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अनेकान्त
वर्ष १५
उन्होंने ग्वालियर के किले में चन्द्रप्रभ भगवान् की के पौराणिक ग्रन्थों का स्वाध्याय करने के उपरान्त भी एक विशाल मूर्ति का निर्माण कराया था (सम्म इ० उनकी जिज्ञासा शान्त नहीं होती। वे उस समय की लोक१४।११-१२) । ग्वालियर के सुप्रसिद्ध संघपति श्री प्रचलित भाषा में पौराणिक ग्रन्थों की रचनाओं का अध्ययन कमलसिंह के भी ये सुपरिचित एवं घनिष्ट मित्र थे; क्योंकि करना चाहते थे, यद्यपि महाकवि रइघू के पूर्ववर्ती महाउनके सहयोग एवं सहायता से इन्होंने चन्द्रप्रभ भगवान् कवि पुष्पदन्त ने अपने "तिसट्ठि पुरिस गुणालंकार में की मूर्ति की एवं एक विशाल शिखरबन्द मन्दिर की अरिष्टनेमि स्वामी एवं महावीर स्वामी के चरितों का प्रतिष्ठा भी कराई थो (वही १८१६-१८) । मूत्ति वर्णन किया था पर महाकवि पुष्पदन्त की भाषा परिनिर्माण के आसपास ही वे एकादश प्रतिमा के धारी हो निष्ठित अपभ्रंश भाषा थी और खेल्हा ब्रह्मचारी ग्राम्यगये थे (वही (११४१६)।
__ अपभ्रंश में भी पौराणिक रचनाओं का दर्शन करना चाहते इस प्रकार रइधू० साहित्य में खेल्हा० ब्रह्मचारी का थे। यही कारण है कि उन्होंने रइघू को ग्राम्य-अपभ्रंश में जो भी संक्षिप्त वर्णन मिलता है उसके आधार पर हम पौराणिक रचनाएं लिखने को प्रेरित किया। उनके निम्न विशिष्ट गुण पाते हैं :
इस सत्य से कोई इंकार नहीं कर सकता कि रइधू (१) प्रत्युत्पन्नमतित्त्व
में साहित्यिक कल्पना की अतिशय उड़ान भले ही न हो खेल्हा ब्रह्मचारी की प्रतिभा विलक्षण थी। योजना- पर १५-१६ वीं सदी की भाषा के विभिन्न रूप अवश्य ही निर्माण, उनका विस्तार एवं उन्हें रचनात्मक रूप देकर सुरक्षित हैं । खेल्हा ब्रह्मचारी को भापा की इन विभिन्न सफल बनाना; प्रश्नों के सुन्दर उत्तर देना आदि उनकी प्रवृत्तियों का अध्ययन करना था, अतः उन्होंने महाकवि से तर्कणात्मक प्रतिभा के परिचायक हैं। यशः कीति भट्टारक परिनिष्ठित मिश्रित ग्राम्य-अपभ्रंश में पौराणिक कृतियाँ को रइधू को प्रेरित करने के लिये उन्होंने उकसाया और लिखवाई। इस दृष्टि से महाकवि तो यश का भागी है ही पूर्ण सफलता प्राप्त की।
लेकिन खेल्हा का योगदान भी उमे कम यशस्वी नहीं (२) जनभाषा अपभ्रंश के प्रति प्रास्था एवं अभिरुचि बनाता।
संस्कृत एवं प्राकृत में विविध लेखको के कई प्रकार (५) प्राचीन भारत में अध्ययन की एक परम्परा थी के "नेमिचरित" तथा "सन्मतिचरित" आदि के उपलब्ध कि कोई नया जिज्ञासु शिष्य अपने लिए एक नवीन रचना होते हुए भी महाकवि रइघु से अपभ्रंश में उक्त रचनायें लिखने का अनरोध करता था और उस
लिखने का अनुरोध करता था और उस रचना का अध्ययन लिखने के लिये उन्होंने अनुरोध किया।
करके वह विद्वान बनता था। यही प्रवृत्ति हमे पेल्हा मे (३) प्रेरक के रूप में
भी मिलती है। अलंकार-शास्त्र में कवि के गुणों का निरूपण करते (६) खेल्हा की साहित्य-रसिकता का परिचय उरा समय प्राचार्यों ने आश्रयदाता या प्रेरक ब्यक्ति को भी समय अपने चरमोत्कर्ष पर पहुँचता प्रतीत होता है जब उन्नत स्थान प्रदान किया है। अतः खेल्हा ब्रह्मचारी स्वयं एकादश प्रतिमाधारी होने की प्रतिष्ठा को भी भूलकर वह कवि न होने पर भी कवि तुल्य माना जा सकता है। एक सामान्य अणुव्रती कवि रइधु का अपने को सेवक मान (४) प्रात्म-साधना एवं साहित्य-साधना का समन्वय लेता है। इससे प्रतीत होता है कि समाज में विद्वान् कवियों
खेल्हा ब्रह्मचारी की ज्ञान-पिपासा अद्भुत थी। संस्कृत को यथेष्ट सम्मान प्राप्त होता था।