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महाफवि रघू द्वारा उल्लिखित खेल्हा ब्रह्मचारी
लेखक-प्रो० राजाराम जैन एम. ए.
अपभ्रंश साहित्य के इतिहास में महाकवि रइधू कृतियों में उल्लिखित प्रशस्तियों एवं प्रेरक तथा प्राश्रयका व्यक्तित्व एवं कृतित्व अपना विशेष स्थान रखता है। दाताओं के भरे-पूरे मण्डल तथा उनके कथनोपकथनों को उन्होंने अपने जीवनकाल में अनेकों रचनाएं की, लेकिन पढ़कर यह विदित होता है, कि ग्रन्थ रचना के पूर्व महाअभी तक उनकी कुल २३ रचनामों का पता चल सका है, कवि के हृदय की तरंगों एवं प्रतिभा के महत्वपूर्ण तन्तुओं उनमें भी अभी २-३ रचनाएं अनुपलब्ध ही है। उपलब्ध को झंकृत करना आवश्यक होता था। उनके परमभक्तों में रचनाओं में से ३-४ रचनाओं को छोड़कर बाकी की प्राय: क्या राजा-महाराजा, क्या राजपुरुष और क्या भट्टारक या सभी रचनायें विशाल है। कृतियों में अन्तरंग एवं बहिरंग अध्यात्मक-रस-मधुप ब्रह्मचारी, प्रायः सभी उन्हें रिझाना स्वरूप के निरीक्षण-परीक्षण करने से विदित होता है कि भी खूब जानते थे, जिनकी कुशल सूझ-बूझ से महाकवि वे एक महान भावुक एवं उदार महाकवि थे। कुछ रचनाएं रइधु अपने दो विशाल एवं अमूल्य ग्रन्थरत्न हमें प्रदान तो उन्होने स्वान्तः सुखाय लिखी, लेकिन कुछ को उन्होंने कर सके। अपने परम भक्तों के अत्याग्रह पर लिम्वीं। महाकवि की ब्रह्मचारी खेल्हा का व्यक्तिगत जीवन-परिचय रइधृ
गया हो, जब बादशाह ने पूछा तब किसी ने कह दिया आपने हस्तिनापुर, करनाल, मुनपत, हिसार, सांगानेर और कि खजांची साहब ने कराया है। इसे सुनकर बादशाह पानीपत आदि स्थानों पर भी मन्दिर निर्माण कराये थे। बहुत खुश हुमा । अगले दिन दरवार में जब राजा हरसुख और वे सब उसी समय पंचायत को सौप दिये गए थे। राय जी गए, तब बादशाह ने कहा, आज आप जो मांगना आप गुप्तदानी और दयालु भी थे, जब किसी की हीन चाहें सो मांगलें । तब उन्होंने कहा कि जहापनाह-पाप स्थिति का पता चलता, तो अपने आदमियों के हाथ उनके की कृपा से मेरे पास सब कुछ है, परन्तु मेरे मित्र और घर लड्डुओं में मुहरें रखक रभिजवा देते थे, पर इस बात समाज वाले सब यह प्रेरणा करते है कि रथोत्सव कैसे को कभी प्रकट नही करते थे। यदि कोई वापिस करने निकाला जा सकता है ? इसी चिन्ता में मै हूँ। बादशाह . आता तो कह देते थे हमारी नहीं है, वे तो आपकी ही है ने कहा रथोत्सव निकालिये, शाही लवाजिम और जो चाहे आपको अपने भाग्य से ही प्राप्त हुई हैं। इस तरह वे सो राज्य से मिलेगा- तब हरसुखराय जी ने कहा, जहांप- समदत्ति और दयालुता के विवेक को जानते थे। नाह, आपकी कृपा से ही रथ निकल सकता है। अब सन् १८०३ (वि. स. १८६०) में अंग्रेजो ने दिल्ली मैं आपकी आज्ञानुसार रथोत्सव निकालने का प्रयत्न पर कब्जा किया, तब उनके कार्यों में भी सहायोग दिया करूंगा । पश्चात् उत्साह के साथ दिल्ली में प्रथम रथोत्सव और खजांची का कार्य करते रहे। उस समय हुकम तो निकाला गया।
बादशाह का चलता था किन्तु अधिकार अंग्रेजों का था। अन्य मन्दिर निर्माण कार्य
बाद में उन्होंने बादशाह को भी हटा दिया, और वे एक मात्र आपने केवल मन्दिर निर्माण ही नहीं वराया, किन्तु शासक रह गये। नये मन्दिर में विशाल शास्त्रों का संकलन भी कराया, जो इस तरह धार्मिक जीवन व्यतीत करते हुए आपने
आज भी अच्छी अवस्था में मौजूद है । और जिस में अनेक स० १८७६ के लगभग कोठी का साझा परस्पर बांट दिया प्राचीन प्रतियाँ ग्रन्थ सम्पादन में उपयोगी हैं और वे बाहर और नि शल्य बन गये । उसके एक वर्ष बाद सं० १८८० विद्वानों के पास भेजी जाती हैं। दिल्ली के अतिरिक्त में उन्होंने अपने शरीर का परित्याग किया।