________________
किरण १
कहाकवि रहनू उल्लिखित रामाचारी
किह कव्वुरयमि गुणगण समुद्द ।
को उन्मादई जिण समय मुद्द ॥ सम्हारिसेहि गियर कईहि ।
बुहकुलहं मग्झि उभय मह णामस्स वि धारणि गहनु भब्बु ।
भो कि कोरिज्जई पारुकन्तु ॥ ( सम्म० ११२।१२-१८ )
तब यशः कीर्ति ने इसके उत्तर में कहा : ता सूरि भणइ सुणि कइ ललाम ।
भो रइधू लक्खिय छंद गाम ॥ तुहुँ बुद्धि तरंगिणिए समुद ।
मिच्छावाइय मययरू रउ६ ॥
इस परियाणिवि मा होहि मंदु
अगुराएँ थुणिज्जइ तिजयवंदु || ( सम्म ६० १६१६ - २१ ) गुरु का ऐसा आश्वासन सुनकर कवि उनकी श्राज्ञा को शिरोधार्य कर लेता है ( ११६/२२), फिर भी वह सोचता है कि चतुर्मुख स्वयम्भू पुष्पदन्त, वीर प्रभृति कई महाकवियों ने विशाल रचनाएँ की है, जिनकी सर्व प्रशंसा भी हो चुकी है । ग्रतः उनके ग्रागे में क्या लिख सकता हूँ ? इस पर कीर्ति पुनः उन्हें उत्साह दिलाते है :पुणु विसेविनूरि पपई । एहचिनमणि भावहि संपई ॥ जई खग्गेसु णहर्यालि गमु सज्जई ।
नामउकि यिकमु वज्जई ॥ जइ सुरत इच्छिय फल अप्परं ।
ता कि इयरुचयई फलसंपई ||
जं रवि किरणहि तमभरु खंडइ ।
ता सज्जोउ सपह कि छंटइ ॥ जइ मलयाणिलु भुवण बहु वासद ।
ताकि इयरुम वह स सई ॥
जसु मइ पसरु प्रत्थि इह जेतउ ।
दोमुनि गोड नेन ॥ (सम्मइ० ११०११-६)
यशः कीर्ति का यह सम्बोध- प्रतिबोध यहीं तक सीमित नहीं, आगे भी धाराप्रवाह रूप से चलता चला है। यहाँ भाषा का सौष्ठव, भाषों की मामिकता विषयको गरिमा
१६
तथा शैली की सरसता साथ ही गुरु का आत्मवेदन कवि को मर्माहत एवं उत्तेजित किए बिना न रहा और कवि को अन्तः निविकल्प होकर अपनी स्पीकरता देते हुए कहना पड़ा
सेल्हग बंभ पयन पुष्ण केरसमि ह तुरिया | ( वही ० १।११।१४ ) अब प्रश्न यह उठता है कि जिसने इतनी कुशल शुभबूझ एवं चतुराई से यश: कीर्ति भट्टारक को भी अपने काम के लिए उकसाया ही नहीं बल्कि उनसे पूरी-पूरी वकालत करा कर सैलानी तबियत के एक महाकवि से अपना सम्पूर्ण कार्य करा लिया, वह खेल्हा ब्रह्मचारी आखिर था कोन ? खेद की बात है कि उसका पूर्ण एवं सन्तोषजनक उत्तर तत्काल ही शासानी से नहीं दिया जा सकता, क्योंकि इसके लिए पर्याप्त साधन एवं सामग्री मेरे सम्मुख नहीं । हाँ, रइधू-साहित्य के अथाह सागर में डुबकी लगाकर यत्किञ्चित् जो कुछ भी हाथ लग सका उसके आधार पर उनका व्यक्तिगत परिचय निम्न प्रकार है :--
व्यक्तिगत जीवन परिचय-- खेल्हा योगिनीपुर की पश्चिम दिशा में स्थित हिसार पिरोज (संभवत: फिरोजशाह द्वारा बसाये गये हिसार नामक नगर ) के निवासी अग्रवाल वंश के गोयल गोत्र मे उत्पन्न श्री तोसउ साहू के ज्येष्ठ पुत्र थे ( सम्मइ० १।३१ - ३४११६) । स्वाध्यायप्रेमी होने के कारण वे सिद्धान्त एवं ग्रागम ग्रंथों के जानकार हो गये थे (११३(२) ।
उनका विवाह कुरुक्षेत्र के जैन धर्मानुरागी सेठियावंश के श्री सहजा साहू के पुत्र श्री तेजा साहू की जालपा नामक पत्नी से उत्पन्न खीमी नामक पुत्री से हुआ था (सम्मइ० १०३८।१८-२०) सम्मतः इनके कोई संतान न षी प्रत उन्होंने अपने भाई के पुत्र हेमा को गोद ले लिया तथा गृहस्थी का भार उग सीपकर मुनि यशः कीर्ति के पास अणुव्रत धारण कर लिए ( सम्मइ० १०|३८|२८३४) और फिर तभी से वे ब्रह्मचारी कहलाने लगे ।
खेल्हा ब्रह्मचारी साहू तोसउ के सुपुत्र थे अतः इससे उनकी सम्पन्नता में कोई सन्देह नहीं । ये निस्सन्तान थे श्रतः सम्भवतः उन्हें इसी कारण संसार से निराशा होने लगी थी। वे बड़े ही उदार, धर्मात्मा एवं गुणज्ञ थे ।