणुव्रत को पंचम हा- यह छठे अणुव्रत का रहस्य है। इस रहस्य को नहीं व्रतों का प्रधान बताते हुए 'नक्तमशनोज्झाणु व्रतामाणि,, समझने से अच्छे-अच्छे पंडितों ने इस विपय में अनेक पद की टीका में लिखा है :
गलत असंगत और भ्रांत कथन किए है जिनके कुछ उदा___"नक्तं रात्रावशनस्य चतुर्विधाहारस्योज्झा वर्जनम् । हरण मय ममीक्षा के नीचे प्रस्तुत किए जाते हैं :सैवाणुव्रतं तस्या श्चाणुव्रत त्वं रात्रावेव भोजन निवृत्ते (१) पं० लालरामजी ने वीर सं० २४६२ में 'प्राचार दिवसे यथाकालं तत्प्रवृत्तिसंभवात् ।,
सार, की हिन्दी टीका में उसके निम्नांकित श्लोक का अर्थ अर्थात्-"रात्रि में चारों प्रकार के प्राहार का त्याग इस प्रकार किया है :करना (छठा) अणुव्रत है उसे अणुव्रत इसलिए कहा है कि व्रतत्राणाय कर्तव्यं रात्रिभोजन वर्जनम् । रात्रि में ही भोजन का त्याग बताया है दिन में तो यथा सर्वथान्नान्निवृत्ति स्तन्प्रोक्तं षष्ठ मणुव्रतम् ॥ समय भोजन करने की छूट है"। अतः आहार का त्याग सिर्फ रात्रि में ही होने से यह काल की अपेक्षा अणु-लघु अर्थ :-"इन व्रतों की रक्षा के लिए रात्रिभोजन व्रत है । अगर सदा के लिए रात और दिन के आहार का त्याग भी अवश्य कर देना चाहिए रात्रिभोजन का त्याग त्याग बता दिया जाता तो यह व्रत भी अन्य ५ व्रतों की तरह करने से व्रतों की रक्षा होती है इसी लिए रात्रि में अन्न व्यापक हो जाता 'अणु, नहीं रहता किन्तु धर्म के साधन का सर्वथा त्याग करने को गृहस्यों के लिए छठा प्रणुव्रत भूत इस शरीर को चलाने के लिए भोजन की जरुरत होती कहा है।" है उसका सर्वथा त्याग शक्य नही और भोजन दिन में ही समीक्षा :-यह मुनियों का आचार ग्रंथ है इसमें गृहनिरवद्य संभव है रात्रि में नहीं प्रतः दिन की छूट दी गई स्थों का अणुव्रत बताना साफ़ गलत है इसके सिवा उक्त है और रात्रि का सर्वथा त्याग कराया गया है । इस तरह श्लोक के पहिले, ग्रंथ में पंच समितियों का कथन हैं फिर 'रात्रि भोजन त्याग, में रात्रि शब्द इसके काल कृत अगुत्व बीच में ही गृहस्थों के छठे अणुव्रत का कथन बताना भी को सूचित करता है। यह प्रणु = लघु व्रत गृहस्थों के एक स्पष्ट असंगत है । इसीतरह चार प्रकार के आहारों में से