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महाकवि रहबूद्वारा उल्लिखित खेल्हा ब्रह्मचारी
साहित्य में विस्तृत रूप से नहीं मिलता, किन्तु उनकी प्रेरणा से रइधू द्वारा लिखे गये "सम्मइ जिण चरिउ" एवं "णेमिचरिउ" नामक दो ग्रन्थों की प्रशस्तियों में उनके सम्बन्ध में अवश्य ही कुछ सूचनायें मिलती हैं। उन्हीं के आधार से यह विदित होता है कि वे महान् साधक एवं ब्रती तपस्वी तो थे ही, साथ ही साहित्य-रसिक, साहित्य-प्रेरक एवं साहित्य प्रेमी भी । व्यावहारिक दृष्टि से भी वे बड़े चतुर एवं साहित्य की श्री-वृद्धि में तत्पर रहते थे। खेल्हा ने महान वि रइधू से किस प्रकार ग्रंथ-रचनाएं कराई उसकी चर्चा यहां की जाती है।
रणेमिचरिउ–णेमिचरिउ महाकवि रइधू की सभी रचनाओं में एक विशाल कृति है। इसमें १४ सर्ग एवं ३०२ कड़वक अथवा लगभग १६०० पद्य हैं । कई दृष्टियों
प्रसि कईस मणि वियरतहं । जिण समय सुतु पयर्डतहं ॥ से महत्वपूर्ण इस रचना के निर्माण करा सकने के लिए
किंचिण दोसु संक णउ किज्जई। सकइत्तणि सत्तिण खेल्हा ब्रह्मचारी को अथक एवं अनवरत परिश्रम के साथ
लोविज्जइं। (मि० १२४।६-६) ही साथ बड़ी कुशल सूझ-बूझ से काम लेना पडा। खेल्हा
उक्त वक्तव्य के अन्तिम पद "सकइत्तणि सत्ति ण के मन में इच्छा जाग्रत होती है कि रइधू उनके निमित्त
लोविजई" पद ने कवि की हत्तंत्री को झंकृत कर दिया (ग्राम्प-अपभ्रश में) "णेमिचरिउ की रचना करें अतः वे
और इस प्रकार खेल्हा के मनोरथ की पूर्ति के हेतु कवि उनसे निवेदन में कहते हैं .---
तैयार होने की सोचने लगता है किन्तु फिर भी उसने कोई भो रइधू पंडिय मुह भावण। पई बहु सत्थरइय सुह दावण ।।
विशेष उत्साह नहीं दिखाया। खेल्हा की कुशल-दृष्टि से सिरि तेसठ्ठि पुरिम गुण मंदिरु । रइउ महापुराण जय चंदिका कवि का यह गूढ़ रहस्य भी छिपा न रह सका और उसने तह भरहह सेणावइ चरिय । कोमइ कह पबंध गण भरियल लगे हाथ झनझनपुर के लोणासाहु की कवि के प्रति श्रद्धाजसरह चरिउ जीवदय पोसणु । वित्तसार सिद्धत पयामणु।। भक्ति का परिचय देते हुए कह ही दियाजीवंधरह वि पासह चरियउ । विरदवि भवण त्तउ जस भरियउ प्रच्छइ सो तुम्हहं भत्तिल्लउ । मण कमलंतरि सरइ अतुल्लउ॥ भो कइ तिलय महागुण भूसणु । सिरि अग्?िनेमिहु जणपोसणु।।
(णेमि ११७४४) विरइय चरिउ मज्भ उवरोहे । सोउं वंकमि पयणिय मोहें। तब खेल्हा ने देखा कि उक्त कथन से कवि के ललाट
(णेमि०१४३१५-११) को रेखाएं कुछ कुछ खिल रही हैं तब फिर उसने पुनः
निवेदन कियालेकिन उक्त कवि-प्रशंसा एव ब्र० खेल्हा के निवेदन
तुहु पुणु सावयजण उवयारिउ । ने कवि के मन पर कोई भी गहरा प्रभाव नहीं डाला और
विरहि मत्थु मिग्धु महु परिउ ।। वह चुप ही बना रहा । इससे खेल्हा के मन में बड़ी निराशा
सो णिव्वाहई चरिय (चरिउ) महातरु । हुई, फिर भी अपनी चतुराई से कवि को पुनः रिझाने का
तुम्हहं सेव करइ कय आयरु ।। प्रयत्न करते हुए वह कहता है :
(णेमि० १७१५-६) तं सुणि तणिउ अणुव्व्य धारें। भो पंडिय कि बह वित्थारें॥ "तुम्हहं सेव करइ कय भायर" मुनते ही कवि भावापई सग्मइ वरुलटु विसेसें । कवणु असुहु पयणई उबहासें। वेश से भर उठता है और खेल्हा द्वारा इच्छित “णेमिचरिउ'