________________
किरण १]
भगवान महावीर और उनका सन्देश
श्रीने निम्न सबैयामें ज्ञानके स्वरूप और उपयोगिताको निरुपाची मातम समाधिमें विर जे ताते, अच्छी तरह मतकाया है:
कहिये प्रगट पूरण परमहंस है।" "ज्ञान उदै जिनके घट अन्तर,
कविवर कैमा प्रका वर्णन किया है। शानकी पति, ज्योति जगी मति होत न मैली, भारमदर्शन तथा स्वानुमवके कारण इसकी सारी क्रियाएँ बाहिद रष्टि मिटी जिन्हके हिय,
सामगुद्ध तथा पारमाभिरुचिको लिए हुए होती हैं। वहां प्रातमध्यान कला विधि फैली, राग, द्वेष, संशय, संकल्प-विकल्प भादिको जगह नहीं। जे मद चेतन भेद बखे लो,
वह पूर्णताकी भोर बढ़ा रखा जाता है। अपने बिमब विवेक लिये परखे गुण थैली, और उत्कृष्ट शुक्खध्यान द्वारा वह पारमा परम पवित्र, परम ते अगमें परमारथ जानि ,
शुद्ध होकर अत्यन्त उत्कृष्ट अवस्था अर्थात् मुक्त अवस्थाको गहे रुचि मानि अध्यातम सैनी।" पहुंच जाता। ध्याता ध्यान और ध्येबमें तथा सारांश रादात्मानुभव ही सच्चा सुका। यही उसे सम्यग् दशन, ज्ञान और चारित्ररूपी रत्नत्रयमें अपने विवेक होता है अपनी अद्वितीय व असामान्य असीम शक्ति
भापको मिल पाता है। अब यह हमेशाके लिए कर्म की पहचान होती है। अब वैभाविक या मोह..क्रोध,
मझ से छूटने के कारण अपने स्वाभाविक तथा स्वाधीन कषाय, दुख रोग, क्लेश भादिके वशीभूत नहीं होता।
वीतराग पदमें तन्मय होजाता हैवह भव परमार्थको समझने लगता है। अब ऐन्द्रियक
"जानी मेरे बाबकी जित देखू तित बाब, सुखोंको वह दुःखोंका कारण समझता है। इससे उसकी
बानी देखन मैं गई मैं भी हो गई लाख ॥" तृप्ति नहीं होती। वह तो अखण्ड अविनाशी तथा स्वाधीन
क्या पते की बात कही गई है! कितना मधुर संगीत सुखकोबी अपना पैदायशी-बकि अनादि एक सममता छेदा है !! कैसा सुख और धर्मका वैज्ञानिक रूप है! है। उसकी मांखोंमें दिग्य तेज मनकने बगता । स्वा.
भगवान वीरने अपने मनम उपदेश द्वारा बतला रमानुभवके कारण अनायास ही कोकी निर्जरा होने लगती दिया कि धर्म ददनेसे नहीं मिलता वा मारमगत है। है। उसकी प्रत्येक क्रिया भव उसे उत्तरोत्तर प्रतिक्षण स्वा. भीतरकी भावा । उसी स्वाभाविक अन्तरध्वनिको स्मानुभव और चित्तशुदिकी तरफ अग्रसर करती रहती है। सुनना, उसीके अनुकूल वर्तना, उसीके होलाना, उसीमें अब भारमदर्शन और माम-ज्ञान हो जाता है, तो स्वाभा- अपने आपको मिटा देना, इसी बेखुदीको रत्नत्रय रूप धर्म विक तौरपर ही मारमविकासकी भोर वह सक्रिय हो जाता कहा गया है। यही भगवान महावीरका सन्देश है। है।इसीका नाम सच्चा चारित्र या सम्यगचारित्र है। इसी
इसी सन्देशको विश्वके कोने-कोनेमें पहुंचानेकी भावमार्गपर चमते रहनेसे अनन्त गुणी निर्जरा होने लगती श्यकता । खेद है कि भाज बीरानुयायी उदारताको और वह सिद्धि के सोपानपर द्रुतगतिसे चदना प्रारम्भ कर
छोड़कर संकीर्णताको अपनाये हुए हैं । धर्मको अपनी देता है:--
मीरास समझने लगे हैं और वह भी उसको विकृत करके। "जहाँ शुद्ध जानकी कता उद्योग दीसे,
माज प्रथहीन, खोखली और बारम्बरपूर्ण रीतियोंको तहाँ शुद्धता प्रमाण शुद्धचारित्रको अंश है, अपनाकर-वह अपना भारमकल्याण चाहते हैं । जिस ता कारण ज्ञानी सब जाने ज्ञेव वस्तु मर्म,
धर्मने सारे विश्वको शान्तिका पाठ पढ़ाया-उसके अनुवैराग्यवितास धर्म काको सरवंश है,
यायी कषायोंके वशीभूत होकर शान्तिपर कुठाराघात करने राग, द्वेष मोहकी दशासों मिड रहे पाते,
से मरा भी नहीं हिचकिचाते ! इसके विशाब साहित्यको सर्वथा त्रिकाल कर्मजातसों विध्वंस है,
प्रकाशमें जाकर धमका मचा प्रचार करना भावश्यक है।
(पूर्वार्ध)