Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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नियुक्तिकार ने द्वितीय श्रुतस्कन्ध को स्थविरकृत माना है। इससे स्पष्ट होता है कि द्वितीय श्रुतस्कन्ध पीछे से जोड़ा गया है। चूर्णि में आदि, मध्य और अन्तिम मंगल के प्रकरण में प्रथम श्रुतस्कन्ध के अन्तिम वाक्य को अन्तिम मंगल कहा है। इससे भी उक्त पक्ष को समर्थन मिलता है। भारतीय श्रुत-साहित्य के विचारक जर्मन विद्वान प्रो. हर्मन-जैकोबी भी प्रथम श्रुतस्कन्ध को ही मौलिक मानते हैं। आज के कुछ विचारक सन्त एवं विद्वान भी द्वितीय-श्रुतस्कन्ध को पीछे से संबद्ध किया हुआ मानते हैं। परन्तु नन्दी सूत्र एवं समवायांग सूत्र दोनों श्रुतस्कन्धों को मौलिक मानते हैं। प्रस्तुत आगम के व्याख्याकार श्रद्धेय स्व. आचार्य श्री आत्माराम जी महाराज भी उभय आगमों के मत से सहमत हैं। परन्तु भाषा एवं विषय की दृष्टि से देखने पर ऐसा लगता है कि नन्दी और समवायांग का संकलन होने के पूर्व द्वितीय श्रुतस्कन्ध को प्रथम के साथ सम्बद्ध कर दिया गया होगा। इतना तो स्पष्ट है कि प्रथम श्रुतस्कन्ध की विषय-निरूपण-पद्धति द्वितीय श्रुतस्कन्ध से सर्वथा भिन्न है। प्रथम श्रुतस्कन्ध में आचार का सैद्धान्तिक निरूपण किया गया है, उसकी भाषा भी गूढ़ है और सूत्र-संक्षिप्त शैली है। थोड़े शब्दों में बहुत कुछ या सब कुछ कहने का प्रयत्न किया गया है। द्वितीय श्रुतस्कन्ध में ऐसी बात नहीं है। उसमें आचार के नियमों का परिगणन किया गया है, इसलिए उसकी भाषा और शैली भी सरल है। और यह भी स्पष्ट है कि द्वितीय श्रुतस्कन्ध चूला रूप है, उसमें पांच चूलाएं हैं। वर्तमान में चार चूलाएं ही हैं, पांचवीं ‘आयारप्पकप्प' चूला जिसे निशीथ भी कहते हैं, इससे पृथक् कर दी गई और वह स्वतन्त्र रूप से छेद सूत्र के रूप में स्वीकार कर ली गई। चूलाएं जोड़ने की परम्परा बहुत पुरानी रही है। मूल ग्रंथ को स्पष्ट करने के लिए उसके साथ चूलाएं जोड़ दी जाती थीं। आचारांग का प्रथम श्रुतस्कन्ध भी विशिष्ट साधुओं के लिए उपयोगी था। सर्व साधारण उसका अनुशीलन करके उसे हृदयस्थ नहीं कर पाते थे। इस कठिनता को दूर करने के लिए द्वितीय श्रुतस्कन्ध को सर्वसाधारण के लिए उसके साथ संलग्न कर दिया होगा। विषय की दृष्टि से देखते हैं तो जो बात द्वितीय
1. आचारांग नियुक्ति पृ. 31-32 2. अचारांग चूर्णि, पृ.1 3. Sacred Book of the East, Vol 22, Introduction, P.47.
-By Jacobi.