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THE FREE INDOLOGICAL
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-The TFIC Team.
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महावीर का अन्तस्तल
अर्थात् जैन तीर्थंकर म. महावीरकी डायरी
-: लेखक :स्वामी सत्यभक्त संस्थापक-सत्यसमाज
-: प्रकाशक :सत्याश्रम वर्धा म. प्र.
धनी ११६५३ इतिहास संवत
अक्टूबर १६४३
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: मुल्य :--
रुपया
आठ शिलिंग
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प्रकाशक
लालजीभाई सत्यस्नेही मन्त्री- सत्याश्रम मंडल वर्धा
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सदाशिव गोमाशे : मैनेजर- सत्येश्वर प्रि. प्रेस वर्धा,
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विष्य सूची
ATMAITER
प्रास्ताविक - २- महामानव का जीवन २- जीवन सामग्री ३- महावीर जीवन और जैनधर्म ४- अन्तस्तल ५- तुलना ६- दैनन्दिनी की तिथियाँ
महावीर का अन्तस्तल१- अशान्ति २- भीगी आंखें ३-फीका वसन्त ४-यांसुओं का द्वन्द ५-मां की शकि ६-- अधूरी सान्त्वना ७- संन्यास और कर्मयोग ८-सीता उर्मिला के उपाख्यान ९- नारी की साधना १०- सर्वज्ञता की सामग्री ११- पितृवियोग १२- मातृ वियोग १३- भाई जी का अनुरोध १४- गृह तपस्या १५- उलझन
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१६- देवी की अनुमति १७- निष्क्रमण
१८- अब भी राजकुमार १९- पारिपार्श्वक एक बाधा
२०- रस समभाव
२१- केश लौच २२- अदर्शन विजय
२३- तापसाश्रम में
२४. शूलपाणि यक्ष का मन्दिर २५- दम्भी का भण्डाफोड़
२६- वस्त्र छूटा २७- अहिंसा की परीक्षा
२८- शुद्धाहार
२९- सत्कार विजय
३०- संवर्तक ( बड़ा तूफान ) ३१- गोशाल
३२- नियतिवाद के वीज ३३- उदासीनता की नीति
३४- एक राज्य की आवश्यकता
३५- शृंगार का प्रवाह ३६ - वीभत्स टोटके
३७- पथिक का उत्तरदायित्व
३८- श्रमण विरोध ३९- दुःख निमन्त्रण हेय ४० - स्वघातक विद्वेष
४१ - यक्षपुजारी की श्रमणभक्ति
४२- जीवसमास और अहिंसा ४३ - विरोध और सभ्यता
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४४- मल्लि अन्त ४५- सत्य और तथ्य
४३- पांच व्रत ४७ - वार्डस परिषद
४८- मन्त्र तंत्र
४९ - गणतन्त्र और राजतंत्र
५० - अनुमति की आवश्यकता ५१- अवधिज्ञानी आनन्द ५२ - सर्वज्ञता
१५३- त्रिभंगी
५४. सप्तभंगी
५५- दासता की कुप्रथा ५६ - स्वप्न जगत् ५७ - क्यों लुटे
५८- तत्त्व
५९ - पुण्य पाप ६०- शुभत्व के दो किनारे ६१- तप त्याग का प्रभाव ६२- निमित्त और उपादान ६३ - दासता विरोधी अभिग्रह
६४ - जीवसिद्धि
६५ संघ की आवश्यकता
६६ - गुणस्थान ६७- केवलज्ञान ६- लोक संग्रह के लिये
६९ - मुख्य शिष्य ७० साध्वी संघ
७३- सफल प्रवचन
१.७२
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७२- मनोवैज्ञानिक चिकित्सा ७३- नन्दीपेण की दीक्षा ७४- जन्मभूमि दर्शन ७५- जयन्ती के प्रश्न ७६- गौतम की क्षमायाचना ७७- स्वाभिमानी शालिभद्र ७--कालगणना ७९- कठोर अनुशासन ८०- देवलोक की अवधि ८१- चतुरता का उपयोग ८२- अनेकांत का उपयोग ८३- परिचित की ईर्ष्या ८४- मृगावती की दीक्षा ८५-शव्दालपुत्र ८६- पत्नी का अपमान ८७- स्कन्द परिव्राजक ८८- जमालि की जुदाई ८९- गोशाल का आक्रमण ९०- मेरी बीमारी ९१- प्रियदर्शना का पुनरागमन ९२- केशी गौतम संवाद ९३- सामायिक पर आक्षेप ९४- राज्य को दुलत्ती ९५- सोमिल प्रश्न ९६- श्रमणोपासक परिव्राजक ९४- गांगेय ९८- गौतम प्रश्न ९९- पञ्चास्तिकाय
२९५ २९८ ३०२ ३०४ ३०९
३१०
३११
३१६
३२३
३२४.
૩૨૮ ३३२
३
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१००- भेदभाव का बहाना १२- जीव कर्तृत्व १०२-तत्व अतत्त्व १०३- निर्वाण
म. महावीर और लत्यसमाज सत्यसाहित्य
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अन्तस्तल की साधना . महावीर के अन्तस्तल को लिपिबद्ध करनेवाले महान सत्पुरुष ने वर्द्धमान स्वामी के जीवनचरित्र और संदेशों पर मनन करते समय इतना प्रवल परिश्रम किया है, जितना संसार के किसी वैज्ञानिक आविष्कार करनेवाले व्यक्ति ने शायद ही किया हो। मेरा विश्वास है कि आज तक किसी भी धर्म के संस्थापक और उसके नाम से प्रचलित शास्त्रों पर इतना दम, मौलिक और तथ्यपूर्ण विवेचन नहीं हुआ। इस ग्रन्थ को लिखते समय, सुनाते समय लेखक ने आँसुओं की धाराओं से अपने आसपास के वातावरण को विचारों के रस से परिप्लावित कर दिया है । जिस जिसने महावीर के अन्तस्तल का महाभिनिप्क्रमण अध्याय पढ़ा है उस उसकी छाती कठोर से कठोर हो तो भी कोमल बनकर निचुड़े विना नहीं रही है। महापुरुषों के दिलको समझने के लिये महापुरुष ही चाहिये । सचमुच महावीर के अन्तस्तल को लिखते समय स्वामी सत्यभक्तजी स्वयं महावीरमय होगये हैं।
हमारा कोटि कोटि वन्दन । बार्शी (सोलापुर)
सूरजचन्द सत्यप्रेमी
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-: अन्तस्तल के लेखक :
स्वामी सत्यभक्त
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ती पड़ी है सीमकार अन्धा है। महा
धास्ताविक १- महामानव का जीवन -
महात्मा महावीर सरीखे हजारों वर्ष पुराने महामानवा का चरित्र मिलना बहुत कठिन है। क्योंकि उस समय इतिहास को सुरक्षित रखने के तने साधन नहीं थे जितने आज हैं। फिर जो व्यक्ति हजारों लाखों व्यक्तियों का देव वनगया हो उसका जीवन भक्तिवश इतना अतिरञ्जित कर दिया जाता है कि घटनाएँ ज्ञात होने पर भी असम्भव कोटि में पहुँच कर, अविश्व. सनीय बनकर, व्यर्थ होजाती हैं। महात्मा महावीर की जीवन सामग्री भी इसीप्रकार अन्धश्रद्धाओं और विस्मृतियों के नीचे दबी पड़ी है। जो विस्मृतियों के नीचे दब गई है उसका तो कोई उपाय नहीं है परन्तु जिनपर अन्धश्रद्धा का आवरण पड़ा है उन्हे आवरण हटाकर देखना कष्टसाध्य होने पर भी सम्भव है।
अन्धभक्त लोग भक्ति के आवेग में जो कह जाते हैं उससे वे समझते हैं कि इससे उनने उस महामानव के प्रति कृतज्ञता प्रगट की है, इसप्रकार उपकार का कुछ बदला चुका है जब कि वे अन्धश्रद्धाओं से अपकार ही करते हैं।
महात्मा महावीर कितने अनुभवी थे, लोकसेवक थे, अन्हें भीतरी बाहरी कठिनाइयों का फैसा सामना करना पड़ा. वे किस प्रकार की क्रांति कर गये, अन्हें झुन्ही के आदमियों ने कितना सताया, पर उसमें वे किस प्रकार अचल रहे आदि बातों का पता अन्धश्रद्धालुओं के महावीर-जीवन से नहीं लगता। अन्धश्रद्धालुओं की दृष्टि से महावीर के जन्म समय देव आये, उनके साथ देव खले, दक्षिा के समय देवों ने पालकी झुठाई इन्द्रादि देवता मौके मौके पर हाजिर होते रहे, देवाङ्गनाएं उनके सामने नृत्य करती रहीं। ऐसे महावीर एक तीर्थंकर की तरह लोकसेवक नहीं रहते किन्तु पुदतनी बादशाह की तरह पुण्य
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फल के भोगी रहते हैं।
जैनों ने (कर्मवाद के भीतर ) तीर्थकरत्व को सब से बड़ी पुण्य प्रकृति ( देव ) मानलिया है, जिसका भोग तीर्थकर करते हैं। वह पुण्य प्रकृति चक्रवर्ती या सम्राट से भी बड़ी है। इसप्रकार तीर्थकरत्व भोग-प्रधान वनगया है। वह जगत्सेवा की बड़ी कठोर साधना है, कांटों का ताज है, यह वास्तविकता जैनों की दृष्टि से ओझल होगई है। इसलिये वे महावीर सरीखे महान कष्टसहिष्णु तीर्थकर की वास्तविक महत्ता न समझ पाते हैं, न समझा पाते हैं। हिंदू धर्म के अवतारवाद की छाप ने भी तीर्थकर के जीवन को इसप्रकार वेकार कर दिया है।
.अन्धश्रद्धालुओं के महावीर पूजनीय देव हैं अनुकरणीय महामानव नहीं, ऐसी हालत में जब कि आज के वैज्ञानिक युग ने देवताओं की इतिश्री करदी है तब महावीर देव की भी इतिश्री होजाती है। वे किसी पौराणिक कहानी के कल्पित नायक के समान रह जाते हैं क्रांतिकारी ऐतिहासिक महामानव नहीं।
पर इसमें सन्देह नहीं कि वे एक महामानव थे। उनकी महत्ता देवताओं से सेवा कराने में नहीं, किन्तु दुखी दुनिया की सेवा करने में, उसका विवेक जगाने में, एक नई व्यवस्था कायम करने में थी । वे जन्म से मानव थे अपने त्याग तप अनुभव तर्क विवेक आदि से महामानव बने थे इसलिये सुनका जीवन अनुक. रणीय है, आज भी सम्भव होने से चिरन्तन है वास्तविक है।
___ अगर हम चाहते हैं कि मुट्ठीभर जैन लोग ही नहीं, किन्तु सारी दुनिया के लोग म. महावीर को समझे, उनके जीवन से प्रभावित हों, उनकी महामानवता की कद्र करें और सुनके सन्देशों से लाभ उठाये तो हमें बताना होगा कि जन्म. जात मानव राजकुमार वर्धमान, मानब से महामानव कैले बने ?
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किसी आसमानी देवों की फौज के सहारे नहीं, किंतु अपने दो मनोवल से विवेकवल से जगदुद्धारक कैसे बने ? उनका जीवन भी साधारण मनुष्य का जीवन था, उनकी परिस्थितियों भी साधारण मनुष्य के समान थीं, इसी दुनिया के भले बुरे आइमियों के सिवाय और कोई आसमानी प्राणिजगत अनका सहयोगी या विरोधी नहीं था । ऐसा महावीर चरित्र ही श्रदेव का जासकता है, अनुकरणीय कहा जासकता है, सच्चे महामानव का जीवन कहा जासकता है ।
२- जीवन सामग्री -
म. महावीर के माननेवाले आज दो फिरकों में बटे हुए हैं। एक हैं दिगम्बर दुसरे हैं श्वेताम्बर । इनके भी भेद प्रमेद है, पर मुख्य ये दो ही हैं । और महावीर जीवन सम्बन्धी मतभेद भी इन दो से ही सम्बन्ध रखता है । इनमें दिगम्बरों के पास महावीर जीवन सम्बन्धी सामग्री नहीं के बराबर है । मातापिता के नाम, जन्म मृत्यु के के एक दो स्थान या एका घटना वस, ऐतिहासिक सामग्री स्थान, उम्र, मुख्य शिष्यों के नाम विहार इतनी ही है। बाकी पूर्व जन्म की कल्पित कहानियाँ, देवों की कहानियाँ ही हैं । दिगम्बर इस मामले में भी दिगम्बर होगये हैं ।
श्वेतरों के पास यद्यपि पौराणिक कल्पित कहानियों और दिव्य चमत्कारों की कमी नहीं है परन्तु वास्तविक ऐतिहा लिक सामग्री भी काफी हैं । चमत्कारों के बीच बीच में महावीर की मानवता के भी काफी दर्शन होते हैं ।
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महावीर के जीवन के बारेमें जो दोनों सम्प्रदायों में मतभेद हैं वे विधिनिषेधात्मक उतने नहीं है जितने विधि उपेक्षाFan | श्वेताम्वर कहते हैं कि महावीर का विवाद हुआ था. दिगम्बर इसके निषेध पर जोर नहीं देते, किन्तु अपेक्षा करते हैं,
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३ - जो घटनाएँ वास्तविक तो मालूम हुई परन्तु उनमें अवास्तविकता का इतना मिश्रण मालूम हुआ कि वह विश्वसनीय नहीं रहीं उसे ठीक रूपमें सुधार दिया है । जैसे चण्डकौशिक सर्पवाली घटना |
४ -- जिन साधारण घटनाओं को देवताओं के साथ जोड़ दिया गया है, उन्हें मानुषीय रूप देदिया है। इससे वे घटनाएं स्वाभाविक और सम्भव मालूम होने लगी है और इससे महावीर स्वामी के व्यक्तित्व को कोई धक्का नहीं लगा है बल्कि विशेष रूपमें चमका है ।
५- जो घटनाएं अवधिज्ञान केवलज्ञान के अलोकिक अविश्वसनीय रूप के आधार पर चित्रण की गई थीं उन्हें प्रतिभा तर्क सूक्ष्मावलोकन आदि के आधार पर चित्रित किया गया है । इससे घटनाएं संभव और स्वाभाविक नगई हैं ।
६ - कहीं कहीं खटकनेवाली शून्यता को उचित कल्पनाओं से भर दिया है। जैसे महावरि के अनेक वर्षों तक दाम्पत्य जीवन में रहने पर भी, एक सन्तान के पिता होजाने पर भी, उनके दाम्पत्य जीवन का, पत्नी के साथ उनकी कोई बातचीत प्रेम या प्रेम संघर्ष का, जरा भी उल्लेख न होना खटकनेवाली शून्यता है । मैंने उसे कल्पित चित्रणों और वार्तालापों से भर दिया है। इसमें इस बात का ध्यान जरूर रक्खा है कि इससे महावीर के व्यक्तित्व को क्षति न पहुँचे, चित्रण उनके स्वभाव के विरुद्ध न हो, उनकी जीवन चर्या से मेल बैठाने वाला हो ।
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म. महावरि गृहस्थोचित कर्तव्य का निर्वाह करते हुए भी घर में ही वैरागी सरीखे रहे, यहां तक कि साधु सरीखे तर त्याग भी करने लगे, उनने गृहत्याग का संकल्प भी बहुत पहिल घोषित कर दिया था ऐसी हालत में उनकी पत्नी के मन पर क्या बीतती होगी, इधर महावीर का यह नियम था कि घर
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. वालों की अनुमति लेकर ही गृहत्याग करूंगा, ऐसी हालत में पत्नी की अनुमति के लिये उनके मनपर क्या बीतती होगी, इसका कोई चित्रण जैन शास्त्रों में नहीं है। पत्नी से तो अनुमीत लेने की भी बात नहीं है जो आवश्यक है, मर्मस्पर्शी है। मैंने इस मानसिक द्वन्द को काफी विस्तार से मनोवैज्ञानिकता के आधार पर लिखा है। इसमें पति पत्नी का व्यक्तित्व निखरा है, अपनी अपनी दृष्टि से महान बना है और स्वाभाविक भी रहा है।
इसीप्रकार भाई भौजाई आदि के साथ भी उनकी बातचीत का चित्रण किया है । इसी तरह जब वे अर्हत होकर जन्मभूमि लौटे हैं तब भी पुत्री के मुंह से पत्नी-मरण का समाचार ढंग से कहलाया है। और भी जहां जहां आवश्यक मालूम हुआ शून्यता को उचित ढंग से भरा है।
७-दो चार जगह ऐसी घटनाओं का भी चित्रण किया है जो कि महावीर की विचारधारा के अनुकूल रही है और उनकी विचारधारा की सार्थकता बताती रही हैं । जैसे अनेकांत की सार्थकता ताने लिये राजगृह में चार पंडितों की कथा।
इसप्रकार अधिकांश (८० फीसदी से भी अधिक) जीवन सामग्री जैन शास्त्रों से मिली है, कुछ खाली जगह मैंने भरी है। हां ! सव सामग्री का सुसंस्कार करके उसे सत्य और विश्वसनीय रूप मैंने दिया है, इससे महावीर जीवन की उपयोगिता काफी चढ़ी है ३- महावीर जीवन और जैनधर्म
कोई भी संस्था, खासकर धर्म संस्था, किसी महान व्यक्ति के जीवन की फली हुई छाया है । इसलिये जैन धर्म
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महावीर जीवन के ही आचार विचार का व्यवस्थित किया हुआ रूप है । जैनधर्म की कुछ बातें काफी पुरानी है, कुछ म. पार्श्व नाथ के सम्प्रदाय की हैं। परन्तु म. महावीर तीर्थकर थे इसलिये न तो वे किसी पुराने तीर्थंकर के अनुयायी थेन अपने अनुभव और विचार के सिवाय वे किसी अन्य शास्त्र को प्रमाण मानते थे । उनके विचार किसी शास्त्र से मिलजायं तो भी ठीक, नहीं तो इसकी उन्हें पर्वाह नहीं थी ।
यो तीर्थकर भी पुराने लोगों से कुछ न कुछ सीखते तो हैं ही, मानव समाज की प्रगति पुराने लोगों की ज्ञान सामग्री का सहारा लेकर आगे बढ़ने से हुई है। तीर्थंकर के कार्य और विचार भी इसके अपवाद नहीं है । पर तीर्थकर की विशेषता यह है कि परीक्षक के तौर पर वह सारी सामग्री की जांच करता है अपने अनुभवों से मिलाता है, जो ठीक मालूम होती है लेता है जो युगवाह्य या समयवाह्य मालूम होती है उसे छोड़ता है, और देश काल के अनुकूल नया सर्जन करता है । म. महावीर के घर में चाहे म. पार्श्वनाथ का धर्म चलता रहा हो चाहे श्रमण परम्परा का कोई और अविकसित रूप, म. महावीर उसे प्रमाण मानकर नहीं चले । उस सामग्री से उनने अपनी बुद्धि का संस्कार जरूर किया और उसका उपयोग नवनिर्माण के लिये जगत रूपी खुले हुए महान ग्रंथ को पढ़ने में भी हुआ, पर उसे पढ़कर उनने देश काल के अनुकूल आचार विचार का नया ही तीर्थ बनाया । वही जैनधर्म, जैनतीर्थ, या जैनसम्प्रदाय कहलाया । इसलिये जैन धर्म का जो रूप ढाई हजार वर्ष पहिले था वह उन्हीं के विचारों का परिणाम था। आज जैनधर्म में कुछ विकृति भी आगई है पर उसका मूल आचार विचार म. महावीर की ही देन है ।
जो लोग यह समझते हैं कि अनादि से अनन्त काल के लिये जैन धर्म का एक रिकार्ड बना हुआ है जिसे हरएक तीर्थ
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कर ज्यों का त्यों बजा जाता है वे न तीर्थंकर के महान पुरुषार्थ
को समझते हैं न उसके आने की उपयोगिता, न धर्मसंस्था का । रूप । पुराना रिकार्ड तो साम्प्रदायिक आचार्य बजाते ही रहते " है, म. पार्श्वनाथ का रिकार्ड आचार्य केशी बजा ही रहे थे, इसके लिये तीर्थकर की जरूरत नहीं होती. उसकी जरूरत होती है युग के अनुसार एक नया धर्म, एक नई धर्म संस्था, एक नया धर्मतीर्थ बनाने के लिये।
- अहिंसा सत्य आदि धर्म के मौलिक तत्व भले ही अनादि अनन्त हो, पर वे किसी एक धर्म की या धर्मसंस्था की वपाती नहीं होते । व सभी के हैं । फिर भी दुनिया में जो जुदजुदे धर्म है अनके भेद का कारण सुन मौलिक तत्वों को जनके और
समाज के जावन में उतारने की भिन्न भिन्न प्रणाली है। . देशकाल और पात्र के भेद से यह प्रणालीभेद पंदा होता है । जैनधर्म भी आज से ढाई हजार वर्ष पहिले मगध की परिस्थिति और म. महावीर की दृष्टि के अनुसार बनी हुई एक प्रणाली है।
इसका निर्माण एक दिन में नहीं हुआ, अन्तर्मुहर्त के शुक्लध्यान से केवलज्ञान पैदा होते ही सब का सब एक साथ नहीं मलक गया । उसके लिये म. महावीर को गाईस्थ्य जीवन के साढ़े-उन्तीस वर्ष के अनुभवों के सिवाय साढ़े बारह वर्ष के तपस्याकाल के अनुभवों से तथा दिनरात के मनन चिन्तन से .. काम लेना पड़ा। इसके बाद भी तीस वर्ष की कैवल्य अवस्था
के अनुभवों और विचारों ने भी उसका संस्कार किया। तब जैन. चर्म का निर्माण हुआ। आचार के नियम, साधुसंस्था का ढांचा, विश्वरचना सम्बन्धी दर्शन, प्राणिविज्ञान, आदि सभी बातों पर महावीर जीवन की पूरी छाप है । ये सब उनके जीवन की घटनाओं से उनके मनन चिन्तन और अनुभवों से सम्बन्ध रखते हैं।
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... जनधर्म सम्बन्धी आचार के नियमों का; तथा दार्शनिक मान्यताओं का मर्म तब तक समझ में नहीं आसकता जब तक यह न मालूम हो कि महावीर के जीवन में वे कौनसी घटनाएँ थीं जिनसे प्रेरित होकर उन्हें ये नियम बनाना पड़े । सौभाग्य - से जैन साहित्य महावीर जीवनसम्भन्धी ऐसी अनेक घटनाएं मिलजाती है। बहुतसी नहीं मिलती । जो मिलती है उन्हें मैंने इस अन्तस्तल में स्पष्ट किया है । और उनका कार्य कारणभाव बताया है। जो नहीं मिलती उनमें से कुछ को सम्भावना और मनोविज्ञान के आधार पर चित्रित किया है । इससे यह बात साफ होजाती है कि जैनधर्म म. महावीर के जीवन की फैली हुई छाया है और महावीर जीवन जैनधर्म का मूर्तिमन्तरूप है । अन्य किसी भी जैन शास्त्र को पढ़ने की अपेक्षा इस अन्तस्तल को पढ़ने से पाठकों को इस सम्बन्ध का अधिक ज्ञान होगा । जैन मान्यताओं की उपपत्रि यहां काफी स्पष्टता से बताई गई है।
४- अन्तस्तल --- ... ..
__ इस पुस्तक में संशोधित किया हुआ पूरा महावीर जीवन और जैनधर्म के खासखास आचार-विचारों का अच्छा. . परिचय देदिया गया. है । परन्तु यही इस पुस्तक की विशेषता नहीं है । विशेषता यह भी है कि सब बातें म. महावीर के शब्दों में उनके अन्तस्तल के चित्रों में बताई गई हैं। यह काम जितना कठिन है उतना ही दिलचस्प भी है। .
महामानव की भावनाओं को समझना कठिन है। फिर ढाई हजार वर्ष पुराने महामानव को समझने में तो और भी कठिनाई होना चाहिये । पर सौभाग्य इतना है कि म. महावीर के जीवन की घटनाएँ तथा उनके सिद्धांत विचार चर्या बोलचालका ढंग आदि जानने की सामग्री इतनी भरी पड़ी है कि
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उसके आधार पर महावीर जीवन के भीतर बाहर का चित्र संयोगपूर्ण तैयार किया जासकता है। कार्य कठिन अवश्य है और काफी कठिन है पर असम्भव नहीं है ।
जुन अन्यद्धालुओं को इसने सन्तोष न होगा जिनका विश्वास है कि महावीर स्वामी तो कुछ सोचते विचार होन थे, उनके मन में बड़ी-बड़ी दुर्घटना के लामने कोई चिन्ता के भाव आते ही न थे | उनने म. महावीर को ऐसा फोनोग्राफ बना दिया है जो अनादि काल से रक्खे हुए रिकार्ड के नये बजाया करता है, पर दुनिया की घटनाओं से जिसका कोई ताल्लुक नहीं है । अन्वश्रद्धालु लोग इसमें म. महावीर की महत्ता देखते है पर इससे म. महावीर का व्यक्तित्व बिलकुल नए होजाता है और इससे उनकी वास्तविक महत्ता नष्ट होती है। : जिसके हृदय में दुनिया को दुःखी देखकर करुणा के भावन आते हो, संसार के दुःख दूर करने की चिन्ता न पैदा होती हो. दम्भयों ढोंगियों और ठर्गों के कुकार्यों का किसी न किसी रूप में विरोध करने का प्रयत्न न होता हो, अपने शिष्यों और अनुयायिओं के जीवन को देखकर उन्हें सुधारने की जो कोशिश न करता हो ऐसे आदमी को महामानव जगदुद्धारक आदि कैसे कह सकते हैं । पर अन्धश्रदालुओं को यह असंगति नहीं दिखती।
फिर अन्धश्रद्धालुओं की मान्यता बिलकुल ववैज्ञानिक और अविश्वसनीय है। वे अपने भोलेपन के कारण म. मा के व्यक्तित्व को कितना भी नष्ट करें पर उनका जीवन-चि इतना अधिक उपलब्ध है, उनके फार्णे का ब्यौरा भी इतना अधिक हैं कि अन्धश्रद्धालुओं की बातें हंसकर ना देने नायक ही रहजाती है। समझदार लोग महामानव महावीर का जीवन. उनके हृदय की विशालता, और समयसमय पर उसमें बाये हुए तूफानों को देख सकते हैं ।
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- मैंने भी उपलब्ध सामग्री के सहारे पूरी मनोवैज्ञानिकता और तन्मयता के साथ महावीर हृदय को पढ़ने की कोशिश की है । इस विषय में मैंने इन दोनों किनारों को सम्हालने की । कोशिश की है कि म. महावीर की महामानवता को धक्का न लगे और उनकी मानवता नष्ट न होजाय । साथ ही इस बात का भी पूरा ध्यान रक्खा है कि उनके भावचित्र: उनके स्वभाव से तथा कायों से मेल खाते हो। अन्तस्तल के इन चित्रों से घटनाओं का, सिद्धान्तों का, जैनधर्म के आचार-विचारों का मर्म समझने में काफी सहूलियत होती है। ५- तुलना--
महावीर जीवन और जनधर्म का जो रूप शास्त्रों में उपलब्ध है उसी के आधार से यह अन्तस्तल लिखा गया है फिर भी इसमें कुछ परिवर्तन हुआ है, सुधार हुआ है। जो लोग जैनधर्म के अच्छे विद्वान जानकर हैं व तो इस अन्तर को जल्दी समझलेंगे पर अन्य पाठकों को इसमें कठिनाई होगी इसलिये यहां वह सब अन्तर या विशेषता संक्षेप में बतादी जाती है और विशेषता क्यों लाई गई इसका कारण भी साफ कर दिया जाता है। . . .
१- अशांति-यह प्रकरण २२ वै पृष्ठ तक है। यद्यपि कल्पित है परन्तु महावीर जीवन के अनुरूप है और आवश्यक है। इससे मालूम होता है कि उस युग की जिन सामाजिक बीमारियों की चिकित्सा महावीर स्वामी ने की, जिनकेलिये गृह त्याग किया उनका दर्शन गृहस्थावस्था में अवश्य हुआ होगा।
२- यशोदादेवी-जगत्सेवा के लिये महावीर के मन में जब से गृहत्याग के विचार आये तभी से उनकी पत्नी यशोदा, देवी चिन्तित हुई। अपने दाम्पत्य के गौरव की रक्षा करते हुए
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भी उनने महावीर को गृहत्याग से विरत करने के लिये जो कौशलपूर्ण यत्न किये वे सुनके पूर्ण प्रतिप्रेम के परिचायक तो है ही, साथ ही एक सम्भ्रांत कुल की वधू के योग्य भी हैं। यद्यपि नारी के साथ एक प्रकार की दुश्मनीसी रखनेवाले जैन शास्त्रकारों ने यशोदादेवी को बिलकुल भुला दिया है परनिने लम्बे युग में यशोदादेवी ने अपने पति से कुछ भी न कार हो यह असम्भव है । जो कुछ सम्भव था उसका वर्णन मैंने काफी विस्तार से किया है । दृसरे प्रकरण (पृष्ट २३ ) से १६ व प्रकरण (पृष्ट ६४) तक यह अन्तस्तल महावीर के अन्तलल के साथ यशोदा का अन्तस्तल बनगया है । यशोदादेवी के निमिन ने महावीर जीवन की कई बात स्पष्ट हुई हैं। इसमें मुख्य है लौकान्तिक देवों की घटना।
जैन शास्त्रों में महावीर जीवन के साथ जिसप्रकार देय. ताओं को मिला दिया गया है वह तो अविश्वसनीय और मिथ्या है ही, पर लोकान्तिक देवों का आगमन तो बिल्कुल व्यर्थ भी मालूम होता है। पर इसका चित्रण जिस प्रकार यशोदादयां की अनुमति के प्रकरण ( १६वें) में किया गया है, असले लोका. न्तिक देवों चाली घटना एफ आवश्यक, महत्वपूर्ण और सन्मय घटना बनगई है । और उसकी सुठो दिव्यता भी दूर होगा।
ग्वाल के आक्रमण पर इन्द्रागमन की बात भी १९. में प्रकरण में काफी साफ रूप में आई है। और इसमें यहादादेवी की योजना के मिलने से यह सम्भव रूप तो पा दी गई साय ही यशोदादेवी का प्रतिप्रेम चरमसीमा पर पांगरा और सारा चित्र करुण रस से भर गया है।
जैन शास्त्रों में यशोदादेवी का वर्णन सिर्फ दो पीला में है कि " यशोदा नाम की राजकुमारी ले वर्धमान कुमार का
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विवाह हुआ और उससे प्रियदर्शना नाम की पुत्री पैदा हुई, पर इल अन्तस्तल में यशोदा के लिये ७० पृष्ठ रुके हैं। इससे अन्तस्तल रसीला ही नहीं होगया है किन्तु महावीर जीवन की अनेक घटनाओं को सम्भव तथा महत्वपूर्ण और आवश्यक बना. गया है। पाठक पढ़कर ही इसकी विशेषता और महत्ता समझ सकेंगे। । ३- बीसवें प्रकरण में रसलमभाव की घटना जैन
शास्त्रों की है मानसिक चित्रण मेरा है जो जन शास्त्रों के • अनुकूल है।
४-२१ वे प्रकरण में युवतियों का प्रलोभन जैन शास्त्र वर्णित हैं । उपयुक्त समय समझकर केश लौच का विधान बना दिया गया है जो जैन साधुता के लिये आज भी अनिवार्य बना हुआ है।
५-२२ वें प्रकरण ने प्रदर्शन परिषद की उपयोगिता बताई गई हैं जो स्वाभाविक है।
६- २३ चे प्रकरण में तापसाश्रम की घटना जैन शास्त्रों की है यहां तक कि संवाद के खास शब्द भी वहीं के हैं। बहुत से जैनों को इसमें महावीर की लघुता होगी पर वह बिलकुल स्वाभाविक है और इससे महामानव की महत्ता को धक्का नहीं लगता।
७-२४ वे प्रकरण में शूलपाणि यक्ष की घटना शास्त्रोक्त । है पर उसकी कल्पित दिव्यता दूर कर उसे वैज्ञानिक बनादिया गया है।
--- २५ वे प्रकरण की घटना भी शास्त्रोक्त है पर उसमें अवधिज्ञान और इन्द्र को लाने की बात बेकार है। म. महावीर की मनोवैज्ञानिकता और सूक्ष्म निरीक्षकता से वह
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घटना ठीक बनगई है । कुछ लोग समझात है कि महावीर सरीखे गम्भीर प्रकृति के महामानवब के मन में पंसे शुद्र आदमी से संघर्ष करने की बात टोक नहीं मालूम होती । टोक हो या न हो पर नाना कल्पनाओं से भी महावीर की प्रशंसा, करनेवा जैन शास्त्र यदि ऐसी घटना का उल्लेख करते हैं तो इससे वे महावीर जीवन के किसी तथ्य को प्रगट करने में ही विवश होजाते हैं। ऐसी घटनाएँ झुटी नहीं कहा जासकती।
म. महावीर फ्रांतिकारी थे, दम्भ और अन्धविश्वास के विरोधी थे ऐसी हालत में यह स्वाभाविक है कि वे ऐले मांडा के भण्डाफोड़ के लिये तत्पर होजाय । महामानव तुका आद. मियों से बात नहीं करते या रनले आवश्यक संघर्ष नाही कग्नं ऐसी बात नहीं है । सास फर साधक जीवन की प्रारम्भिर अवस्या में ऐसी घटनाएं स्वाभाविक हैं और अमुक अंग में आवश्यक भी।
९- वस्त्रटने की बात जन शाखोक्त।
१०- २७ वे प्रकरण में चउकोशिक सर्ग की घटनाओं को अलौकिक चमत्कार तथा पूर्व जन्म की बाधा से जोड़ दिया गया है । मैंने घटना नो ज्यों की त्यों रखी । पर चराग को हटाकर मनोवैज्ञानिक आधार पर घटना को सुनंगा : दिया है।
११- २८ व प्रकरण में शुद्धादार की घटना शोना है। मांसविरोध की उक्तियाँ, तदनुसार चित्रण और वानीलार मेरा है।
१२- २९ वें प्रकरण की घटना भी शारजोता है पर उसका कारण बनाने में महावीर की प्रकृति के अनुल विचार मेरे हैं। इससे म. महावीर की निस्पृहता में चार रांद लगे हैं।
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. १३-३० वें प्रकरण को साधारण घटना को फजूल ही शास्त्रकारों ने देवों का संघर्ष बना दिया है। मैंने उस संघर्ष के । रूप को जन मन का चित्र बना कर उसकी अविश्वसनीय चमत्का. रिकता हटादी है। इससे म. महावीर की महत्ता अधिक ही प्रगट
१४-३१, ३२, ३३, वे प्रकरण में गोशाल सम्बन्धी घटनाएँ शास्त्रोक्त है । पर उसमें आई हुई अलोकिकता हटाकर उसका स्थान मनोवैज्ञानिकता को दिया है। और घटनाओं के अनुकूल विचार प्रगट किये हैं।
१५-३१ से ३७ तक के प्रकरण भी शास्त्रोक्त है। परन्तु दिव्यज्ञान को मनोविज्ञान और सूक्ष्म निरीक्षण बताया है । जैनशास्त्रों में चक्रवर्ती की आवश्यकता क्यों मानी गई इसका काफी अच्छा कारण पेश किया गया है (प्रकरण ३४ ) विवेचन का तरीका तथा युक्तियाँ मेरी है।
१६-म. महावीर सरीखे शान्त वीतराग व्याक्त को जितने कष्ट सहना पड़े वे बहुत आश्चर्यजनक हैं । शास्त्रकार तो कहते हैं कि पूर्व जन्म के पाप के उदय से ऐसा हुआ । परन्तु म. महावीर के किसी भी शिष्य को केवलज्ञान पैदा होने के पहिले इतने कष्ट नहीं झुठाने पड़े जितने कि म. महावीर को केवलज्ञान के पहिलं और पीछे भी उठाना पड़े । इसलिये पूर्व जन्मका सब से आधिक पाप म. महावीर के पास इकट्ठा था यह अत्तर न तो म. महावीर की महत्ता के अनुरूप है न सन्तोषजनक । इस पुस्तक में इस प्रश्न का अच्छा उत्तर है कि श्रमण ब्राह्मण संस्कृति के विरोध स्वरूप श्रमण तीर्थकर महावीर को ये सब कष्ट उठाले पड़े। क्रांति के प्रवर्तक का जीवन ऐसा संकटापन्न, अपमानों से भरा हुआ होता ही है । ३८ वें प्रकरण में यह बात स्पष्ट हुई है। ४० वे प्रकरण में
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भी यही बात है ।
हां ! लुहार के आक्रमण सम्बन्धी act में बेचारे देवेन्द्र को शास्त्रकारों ने व्यर्थ कष्ट दिया, बिना इन्द्र के भी ऐसी घटनाएँ मजेसे होसकती है । अन्तस्तल में इन्द्र को दिनन्त्रण नहीं दिया गया ।
३९ वें प्रकरण में तापसी के जरिये जा जानकारी में म. महावीर को कष्ट पहुँचा उसे किसी यक्षिणी का द्वेष नहीं बताया गया, वह उस युग के लिये स्वाभाविक घटना थी ।
इससे इस बात पर भी प्रकाश डाला गया है कि जैन धर्म में यद्यपि अनेक कष्ट सहनों का विधान है फिर भी व्यर्थ के दुःखों को देय ही माना गया है।
१७- ४१ में प्रकरण से जहां इस बात का पता लगता है कि धीरे धीरे श्रमण-विरोध शांत होने लगा था तथा ब्राह्मण भी ब्राह्मण संस्कृति से ऊब रहे थे वहां उस बात का भी खुला होगया है कि जैन शास्त्रों में अशोक वृक्ष को इतनी मह मिली होगी ।
१८- जैन शास्त्रों में जीवसमास परिष पांच मन आदि के विधान हैं । वे कैसे बने, किस प्रकार बनेका घटना पूर्ण इतिहास सम्भव कल्पनाओं से दिया गया है। इससे उनके इतिहास पर ही प्रकाश नहीं पड़ता किन्तु उनकी वास्तविक अपयोगिता पर भी प्रकाश पड़ता है। पति के की व्यावहारिकता तो खास तौरपर ध्यान खींचती है।
१६- मालदेवी को तीर्थंकर क्यों माना गया इसका विवेचन ४४ वें प्रकरण में है । मूल वर्णन शाखांन है।
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३० वैज्ञानिक दृष्टि से मन्त्र का कोई महत्व नहीं है । पर उस युग में मनुष्य का मानसिक विकास इतना नहीं
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हुआ था कि साधारण मनुष्य इनसे पिंड छुड़ा पाता । विज्ञान की इतनी प्रगति होजाने पर भी आज भी करोड़ों आदमी इसके शिकार हैं और विद्वान कहलानेवाले भी शिकार हैं। इसलिये उस युग में भी ये रहे । इस पर कुछ प्रकाश ४८ वे मंन्त्रतन्त्र प्रकरण में डाला गया हैं।
२५- महावीर युग में मगध में गणतन्त्र था, फिर भी म. महावीर की सहानुभूति साम्राज्यों की तरफ है गणतन्नों की तरफ नहीं । जैन शास्त्रों में साम्राज्यों की या चक्रवर्तियों की काफी प्रशंसा है, यह सब क्यों है इसका विवेचन गणतन्त्र राजतन्त्र शीर्पक ४१ वे प्रकरण से लगता है। .
२२- ५०, ५५ वे प्रकरण शास्त्रोक्त हैं। उनका चित्रण इस तरह किया गया है कि जैन साधुओं के एक आचार पर प्रकाश पड़ता है, और सत्य के आग व्यक्तित्व को कैसे झुकना पड़ता है इसपर भी प्रकाश पड़ता है।
२३- सर्वज्ञता त्रिमंगी सप्तभंगी का विवेचन ५२-५३-५४ वें प्रकरण में इस तरह किया गया है कि वह वैज्ञानिक और पूर्ण सार्थक बनगया है। जैन शास्त्रों का विवेचन इस विषय में कितना भूलभरा है इसकी दार्शनिक मीमांसा बड़े सरल तरीके से होजाती है।
२४-५५ वे प्रकरण में नीरस आहार की घटना शास्त्रोक्त है। उसमें दासता का विरोध भी है । पर उसमें इतना रंग और भी दिया गया है कि म. महावीर दासता के विरोध के किये कितन प्रयत्नशील थे।
२५- जैनशास्त्रों में संगम देव के द्वारा किये गये उप. सर्गों का वर्णन वड़ा भयंकर है। स्वर्ग लोक में महावीर चर्चा, संगम देव का क्षुब्ध होना. और फिर ऐसे उपलर्ग करना जो
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असम्भव है. यद्द साग वर्णन अन्यन्त अविश्वसनीय है । फिर भी इस वर्णन का कुछ आचार तो होना चाहिये इसलिये ५६ प्रकरण में स्वप्न जगत के रूप में इस घटना को आधार दिया है। इस परिवर्तन से जैन शास्त्रों का वर्णन बिलकुल ठीक होगया। साथ ही इस प्रकरण में मनःपर्यय ज्ञान ही वास्तविकता पर अच्छा प्रकाश डाला गया है । इस अवसर पर म. महावीर को मनःपर्यय ज्ञान हुया था ऐसा वर्णन शास्त्रों में है। पर घमान क्या है ? वह संयमी को ही क्यों होता है ? इसका बुल्लाला इस प्रकरण में होगया है।
२६-५७ वें प्रकरण में डांकुओं द्वारा म. महावीर के मताये जाने की घटना शास्त्रोक्त है। यहां तक कि डांकुना ने म. महावीर को मामा. मामा कह कर भद्दा मजाक किया, कंध पर चढ़ गये, यह भी शास्त्रोक्त है। इससे मालूम होता : कि जगत के महामानवों को कभी कभी कैसे फेस शुद जीवा न किस बुरी तरह से अपमानित होना पड़ता है । यादग पृल्या पूज्यता से महामानवता का निर्णय करना व्यर्थ
२७-५८ से ६० वें प्रकरण तक तत्वों का विवचन । विवेचन जैन शास्त्रों के अनुसार ही ६ फिर भा पुण्यपाप शुभ शुद्ध आदि का जो विवेचन हुभा हैं और जीर्ण श्रेष्ट्री की शास्त्रोक्त कथा का जो स्पष्टीकरण किया गया ६ उलस पर नयासा प्रकाश डाला गया है । जैन मान्यता का पु: छिपाया सा मर्म प्रगट हुआ है।
२८- हिन्दू शास्त्रों में देवेन्द्र और अनुरेन्द्र के. गुलाका वर्णन आता है । जैनधर्म के अनुसार देव गति का जला करा: उसमें वैसा युद्ध सम्भव नहीं, फिर भी सुरासुर विरोध को दान इस देश में अतिप्राचीन काल से पतनी सद कि इस दिग्य में जैनधर्म का मौन खटकने वाला होता जैनाचार्यों ने महावीर
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महत्ता बढ़ाने के लिये बड़े विचित्र ढंग से इसका उल्लेख किया है । यह अविश्वसनीय तो है ही, पर इसका पक्षपाती रंग भी साफ नजर में आता है । अन्तस्तल में से इस घटना को हटाया जासकता था फिर भी हर एक बात को किसी न किसी रूप में रखने की मेरी नीति थी इसलिये यह वात ऐसे ढंग से रखदी है कि वह निराधार नहीं रही । और पीछे से अच्छा निष्कर्ष भी निकाल दिया है ।
२६ - जैन शास्त्रों में अभिग्रह के नाम से कुछ अटपटी प्रतिज्ञाओं का काफी उल्लेख है । कटसहन को निमंत्रण देने के सिवाय इनका और कोई उपयोग नहीं मालूम होता । पर यह कारण इतना तुच्छ है कि अभिग्रह खटकने वाली बात बन जाती है। म. महावीर ने भी बड़ा ही कठिन अभिग्रह किया था। जिसका कोई खुलासा जैन शास्त्रों में नहीं है। पर इस अन्तस्तल में उस अभिग्रह को दासता विरोध के लिये इस प्रकार उपयोगी सिद्ध कर दिया है कि हास्यास्पद अभिग्रह म. महावीर की दीनबन्धुता में चार चांद लगा देता है । घटना शास्त्रोत है पर उसके चित्रण में सारा रंग ही बदल दिया है। बल्कि उसे बदलना न कहकर मौलिक रंग का प्रगटीकरण कहना ठीक होगा । ६३ वें प्रकरण में यह बात स्पष्ट है |
३०-६४ वें प्रकरण में जीवसिद्धि की हैं। जैन शास्त्रों में भी यह बात है फिर भी इस ग्रंथ में कुछ नये ढंग से युक्तियाँ दीगई हैं।
३१-६५ वां प्रकरण 'संघ की आवश्यकता' मानसिक विचार है जो महावीर जीवन के अनुकूल हैं, जो चारह वर्ष की तपस्याओं की उपयोगितापर हलकासा प्रकाश फेंकता हैं । ३२. ६६ वें प्रकरण में गुणस्थानों का विवेचन है जो शास्त्रोक्त है । पर काफी सरलता से बातें समझाई गई हैं। जैन
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धर्म के अनुसार आध्यात्मिकता के विकास का यह श्रेणीबद्ध कार्यक्रम है।
३३-६७ चे प्रकरण में केवलझान का विवेचन नये ढंग से है । विश्वसनीय और वैज्ञानिक होने के साथ रहन्यांडाटक भी है।
३४-६८ व प्रकरण में लोकसंग्रह के बारे में म. महावीर के विचार आगे के कार्यक्रम के अनुरूप है।
३५- ६९ वें प्रकरण में ग्यारह गणधर शिप्यों का विवेचन शास्त्रोक्त हैं । गणधरों के प्रश्न भी शास्त्रोक्त हैं। परन्तु दो यानों में कुछ नवीनता आगई है। प्रश्नों को ऐसे ढंग से किया गया ह कि सारे प्रश्न एक कड़ी में जुडगये है । साथ ही उनके उत्तर अधिक जोरदार बनगये ६ जनशास्त्रों में फल प्रक्षों के उत्तर बहुत ही बालोचित या हास्यास्पद तरीके से दिये गये . जब कि अन्तस्तर में काफी नर्कपूर्ण बनगये है।।
३६-७०. ७१ वे प्रकरण शास्त्राधार से।
३७-मेघकुमार ( ७२ वां प्रकरण ) की घटना शास्त्रा. चार से है । पर जैनशास्त्रों में इसका विवेचन अविश्वसनीय सर्वज्ञता के आधार पर है जब कि अन्तस्तल का विवेचन मनो विज्ञान और चतुरता के आधार पर है । फुछ भोले जनभाई इस प्रकरण का मर्म न समझ सकेगे। वे सत्य तय का अन्तर ध्यान में लेंगे तो इस घटना का मर्म उनके ध्यान में भाजायगा ।
३८-७३ वे प्रकरण में नन्दीषण की घटना सामोना है। पर काम विज्ञान की शुद्ध चर्चा से उसमें वर्णन की नवीनता यागई है।
३६-४ वे प्रकरण में म. महावीर के अपनी जन्मभाग पधारने का वर्णन है। घटना शान्यात है। पर यहां जैन शान्त
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यह तो बताते हैं कि उनकी पुत्री और जमाई ने दीक्षा ली पर यह नहीं बताते कि पत्नी का क्या हुआ । म बुद्ध बुद्धत्व प्राप्ति के बाद जब जन्मभूमि पधारे तब पत्नी से मिलने का दृश्य अत्यन्त करुण हैं । 'म. महावीर के जीवन में वैसा दृश्य न फक्ता. और सम्भव यही है कि तब तक उनकी पत्नी का देहांत होगया हो. इसलिये उनकी पुत्री के मुँह से यशोदा देवी के देहान्त के समा चार कहलाये गये हैं इस घटना में करुण रस का खुब परि पाक हुआ है । बात बिलकुल स्वाभाविक, पूर्ण सम्भव और मर्म स्पर्शी बन गई है । ज्ञातिमोह के विषय में जो विचार प्रगट किये
भी मौलिक हैं और म. महावीर की महत्ता बतलाते हैं ।
इसी प्रकरण में गर्भापहरणवाली घटना का सम्भव और स्वाभाविक रूप में उल्लेख कर दिया गया है। जैनशास्त्री में जिसप्रकार इस घटना का उल्लेख है वह बिलकुल अविश्वसनीय और कुछ निंध भी हैं । अन्तस्तल में वह विलकुल स्वाभाविक सम्भव वनगई है और निद्यता दूर होगई है ।
४० - ७५ वें प्रकरण से लेकर ७२ वे प्रकरण तक का वर्णन शास्त्रोक्त है । लेखन में ही कुछ विशेषता आई है ।
४१ - ८० चे प्रकरण की घटना शास्त्रोक है । इसमें स. महावीर ने ५ वे स्वर्ग, ब्रह्मलोक के आगे भी स्वर्ग होने की बात कही है और इससे लोकविख्यात पागल परिव्राजक ने शिव्यता स्वीकार करली है । सूलग्रन्थों में ऐसी कोई युक्ति नहीं दी गई है जिससे आगे के स्वर्ग सिद्ध होसकें और उससे प्रभावित होकर एक विख्यात धर्मगुरु शिष्य वनजाये । परन्तु अन्तस्तल में यह विवेचन मालिक है । समता और सुख का सम्बन्ध बताकर यह विवेचन काफी तर्कपूर्ण मौलिक और असाधारण बनगया है ।
४२ - ८१ वें प्रकरण की घटना भी शास्त्रोक्त है । और इससे इस बात पर पूरा प्रकाश पड़ता है कि अलोकिक ज्ञान
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की वास्तविकता क्या है ? अलौकिक ज्ञान कहलाने वाली नि क्षण शक्ति कभी कभी कैसे चूक जाती है और फिर किसप्रकार चतुराई से काम लेना पड़ता है । शास्त्रों में भी यह घटना इतनी साफ है कि इसके ऊपर की लीपापोती भी इसे ढक नहीं पारही है । साम्प्रदायिक लोग इससे महावीर स्वामी की महत्ता की क्षति समझेंगे पर मैं ऐसा नहीं समझता। अलौकिक मानों की जब कोई सत्ता नहीं है तब लोकहित की दृष्टि से न. महावीर स्वामी को इसप्रकार अवश्य सत्य बोलना पड़े इससे उनकी महामानवता क्षीण नहीं होती । आज के वैज्ञानिक युग में तो ऐसी घटनाओं का मर्म स्वीकार करने में ही कल्याण है ।
४३-८२ वां प्रकरण कल्पित है । इसमें एक सानी हाम अनेकान्त का व्यावहारिक रूप बताया गया है। कहानी भले ही कल्पित हो परन्तु उससे अनेकान्त सिद्धान्त जो समझ में जाना है वह वास्तविक है । और इससे म. महावीर द्वारा की गई दा निक क्रान्ति की उपयोगिता और महत्ता समय में जाती है। प्रकरण तक का विषय शास्त्राधार से है । ८८ वें प्रकरण में जमालि की जुदाई की बात भी शास्त्राधार से है परन्तु विविध संवादों से और महत्वपूर्ण बनादिया गया है । संवाद का भार शाय होनेपर भी उसका विस्तार मालिक बनगया है।
२४ - ८३ वें प्रकरण से ८७
४५-६ वें प्रकरण में गोशाल के को घटना शास्त्राधार से है । यहां तक कि बहुतों की शास्त्रोक्त है। सिर्फ तेजोलेश्या को अांशिक वनस्कार न मानकर एक मनोवैज्ञानिक तथ्य के रूप में चित्रित किया गया हे .
४६- ९०-९१ वे प्रकरण भी शास्त्राधार से हैं पर मि दर्शना के मुँह से जो उद्वार निकलवाये गये है और विषय में
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जो वार्तालाप हुआ है वह काफी ममस्पर्शी बना दिया गया है और इससे म. महावीर की महत्ता भी खूब चमकी है।
४७-६२ वां प्रकरण भी शास्त्राधार से है। केशी गौतम संवाद के प्रश्न भी चे ही हैं जो शास्त्रों में उल्लिखित है । फिर भी उनकी रचना ऐसी कर दी गई है कि साधारण से दिखाई देनेवाले प्रश्न महत्वपूर्ण वनगये हैं और उनका ऐसा सिलसिला बंधगया है कि वे एक ही सांकल की कड़ियां से मालूम होने लगे हैं।
४८-६३ चे प्रकरण से अन्त तक के प्रकरण शास्त्राधार से हैं । भाषा आदि में जो विशेषता है वही है। ५- दैनन्दिनी की तिथियाँ- .
यह अन्तस्तल महावीर की दैनन्दिनी (डायरी) के रूप में लिखा गया है । और उसमें तिथि या तारीख दीगई है।
आजकल संसार में सव से ज्यादा प्रचलित ईस्वी सन् है परन्तु वह दो हजार से भी कम है इसलिये बहुत पुरानी घटनाओं के उल्लेख में उससे काम नहीं चल सकता । ऐतिहासिक लोग पुरानी घटनाओं को बी. सी. ( ईस्वी सन् पूर्व ) के रूप में उल्लिखित करते हैं। पांच सा वो. सी. (ईसा से पांच सौ वर्ष पूर्व) आदि । पर इसप्रकार का उल्लेख डायरी के लिये बिलकुल वेकार है, असंगत है.। इसके लिये तो इतिहास संवत ही सत्र से अधिक अनुकूल हैं । इतिहास संवत् ईस्वीसन से दस हजार वर्ष अधिक है। इसलिये आज १९५३ वर्ष तक की पुरानी घटनाओं का उल्लेख उसके द्वारा सरलता से किया जासकता है । अभी सन् १९५३ है इसका अर्थ यह हुथा कि इतिहास संवत् १९९५३ , है । इसप्रकार दस हजार अधिक है । इतिहास संवत का पहिला एक का अंक दवाने से ईस्वी सन निकल आता है।
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३.
इसलिये दोनों के समझने में दिक्कत नहीं है।
ईस्वी सन से दसहजार अधिक होने का अर्थ या, कि, वी. सो. सन् को दस हजार में से बटादेने ले इतिहास मंचन निकल आता है या इतिहास संवत् को दस हजार में से पटाने से बी. सी. (ईसापूर्व ) सन निकल आता है । १० वी.सी. का अर्थ १००००-५००-२५५० इतिहास संवत हुश्रा । १४३ निकाल संवत् का अर्थ ५२७ वी. सो. हुआ । म. महावीर का निर्माण 25 बी. सा. में हुआ था अर्थात् तिहास संवत १४७३ में हुआ था। अन्तस्तल में जहां जो संवत् दिया हुआ है उले दमाजार में ने घटा देने से जो अंक निकले उसे उतने बी. सी. समझना चाहिये।
तिथियों के लिये नये संसार की नागयों का नया मानव भाषा के नये संसार के महीनों का अपयोग किया गया है। चूंकि इतिहास संवत् 1 जनवरी संशुमनामलिय इसके साथ चैत्र वंशाख आदि भारतीय मदीना का उपयोग ना किया गया और न जनवरी आदि यूरोपीय महीनों का उपयोग करना ठीक मालम हुआ। इतिहास संयत के. नायरान संवत के महीनों का उपयोग ही ठीक समझा।
सत्याश्रम की तरफ से प्रतिवर्ष एक निधि प्रशासन होता है जिसमें इतिहास संवत के माहीना भी निधियों का यूरोपीय महीनों और तारीखा तथा भारतीय टीना और तिथियों का मेन सताया जाता है। अब से जाना जाम कि इस वर्ष इतिहास संवत के किस महीने शरीर को, यूरोपीय किस महीने की कोनमी नार्गग्य मार्ग किस महीने के किस पक्ष की कौनसी निधि बानी ! सब पत्र का झुपयोग करने से अन्तस्तल में दी हुई नारीमा माटी परिचय मिल सकता है।
इतिहाल संवत् के महीने सय बगर होने ।
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.. ३२ ]
प्रत्येक मास २८ दिन का होता है और वर्ष में १३ माह होते हैं। साल के अन्त में तारीख और वार से शून्य विश्राम वार होता है । इसप्रकार २८४१३=३६४+१ = ३६५ दिनों का वर्ष होता है। चौथे वर्ष जब कि वर्ष में ३६६ दिन माने जाते हैं तब एक विशेष विश्राम वार और मान लिया जाता है । इसप्रकार इतिहास संवत् में बराबर दिनों के सब महीनों की व्यवस्था है। कोई २८ कोई २६ कोई ३० और कोई ३ दिनों का महीना नहीं मानना पड़ता। .
. नये संसार के तिथि पत्र से इस अन्तस्तल में दी हुई तारीख का मतलव समझ में आसकता है और उसके भारतीय महीने का भी अन्दाज वैठ सकता है। परन्तु तिथिपत्र जिन के सामने नहीं है उन्हें इस पुस्तक में दी गई तारीख समझने के लिये यूरोपीय तारीखों से उनका मेल बतादिया जाता है। इतिहास संवत् ईस्वीसन् ई. सन का चौथा वर्ष १ सत्येशा १ जनवरी से २८ ज. १ जनवरी से २८ ज. २ मम्मेशी २९ जनवरी से २५ फ. . २६ जनवरी से २५फ. ३ जिन्नी २६ फरवरी से २५ मार्च २६ फरवरी से २४ मा. ४ अंका २६ मार्च से २२ अप्रेल, २५ मार्च से २१ अ. ५ बुधी २३ अप्रेल से २० मई, २२ अप्रेल से १९ मई ६ धामा
२१ मई से १७ जून, २० मई से १६ जून ७ तुपी १८ जून से १५ जुलाई, १७ जून से १४ जुलाई ८ इंगा १६ जुलाई से १२ अगस्त, १५ जुलाई ११ अगस्त ९ टुंगी १३ अगस्त से ९ सितंबर, १२ अगस्त से ८ सि. १० मुंका १० सितम्बर से ७ अक् . सितम्बर से ६. ११ घनी ८ अक्टूबर से ४ नवंबर ७ अक्टूबर से ३ न. १२ चिंगा ५ नवंबर से २ दिसंबर ४ नवंबर से १ दि. १३ चन्नी ३ दिसंबर से ३० दिस- २ दिसंबर से २९ दि.
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३३ दिसम्बर शुदो ३० दिसम्बर शंदा
३. दिसम्बर शेगुंदो ६-उपसंहार--
जैन धर्म का मुख्य आधार महात्मा महावीर का जीवन, व्याक्तित्व और विचार है । जैनधर्म की सच्चाई सुरक्षित रखने के लिये उसमें पूर्ण वैज्ञानिकता और विश्वसनीयता लाने की लग्न जरूरत है । और उसके लिये ये दी वान महावीर जीवन में भी लाने की जरूरत है। जो वैज्ञानिकता विविध रूपमें हमारे उदयों में चारों तरफ से प्रवेश कर रही है और कर चुकी है. यदि जैन धर्म उसकी कसौटी पर ठीक नहीं उतरता तो जैन धर्म जीवन का अंग नहीं बन सकता, और जो जीवन का अंग नहीं बन सकता उसकी श्रद्धा जीवन पर बोझ ही होगी. वह पत्रकार काम न आयगी।
यदि धर्म के लिये हमें वैज्ञानिकता विचारकता यादि का बलिदान करना पड़े तो हम हवान होजायेंगे, और वैज्ञानिकता के लिये यदि धर्म का बलिदान करना पड़े तो शंतान होजायेंगे, मानचता की रक्षा के लिये दोनों का समन्वय जरूरी है। इस अन्तस्तल में महावीर जीवन और जैनधर्म इस कपम उपनियन किया गया । कि वैज्ञानिक जैनधर्म वास्तविक जैनधर्म और बालविका महानी. जीवन मूर्तिमन्त होजाता है।
जैनधर्म में अनेक सम्प्रदाय बन गये। जिनके ना भेद निःसार हैं । इल अन्तस्तल के पदने से उन छोटे छोटे सम्म दायों से ऊपर वास्तविक जैन धर्म के दर्शन होते हैं।
जो लोग सुधारक है और साम्प्रदायिकता को हीर. नां समझते, चे साम्प्रदायिकता को गाली देते रद हमने कुछ न होगा । उन्हें बसाम्प्रदायिक उदार वैज्ञानिक जैनधर्म यताना होगा।
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३४]
उनकी इस मांग को यह अन्तस्तल काफी अंशों में पूर्ण कर सकता है।
पर्युपण में जो अन्धश्रद्धा पूर्ण महावीर-विन पढ़ा जाता है उनकी अपेक्षा यदि यह अन्तस्तल पढ़ा जाय तो जनधर्म सम. झने का, कथा साहित्य पढ़ने का, तथा काव्यरल का काफी आनन्द मिलेगा। . __.. जो लोग जैनधर्म का परिचय जैनेतर जगत में तथा विदेशोंमें देना चाहते हैं वे यदि इस अन्तस्तल को भिन्न भिन्न भाषाओं में ले जाकर फैलायें तो उनकी भी इच्छा पूरी होगी और दूसरों को भी काफी लाभ होगा। .
.... मैं जानता हूं कि इस अन्तस्तल से कुछ या काफी अन्धश्रद्धालु लोग नाक मुँह सिकोडेंगे, निन्दा करेंगे, पर उनकी मुझे पर्वाह नहीं है, अनपर मैं ध्यान दूंगा तो इतना ही कि उनकी चेष्टाओं पर मुस्करा दूं या किसी ने कुछ दलील सरीखी बात कही तो उसका उत्तर दे दू । परन्तु बहुत से लोग ऐसे भी होंगे
जो अन्तस्तल से प्रभावित होकर भी अपनाने में हिचकेंगे, वास्तव .. में दयनीय वे ही होंगे । परन्तु यदि कभी दुनिया को जैनधर्म
और महावीर जीवन को ठीक तरह से समझने की जरूरत होगी तो इसी अन्तस्तल के दृष्टिकोण से समझना होगा। वर्तमान इसके साथ कैसा व्यवहार करेगा में नहीं कह सकता ., पर महाकाल इसके साथ न्याय करेगा इसकी मुझे पूरी आशा है । वह भाशा सफल होगी कि नहीं कौन जाने, पर उसका सन्तोप तो मुझे मिल ही रहा है। ४ टुंगी ११६५३ इ. सं. . .
सत्यभक्त' १६ अगस्त १६५३
सत्याश्रम वर्धा
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५)
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अन्तस्तल-दर्शी स्वामी सत्यभक्त
[ लेखक- सुरजन्बन्द सत्यप्रेमी ]
जैन धर्म की मीमांसा में फैलाया निज बौद्धिक बल दूर किया समयोचित जिसने सारा छद्मन्थों का छन् ! प्रकट हुआ श्री वीतराग-विभु की संस्कृति का निर्मल जल
सत्यम विन कौन समझता महावीर का अन्तस्तत ॥
सभी तरह का पक्ष छोड़कर शुद्ध सत्य संधान किया, विश्लेषण कर घटनाओं का तत्वज्ञान मिलन किया।
aha यशोदा वीरपत्नि को सच्चे यश का दान किया. वर्द्धमान के निजमुत्र से ही, यह इतिवृत्त विधान किया !!
जिनवर दैनंदिनी रूप में अपना चरित सुनाते हैं. मानों सत्यभक्त, जीवन का ध्रुव रहस्य सम् । सारे अनुभव को निचोड सामान हमें पि
अनेकान्त सिद्धांत रूप सम्यक समभाव है।
द्रव्यक्षेत्र युत कालभाव लख तब सुधार अपनायेंगे. विविध अपेक्षा से समाज या शालन कार्य चलायेंगे। नयभंगो का न समझकर जगन्ना लोकोत्तर निर्मल स्वभाव में हम शायेंगे।
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-: महावीरावतार :
यद्यपि न किसी को ज्ञात रहा तू कब कैसे प्राजावेगा । अन्धी आँखों के लिये सत्यका पदरज अञ्जन लावेगा ॥ अज्ञानतिमिरको दूर हटाकर नवप्रकाश फैलावेगा ।
रोते लोगों के अश्रु पोंछ गोदीमें उन्हें उठावेगा ॥ १ ॥ तो भी अपना अञ्चल पसार अवलाएँ ऊची दृष्टि किये। करती थीं तेरा ही स्वागत अञ्चल में स्वागत-पुष्प लिये ॥ अधिकार छिने थे सव उनके उनको कोई न सहारा था।
था ज्ञात न तेरा नाम मगर तू उनका नयन-सितारा था । पशुओं के मुखसे दर्दनाक आवाज़ सदैव निकलती थी। उनकी श्राहांसे जगत् व्याप्त था और हवा भी जलती थी ॥ भगवती अहिंसा के विद्रोही धर्मात्मा कहलाते थे ।
भगवान सत्यके परम उपासक पदपद ठोकर खाते थे । पशुओं का रोना सुनकरके पत्थर भी कुछ रो देता था। पर पढ़े लिखे कातिल मूल्का वज्र हृदय रस लेता था।
था उनका मन मरुभूमि जहाँ करुणारस का था नाम नहीं । __
थे तो मनुष्य पर मनुष्यता से था उनको कुछ काम नहीं ॥ शूद्रोंको पूछे कौन जाति-मद में ड्वे थे लोग जहाँ।
वे प्राणी हैं कि नहीं इसमें भी होता था सन्देह वहाँ ॥ . उनकी मजाल थी क्या कि कानमें ज्ञानमन्त्र पाने पावें ।
यदि आवे तो शीशा पिघलाकर कानोंमें डाला जावे ॥ था कर्मकांडका जाल बिछा पड़ गये लोग थे बंधन में।
था आडम्वरका राज्य सत्यका पता न था कुछ जीवन में। .. ले लिये गये थे प्राण धर्म के थी बस मुर्दे की अर्चा ।
सद्धर्म नामपर होती थी वस' अत्याचारों की चर्चा ॥
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पशु अवला नियंत शूद्र नक वाही से हमे युनाले थे।
उनके जीवन के क्षण जगा भी वत्सर लम बनत जाते थे। -
तेरे स्वागत के लियं उदय पिघलाकर 'थु बनाने में ।
__ याखाँसे अश्रु चढ़ाते थे प्राव पथ पंच कि नने जब दीन पुकार सुनी नवम्ब छोद दादा श्राया। रोगोने सचा वद्य दोनने मानो चिन्तामणि पाया ॥
तु, गर्ज उठा अत्याचारों को ललकारा, सय चोय पाई।
___ सब गंज उठा जन्मांड न रहने पाय हि पशुओंका तू गोपाल बना पाया नयने निज मनभाया । तूने फैलाया हाथ सभीपर हुई शान्त शांतन आया ।
फहरादी हुने विजय वैजयनी भगवती प्रतिमा '
हिंसाकी हिंसा हुई महारः सा नी सारे दुर्घन्धन तोड़फोड़ दुष्कर्मकांड सब नष्ट किया । भगवान सत्यके विद्रोहागण को तुने पदनाम किया । भगवती अहिंसर का कंटा घरने हाथों में ए..
त उनका बेटा बना विध तय नरे नाम में टांगी स्वार्थी तो धर्म गया, हा धर्म गया' या विने। तेजस्वी रबिके लिये कहे सुवचन पून मनमाने । लेकिन तूने पाहन को लोगों का नाम ।
सदसद्विवेक का मंत्र दिया नगमान 'तू महावीर था बद्ध मान पा र सुधारक. का का
तु सर्वधर्मसमभाव विधांका परम प्रगम ॥ भगवान सल्ला घेटा या सादा गाने पर : 1
तेरे पदचिना मिले गुना पान में
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३८ ]
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समर्पण
महात्मा महावीर स्वामी की सेवा में
महात्मन्
आपकी कलम से आपका जविन चरित्र लिखाना, और आपके अन्तस्तल का चित्रण करना कहालायगी तो धृष्टता ही, पर वह धृष्टता सिर्फ कहलायगी वास्तव में धृष्टता होगी नहीं । क्योंकि दुनिया को चाहे पता हो चाहे न हो पर आपको पता है कि मैंने कितनी दिशाओं से आपको फोकस मिला मिलाकर देखा है ।
जो आपसे बहुत दूर हैं उन्हें आप या तो दिखते ही नहीं या धुंधले दिखते हैं, जो बहुत पास हैं उनका फोकस ही नहीं मिलता, इसलिये वे भी आपको नहीं देख पाते। एक दिन मैं भी ऐसे ही पास था तब मेरा भी फोकस नहीं मिलता था पर सत्येश्वर के दर्शन के बाद फोकस मिला, मैं ठीक स्थानपर पहुंचा और आपको देख सका, इसी का परिणाम है कि यह अन्तस्तल लिख सका हूं ।
सत्यलोक में जब आपके दर्शन हुए तब मेरी बातों से आप काफी खुश हुए थे। उस भरोसे मैं कह सकता हूं कि इस अन्तस्तल से भी आप खुश होंगे। इसलिये मुझे इस बात की चिन्ता नहीं है कि इससे दुनिया खुश होगी या नाखुश ।
अन्तस्तल लिखा तो गया है दुनिया के हाथ में समर्पण करने के लिये, पर मालूम नहीं दुनिया इसे स्वीकार करेगी या नहीं ? इसलिये आपकी ही सेवा में इसे समर्पित कर रहा हूं । अब आप ही इसे प्रसाद के रूप में बांट दें ।
४ टुंगी ११९५३ इ. सं.
विनीत सत्यभक्त
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महात्मा महावीर
सत्याघ्रम वर्धा के धर्मालय :
विगजमान मूर्ति
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। महावीर का अन्तस्तल
" अर्थान - जैन तीर्थंकर महावीर की डायरी
१- अशान्ति १७ तुपर्ण ९४२१७ इतिहास संबन
आकाश में आज बादल लागये है, बिजली चमकमी. - बादलों का रंग देखकर कहा जासकता है कि अनही मानी ।
हवा में कुछ तेजी है, ठंडक भी विश्चय ही कही पानी जमा है, आकाश में आज काफी हलचल है । निःसन्दा पर मरन होगी, पानी बरसेगा, ताप घटेगा. धरती में अंकर निकलेगा धनी हरी साड़ी पाहनकर अपना श्रृंगार करेगी, बादलों की लाल सफल होगी।
पर यह कितने अचरज और लज्जा को पानी हृदयाकाश में इससे भी अधिक कल वली. पर न शनी र रहा है, न ताप घट रहा है. न अंकुर निकल रोकन उससे दुनिया की कुछ शोभा बदगी .
जगत् दुःखी है. इसलिय नारी दि. विनयापन नहीं है, जीवित रहने टायक पेट भरने लायक मां .. कमी है तो सिर्फ इस बात की कि सगा भग्न लापर. जग कुछ नहीं है। कारण यह नहीं कि जगत शुद्र या पंगा t. कारण यह कि तृष्णा का मुंह विज्ञान है. उमा गुट सीन
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१६ ]
भरता, तृष्णा का मुँह माप कर अगर सुतनी ही माप की चीज उसमें भग्दी जाय तो तृष्णा का मुँह उससे चौगुना फैल जाता हैं. हम भरते जायँगे वह फैलता जायगा । विचित्र अनवस्था है ! परं जगत् के प्राणी इस नहीं समझते, वे तृष्णा का मुँह भग्ने की निरर्थक चेष्टा दिनरात करते रहते हैं यहां तक कि अपनी तृष्णा का मुँह भरने के लिये वे दूसरों का जीवन होम देते हैं. अनके पेट की रोटी तक छीन लेते हैं, उनकी जीवन शक्ति को चूस डालते हैं, इसीसे जगत में हिंसा है, झूठ है, चोरी है, ज्याचार है और अनावश्यक संग्रह है ।
महावीर का अन्तस्तल
तृष्णा के कारण मनुष्य अपने को सदा प्यासा अनुभव करता हैं और दूसरे के कष्ट को नहीं देखता । इच्छापूर्त्तिका आनन्द क्षणभर ही ठहरता है, दूसरे ही क्षण फिर ज्यों की त्यों पास लग आती है, ज्यों का त्यों दुःख आजाता है, इसप्रकार सफलता भी निष्फलता में परिणत होजाती है तृष्णा को मारे बिना कोई सच्ची सफलता नहीं पा सकता । तृष्णा को अगर मार दिया जाय तो स्वर्ग की जरूरत न रहे और मोक्ष घट घट में विराजमान होजाय ।
मैं इस मोत को पाना चाहता हूँ, सिर्फ पाना ही नहीं चाहता, किन्तु मोक्ष का मार्ग जगत् को बताना चाहता हूँ और बताना ही नहीं चाहता, मोक्ष के मार्ग पर दुनिया को चलाना भी चाहता हूँ ।
साचा करता हूँ. सोच रहा हूँ यह सब कैसे हो ? इसके लिये मुझे कुछ करना है, कुछ क्या बहुत करना है. जीवन खपाना है । पच्चीस वर्षकी उम्र हो चुकी है, पिछले दिन इन्हीं विचारों में या भीतरी तैयारी में बीते हैं पर न जाने अभी कितने दिन और बीतेंगे । कुटुम्बियों के प्रति भी मेरा उत्तरदायित्व है उसे कैसे पूरा करूं, उनसे कैसे छी लुं, समझ में नहीं आता । अभी तक मेरे
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महाग का नाताल
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मनकी बात किसीको मालूम नहीं है. मालूम होने पर न जाना होगा, कुडगाम मच जायगा । मेरे रहन सहन नर्गक गुन्नी कुछ शंकित तो है पर उन्हें क्या मान्दन कि मेरे मन में कोनीयमान मंची है । यो मुझे किसी बात का कट नहीं है. मोबार का मुदा है, भाई नान्दवर्धन मुझे दाहिना हाथ स. दाने.. पानी को न प्राणों के समान प्यार करती है, और वो जो नुदाना-
नग. कर उल्लास से ऐसी कृदने लगती है कि में फैन भी विचारों में मग्न होऊ मेरा ध्यान खचही लेती है. ना करे गोद में ना ही पड़ता है, माधी घड़ीको मेरी लागे गम्भीरता को या. आता देती हैं। ऐसा . बना बनाया यह सोने का नजारा किसका जी चाहेगा ? मैं छोड़ने की बात कनो लोग अगा। डरने लगे। पर इस तरफ उनका ध्यान ही नी जाना किया सब चिरस्थायो नहीं है और न सत्र के भाग्य में यह हो भी तो नहीं सकता, सभी राजा होजाय ना गम किनार हो, सभी मालिक हो जाये तो दान कानहो ? सरि भेरे समान परिस्थिति नहीं भिन्टनकनीनर सामाजिक स्थिति से जगत सुखी कसे होलकता : मिनि कीना चाहिये कि कोई किसी के ऊरर लयार न. समाजात तप त्याग की महत्ता हो. पर कुलको धनको का पा अधिकार की महत्ता नए हो । लांग वाले गुणिमा की 37. कारियों की सेवा पूजा प्रतिष्ठा मोनान याद कर. में विवशता को हीनता न होना चाहिए । जर तर मय जी
होता तर तक जगत मुखी नही होरपना का . मुझे जगत को गताना र.. असपर करना और मो.
अपने जीवन का बलिदान करना :
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१८)
महावीर का अतस्तल
...
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यकीय पड़ा थाहा चुका
. २१ मुंका ९४२७ ई. सं. आज चित्त बड़ा खिन्न है । घूमता हुआ आज गोवर गांव की तरफ चला गया था। मालूम हुआ कि वहां यज्ञ हो चुका है। चारों तरफ हड़ियां और मांस विखरा पड़ा था । यज्ञ में हजारों जानवर मारे गये थे। मनुष्य की यह कैसी निर्दयता है। बेचारे निरपराध पशुओं की वह हत्या करता है और सिर्फ स्वाद के लिये हत्या करता है, अन्यथा देश में अनाज की कमी नहीं है अब तो कृषि कार्य इतना बढ़ गया है कि अनाज की कमी पड़ ही नहीं सकती.फिर भी मनुष्य जीभ के लिये ऐसी इत्याएँ करता है । और इससे बड़े दुःख की बात यह है कि वह इन हत्याओं को पाप नहीं समझता, इन्हें धर्म का रूप देता है, कै.सा भयंकर दम्भ है ! कितना विशाल मिथ्यात्व है ! सोचता हूँ असंयम की अपेक्षा भी मिथ्यात्व धर्म का बड़ा दुश्मन है। असंयमी का असंयम छिपने के लिये ओट नहीं पाता पर मिथ्यात्वी का असंयम छिपने के लिये धर्म क भी नाम की ओट पाजाता है। इसलिये उसे हटाना असम्भव होजाता है। . .
मैंने उनमें से एक आदमी से पूछा-तुम लोग धर्म के .. नाम पर ऐसे मूक प्राणियों की हत्या क्यों करते हो? तुम्हें अपनी इस निर्दयता पर लज्जा नहीं आती ? पर उसने काफी निर्लज्जता से कहा-इसमें निर्दयता क्या है ? हम तो एक तरह से दया करके ही पशुओं का यज्ञ में वलिदान करते हैं । बलि. दान से वे पशुयोनि से छूट जाते हैं और स्वर्ग चले जाते हैं। यहां वे घास खाते है वहां अमृत पीते हैं, यज्ञ में, मरने के सिवाय और उनका कल्याण क्या होसकता है ?
. उसकी इस दम्भपूर्ण निर्लज्जता या क्रूरता पर और ईन सब पापों पर आवरण डालनेवाले महापाप मिथ्यात्व पर मुझे
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महावीर का अन्तस्थल
बड़ा आश्चर्य हुआ मैंने उससे पूछा- क्या तुमने दे
•
स्वर्ग जाते हैं ?
उसने कहा- नहीं देखा तो क्या हुआ ? छेद मे ओह ! वे मृतक बेद ! युग कहां से
और ये मुर्दे बनकर भी उससे विटे वह सुनने को तैयार न था । तब मैंने इतना ही में मरने से पशु स्वर्ग जाते हैं तब तुम भी तुम भी स्वर्ग में पहुँच जाते और पशुओं से पाजाते ।
(12
हुए । पर सम
-
यदि
न
वी
की
इसका उसने कुछ भी उत्तर नदिया करके चला गया, उत्तर देता भी क्या ?
ऐसा मालूम होता है कि अगर मनुष्य को मनुष्य सुनाना हैं तो वेदों से उसका पिंड छुड़ाना ही पड़ेगा | मनुष्य से सिखाना पड़ेगा कि वह शास्त्र का अपनी सेव परखे, द्रव्य क्षेत्र काल भाव का विचार करे। एक युग का दूसरे युग में काम नहीं देसकता। धाज में शास्त्रमूढ़ता से और करता से मनुष्य को से १२ चिंगा २९२७ से.
उनकी
जन
मे
ने
आज मैं रथ में बैठा हुआ जाता था कि देखी। पृढ़ने पर मालूम हुआ कि के हो होगया है । झगड़ा था छैन और अद्वैत का अद्वैतवादी पण्डित की पत्नी से व्यभिदार किया था.पर भी वह कह रहा था कि इसमें पाप क्या हुआ अपना क्या और पराश था सब एक है। इस युक्ति का उत्तर दूसरे का सिर फोड़कर दिया गया था। और कहा गया था कि हैतवाद में सात्मा और
दमे
भ
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२० ]
है तब सिर फोड़ने से आत्मा का क्या बिगड़ा ?
कितने मूर्ख और अविवेकी हैं ये पण्डित ! कैसी विवेकशून्य एकांत दृष्टि है इनकी, असंयम अत्याचार अनीति पर धर्म और दर्शन का कैसा' आवरण डालते हैं वे ? फिर भी इन्हें देखकर जनता किंकर्तव्यविमूह है। जनता इन ही संस्कृत मात्रा समझती नहीं, उस भाषा में कुछ भी घोलकर ये जनता पर अपने पांडित्य की धाक जमाते हैं। ये मोघजीवी ( हरामखोर ) पृथ्वी के भार हैं। पृथ्वी का यह भार किसी भी तरह उतना चाहिये । दर्शनों के इन झगड़ों को दूर करने के लिये एकांत दृष्टि का त्याग जरूरी है, अनेकांत सिद्धांत ही इस मिथ्यात्व को नष्ट कर सकता है | वह एक ऐसी कुंजी है जिससे साधारण जनता भी कर्तव्य अकर्तव्य, संत्य असत्य का निर्णय कर सकती है !
हां! धर्म और ज्ञान को जनता के पास पहुँचाने के लिये जनता की भाषा में बोलना पड़ेगा । पण्डितों की दुर्बोध संस्कृत का त्याग करना पड़ेगा । मागधी या आसपास की अन्य बोलियों से मिली मागधी अर्थात् अर्ध मागधी में शास्त्र वनांना पड़ेंगे, तभी सर्वसाधारण जनता धर्म के मर्म को समझेगी और इन मोघजीवी पण्डितों की पोल खुलेगी। धर्म के नामपर होनेवाला अधर्म का तांडव नंट होगा ।
पर यह सब हो कैसे ? कहने से तो हो ही न जायगा वल्कि ऐसी बातें मुंह से निकलते ही चारों तरफ से इतना विरोध होगा कि उसे सह सकना कठिन होगा, मुझे नहीं तो कुटुम्बियों को अवश्य ।
महावीर का अन्तस्तल
इन सब समस्याओं की पूर्ति के लिये मुझे अपने जीवन में पर्याप्त क्रांति करना होगी । पर कब उसका समय आयगा ? कैसे मैं वह क्रांति करूंगा ? कुछ कह नहीं सकता। मन ही मन बेचैनी बढ़ रही हैं ।
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3
महावीर का अतुल
५ जिन्नी ९४२८. सं.
आज वनविहार को गया था । वन्त के हम में स मस्त थे। बड़भर को मैं अपने को ि
लग था कितने में मेरे रंग में भं । होगया | मेरी नजर एक
[
·
घायल आदमी पर पड़ी के सिर से खून पैरोंमें भी बाच थे, पीठ सूज गई थी।
वही
गता आरहा था । अन्त में उसकी शक्ति ने जब टेडिय मेरे क्रीडावन के फाटक के एक किनारे थककर गिर पड़ा। दूसरे ही क्षण में उसके पास था ।
पूछने पर मालूम हुआ उसका नाम शि चांडाल है कहीं वेद पढ़ा जारहा था. इस
यह चुनने
की इच्छा होगई और यह बाहर यहा बा सुनने। :: चांडाल के कान में वेद के अक्षर चले जाये
पर
माना गया कि उसका सिर फोड़ना और
तो
श्री
प
करना कमसे कम प्रायान समा गयी कहा कि बहुत से ब्राह्मणों की प्रायश्चित में चांडाल के कानमें पिघलाकर पीना हा मा चाहिये । पर उनने दया करके सिर से पैर मार कर उसे घायल करके ही छोड़ दिया !
•
Ba
इससे
मनुष्यता के इस अपमान कर बढ़कर पैशाविकता की और क्या कल्पना की जानी है ? वेद, इन मोघजीवी पंडितों की रोटियां 'दूसरा वेद जानकर रोटियन
लिये फरूर से करूर बनजाने में नम
कार है पर उसी ज्ञान से से भोपजीवी
त
रखना चाहते हैं ? ये मनुष्य के
निरसन होगा
ही चाहिये। मुझे इसके लिये दोष तैयार कर ऐस
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२२ )
महावीर का अन्तरतल
तैयारी करना है कि जिससे कोई मनुष्याकार जन्तु मनुष्यता का अपमान न कर सके ।
"
ओह ! शिवकेशी के ये शब्द मुझे अभी तक चुभ रहे हैं कि " दया करके मुझे मनुष्य न समझिये मुझे पशु समझिये । उसके घाव देखने के लिये जब मैंने उसके शरीर को हाथ लगाया तब उसने कहा कि मुझे न छूइये ! मैं चांडाल हूँ। तब मैंने कहा- आखिर मनुष्य तो हो ?
उसने कहा- " मुझपर दया कीजिये ! मुझे मनुष्य न समझिये ! में मनुष्य नहीं कहलाना चाहता । अगर पशु होता तो कान में वेद जाने से न मेरा सिर फोड़ा जाता, न में अछूत कहलाता। कोई जानवर अछूत नहीं कहलाता, सिर्फ मनुष्य. हा अछूत कहलाता है " कितने मर्म की बात कही है उसने, सचमुच मनुष्य मनुष्य से घृणा करके कितना अधम होगया है !
कुछ
वैदिक धर्म इतना विकृत होगया है कि उसे अब धर्म ही नहीं कहा जासकता । उसने मनुष्य की मनुष्यता छीनली है, को उसने पशु और कुछ को उसने नारकी बना दिया है । शिवकेशी की चिकित्सा करने के लिये जब मैंने वैद्यको बुलाया तव वैद्यने घाव देखने के लिये उसे छूना स्वीकार न किया । दूर से दवा बताकर चलागया । मेरा पद व्यक्तित्व आदि भी उससे यह काम न करासका मेरे पद व्यक्तित्व आदि से भी बढ़कर उसके पास शक्ति थी लोकमत की । किसी ने वैद्यकी लापर्वाही को अनुचित न समझा ।
मैंने जब भाई नन्दिवर्धन से इसका जिक्र किया तो उनने भी कहा- वह चांडाल को कैसे छूता ?
तात्पर्य यह कि पाप आज मनुष्य समाज का सहज स्वभाव वन गया है शासक-शक्ति इसका कुछ बिगाड़ नहीं कर सकती । मैं राजा या सम्राट वनकर भी इस दिशा में कुछ नहीं कर सकता । जगत की सेवा के लिये जंगलमें जाना पड़ेगा, महलों में रहने से न चलेगा । पर यह सब हो कैसे ? और कब ?
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महावीर का अन्तत्तल
२- भीगी आंखें
६ जिन्नी २४२८ इ.सं. - यशोदादेवी की भीगी आंखें मेरी आंखों के सामने से
नहीं हटती । दानया के दुःख और अन्धरशाही देखकर मन मन - वचन तो पहिले स हो था पर कल शिवक्रमी की जो दर्दना । देखी और झुस दुर्दशा को दूर करने में अपने वर्तमान साधना : की अक्षमता का अनुभव किया उससे गनम का ननी मान : असाधारण होगई । मुझे वचन देखकर यांनादवांको मंचनी
मुझ से भी अधिक बढ़ गई। उनने बार बार मुझन मन चंनी का कारण पूछा, पर मैं बताता क्या ? म मन ही मन बहाना चाया कि मेरा वेचनी के इस कारण पर ना नव दल देग। साधारण जन का स्वभाव ता यह है कि उसपर जय कोई संकट खाता है तब वह बेचन हाता है । दृसन के दुख में का. लिक सहानुभूति प्रगट कर सकता है पर सहानुभूति कर नहीं सकता दिन रात बेचैन रहना तो दूर की बात है । नयागेनी क्या समझे ? इसलिये अपनी वेचनी की बात यशोदादनी में भी कहने का मन नहीं चाहता था। पर उनक अन्याना से मरमर बात कहना पड़ी। ... दुनियामें फैलीहुई तृष्णा अनाति. हिवा. पांगता जातिमद यादि की बात जय मन की नव दवा सिर कामद सुनती रहीं। फिर सुनने कहा- देव, आपकी रन्गा माया; और ऐसे करूणाशालो पुगर की पनी हार का मामाग्य. फिर भी मैं प्रार्थना करती हूं कि आप वचन न हों। हमारे दुरनी होनेसे हमारा लुटा हुआ नुख संसार में न जायगा धन लुटने से धन घट सकता ह पर सुख लुटन र सुरनीस्ट सकता।
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(२४
महावीर का अन्तरतल
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मैंने कहा- पर जब तक दृसका दुख अपना दुग्व न बनजायगा तब तक हम उसे दूर करने का गहरा प्रयत्न कसे कर सकते हैं ? दूसरों के दुख में हम जितने अधिक दुखी होंगे परो. पकार क लिये उतना ही अधिक हमारा प्रयत्न होगा। गहरी वेचनी के विना प्रयत्न भी गहग नहीं हो सकता । सुदर्शना के कष्ट को दूर करने के लिये तुम जितना प्रयत्न कर सकती हो क्या उतना ही प्रयत्न किसी दूसरी लड़की के लिये कर सकती हो ? . देवी क्षणभर रुकी फिर बोलीं-नहीं कर सकती।
में- इसका कारण यही तो हैं कि सुदर्शना के कष्ट में जितनी वचैनी तुम्हें हो सकती है उतनी दूसरे के कष्ट में नहीं। देवी-आप ठीक कहते हैं।
. फिर मैने चेहरे पर जरा सुसकराहट लाते हुए कहाअब तो तुम मेरी वेचैनी का कारण समझ गई होगी।
शिष्टतावश देवी ने भी मुसकरा दिया पर मुझे यह समझने में देर न लगी कि मुसंकगहट के रंग के नीचे चिन्ता का रंग था जो कि मुसकराहट के रंग से गहरा था। कुछ देर चिंता करके देवी ने कहा-आपका कहना ठीक है फिर भी मनुष्य अधिक से अधिक आत्मकल्याण ही कर सकता है, जगत को सुधारने की चिन्ता करके भी क्या होगा? जग तो अपार है हम असकी चिन्ता करके भी पार नहीं पासकते । फिर अपना ही कल्याण क्यों न करें ?
देवी की यह तार्किकता देखकर मुझे आश्चर्य न हुआ। बात यह है कि देवी ने भांप लिया है कि मेरा पथ सर्वस्व के त्याग का है और इससे बचने के लिये वे अपनी सारी शक्ति लगाती है, वुद्धि पर भी जोर डालती हैं इसीलिये वे ऐसी युक्ति देसी । पर मैंने अपने पक्ष - समर्थन के लिये कहा
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महावी, का निम्नल
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आत्मकल्याण के लिये भी जगकल्याण करने की जान । जय ... चारों तरफ अनीति, अशान्ति और जड़ता फैली हो न मानी - नीति, शान्ति और बुद्धिमत्ता सफल नहीं हो सकती।
देवी- यह ठीक है। आप अपने स्वजन और परिजनों को परखिये कि कहीं उनमें अनीति, अशान्ति और जरना ना नही है ? यदि हो तो आप उनकी चिकित्सा कीजिये । इमन आपको भी सन्तोष होगा, सुनका भी उद्धार होगा।
, आह ! उनकी यह बात सनकर तामपन्नाला शि. देवी बाहर से विनीत और शान्त रहकर भी भीतर ही भीतर मेरे साथ बौद्रिक मल्लयुद्ध कररही हैं और नये नये पंच डाल रही हैं। इसमें उनका अपराध नहीं है। उनकी वेदना का मानभव करता हूं। पर कर क्या ? मुझे जो सम्यदर्शनमा उसकी सार्थकता इस छोटेनक्षत्र में चन करने में नहीं है कि सब की प्यास बुझाने में हैं। घगतल के भीतर सब जगाः प्रयाः वह रहे हैं पर ऊपर दुनिया प्यास से तहरा रही है.. मग काम कृप खोदकर भीतर छिपा जल निकालना है. और सर में जन
पीन की राह बताना है या वह राह बनाना भी पान , जरा दूसरे ढंग से समझाने के लिय मन देवी का.- 7:
कुत्ता जब कहीं बैठना चाहता है तब पंग से पकाया जा साफ कर लेता है और उननी सफाई सन्तुष्टहरगट जाना है, पर एक पादमी इतने में सन्तुष्ट नहीं होता कामावर सममता है कि मरी पूरी प्रोपही साफ हो । जो मर भी अधिक विकसित हैं वे यह सोचते है कि केवल सोपी से साफ होने से ही क्या होता है ? यहि सापडी के जानन ल मृत भग रहा तो उस झोपड़ी में बने बाजायगा ? जो इसने भी अधिक विकसित होते है वे सोचते हैं कि झोपी क आसपार
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२६]
महावीर का अन्तस्तल
...nnnnnn....
की सफाई से ही क्या होता है ? अपर नगर की अन्य वीथियण आर एथ मलमूत्र से भरे रहे तो ऐसे नगर में रहकर तो गमनागमन भी नहीं हो सकेगा, इसलिये वे चाहते हैं कि सारा नगर स्वच्छ हो। निःसन्देह यह सब वे अपने लिये चाहते हैं, पर उनका स्वार्थ सारे नगर का स्वार्थ सिद्ध होजाता है । यही तो परकल्याण में आत्मकल्याण है । और ऐसा ही यात्मकल्याण में करना चाहता हूँ।
देवी थोड़ी देर तक मौन रहीं फिर धीरे धीरे उनकी आंख भींगों और पलकों पर मोती भी बने। .... । . . . : मैंने अत्यन्त स्नेह के साथ देवी के सिरपर हाथ रक्खा और उनका सिर मेरी छाती पर दुल पड़ा। मन बहुत ही प्रेमल स्वर में कहा-देवी, तुम इतनी घबराती हो! जरा उस अमरता का ध्यान तो करो जो जगत कल्याण के लिये सर्वस्व समर्पण करनेवालों और उनके सम्बन्धियों को मिलती है। फिर आज तो कुछ मैं कर ही नहीं रहा हूँ। विश्वहित के लिये निष्क्रमण का दिन तो काफी दूर मालूम होता है । माता पिता और तुम्हारी अनुमति के बिना मैं निष्क्रमण कभी नहीं करूंगा। फिर भी एक वात तुमसे कहता हूं। तुम क्षत्राणी हो, हर एक क्षत्राणी के पिता पुत्र पात युद्धक्षेत्र में जाते रहते हैं और क्षत्राणी आरती उतार कर अन्हें विदा करती है। युद्धक्षेत्र में विदा करने के लिये किस प्रकार कठोर हृदय की आवश्यकता है यह कहना यावश्यक नहीं, और वही हृदय क्षत्राणियों को मिला होता है फिर तुम्हारे हृदय में इतनी कातरता क्यों ?
देवी ने कहा-देव, क्षत्राणी विदाई की आरती उतारती है पर उस समय भीतर ही भीतर जो वह अपने आंसुओं को पीजाती है वह केवल इसी आशा पर कि फिर किसी दिन वह स्वागत की आरती भी उतारेगी, पर निऋष्मण में यह आशा कहां?
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महावीर का अन्तस्तल
[ २७
... यह कहते कहत देवी का गला भर आया, और मेरी ___ गोद में सिर छिपाकर वे फवक फवक कर रोने लगी। * आंखें मेरी भी भर आई और गला भी भरगया इसलिये में फिर कुछ कह न सका, स्नेह ले उनके सिर पर और पीठ पर हाथ फेरने लगा। बहुत देर में उसने सिर उठाया और भीगी. आंखों से मुझे देखने लगी। . वे भींगी आंखें मुझे इस समय भी दिखाइ दे रही हैं।
३- फोका बसन्त
. १२ जिन्नी १४२८ इ. स. - इधर पंद्रह दिन से यशोदा देवी के व्यवहार में बहुत अन्तर देख रहा हूँ। प्रेम कम होगया है सो बात नहीं है किन्तु उसमें भय आशंका के मिलने से आदर बढ़ गया है। मेरी सूच. नाओं का तुरन्त जल्दी से जल्दी और ठीक ठीक पालन हो इसका अधिक से अधिक ध्यान रखा जाता है । .. मानों में घर का आदमी नहीं, बाहर का अत्यादरणीय अतिथि हूं ! मैं किसी असुविधा से जरा भी अप्रसन्न न होने पाउं इसकी पूरी चेताओं का फल यह हुआ कि इस वर्ष का वसन्त फोका जारहा है। ऐसी कोई घटना नहीं होरही है जिनके स्मरण मात्र से कभी कभी हृदय में गुदगुदी पैदा हुआ करती है।
गत वर्ष ये ही वसन्त के दिन थे । देवी ने उस दिन सखियों के साथ मिलकर मालाएँ गूंथी थीं । इतने में पहुँचा मैं. मते हँसकर कहा--आज तो फूलों का ढेर इकट्ठा किया गया है. क्या कामदेव की आयुधशाला पर छापा मारा गया है ?
मेरी वात सुनकर सब हँसने लगीं, कुछ लजाई भी, पर
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२८ ]
महावीर का अतस्तल
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वतक्कड़ वासन्ती बोली-पर कुमार, कामदेव की आयुधशाला लूटते लूटत सखी की उंगलियां थक गई हैं। . मन कहा-तो तुम सर किसलिये हो? तुम से इतना , भी न हुआ कि सखी की उँगलियां दवाकर उन की थकावट दूर कर देती ?
पर वासन्ती न तो लजाई न चुप रही। उसने तुरन्त ही उत्तर दिया- यह सब हम कर चुके । पर कोमलांगियों के दबाने से थकावट कैसे दूर होसकती है ? असके लिये कुमार सरीखे सशक्त हाथ चाहिये।
__ सब का अट्टहास हवा मेंज गया और मैंने आगे बढ़. कर देवी के दोनों हाथ पकड़ लिये और उँगलियां दबाने लगा। देवी लजा गई, उनने उँगलियां छुड़ाने का नाट्य किया पर उँगलियां छुड़ाई नहीं, सब सुसकराने लगीं। गतवर्ष का वसन्त ऐसा हा रसीला था। . इस वर्ष का वसन्त फीका है। देवी ने मालाएँ इस वर्ष भी बनाई है, नृत्य भी हुए है, शृंगार भी किया जारहा ह, मुझे रिझाया भी जारहा है पर वह उन्मुक्तता नहीं है, जैसी प्रतिवर्ष रहा करता थी। देवी के चेहरे पर यह वात झलकने लगती है कि उन्हें इस काम में काफी श्रम हो रहा है। पहिले वे मुझे अपना माथी समझती थीं इसलिये मुझे बांधकर रखने का परि." श्रम उन्हें नहीं करना पड़ता था अब वे समझती हैं कि मैं भागने. वाला हूँ इसलिये वे सेवा से, शिष्टता से, विनय से मुझे वांधना चाहती हैं। अब मैं उनका सहचर नहीं, आराध्य हूँ। मेरा स्थान अव उनने पहिले से ऊँचा कर दिया है, इतना ऊंचा कि वसन्त का रस उतनी ऊँचाई तक चढ़ नहीं पाता । इस तरह अब वसन्त फीका पड़ गया है।
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२२]
मैं इस समय काफी दुविधा में से गुजर रहा हूँ | जगत अपनी मूक आंहों से मुझे बुला रहा है. पर इधर में आंसुओं से घिरा हुआ है। जगनके प्रति जो मेरा कर्तव्य है वह मुझे दुविधा डाल रहा है कि जातकी सेवा के लिये घर से निकल ! दूसरी कहती है कि एक निरपराध पत्नी को अवैधव्य में भी वैधव्य की यातना देने का तुझे क्या अधिकार है ? कम से कम तू तब तक घर नहीं छोड़ सकता जब तक वे तुझे मन से अनुमति न दे दें। पर वह कौनसी पत्नी है जो ऐसे कार्य के लिये पति को मन से अनुमति दे दे ? और माताजी ! उनका क्या पूछना ? वे तो शायद मेरे जाने की बात सुनते ही आंसुओं की नदी बहाने लगेंगी । पत्नी तो लज्जावश संकोच वश अश की आग की तरह भीतर ही भीतर जलती रह सकती है पर माता को ज्वाला की तरह जलने में क्या वाधा है ? ऐसा होता है कि मुझे इसके लिये कुछ वर्ष रुकना पड़ेगा | वीस वर्ष की अम्र हो चुकी है इसलिये कुछ ही वर्ष और रुक सकता है, पर न जाने कब तक रुकना पड़े ।
5.
मालूम
महावीर का अन्तम्नल
ठीक तो है, मेरे संकल्प को परीक्षा भी तो होना चाहिये. यह भी तो पता लगना चाहिये कि वह क्षणिक आवेग नहीं था । इस बीच अपने विचार पत्नी के मन में भी अंकित करना चाहिये । या तो मुझे विवाह करना ही नहीं था अगर किया था तो भटका देकर ताड़ने की निर्दयता न करना चाहिये | इस वाट देखने में एक लाभ यह भी है कि भविष्य की तैयारी का मुझे काफी अवसर मिलता है |
1
हां ! यह बात जरूर है कि आजकल मेरी जैसी मनोवृत्ति हैं उसे देखते हुए यह वसन्त फीका जारहा है । मुझे अपनी चिन्ता नहीं है। मुझे तो जैसा बन्त वैसा निदाघ, फिर भी मैं चाहता हूँ कि मेरे कारण देवी का वसन्त फोका न जाय । मैं
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[ ३०
महावीर का अन्तस्तल
उनसे कह देनेवाला हूँ कि मेरी तरफ से वे निश्चिन्त रहें, जब मैं अन्हें अपने ध्येय और कर्तव्य की संचाई समभा दूंगा उनकी अनुमति लेलूंगा तभी निष्क्रमण करूंगा । वे प्रसन्न रहें, अन्मुक्त रहें, अपने वसन्त में फीकापन न लायें ।
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४ - आंसुओं का द्वंद
२१ जिन्नी ९४२८ इतिहास संवत्-
सोचा था कि आज देवी को आश्वासन देदूंगा । अनसे आज काफी बातचीत भी हुई पर उन्हीं की तरफ से चर्चा कुछ ऐसी छिड़ी कि बात कहीं की कहीं जा पहुँची । वात उन्हीं ने छेड़ी, लेकिन एक पत्नी की तरह नहीं, किन्तु एक जिज्ञासु शिष्या की तरह । बोलीं-संसार में दो तरह के प्राणी क्या बनाये गये, एक नर दूसरा मादा ? क्या एक ही तरह का प्राणी बनने से काम न चलता ?
1
.
प्रश्न सुनकर मैं देवी के मुँह की तरफ इकटक देखता रहा । उनकी आंखें नाच की ओर थीं इसलिये नजर से नजर न मिली | क्षणभर चुप रहकर मैंने कहा :
काम चलता कि नहीं इस बात को जाने दो, पर यह बताओ कि काम चलता तो क्या अच्छा होता ? -
-यह कहकर मैं मुसकराने लगा | उनने आंखें ऊपर की ओर कीं और जाकर फिर नीची करली । मुसकराहट सुन के भी मुँह पर खेलने लगी । उनने सिर नीचा किये हुए ही कहामैं क्या जानूँ, आप ही बताइये ।
मैंने कहा- तुम जानती हो पर अपने मन की बात मेरे मुँह से भी कहलाना चाहती हो !
मेरी बात सुनते ही उनकी मुसकराहट हँसी नगई और लज्जा का भार इतना बढ़ा कि उनका सिर झुककर मेरी
:
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महावीर का अन्तस्तल
[३..
जांघों पर आगया।
मैंने पीठ पर हाथ फेरते हुए कहा-तुम्हाग मतलब समझता हूँ दो ! पर पहिले शास्त्रीय प्रश्न का शास्त्रीय उत्तर हो देता हूँ।
कार्यकारण की परम्परा की नृष्टि है और हरएक कार्य के लिये निमित्त और उपादान दो कारणों की जनरत है । अगर दो में से एक भी कम होजाय तो कार्य न हो । सुपि रुकजाय अर्थात् नष्ट होजाय । प्राणि सृष्टि में नारी उपादान है. पुन्य निमित्त । तब दो में से एक के बिना कैसे काम चलता?
यह तो हुई तत्वज्ञान की बात और हुई वृष्टि की अनिवायंता । पर सृष्टि के सौन्दर्य और रस की दृष्टि से भी नग्नारी
आवश्यक है, यह बात कहने की तो जरूरत भी नहीं मालम हानी। . मेरी बात सुनकर देवी चुप रहो । इसलिये नहीं कि मेरी बात से उन्हें सन्ताप होगया किन्तु सिर्फ इसलिये कि अधिक उत्तर प्रत्युत्तर करने से कहीं मेरा अविनय न होजाय । किन्तु मैं उनके मन की बात समझता था, इसलिये उन्हें बोलने के संकोच में न डालकर मैंने कहा
अब तुम कहोगी कि यदि ऐसा है तो कुछ लोग संसार के इस सौन्दर्य को नष्ट करने की या रसं को सुखाने की बात क्यों करते हैं ? वे क्यों दुनिया से भागकर निमित्त उपादान का सहयोग तोड़ते हैं ? यही है न तुम्हारे मनकी बात?
देवी ने सिर उठाया और करुणा मिश्रित मुसकुराहट के साथ सिर हिलाकर स्वीकारता प्रगट की।
मैंने कहा-यही मैं तुम्हें समझाना चाहता है। आज संसार का यह रस लुट चुका है, सौन्दर्य नष्ट होचुका है । ग्ल . और सौन्दर्य का पौधा उगे और फूले फले, इसके लिय मुझे
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महावीर का अन्तस्तल
[ ३२
अपना जीवन बीज की तरह मिट्टी में मिलाना है । यह रस मनुष्यमात्र का नहीं, प्राणिमात्र का है पर जब देखता हूँ कि एक गाय के आगे उसका साथी बलीवर्द धर्म के नाम पर टुकड़े टुकड़े कर दिया जाता है, तब उस गाय के या वलीवर्द के जीवन का रस कितना वच पाता है । यही हाल भैंस, भैंसा, बकरा, बकरी, हरिण, हरिणी आदि का है। खैर ! पशुओं की बात जाने दो, पर अस दिन शिवकेशी के सिर से पैर तक की जो सब हड्डियाँ तोड़ दी गई उससे उस शिवकेशी के और उसकी शिवकोशनी के जीवन में कितना रस बचा ? उस दिन पण्डितों के दलों ने जो एक दूसरे के सिर फोड़े तब उन कुटुम्बों में रात में कौनसा रस वहां होगा ? साथी के अतिभोग और व्यभिचार से पतिपत्नी के जीवन में कितना रस रह जाता है ? संसार की संपत्ति जब एक तरफ सिमट जाती है और दूसरी तरफ लोग दाने दाने को मुँहताज होजाते हैं तब उन कंगालों के जीवन में कितना रस रहजाता है ? ये सब रस सुखाने वाले पाप हैं इन्हें निर्मूल करने के लिये मुझे जीवन खपाना है । अगर ये पाप न होते, दुनिया में दुःख न होता तो मुझे जीवन खपाने का विचार न करना
पड़ता ।
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सुनते हैं एक जमाना ऐसा था, जब यहां कोई पाप नहीं था। जन्म से मरण तक दम्पति आनन्दमय जीवन विताते थे । उस समय न तो कोई धर्म - तीर्थ था न तीर्थकर न आचार्य, और प्रजा मरकर देवगति में जाती थी । आज मनुष्य ने मनुष्य का रस लूट लिया है और कोई शक्ति उसे रोक नहीं पा रही है इसलिये उसमें मनुष्यता का भाव भरने के लिये मुझ सरीखे जागरित मनुष्य का जीवन खपाना जरूरी है ।
बात ही बात में मैं एक प्रवचन सा कर गया । देवी भी ध्यान देकर मेरा प्रवचन सुनती रहीं और प्रवचन पूरा होने पर
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महावीर का अन्तस्तल
३३]
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भी कुछ न बोली; पर उनके चेहरे से पता लग रहा था कि वे
कुछ कहना चाहती हैं । मैं भी सुत्सुकता से उनके मुँह की तरफ - इस तरह देखता रहा मानों में कुछ सुनना चाहता हूँ।
.. बड़े संकोच से और धीमे स्वर में सुनने कहा आपके प्रयत्न से अवश्य ही दुनिया के बहुत से दुःख दूर होंगे पर प्रकृति ने ही प्राणी को क्या कुछ कम कष्ट दे रक्ख है ? उनका क्या होगा ?
मैंने कहा मेरे प्रयत्न से ही दुनिया के सब पाप दूर न होजायेंगे, और प्राकृतिक कष्ट भी बने रहेंगे, फिर भी मनुप्य को उनसे बचाया जासकता है, और यह सब होसकता है मनुप्य को जीवन्मुक्त बनाकर ! जीवन्मुक्ति, मुक्ति गा मोक्ष का पाठ भी मनुष्य को देना है। सम्भव है, यह मोक्ष ही मनुष्य के सब दुःखों पर विजय पाने का अमोघ और अन्तिम अस्त्र हो।
देवी कुछ देर चुप रही फिर मुसकुराई, फिर उनने हँसते हुए कहा-ठीक है, मोक्ष का ही पाठ पढ़ाइये ! और इसके लिये पहली शिष्या मुझे बनाइये।
दर्वा को बुरा न लगे, इसलिये उत्तर में मैंने भी हँसदिया: पर घह हँसी अधिक समय तक टिक न सकी । मैने गम्भीर मा होकर कहा-मोक्ष का पाठ पढ़ाने के पहिले तो मुझे मोक्ष प्राप्त करना होगा और उसकी परीक्षाओं में उत्तीर्ण होना होगा। मुक्त ही मुक्ति का पाठ पढ़ा सकता है, दूसरों को मुक्त बना सकता है।
दर्वा कुछ समय चुप रहीं, फिर बोलीं-अच्छा है मुक्ति का अभ्यास कीजिये ! मैं मुक्ति साधक की सेवा करके ही अपने को कृतकृत्य समझूगी।
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[३६
जो शीघ्रता थी जो सम्भ्रम था वह पहिले न होता था। समझ गया कि यशोदादेवी के जरिये मेरे मानस - समाचार यहां पहुँच गये हैं 1
महावीर का अन्तस्तल
माताजी ने मेरी ठुड्डी को हाथ लगाकर कहा- बेटा ! सुनती है आज कल तुम बहुत उदास रहते हो, अगर किसी से कुछ अपराध होगया हो तो तुम. इच्छानुसार दण्ड दे सकते हो पर इस तरह उदास बनने की क्या आवश्यकता ?
मैंने कहा - अपराध करने पर जिन लोगों को में दण्ड देसकता हूँ उनमें से किसी ने कोई अपराध नहीं किया है, बल्कि उनके सामने तो में स्वयं अपराधी हूं क्यों कि उन्हें चिन्तित और दुःखी कर रहा हूं । पर जो वास्तव में अपराधी हैं, उन्हें दण्ड देने की शक्ति न मुझमें है न तुम में, न भाई नन्दिवर्धन में है न पिताजी में ।
माताजी मेरी बात सुनते ही. पहिले तो आश्चर्यचकित होगई, फिर मुखमण्डल पर रोप छांगया। फिर जरा जोश के साथ बोली- वर्द्धमान ! बताओ तो वह कौन हुए हैं जो मेरे बेटेका अपराध करके अभी तक जीवित है, जरा उसका नाम ठिकाना तो सुनू ।
मैं- मैं समझता हूं माताजी, उसका नाम ठिकानां यशोदा देवी ने तुम्हें बता दिया होगा ।
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माताजी - क्या शिवकेशी को घायल करनेवाले ब्राह्मणों तुम्हारा मतलब है !
मैं- न केवल उन ब्राह्मणों से ! किन्तु हजारों शिवकेशियों को घायल करने वाले लाखों ब्राह्मणों से ! लाखों मूक पशुओं के 'खूनका कीचड़ बनानेवाले हजारों राजन्यों और ऋपिम्मन्यों से !!
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महावीरका अन्तस्तल
३७ ]
नीति सदाचार की हत्या करने वाले हर एक मनुष्याकार जन्तु से मेरा मतलब है !!! ये सब अपराधी हैं।
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माताजी स्तब्ध होगई। बड़ी देर तक उनके मुंह से एक शब्द भी न निकला फिर एक गहरी सांस लेकर बोली बेटा, तुम मनुष्य नहीं देवता हो: तुमने मुझे राजमाता नहीं देवमाता बनाया है । सचमुच तुम कितने महान हो। फिर भी तुम जिन अपराधियों का जिक्र करते हो अन्हें कौन दण्ड देसकता है ! मनुष्य तो दे ही नहीं सकता पर देवता भी नहीं सकते। ऐसे असम्भव कार्य की क्यों चिन्ता करते हो मेरे लाल !
पिछली बात बोलते बोलते माताजी की आंखें गीली होगई और सुनका अंचल आंखें मसलने लगा ।
माताजी की यह वेदना देखकर मेरा हृदय तिलमिलाने लगा | फिर भी मैंने धीरज से उत्तर दिया
माताजी, संचमुच देवता वह कार्य नहीं कर सकते क्योंकि देवता कृतकृत्य होते हैं, पर मनुष्य कृतकृत्य नहीं होता वह 'कर्तव्यकृत्य' होता है, कर्मzar ही का जीवन है, यह असंम्भव को संम्भव कर सकता है । मैं जगत को जाएँगा और उसे बदल दूंगा ।
मेरे ओजस्वी वाक्य सुनकर माताजी के चेहरे पर फिर तेज दिखाई देने लगा । उनने प्रसन्नता से मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए कहा-अच्छा है बेटा, तुम जगद्विजयी बनो, चक्रवतीं वनो ! दुनिया को जीतकर अनीति अन्याय सब दूर करदो ! यह उदासीनता छोड़ो ।
मैंने कहा- मां, मैं इसीलिये तो उदासीन बना है । ददा"सीन बने विना जगत को देख भी तो नहीं सकता ।
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महावीर का अन्तरतल
श्र
माताजी मेरे मुंह की तरफ देखती रहगई । मैंने कहाठीक ही कहता हूं मां ! उदासीन का अर्थ है उत्-आसीन अर्थात् ऊपर बैठा हुआ । जो जितना ज्यादा अदासीन अर्थात् ऊपर बैठा हुआ है वह उतना ही अधिक देख सकता है । भूतल से जितने दूर का दिखाई देता है प्रासाद पर बैठकर देखने से अससे वहुत अधिक दिखाई देता है गिरिशृंग पर बैठने से उससे भी अधिक । जो जितना अधिक उदासीन वह उतना ही अधिक दृष्टा ।
३८ ]
माताजी मेरी बातें सुनकर चकित तो होगई पर सन्तुष्ट न हुई । उनने सन्देह के स्वर में पूछा - पर उदासीन होने से चक्रवर्ती कैसे बन सकोगे बेटा !
1
मैंने कहा- मुझे चक्रवर्ती बनने की जरूरत नहीं है मां, * चक्रवता वनकर भी मैं उन अपराधियों को दण्ड नहीं दे सकता जिनका उल्लेख अभी कर चुका हूं । रामचन्द्रजी चक्रवर्ती थे सम्राट् थे पर वे क्या कर सके ? एक शूद्ध के तपस्या करने पर उन्हें इच्छा न रहने पर भी उसका वध करना पड़ा । चक्रवर्ती लोगों के हृदयों पर शासन नहीं कर सकता, और हृदयपरि वर्तन तो उसके लिये असम्भव है । ऐसा चक्रवर्ती बनकर मैं क्या करूंगा ?
माताजी फिर बेचैन हुई पर वे ज्यादा कुछ न बोल सकीं, सिर्फ इतना ही कहा तो फिर ?
•
मैने कहा- मुझे इसकेलिये बड़ी भारी साधना करना पड़ेगी मां, निष्क्रमण करना पड़ेगा, वर्षों तपस्या करना पड़ेगी, कल्याण का मार्ग बनाकर दुनिया को उसकी झांकी दिखाना पड़ेगी । एक महान् आध्यात्मिक जगत् की रचना करना पड़ेगी । माताजी कातर स्वर में बोलीं- यह ठीक है बेटा, तुम ! जगत् का कल्याण करोगे; सुरूका ताप हरोगे, पर क्या मां के
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महावीर का अन्तस्तल
[ ३२
बारे में तुम्हारा कोई कर्तव्य नहीं है ?
मैं- मैं इसे अस्वीकार नहीं करता माँ, पर आशा करता हूं तुम मुझे जगत्कल्याण के लिये समर्पित करने की उदारता दिखाओगी? साथ ही मुझे यह भी विश्वास है कि मेरे न रहने पर भी भाई नन्दीवर्धन तुम्हारी सेवा में किसी तरह की कोई कमी न रखेंगे ।
माताजी जरा उत्तेजित सी होगई और बोलीं- हां! हां ! कमी क्या होगी ? रोटी मिल ही जायगी, पेट भर ही जायगा । पर क्यों वर्धमान, क्या जीवन का सारा आनन्द पेट में ही रहता है ? मन से कोई सम्बन्ध नहीं ?
मैं ऐसा तो मैं कैसे कह सकता है ? मन न भरे तां पेट भरने से क्या होगा ?
मां - तब क्या तुम सोचते हो कि जिसका जवान बेटा बिछुड़ जायगा उस मां का मन भरेगा ? अरे ! मन भरने की बात जाने दो, पर सुहाग तो नारी का सबसे बड़ा धन है पर जिसकी पुत्रवधू विधवा न होनेपर भी विधवा की तरह जीवन वितायगी वह किस मुँह से अपने सुहाग का अनुभव करेगी ? यशोदा मुँह से कुछ कहे या न कहे पर सामने आते ही उसकी आंखें मुझसे पूछेंगी क्यों मां. इसी दिन के लिये तुमने मुझे अपनी पुत्रवधू ? बोल तो बेटा, उस समय में असे क्या उत्तर दूंगी ? ४. बनाया था और कैसे उसे मुंह दिखा सकूँगी ?
मैं चुप रहा ।
मां ने फिर अत्यन्त करुण स्वर में कहा- तेरे जाने पर सारा जग उसकी हँसी उड़ाया ? असके सुहाग चिन्ह उसे पूछेंगे- अब हमारा बोझ किसलिये ?
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४० ]
महावीर का अन्तस्तल
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अब तू ही बता, उसकी यह दुर्दशा देखकर मुझे कैसे तो नींद आयगी ! कैसे अन्न निगला जायगा ? आंसू बहाते वहाते आंखों के आंसू भी तो चुक जायेंगे फिर इन सूखी और फटी आंखों से कैसे दुनिया देख सकूंगी ? क्या जीवन के अन्त में मुझे यही नरक यातना सहना पड़ेगी ? इसलिये: बेटा ! तुझे करना हो सो कर ! आध्यात्मिक जगत् का महल खड़ा करें, पर वह सब मेरी चिता पर । मेरी चिता या मेरी लाश सब बोझ उठालेगी, पर इस बूढ़ी मां में इतनी शक्ति नहीं है बेटा ! मेरे जीवन भर तो तुझे घर में ही रहना पड़ेगा ।
यह कहकर मां ने काफी जोर से मेरा हाथ पकड़ लिया मानों वे कोट्टपाल हों और मैं कैदी ।
फिर वे बोलीं- कहो ! कहो बेटा ! क्या इस बुढ़िया मां का कमजोर हाथ मकझोरना चाहते हो ?
ra मैं क्या कहता ? सांकल तोड़ सकता था, पर वात्सल्यमयी मां का हाथ छुड़ाने की शक्ति कहां से लाता ? मां का हाथ झकझोरने के लिये मनुष्यता का बलिदान चाहिये, पशुता का उन्माद चाहिये । वह मुझ में है नहीं, आ भी नहीं सकता । इसलिये मैंने कहा- तुम्हारे हाथ को कोरने की शक्ति मुझमें नहीं है मां, इसलिये मैं तुम्हें वचन देता हूं कि तुम्हारे जीवनभर मैं निष्क्रमण न करूंगा ।.
मां ने झपटकर मुझे छाती से लगा लिया, मेरे सिर को चार बार चूमा और इसप्रकार फूट फूट कर रोने लगीं कि मानों मैं वर्षो से कहीं गुमा हुआ था और आज ही मिलगया हूं ।
इसप्रकार एक अनिश्चित काल के लिये निष्क्रमण रुक गया है । अब घर में ही अभ्यास करना है !
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महावी ( का अन्तस्तल
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६-- अधूरी सान्त्वना
२४ जिन्नी ६४२८ इतिहास संवत . आज जब मैं देवी के कक्ष में गया तो देखा कि देवी के मुखमण्डल की आभा कुछ बदली हुई है । हल्की सी निश्चितता का थानन्द सपर छाया हुआ है। माता जी को जो मने बचन दिया है, उसके समाचार वहां उसी समय आगये होंगे । इसलिये देवी ने स्वागत किया तो लच्चो मुसकुराहट के साथ।
मैंने भी मुसकुराहट के साथ कहा-आखिर तुम जीतगई - देवि! .
देवीने कहा- मैं क्या जीतती, मैं तो कभी की हार चुकी थी, जीत तो माताजी की हुई ?
. मैंने कहा- हां, रथ माता जी का और बाण तुम्हारे ।
देवी सिर नीचा किये मुसकुराती रही और अंगूठे से जमीन कुरेदती रही । तब मैन कहा-अगर तुम माताजी के पास न जाती तो भी काम चलता।
मैं खड़ा था, देवी भी खड़ी थी, मेरी बात सुनते ही देवी मेरे पैरों से लिपट गई और करुण स्वर में बोली-अपराध क्षमा
हो देव, नारी अपने सुहाग के लिय न जाने क्या क्या कर . डालती है, फिर माताजी तो माताजी हैं, ऐसे अवसर पर उनकी
शरण में जाने में मुझे क्या लाज आती ? मैं अपनी अन्तर्वदना . आपको कैसे दिखाऊ ? अगर हृदय चीर करके दिखाने की चीज होता तो मैं दिखा देती कि आपके मुंह से निष्क्रमण की बात
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४२]
महावार का अन्तस्तल
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सुनने के बाद से उसमें कैसा हाहाकार मचा हुआ है !
यह कहते कहते उनके आंसुओं से मेरे पैर धुलने लगे। - मैंने कहा-माताजी के पास जाने का उलहना नहीं देरहा
९ देवि! वह तो तुम्हारा अधिकार था और उचित भी था । मैं __ तो सिर्फ अपने मन की अधूरी . वात का पूरा खुलासा कर देना चाहता हूँ।
यह कहते कहते मैंने देवी को अठाकर खडा किया। उनने अपना सिर मेरे वक्षःस्थल पर टिका दिया मेन अपने उत्तरीय से उनके आंसू पोंछे । क्षणभर शांत रहने के बाद मैंने कहा-मैं जो तीन दिन पहिले तुम से वात कहना चाहता था . चह नहीं कह पाया था। उस दिन चर्चा अकस्मात् ही कहीं से कहीं जा पहुंची।
देवी ने कहा-उस दिन सचमुच चर्चा वेढंगी होगई, मैंने ही अपनी सूर्खता से एक अटपटा प्रश्न पूछ लिया।
मैं-प्रश्न तो अटपटा नहीं था पर न जाने क्यों वात कहीं से कहीं जा पहुँची। खैर! अब कह देता हूँ। यद्यपि अब मैं माताजी को वचन दे चुका हूँ पर अगर न भी देता ता भी जब तक तुम्हें में अपने निष्क्रमण की उपयोगिता न समझा देता तव तक निष्क्रमण न करता । हां, यह होसकता है कि धीरे धीरे मेरी मनोवृत्ति और दिनचर्या ऐसी बदल जाय कि शायद तुम्हारे लिये मेरा जीवन उपयोगी न रहजाय ।
देवी कुछ देर सोचती रही, फिर बोली-आपका नित्यः दर्शन ही मुझे पर्याप्त है देव ! आपका हाथ मेरे सिर पर रहे, आपके वक्षःस्थल पर कभी कभी सिर टिका सफू इतनी भिक्षा की मैं भिक्षुणी हूँ। मैं जानती हूँ कि आप सिर्फ एक राजकुमार ही नहीं हैं, एक राजकुमारी के पति ही नहीं है, किन्तु लोकोत्तर
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महावार । अन्तस्तल
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महापुरुप हैं । एसे महान् लोकोत्तर महापुरुष की पत्नी के गौरव के योग्य में नहीं हूँ । जब कभी मेरे दिल में ये विचार आते हैं तब अपनी क्षुद्रता का खयाल कर मैं सिकुड़ जाती हूं । फिर भी आपकी पत्ती नहीं तो आपकी दासी का स्थान सुरक्षित रखना चाहती है।
- यह कहकर देवी ने मुझे जोर से जकड़ लिया । उनके आंसुओं से मेरा वक्षःस्थल भींगने लगा।
आखिर आज भी बात अधूरी सी रही। मैं सान्त्वना देकर चला आया।
७-संन्यास और कर्मयोग
७-बुधी ६४२८ इ. सं. अय गर्मी ज्यादा पड़न लगी है, इसलिये आज शय्या प्रासाद के छतपर लगाई गई थी, देवी की शय्या भी अनतिदूर थी । पश्चिम में लालिमा नप्त होते ही म छतपर चला गया। सब लोग कामकाज में थे इसलिये छतपर एकान्त था और में एकान्त चाहता भी था । देवी ने तुरन्त सुपर्णा दासी को मजा किन्तु मैन ही उसे वापिस कर दिया। पर मेरे भाग्य में इससमय एकांत बदा ही न था, थोड़ी देर में जीने पर किसी के चढने की फिर आवाज आई । मैंने कहा-कौन ? सुपर्णा ? __ आवाज आई-सुपर्णा नहीं, विष्णुशर्मा ।
और आवाज के साथ अधेड़ उम्र के एक सज्जन आते दिखाई दिये। पास आकर उनने अपने ही आप कहना शुरू किया-माता जी से मालूम हुआ कि आप बड़े तत्वज्ञानी ह, इसलिये सोचा आपसे कुछ चर्चा करूं!
मैं-तो आप अभी माता जी के यहां से आरहे हैं ?
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महावीर का अन्तस्तल
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वे-नहीं, माता जी तो कल मिली थीं । कल मेरे प्रवचन में वे पधारी थीं । प्रवचन के बाद ही उनने मुझे आप का परिचय दिया था और आपसे मिलने का अनुरोध भी किया था।
मैं- अनुरोध करते समय सिर्फ माता जी थीं और कोई नहीं था? .
. वं-नहीं, कुछ दासियाँ भी थीं और दोनों ओर उनकी दोनों पुत्रवधुएँ भी खड़ी थीं।
मैं- मेरी भाभी और यशोदा देवी ?' वे- जी हां! मैं-उनने कुछ नहीं कहा ?
वे-सभी ने कहा। सभी की इच्छा थी कि मैं आप से मिलूं।
हुँ...' कहकर मैं कुछ देर चुप रहा। अभी अभी तक हम लोग खड़े ही थे। मैंने कहा-तव वैठिये.! मैंने अन्हें आसन वताया, मैं भी एक आसन पर बैठ गया। बैठने पर मैंने पूछाकल आपका प्रवचन किस विषय पर हुआ था ?
वे चोले- विषय था योगभोग के समन्वय का, उसमें राजर्षि जनक और श्रीकृष्ण के उपाख्यान कहे गये थे।
मैं- बहुत ही अच्छा और उपयोगी विषय था । वे- क्या आप कर्मयोग को मानते हैं ? मैंने कहा- मानता हूँ।
वे-पर मैने तो सुना है कि आप संन्यास की तैयारी कर रहे हैं।
समझ तो मैं पहिले ही गया था कि शर्माजी क्यों आये
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हावीर का अन्तस्तल
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है ? जब उनके भेजने में यशोदा देवी और माताजी का हाथ था तब आने का उद्देश. साफ ही था, पर जब उनने मेरे संन्यास की बात उठाई. तब रहा सहा सन्देह भी दूर होगया। फिर भी मैने अपना मनाभाव दवाते हुए कहा-कमयोग की साधना के लिये जिस संन्यास की जरूरत पड़ती है उसी संन्यास की तैयारी में कर रहा हूँ। जीवन की थकावट के बाद पैदा होनेवाले संन्यास की अथवा संसार में शान्तिपूर्वक रहने की असमर्थता से पैदा होनेवाले संन्यास की नहीं।
शर्मा-क्या आप मानते हैं कि संन्यास भी कर्मयोग की भृमिका बन सकता है ? : मैं-कर्मयोग ही नहीं हर एक कर्म की भूमिका संन्यास बन सकता है और प्रायः बनता है।
शर्मा-इस बात को कुछ उदाहरण देकर स्पष्ट कीजियेगा?
मैं-गृहस्थाश्रम तो कर्म का मुख्य क्षत्र है पर उसकी ___ योग्यता प्राप्त करने के लिये ब्रह्मचर्याश्रम बनाया गया है जिसमें
संन्यासी सरीखी साधना करना पड़ती है । संन्यास में यही तो जरूरी है कि मनुष्य ब्रह्मचारी रहे. इन्द्रियों के भोगों की पर्वाह न फरे. अपनी साधना को छोड़कर अन्य किसी से मोहन रक्खे जो कुछ विपदा आय उसे सह जाय । संन्यास के ये गुण मनुष्य को हर एक कर्मसाधना म प्राप्त करना पड़ते हैं। जीवन में उतारना पड़ते हैं, एक सेनिक को भी युद्ध में इन गुणों का परिचय देना
पड़ता है | सुनते हैं कि विद्याधर लोग विद्यासिद्धि के लिये , कठोर तपस्याएँ करते हैं। रावण वगैरह ने भी अपनी दिग्विजय . के पहिले सन्यासियों का भी मात करनेवाली तपस्या की थी।
विष्णुशर्मा जरा उल्लास में आकर वोले-ठीक ! ठीक !! समझगया । आप विश्वविजय की तैयारी करना चाहते हैं ।
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मैंने कहा-हां! .. शर्मा-बड़ी प्रसन्नता की बात है । पर दिग्विजय करने के वाद इस गरीव विष्णुशर्मा को न भूलियेगा।
मैं-सो तो न भूलूंगा पर मैं समझता हूँ कि मेरी दिग्विजय का फल चखने के लिये विष्णुशर्मा तैयार न होंगे।
शर्मा-ऐसा कौन मूर्ख होगा जो चक्रवर्ती की छत्रच्छाया से इनकार करदे । .
__ मैं-पर धर्म चक्रवर्ती की छाया में रहने को विरले ही तैयार होते हैं।
__शर्मा जी आश्चर्य से मुंह बाकर रहगये। थोड़ी देर स्तब्धता रही। किर उसने कहा-क्या धर्म-चक्र के द्वारा आप दिग्वि. जय करना चाहते है ? पर इससे क्या लाभ ? .
मैं-किसका लाभ ? मेरा या समाज का ?
शर्मा-आपका और समाज का भी । इसकाम में जीवन निकल जायगा पर सफलता न मिलेगी। जीवन भर कष्ट झुठाते रहना पड़ेगा तब आप को क्या लाभ हुआ! रही समाज की बात सो समाज तो कुत्ते की पूँछ की तरह है, वह कभी सीधीन होगी। देखिये न, वेद के निरर्थक क्रियाकांडों के विरोध में उपनिषत्कारों ने कैसे कैसे वाक्य लिखे, वेद को अपरा विद्या कह दिया, यज्ञ की आध्यात्मिक व्याख्या कर डाली पर यज्ञकांड तनिक भी नहीं घटे । समाज रूढ़ियों का दास वना ही हुआ है और हम लोग भी उस दासता से नहीं छूट पाते, छूटे तो भूखों मर जायँ। . .
मैं-पर अगर आप भूखों मरने की हिम्मत कर सकते तो भूखों भी न मरना पड़ता, इस दासता से भी छटते और समाज को भी छुड़ादेते।
कैसे कैसे वाया डाली पर यज्ञकाड
तालोग भी
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महावीर क अ तर ल
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शर्मा-पर स्त्री बच्चों का क्या होता ?
मैं- यह ठीक है, एक बैल दो गाड़ियों में एक साथ नहीं जुन सकता; और यही कारण है कि मुझे क्रांति के लिय गृहत्याग की तैयारी करना पड़ रही है। ऐसे संन्यास के लिये तैयार होना पड़ रहा है जो क्रांतिकारी कर्मयोग की भूमिका बनसके ।
विष्णुशर्मा कुछ देर चुपरहे, फिर बोले-आपसे में बहुत बात कहने, या कहने नहीं सिखाने, आया था, किन्तु आपकी बातें सुनकर वे सब भूलगया हूँ। सत्रमुत्र संन्यास को कर्मयोग की भूमिका बनाना या कर्मयोग को संन्यास का वेष पहिनाना एक अद्भुत आविष्कार है । हां! मार्ग कठिन है । आप राजवंशी है इसलिये देखिये ! जनक और श्रीकृष्ण की राह पर चलकर आप क्रांति की तैयारी कर सकें तो चेष्टा कीजिये। .
मैं-झुपनिषत्कारों का उल्लेख करके आप स्वयं कहचुके है कि अभी तक शुन्हें कोई सफलता नहीं मिली है। जनक और कृष्ण भी सेर में पानी नहीं कात पाये थे । इसके लिये बड़े पैमाने पर नये ढंग के बलिदान की जरूरत है । अब पुराने चिथड़ो से थेगरा लगाने से काम न चलेगा, नया कपड़ा ही बुनना पड़ेगा।
शर्माजीने गहरी सांस ली और बोले-आशीर्वाद देने योग्य तो नहीं हूं किन्तु वय के मान से आपसे बड़ा हूं और उसी हैसियत से आप को आशीर्वाद देने का साहस करता हूं कि आप अपने प्रयत्न में सफल हो।
यह कहकर विष्णुशर्मा चले गये। उनके जाते ही देवी आई, वे पाल में ही छिपे छिये सब
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चर्चा सुन रही थी । आते ही उनने अपने चेहरे पर मुसकुराहट लाने की चेष्टा करते हुए कहा- आर्यपुत्र को बधाई ! मैंने पूछा- किस बात की ?
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देवी ने कहा- एक दिग्गज विद्वान को चुटकियों में परास्त करने की ।
मैंने हँसते हुए कहा - यदि दिग्गज विद्वान् परास्त न हुआ होता, आर्यपुत्र परास्त हुआ होता तो किसे बधाई देती ? देवीने निःसंकोच भाव से मुस्कुराते हुए तुरन्त कहा तो अपन को ।
मैंने मुसकुराहट को जरा बढ़ाकर कहा - बाहरे पति - प्रेम ! देवी बोली- पतिप्रेम है, इसीलिये तो !
मैं- इसीलिये तुम पतिका पराजय पसन्द करती हो ? देवी- अगर पराजय मिलन को स्थायी बना देनेवाला हो तो उसे पतिप्रेम की निशानी समझना चाहिये ।
यह कहते कहते देवी मेरी गोद पर लेट गई और फिर वोली
म जानती हूँ कि आप बहुत ऊंचाई पर हैं पर न तो मुझ में उतनी ऊंचाई तक चढ़ने की ताकत है, न आपको दूर रखने की हिम्मत, इसीलिये आपको नीचे खींचने की धृष्टता करती रहती हूँ । इस घृष्टता के सिवाय मुझे कोई दूसरा उपाय ही नहीं सूझता । पिछले वाक्य बोलते समय देवी का स्वर बदलगया, आवाज रुंधे गले से आई और मेरी जाँघपर एक आंसू भी टपका । मैं देवी की पीठ पर हाथ फेरने लगा।
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महावीर का अन्तस्तल
८- सीता और ऊर्मिला के उपाख्यान
१ लुंगी ६४२
इतिहास संवत्
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नगर में कई दिनों से रामलीला होरही है, घर के सब लोग रामलीला देखने जाते हैं, खासकर स्त्री वर्ग । मैं अभी तक नहीं गया | देवी ने एकाधिक बार अनुरोध किया पर में प्रेम से टालता रहा | इन खेल तमाशों में मेरी रुचि नहीं है । पर कल देवी का अनुरोध अत्यधिक था । इतना अधिक कि सुनने कहा कि यदि आप आज भी मेरे साथ रामलीला देखने न गये तो मैं जीवनभर कोई खेल न देखूँगी । अनके इस उन अनुरोध का कोई विशेष कारण होना चाहिये- इतना तो समझ गया था, परं वह क्या था ? यह बात तब न समझ पाया था; खेल देखते देखते समझ गया I
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बात यह हुई कि कल राम के वनवासगमन का दृश्य दिखाया जानेवाला था । वास्तव में दृश्य करुण था । राज्याभिषेक होने के दिन ही राम को वनवास की तैयारी करना पड़ी । वनवास सिर्फ राम को दिया गया था, पर सीतादेवी ने साथ न छोड़ा. वन की विभीषिका उन्हें न डरा सकी, दाम्पत्य में नरनारी तादात्म्य कैसा होसकता है ! इस का बड़ा ही मर्मस्पर्शी
दृश्य था ।
देवी मेरी बगल में कुछ सटकर ही बैठी थी उनकी बगल में भाभी और माताजी थीं । कुछ अधिक कहते सुनने या इंगित करने का अवसर न था । पर जब सीतादेवी के अनुरोध या प्रेम के आगे रामको हार मानना पड़ी, सीतादेवी को बन में अपने साथ रहने की अनुमति देना पड़ी तत्र देवी ने धीरे से मेरी जांघ में चिकौटी भरी ।
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महावरि का अन्तस्तल
तात्पर्य स्पष्ट था | देवी को यह निश्चय हो गया था कि आज नहीं तो कल मैं वनगमन करने वाला हूँ, इसलिये देवी की इच्छा है कि मैं उन्हें वन में साथ रक्खूँ । अगर राम की सीतादेवी राम के साथ वनवास सकती है तो वर्द्धमान की यशोदा देवी बर्द्धमान के साथ क्यों नहीं कर सकती ? यही बात समझाने के लिये देवी अत्यधिक अनुरोध से मुझे रामलीला दिखाने लाई थी। राम के वनगमन में और वर्धमान के वनगमन में जो अन्तर है, उद्देश और परिस्थिति का जो भेद है, वह देवी के ध्यान में नहीं आरहा था ! अस्तु ।
रामलीला आगे बढ़ी। राम के साथ लक्ष्मण भी तैयार हुए राम ने बहुत मना किया पर लक्ष्मण न माने | लक्ष्मण का जोश खरोश, राजमहल के पत्रों के प्रति घृणा, कैकई के नामपर दाँत पसिना, दशरथ के न मपर भी जली कटी सुनाना आदि लक्ष्मण का अभिनय बहुत सुन्दर बन पड़ा था । इस विषय में भी राम का प्रमेपराजय हुआ । उन्हें लक्ष्मण को साथ रखने की अनुमति देनी पड़ी।
इसमें सन्देह नहीं कि रामायण में लक्ष्मण का स्थान बहुत ऊँचा है । वे लक्ष्मण ही थे जिनने अपनी उदारता से बतलादिया था कि दो भाई मिलकर नरक को स्वर्ग बना सकते हैं, जंगल में भी मंगल कर सकते हैं ।
इसके बाद वह परम करुण दृश्य आया जिसमें लक्ष्मण अपनी पत्नी उर्मिला देवी से विदा लेते हैं । लक्ष्मण ने राम की उन युक्तियों को नहीं दुहराया, जिन्हें सीता देवी ने राम के मुँह से सुनकर काटदिया था । उर्मिला देवी ने जब दावा किया कि मैं जीजी ( सीतादेवी ) से कम कष्टसहिष्णु नहीं हूँ । तव लक्ष्मण ने बड़े मर्मस्पर्शी तरीके से कहा- देवि ! मैं तुम्हारी कष्ट. सहिष्णुता पर अविश्वास नहीं करता पर मुझे सेवा की जो
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महावीर का अन्तम्तल
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ArshARArAhArAnni
साधना करना है उसमें तुम मेरा सहयोग अलग रहकर ही कर सकता हो । भैया को वनवास के दिन पूरे करना है सुनकी कोई विशेष साधना नहीं है, वे अपने दिन भाभीजी को साथ रखकर भी पूरे कर सकते हैं । पर मुझे तो भैया भाभी की सेवा करने की साधना करना है, उनको आराम से जंगल में भी नींद आये, इसलिये मुझे कोदण्ड चढ़ाये गत रात पहारा देना है, प्रत्येक असुविधा और संकट की राह में अपनी छाती अड़ा देना है । यह सब तुम्हारे साथ कैसे होगा? क्या तुम सोचती हो कि भैया भाभी को सुख की नींद आये इसलिये मैं तुम्हें साथ लेकर पहरा दूंगा ? क्या भैया भाभी एक क्षण के लिये भी इस बातको सहन कर सकेंगे? यह सत्र असम्भव है ! असम्भवतम है !!
ऊर्मिला देवी नीची दृष्टि किये खड़ी रही । क्षणभर बाद लक्ष्मण ने फिर कहा-मैंने इस साधना को जो स्वेच्छा से अपनाया है, वह केवल इसलिये नहीं कि मैं भैया का भक्त हूँ किन्तु इसलिये कि मनुष्यता के ऊपर, न्याय के ऊपर, भगवान के ऊपर जो संकट आया है वह टलजाय, निर्विष होजाय । मर्यादा पुरुषो. त्तम राम को अगर न्यायमूर्ति होने कारण वन वन भटकना पड़े और उस समय यह जगत् लक्ष्मण सरीखा एक तुच्छ सेवक भी उनकी सेवा में न रख सके तो मैं सच कहता हूँ देवि ! विधाता के आंसुओं से यह जगत् बह जायगा, यह कृतघ्न. जगत् सत्येश्वर के कोप से रसातल में चला जायगा सत्येश्वर को प्रसन्न रखने के लिये मुझे यह साधना करना ही चाहिये और जगत् के कल्याण के लिये तुम्हें भी मेरा वियोग सहना चाहिये ।
ऊर्मिला की आंखों से आँसू बहने लगे । कठोरं हृदय लक्ष्मण की आंखों में भी आंसू आगये । उनने उर्मिला को छाती से लगाकर कहा-मैं जानता हूँ देवि ! कि मेरी साधना से तुम्हारी साधना कितनी कठिन है ! मेरे तो लेवा करते करते बारह वर्ष
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यों ही निकल जायँगे पर तुम्हें एक युग का प्रत्येक क्षण गिन गिनकर निकालना है । फिर भी दुनिया मेरी तपस्या देखेगी और तुम्हारी तपस्या न देखेगी नीचे के पत्थर पर मन्दिर खड़ा होता है पर उसे कौन देखता है ?
इतना कहकर लक्ष्मण ने ऊर्मिला के आंसू पोछे, ऊर्मिला ने गद् स्वर में कहा जाओ देव-जाओ ! सत्य और न्याय के सिंहासन को सुरक्षित रखने के लिये जंगल में साधना करो ! तुम्हारी कर्तव्यनिष्ठा तुम्हें राज- मन्दिर में नहीं रहने देना चाहती तो भले ही न रहने दे, पर मेरे हृदय मन्दिर से निकालने की शक्ति किसी में नहीं है; विधाता में भी नहीं !
लक्ष्मण ने कहा- देवि, तुम्हारी इस तपस्या को कोई पहिचाने या न पहिचाने पर एक हृदय जरूर ऐसा है जो तुम्हारी इस साधना का मूल्य आंकने में कपर्दिका की भी भूल न करेगा ।
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इतना कहकर धीरे धीरे लक्ष्मण विदा होगया । उनके विदा होते ही ऊर्मिला मूच्छित होकर गिर पड़ी ।
इसमें सन्देह नहीं कि लक्ष्मण और ऊर्मिला का अभिनय अत्यन्त स्वाभाविक और कलापूर्ण था, उसने सारी सभा को स्तब्ध बनादिया था । पर रंग मंच पर तो केवल अभिनय था, जब कि मेरे ही बगल में व अभिनय वास्तविकता में परिणत होगया ! मंच पर से लक्ष्मण के विदा होते ही यशोदा देवी कांपने लगी और थोड़ी देर में उनका शरीर पसीना-पसीना हो गया। मैं उन्हें सम्हालूँ इसके पहले ही वे मूर्च्छित होकर गिर पड़ीं । मैंने और भाभी ने झपटकर उन्हें उठा लिया । संभा उठ खड़ी हुई । भीड़ ने हम सब को घेर लिया । किसी तरह
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भीड़ को हटाकर देवी को राजमन्दिर में लाया गया। वहां शीतलोपचार करने पर उन्हें होश आगया । होश आते ही उनकी नजर मुझपर पड़ी और ३ मुझसे लिपटकर फूटफूटकर रोने लगी। यह अच्छा हुआ, उनकी जीवनरक्षा के लिये इस प्रकार रोना जरूरी था । अन्यथा दबी हुई वेदना आंखों के द्वार से न निकलती, हृदयं का विस्फोट कर निकलती ।
दवी के आंसुओं से मैं अपना उत्तरीय पवित्र करता रहा। . ९- नारी की साधना -
___ ५धनी ६४२६ इ. संवत्. करीव एक वर्ष से निष्क्रमण का नाम भी मैं मुंहपर नहीं लाया हूं । गतवर्ष रामलीला में जब देवी मूञ्छित हुई, तव से यही ठीक समझा कि निष्क्रमण से सम्बन्ध रखनेवाली कोई भी बात न निकले, फिर भी देवी निश्चित नहीं है। हां! प्रसनता प्रदर्शन करने की पूरी चेष्टा करती रहती है, पर आज देवी के कारण ही कुछ चर्चा छिड़पड़ी।
. प्रियदर्शना अब काफी होश्यार हागई है । वह छः वर्ष की होचुकी है, उसका आज सातवां जन्मदिन था । इसलिये आज उस विशेष रूप में नये कपड़े पहिनाये गये थे, भोजन भी कुछ विशेष बनाया गया था। एक छोटा सा घरू अत्सव मनाया गया था। भोजनोपरान्त देवी प्रियदर्शना को लेकर मेरे कक्ष म आई और मुझे लक्ष्य कर प्रियदर्शना से कहा-अपने पिता जी को प्रणाम कर बेटी ! और वर मांग कि तेरा संसार सुखमय बने ।
- मैंने कहा-इसका संसार ही क्या सब का संसार सुखमयं बने इसलिये आशीर्वाद देता हूं कि यह जगदुद्धारिणी बने ।
देवीन हसते हुए कहा-पर इतने लम्बे चौड़ें आशोर्वाद
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का बोझ यह उठा भी सकेगी ? एक छोटा सा वन क्यों नहीं . देदेते की इसे आप अच्छा सा वर ढूंद देंगे।
. मैं- इप्लके लिये वचन देने की क्या जरूरत है यह तो आवश्यक, कर्तव्य है जो उसका पिता न कर पायगा तो साता करेगी।
देवी-माता क्यों करेगी ? पिता का कर्तव्य पिता ही को करना पड़ेगा ! सन्तान के प्रति नारी का दायित्व जितना है नर का दायित्व उससे कम नहीं है।
मैं- नर तो निमित्तमात्र है, सारी साधना नारी की है। साधारण प्राणिजगत में सन्तान ने पिता को कर पहिचाना? माता ही वहां सन्तान के लिये सब कुछ है। .
देवी- पर मनुष्य तो साधारण प्राणिजगत के समान नहीं है।
मैं-नहीं है। फिर भी यहां लोकोक्ति प्रचलित है कि सौ पिता के बराबर एक माता होती है । यह अतथ्य नहीं है । नारी का जो यह शतगुणा मूल्य है उसका कारण सन्तान के प्रति . असकी शतगुणी साधना ही तो है।
देवी- पर इसका मतलब तो यही है कि प्रकृति ने अन्य जाति की मादाओं पर साधना का जो बोझ डाला है वह मानवी नारी पर भी डाला है। इस दृष्टि से मानवी का भी माता के रूप में सौ गुणा मूल्य है, पर प्रकृति-प्रदत्त इस साधना से तो सिर्फ प्राणी का निर्माण होपाता है, मानव का नहीं । मानव का निर्माण तो तभी होता है, जब नारी की साधना में नर भी कन्धा से कन्धा भिड़ाकर बढ़ता चलता है। पशु के बच्चे की अपेक्षा मनुष्य के बच्चे का जो असंख्य गुणा विकास होता है, उसमें नारी की साधना की अपेक्षा नर की साधना का ही विशेष अंश है। ...
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मैं बहुत ठीक कहा तुमने । उसी विशेष अंश को पूरा करने के लिये ही तो मुझे निष्क्रमण करना है । आज मनुष्य के बच्चे का विकास रुकगया' है अथवा वह पशुता या दानवता की ओर मुड़ पड़ा है, नारी अपनी साधना का काम पूरा कर रही है पर नर अपनी साधना के काम में पिछड़ गया है, उसे अपना काम पूरा करने के लिये काफी तपस्या करना है ।
महावीर का अन्तस्तल
निष्क्रमण की बात सुनकर देवी का मुखमण्डल फीका पड़गया। बड़ी कठिनाई से सुनने धीरज सम्हालते हुए कहाअगर नर की साधना का काम चाकी पड़ा है और नारी अपनी साधना का काम पूरा कर रही है तो नारी का यह कतव्य होजाता है कि नर की साधना मैं हाथ चटाये ।
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मैं- अवश्य ! इसीलिये तो मैंने प्रियदर्शना को जगदुद्धारिणी होने का आशीर्वाद दिया था । फिर भी साधारणतः इस बात का तो ध्यान रखना ही पड़ेगा कि नारी अपनी साधना का काम पूरा करके ही नर की साधना में हाथ बटा सकती है । विशेषतः वह अपनी साधना अधूरी तो नहीं छोड़ सकती । उसकी साधना अधूरी रही तो नर की साधना का काम भी रुक जायगा । नारी अगर कपड़ा न चुनेगी तो नर रंगेगा किसे ?
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देवी - इसका तो मतलब यह हुआ कि मानवता की विशेष साधना का अवसर नारी को कभी मिल ही नहीं सकता ।
मैं- हां ! आजकल कठिनता से मिलता है, पर मैं चाहता हूँ कि मानवता की विशेष साधना का अवसर नारी को भी मिले। ऋपित्व, मुनित्व, तीर्थंकरत्व और मुक्ति नर की ही बपौतीन रहे । वास्तव में नर नारी का अधिकार समान है और मौलिक योग्यता . में भी कोई अन्तर नहीं हैं । पर विशेष साधना का काम नारी तभी
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कर सकती है जब सामान्य साधना का काम पूरा कर लिया जाय या प्रारम्भ से ही विशेष साधना की तरफ बढ़ा जाय। . . देवी-सामान्य साधना का काम पूरा करके तो विशेष । साधना की तरफ क्या बढ़ा जायगा ? आपने ही तो उस दिन विष्णुशर्मा से कहा था कि जीवन की थकावट ले पैदा होनेवाले संन्यास को आप नहीं चाहते। . .
मैं-यह भी ठीक है। पर ऐसे भी मानव हो सकते हैं जो सामान्य साधना का काम पूरा करके भी न थके। तन के वृद्ध होने पर भी वे मन के युवा रहें। . . . .
देवी-पर यह हर एक के.वश की बात नहीं है।
मैं-पर यह हर एक के वश , की बात है कि वह विशेष साधना के लिये मानव निर्माण करके दे दे। तुम प्रियदर्शना का निर्माण करते करते अगर थकजाओ तो भी तुम उसे विशेष 'साधना के योग्य तो वना ही सकती हो। तुम्हारी इस साधना का मूल्य कुछ कम न होगा, विशेषतः उस अवस्था में जब कि मेरी सामान्य साधना का बोझ भी तुम अपने ऊपर लेलो। 1. अभी तक प्रियदर्शनो बारी बारी से हम दोनों । के मुंह की तरफ देखती थी जब मैं बोलता था त मेरी ... तरफ और जयं देवी बोलती थीं तब देवी को तरफ । वह .. बच्ची गम्भीर चर्चा तो क्या समझती पर मुखमुद्रा को पढ़ने की चेष्टा अवश्य करती थी ! मेरी बात सुनकर जब देवी के मुखमण्डल पर चिंता छागई तब उसने माता की वेदना को पढ़ा और वह देवी के गले में हाथ डालकर छाती स चिपट गई। . देवी ने भी उसके कपोल चूमकर उसे दोनों हाथों स . जकड़ लिया। . . . . . . .
. नारी की साधना वात्सल्य के कारण कितनी रसमयी है इसकी झांकी मां बेटी के आलिंगन में दिखाई दे रही थीं।......
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ह है कि मा अनुरोध किनिष्क्रमण
१०- सर्वज्ञता की सामग्री ... १९ इंगा ९४३० इतिहास संवत् ..
समाज में क्रांति करने के लिये तथा जगत को इसी जन्म में मोक्ष सुख का अनुभव कराने के लिये वर्षों से मैं निक मण का विचार कर रहा हूँ। पर देवी के अनुरोध के कारण मुझे अपनी इच्छा को दवाना पड़ा है । यह ठीक है कि निष्क्रमण की अत्यन्त आवश्यकता है पर देवी का अनुरोध भी न्यायोचित है। इसलिये सच तो यह है कि मुझे विवाह ही नहीं करना चाहिये था पर जर कर लिया तब असमयमें उनके सिर पर सौभाग्यवेपी बैंवन्य लादना उचित नहीं है । जब तक वे इस त्याग का मर्म न समझ जायँ तब तक मैं बन्धनमुक्त नहीं होसकता। .
पर मैने इस बन्धन के समय का भी काफी सदुपयोग किया है । साधु सन्यासी तो इने गिने व्यक्ति ही वनपाते हैं, उनका जीवन सुधारना या मोक्षसुख का अनुभव कराना कठिन नहीं है पर अगर गृहस्थों का जीवन न सुधारा गया तो तीर्थ रचना का वास्तविक प्रयोजन ही नष्ट होगया । संसार तो मुख्यता से गृहस्थों का ही रहेगा, और साधु भी गृहस्थों के सहारे टिकेगा । ऐसी अवस्था में गृहस्थों की उपेक्षा नहीं की जासकती । मुझे उनकी अवस्था को समझना होगा । उनकी परिस्थिति के अनुसार उन्हें धर्म का मा: बताना होगा । पर यह सव तभी होसकता है जब मैं भीतर से उनकी कठिनाइयों और परिस्थितियों को समझें । .
· यद्यपि देवी के अनुरोध से मुझे रुकना पड़ा है पर उस मकने ने भी काफी लाभ पहुँचाया है । इन दिनों मुझे कौटुम्धिक जीवन की कठिनाइयों और उल्मनों को समझने के काफी अवसर मिले हैं। खैर ! मेरे घर में तो इतनी अल्झने नहीं है क्योंकि
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महावीर का अन्तस्तल
सव सुसंस्कारी व्यक्ति हैं और अभाव का वह कष्ट नहीं है जिसके कारण मनुष्य दुराचारी नीतिभ्रष्ट होजाता है । फिर भी मुझे साधारण जनता को समझने और उनकी समस्या को सुलझाने के अवसर मिले हैं। घर के भीतर के ये अनुभव सम्भवतः निप्क्रमण के बाद न मिलपाते।
मेरा काम श्रुतनान से नहीं चल सकता। क्योंकि श्रुति.. स्मृति सब पुरानी और निरर्थक होगई है । वे अपना काम अपने युग में कर चुकीं । मुझे तो प्रत्यक्षदर्शी बनना है, अनुभव के आधार से सत्य की खोज करना है, नये तीर्थ की रचना करना है, नया श्रत बनाना है। मेरे अनुयायी मेरे बनाये श्रुतज्ञान से काम चला सकेंगे। क्योंकि मेरा श्रुत आजके अनुभवों के आधार से होगा । और कई पीड़ी तक काम देगा । घर में पुराने श्रुतसे कास नहीं चला सकता, क्योंकि वह युगवाह्य होगया है।
पर मेरे अनुभव जितने विशाल होंगे मेरे श्रुत की उपयोगिता भी अतनी विशाल होगी। आहंसा सत्य आदि का नाम लेने से या उसके गीत गाने से कुछ लाभ नहीं। जानना तो यह है कि इनके पालन के मार्ग में बाधाएँ क्या है, मानव स्वभाव और सामाजिक परिस्थितियाँ मनुष्यको कितने अंश में अहिंसा सत्य से भ्रष्ट होने के लिये प्रेरित करती हैं, कितने अंश में उनपर विजय पाई जासकती है, या अहिंसा सत्य को व्यावहारिक बनाया जासकता है-इसके लिये वाह्याचार को क्या रूप देना चाहिये? आचार का श्रेणी विभाग किस तरह करना चाहिये? . .
ये सब बातें आज किसी पुराने इरुत से नहीं जानी जासकती, ये तो चलते फिस्ते संसार से ही जानी जासकती हैं।
और घर में रहते में जान भी रहा हूँ। घर छोड़ने पर अनुभव तो होंगे पर घरू अनुभव जो घर में होरहे हैं वे वन में न होंगे। इसलिये देवी का मुझे रोकना भी एक तरह से सार्थक होरहा है।
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.. और अब तो में घर की प्रत्येक घटना का सूक्ष्म निरीक्षण करता हूँ उसका विश्लेपण करता हूँ। प्रलाद पर खड़ा खड़ा पथिकों की चेष्टाओं और उनके आपसी संघर्षों पर दृष्टि रखता है. उनके कलह प्रेम-महयोग को वाते सुनता हूँ। इससे मानव प्रकृति का काफी गहरा अनुभव होरहा है। आज सोचता है कि अगर मैंने इन अनुभवों का संग्रह न किया होता और शीघ्र ही निष्क्रमण कर लिया होता तो मैं जगत् का वैद्य बनने के लिये बहुत अयोग्य होता।
यह ठीक है कि केवल इन्हीं अनुभवों से काम न चलेगा, गृहत्याग के बाद भी मुझे बहुत अनुभव करना पड़ेंगे। और उन अनुभवों का निष्कर्ष निकालकर उसे वितरण करने के लिये एक पूरी सेना लगेगी इसलिये निष्क्रमण जरूरी है, पर आज जो अनुभवों का संग्रह होरहा है वह भी जरूरी है। इसे भी सर्वज्ञता की सामग्री कहना चाहिये ।
११- पितृवियोग ४ चिंगा ६४३० इतिहास संवत्
एक सप्ताह से पिताजी की तबियत बहुत खराब थी। माताजी ने तो अहर्निश सेवा.की, चिन्ता और जागरण से उनका स्वास्थ्य लथड़ गया मैं भी सेवा में उपस्थित रहा, राज्य में जितने अच्छे वैद्य मिलसकते थे उतने अच्छे वैद्य बुलाये गये पर कुछ लाभ न हुआ और आज तीसरे पहर उनका देहान्त होगया ।
मृत्यु का दृश्य देखने का यह पहिला ही प्रसंग था । मृत्यु ! ओह ! कितना भयंकर और कितना मर्मभेदी दृश्य ! पर जितना भयंकर उतना ही अनिवार्य और उतना ही आवश्यक भी। नृत्यु न हो तो जन्म भी न हो, कर्म करने के लिये नया क्षेत्र भी नारिले। सारे पुरखों के लिये घर में जगह रह भी नहीं
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सकती और सब रहें तो प्रेम आदर स्नेह नहीं रह सकता। वियोग ही स्नेह का सब से बड़ा उद्दीपकं है। यह सब जानते हुए भी पिताजी के वियोग से मैं विषण्ण होगया । पता नहीं मेरी विषण्णता कितनी गहरी और स्थायी होती किन्तु माता जी की विह्वलता ने मेरी विषण्णता को भुलादिया। मुझे और सब कुटु- . स्त्रियों को पिताजी के वियोग का विषाद भूलकर माता जी को । सम्हालने में लगजाना पड़ा। सब लोग तो रोरहे थे पर माता जी की आंखों से न ता आंसू की बूंद निकलती थी न कोई चिल्लाहट, वे कुछ विक्षिप्त सी दिखाई दी और फिर मूञ्छित होगई। पिता जी के मृत शरीर को अन्तिम संस्कार के लिये लेजाते समय माता जी को सम्हालना बड़ा मुश्किल होगया था। .. .. यह संसार का नाटक कितना गहरा है । खिलाड़ी भूलजाता है कि यह नाटक है । मृत्युपर्यन्त उसकी इस भूल में सुधार नहीं होता।
१२- मातृवियोग,. . . . . १७ चिंगा ४६३० इतिहास संवन् ।
सब लोग पिताजी के वियोग के शोक में डूवे थे फिर भी साधारण रिवाज से अधिक शोक प्रदर्शन का कोई काम न कर सके । बल्कि हम सब के शोक की जगह तो माता जी की चिन्ता ने लेलो , सब का शोक घनीभूत होकर माता जी के हृदय में जा बैठा । पिता जी के वियोग के वाद वे रुग्ण शय्या पर ही रहीं, वह रुग्ण शय्या भी आखिर मृत्युशय्या ही सिद्ध हुई। आज सवेरे. सूर्योदय के पहिले उनका देहान्त होगया। . इन बारह तेरह दिनों में देवी ने जो माता जी की सेवा की वह असाधारण थी। माता जी ने पिता जी की जो असाधारण सेवा की थी देवी ने माता जी की सेवा करने में उससे भी
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अति कर दी | मैं अन्हें खाते पीते या सोते नहीं देख सका । पलंग की पाटी से सिर टिकाकर थोड़ा बहुत वे सो लेती होंगी, और वहीं बैठे बैठे वे थोड़ा बहुत कुछ पीलेती होंगीं, सबने उन्हें रातदिन पलंग के आसपास ही पाया ।
माताजी अपनी शोक विहलता के कारण किसीसे बोलती चालतीं नहीं थीं। पर देवी अपनी तपस्यासे उनका मौत व्रत भी भंग करती रहती थीं। माता जी को बार बार कहना पड़ता था- बेटी, तू यहीं क्यों बैठी है ? जाकर तनिक आरामसे सो जा ! खापीले, सभी लोग तो सेवा करने के लिये हैं, और फिर सेवा की इतनी जरूरत क्या है ? मुझे बीमारी ही कौनसी है ? दुर्बलता है, सो वह किसी न किसी तरह निकल ही जायगी ।
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इस 'किसी न किसी तरह' का अर्थ किसी की समझ में आता हो चाहे न आता हो पर देवी की समझमें अच्छी तरह आता था। पर वे कुछ न कहकर आंसुओं से अपने कपोल धोने लगती थीं जिसके उत्तर में माता जी की आंखें भी छलछला आती थीं ।
उस समय अगर में सामने होता था ता माता जी की आंखे मेरी तरफ टकटकी बांध लेती थीं, अगर इस अवसर पर मेरी दृष्टि माता जी की दृष्टि से मिल गई हैं तो मुझे अपनी दृष्टि नाची कर लेना पड़ी है।
उनने मुँह से कुछ नहीं कहा, पर अनकी आंखें कहते लगती थीं- वर्द्धमान, तुमने मुझे दिया हुआ वचन पूरा किया है, फिर भी बहू की सूरत देखकर में बेचैन हूँ । अब तुमसे कुछ "भी कहने का मुझे अधिकार नहीं है, फिरभी बहू का सुह देखने का अनुरोध तुमसे करती हूँ ।
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इसके उत्तर में मेरी आंखो ने क्या कहा, वह माताजी तो क्या स्वयं मेरी समझ में भी नहीं आया । माताजी के अनुरोध का मेरे लिये मूल्य था, देवी के अधिकार का भी मेरे लिये मूल्य था, पर इस जगत के अधिकार का मूल्य ? शिवकेशिनियों के अधिकार का मूल्य ? तड़पते हुए लाखों पशुओं के आंसुओं का मूल्य ? उनकी चिल्लाहट का मूल्य ? अन्धविश्वास में फँसे हुए मानव जगत की मौन पुकार का मूल्य ? स्वर्ग की सामग्री से नरक का निर्माण करनेवाले मूद मानव-जगत को सुपथ में ले जाने के लिये सत्य की पुकार का मूल्य ? इन सब महामूल्यों का उत्तर मेरे पास कुछ न था। यही कारण है कि माताजी की दृष्टि से अपनी दृष्टि न मिला सका।
___ माताजी चली गई । वात्सल्य की सर्वश्रेष्ठ और सर्व. सुन्दर प्रतिमा टूट गई। मेरे विरागी हृदय में भी थोड़ी देर के लिये हाहाकार मचगया ।
आज दिन में कई बार भूला हूँ। वार बार पैर माताजी के कक्ष की ओर बढ़े हैं और फिर प्रयत्न पूर्वक याद करके चौकना पड़ा है-अरे! माताजी तो है ही नहीं, मैंने ही तो उनके शरीर का दाह संस्कार किया है।
जीवनकी आन्तरिक रचना भी कितनी जटिल है । भावनाओं के पूर में बुद्धि और विवेक के निर्णय तो बह ही जाते है, पर आंखों देखी बात के संस्कार भी कुछ समय को लुप्त होजाते हैं । यही कारण है कि मेरे पैरों ने मुझे कई बार धोखा दिया है और मेरी सूखी आंखें भी आज बरसातकी वापी. बनी हुई हैं।
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१३ - भाई जी का अनुरोध
६ चन्नी ९४३० इ. सं.
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करीब दो सप्ताह तक घर में काफी भीड़ रही। जिन लोगों को पिता जी के स्वर्गवास के समाचार मिल थे वे सहानुभूति प्रगट करने आये पर बहुतों के आने के पहिले तो माताजी का भी देहान्त होगया इसलिये उन्हें कुछ दिन और रुकना पड़ा । हमारे दुहरे दुःख के कारण उनकी सहानुभूति भी दुहरी हुई ! चेटक राजा तो न जाने कितनी बार सहानुभूति प्रगट करते थे । वे बार बार गहरी सांस लेकर कहते थे त्रिशला मुझसे पहिले ही चली जायगी इसकी किसे आशा थी। वह सच्ची सती थी । सिद्धार्थ के पीछे ही चली गई। उन दोनों का प्रेम इन्द्र और शची से भी बढ़कर था ।
मेरे ऊपर तो अनका अटूट वात्सल्य मालूम होता था । अगर मैं जरा छोटा होता तो शायद वे मुझे गोद में ले लेकर धूपते । बार बार कहते - तुम्हारे चेहरे में मुझे त्रिशला का चेहरा दिखाई देता है । तुम्ही तो मेरे आश्वासन हो ।
उनकी सहानुभूति तथा अन्य ज्ञातृजनों के स्नेह के कारण मुझे एकान्त मिलना दुर्लभ हो गया था, फिर भी मुझे एकांत निकालना पड़ता था। खासकर देवी के लिये |
यद्यपि मामीजी देवी का बहुत दुलार करती थीं । फिर भी देवी की वेदना को वे न समझ सकती थीं । सास के मरने पर किसी बहू को जितना दुःख होसकता है उससे अधिक दुःख की कल्पना उन्हें नहीं थी उसी के अनुपात में वे सहानुभूति प्रगट करती थीं पर वाकी पूर्ति मुझे करना पड़ती थी । परिस्थिति ने शोक की मानों अदलाबदली कर दी थी । माताजी मरी थीं मेरी, देवा की तो सासूजी मरी थी, पर मुझे व्यवहार ऐसा
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करना पड़ता था मानों मेरी सासूजी मरी हो और देवी की माताजी मरी हों। रात में तथा समय निकाल कर दिन में भी मुझे देवी को सान्त्वना देने का काम करना पड़ता था ।
.: मेरे पास से जो समय बचता, वह देवी भाभीजी के पास बितातीं। ऐसा भी मालूम हुआ कि वे भाभी के सामने दो। चार बार भैया से भी कुछ कह चुकी हैं । भैया के मुंह से निकले. हुए ये शब्द तो एक बार मेरे भी कान में पड़गये थे कि मैं क्या. पागल हूं, ऐसा कैसे होने दूंगा। . . . आज शाम को भाईजी से कुछ चर्चा होगई । मैंने कहाभाईजी ! आपको मालूम है कि मेरी रुचि गृह संसार में नहीं है. आपके काम में भी कोई सहायता नहीं कर पाता हूं जो काम मेरे . करने के लिये पड़ा है असके लिये निष्क्रमण करना जरूरी है। मैं सोच रहा हूं कि अगले महीने में..........। . .. मैं बात पूरी भी न कर पाया कि भाईजी ने मेरे मुंह पर 'हाथ रख दिया और बोल-वस ! बस ! भैया, बहुत कठोर मत बनो। मैं मानता हूं कि तुम बड़े ज्ञानी हो, महात्मा हो, तुम्हारा अवतार घर गृहस्थी की छोटी झझटों में बर्बाद होने के लिये नहीं हुआ है। तुम धर्म चक्रवर्ती तीर्थकर बनने वाले हो, तुम सारे संसार के लिये दया के अवतार हो, पर सारे संसार पर दया करने के पहिले अपने इस दुखी भाई पर भी दया करो। एक ही महिने में पिताजी और माताजी का वियोग हुआ। सिर पर से उनकी छाया क्या हटी, मालों घर का छप्पर ही झुढगया। यों ही सूना सूना घर मुझे खाये जारहा है, अब अगर तुम भी इसी समय चले गये तव तो मुझे पागल होकर धर छोड़ देना पड़ेगा।
भाईजी ने अपनी वात ऐसे व्यवस्थित ढंग से कही मानों उसकी तैयारी उनने पहिले कर रखी हो । उनका तर्क
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बलवान था । फिर भी मैंने कहा- भाईजी ! माता पिता के वियोग का शोक होना स्वाभाविक है फिर भी उनने हमें असमर्थ बनाकर नहीं छोड़ा है । पाल पोसकर बड़ा किया है और इतना बड़ा किया है कि कर्तव्य का बोझ हम अच्छी तरह से अटा सर्के । आप अपना बोझ उठा ही रहे हैं, सझे भी अपना बोझ अठाने दीजिये । घर गृहस्थी के काम में ऐसी झंझट नहीं हैं कि आप उन्हें सहन न कर सकें |
भाईजी ने कहा- तुम ठीक कहते हो भैया ! मैं घर गृहस्थी की सारी झट सहन कर सकता हूं। पर तुम्हारे चले जानेपर यशोदा देवी के कक्ष से जो आहें निकलेगी उनको सहन करने की शक्ति मुझमें नहीं है। माताजी होतीं तो वे सब सहन कर जाती पर आज वे भी नहीं हैं । ऐसी अवस्था में मैं तुमसे प्रार्थना करता हूं कि जैसे माताजी के अनुरोध से तुम इतने दिन रुके, कमसे कम एक वर्ष मेरे लिये भी रुको ।
मैं
चुप रहा ।
भाईजी ने इसे मेरी स्वीकारता समझी, इसलिये वे प्रसन्नता प्रगट करते हुए बोले- बस ! एक वर्ष, मेरे लिये केवल
एक वर्ष ।
मैंने मन ही मन कहा- आपके लिये नहीं, आपके नामपर यशोदा देवी के लिये, यह केवल एक वर्ष नहीं है किन्तु एक वर्ष और है !
१४ - गृह तपस्या
, २६ - चन्नी ६४३० इतिहास संवत्
भाई साहब ने जो मुझसे एक वर्ष रुकने का अनुरोध किया उसमें उनकी इच्छा से भी अधिक देवी को इच्छा थी और इस घटना में देवी का ही मुख्य हाथ था, यह सब जानते
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हुए
भी मैंने इस बारे में देवी से एक शब्द भी नहीं कहा। वे जो करती हैं वह बिलकुल स्वाभाविक है, इसलिये इस बात का उल्लेख करके उन्हें लज्जित करने से क्या लाभ ? फिर भी मेरी दिनचर्या बदल गई है । अब मैं दिन में और रात में घण्टों खड़े खड़े ध्यान लगाता हूँ। आज कल सर्वरस भोजन कभी नहीं करता, कभी लवण नहीं लेता तो कभी घी नहीं लेता । कभी गुड़ नहीं, तो कभी खट्टी चीज नहीं, कभी मिर्च नहीं, इस तरह जिल्ला को जीतने का मैं अभ्यास कर रहा हूं । कभी कभी काठ शय्या पर सोता हूं जिसपर किसी तरह का तूल या वस्त्र नहीं होता । यद्यपि इन दिनों काफी ठंड पड़ती है फिर भी अनेक बार मैं रातभर उघड़ा पड़ा रहा हूँ । उपवास भी करता हूं. अधपेट भी रहता हूं ।
VAAMA
देवी इन सब बातों को देखकर बहुत विषण्ण रहती हैं भयवश कुछ कह नहीं पातीं, पर उनके मनकी अशान्ति अनके चेहरे पर खूब पढ़ी जासकती है ।
मैं पढ़ता रहा हूँ, पर मैंने भी स्वयं छेड़ना ठीक नहीं समझा। हां, वे भी इतना करती है कि जिस दिन जो ग्स मैं नहीं खाता वह रस उस दिन वे भी नहीं लेती। मेरी इच्छा हुई कि उन्हें इसप्रकार अनुकरण करने से रोकूँ क्योंकि मैं यह साधना किसी उद्देश से कर रहा हूँ जब कि उनके द्वारा इस साधना का अनुकरण केवल मोह का परिणाम हैं, इसलिये निष्फल है । फिर भी मैंने रोका नहीं, भय था कि रुका हुआ बांध फूट न पड़े । पर आज तीसरे पहर वे मेरे पास आई और मेरी गोद में सिर रखकर फूट फूट कर रोने लगीं, रुका हुआ बांध भरजाने से आप से आप फूट कर वहने लगा ।
थोड़ी देर मैंने कुछ न कहा, स्नेह के साथ उनकी पीठ - पर हाथ फेरता रहा और वे मेरी गोद में आंसू बरसाती रहीं ।
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पुर
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रुलाई का पूर कुछ कम होने पर मैंने स्नेहपूर्ण स्वर में कहा- देवी क्या तुम समझती हो कि मैं तुमसे रुष्ट हूँ ?
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देवी ने सिर उठाया । उनकी आंखें आंसुओं से भरी हुई थीं । कुछ क्षण उनने गला साफ करने की चेष्टा की पर गला भरा ही रहा । तब वे रुंधे गले से ही बोलीं- आप महान है, आपको समझने की शक्ति मुझमें नहीं है, इसलिये नहीं कह सकती कि आप रुष्ट हैं कि नहीं ? फिर भी इतना जानती हूं कि आपको रुट होने का अधिकार है। मैंने आपकी साधना में कभी हाथ नहीं बढाया । जानती हूँ कि आपका मन किधर है, फिर भी उस दिशा में बढ़ने से मैंने आपको पीछे की ओर ही खींचा है, आपकी साधना के मार्ग में कंटीली झाड़ीसी बनकर खड़ी होगई हूँ और उसीका भयंकर और असह्य दण्ड मुझे आपकी ओर से मिल रहा है |
मैंने कहा - भूलती हो देवि ! मेरी साधना से तुम्हें वेदना पहुंच रही है, इतना मैं समझता हूं। पर मैं तुम्हें दण्ड दे रहा हूं यह तुम्हारा भ्रम है । मेरी साधना संसार पर अहिंसा की है, दया की है। मैं तुम्हें तो क्या एक कीड़ी को भी दंड नहीं देना
चाहता ।
देवी - पर जहां तक मैं समझती हूं. संसार के सन्त महंतों ने नारी की पर्वा कीड़ी बराबर भी नहीं की है। कम से कम पत्नी के रूप में तो नहीं ही की है ।
मेरे चेहरे पर मुसकुराहट आगई और मैंने मुसकराते हुए कहा- फफोले फोड़ रही हो देवी ।
देवी ने मुझसे कुछ कम मुसकराते हुए कहा - मैं ठीक कर रही हूं देव !
मैं तुम्हारा कहना निराधार नहीं है, पर है एकान्तवाद | Raina में आंशिक तथ्य होसकता है, पर उसे सत्य नहीं
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महावीर का अस्तम्तल .
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कह सकते।
देवी-तथ्य में सत्य देखने की क्षमता मुझमें नहीं है देव, मैं तथ्य की तीक्ष्णता से ही इतनी घायल होजाती हूं कि सत्य को खोजने की हिम्मत ही टूट जाती है । आप जो आज कल कर रहे हैं उसमें भी सत्य तो होगा ही, पर उसका स्वाद मुझे नहीं मिल पातां । इस नारियल के तथ्यरूपी जटों से ही मेरी जीभ इतनी छिल जाती है कि सत्य की गिरी तक पहुंचने की हिम्मत. ही नहीं रहती।
मैं- पर यह. क्षमता जरूरी है देवि! नहीं तो निरर्थक : कष्ट ही पल्ले पड़गा। .:. .
देची- आप जिस प्रकार उचित समझे उसप्रकार इस कष्ट से मेरी रक्षा कीजिये । मेरी धृष्टता के कारण आप इसप्रकार कष्ट सहें यह मुझसे न देखा जायगा । मैं तो समझती हूँ, आत्मकष्ट दंड का भयंकरतम रूप है।
मैं-तुम ठीक समझती हो देवि ! परं जो कुछ मैं करता। हूँ, वह आत्मकट नहीं है, सिर्फ अभ्यास है । अभ्यास को किसीप्रकार का दंड नहीं कहा जासकता।।
देवी ने अचरज और सन्देह से दुहराया-अभ्यास है ?
मैंने कहा-हो! अभ्यास है। जगत भोगों में ही सुख का अनुभव करता है आर भोगों की हा छीनाझपटी से वह नरक बना हुआ है। मैं बताना चाहता हूँ कि असली सुख का स्रोत भीतर से है, बाहर से नहीं। जगत को जो मैं बहुत से पाठ पढ़ाना चाहता हूं, सुसमें एक पाठ यह भी है । इसी के लिये यह अभ्यास है।
देवी कुछ सोचने लगी, फिर बोली-देव, आप सरीखे जन्मजात ज्ञानी को और संकल्प वली को इस प्रकार का अभ्यास
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करने की कोई आवश्यकता नहीं है । कोमलाङ्गी स्त्रियाँ भी आवश्यकता होने पर विना अभ्यास के ही बड़े बड़े दुःसाहस के काम कर जाती हैं । आप तो महापुरुप हैं, जिस दिन जिस कार्य की आवश्यकता होगी अस दिन निष्णात की तरह आप वह काम कर दिखायँगे । इसलिय दया करके ऐसा अभ्यास न कीजिये जो दिनरात मेरे हृदय में शूल सा चुपता रहे । __ में कुछ देर चुपरहा फिर बोला अखिर तुम क्य चाहती हो ?
देवी-यही कि कुछ अभ्यास कम करदें आप खड़े होकर ध्यान लगाय गौरज चाहे तक लगाएँ तुझे आपात्त नहीं है । पर अचानक ही आप रूखा सृग्वा खाने लगते हैं, फल यह होता है जिसदिन जो रस आप नहीं लते वह में भा नहीं लेती, मेरी ही थाली में भोजन करने को प्रियदर्शना बैठती है, तब यह रूखा सूखा भोजन भरपेट नहीं खापाती । मेरे लिये नहीं किन्तु उस बच्ची के लिये तो इस अभ्याल में कमी कीजिये । यही बात शयन के बारेमें है, आप अभ्यास के लिये सोने में वस्त्र का उपयोग नहीं करते, मैंभी नहीं करती, प्रियदर्शना मेरे बिना दूसरी जगह सोती नहीं । आधीरात तक तो ठीक, पर उसके बाद ठण्ड बढ़ जाती है। में बच्ची का छाती ले चिपटा लेती हूं और उसकी पीठपर अपना अंचल फैला देती हूं, फिर भी वह ठण्ड से सिकुड़ जाती है । उसे नींद नहीं आती। यह बार बार पूछती
है कि मां, तुम कपड़ा क्यों नहीं ओढ़ती ? पर मैं उसे क्या सम ___ झाऊं? कैसे समझाऊं ? .. यह कहकर देवी चुप होगई । उनका सिर इंकदम झुक गया, थोड़ी देर में जमीन पर टपके हुए आंसू दिखाई दिये।
. मैंने देवी का झुका हुआ सिर दोनों हाथ से ऊपर की ओर किया, और कहा-मेरी साधना और तुम्हारी साधना की दिशाएँ भिन्न भिन्न हैं या बिलकुल उल्टी हैं फिर भी मैं
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तुम्हारी साधना में बाधा नहीं डालना चाहता । आज से जब तक मैं गृहस्थाश्रम में हूँ तव तक कायोत्सर्ग ध्यान आदि तक ही मेरा अभ्यास सीमित रहेगा। .. मेरी इस सहज स्वीकृति से देवी अप्रतिम सी होगई । यद्यपि उनने सन्तोष व्यक्त किया किंतु भीतरी आत्मग्लानि के चिन्ह मुखमण्डल पर मलके विना न रहे । जिसे वे अपना सहज अधिकार समझती हैं वह चीज भी उन्हें मांगने से मिली, आंसू बहाने से मिली, इसकी वेदना भी उन्हें होने लगी।
और शायद उन्हें इस बातकी भी लज्जा आने लगी होगी कि प्रियदर्शना की आट में उनने आत्मरक्षा की है। यद्यपि में जानता हूँ कि यह बात नहीं है।
फिर भा जीवन के विषयमें मेरे सटिकोण और देवी के दृष्टिकोण में बहुत अन्तर है। उनकी सहज रुचि यह है कि जीवन के भौतिक आनन्द भोगते हुए, भोजन में चटनी की तरह बीच बीचमें कुछ परोपकार भी कर दिया जाय, इससे भी कुछ आनन्द ही बढ़ेगा। धर्म अर्थ काम इन तीन तक ही उनकी रुचि है,मोक्ष को या तो वे समझती ही नहीं या निकम्मा समझती हैं । परिणाम यह होता है कि जगत के प्रतिकूल होनेपर उनके हृदयमें हाहाकार मच जाता है। जब कि मेरी रुचि यह है कि जगत अनुकूल हो या प्रतिकूल, अपना सुख अपनी मुट्ठी में रहना चाहिये । प्रतिकूल से प्रतिकूल पारीस्थति की भी हमें पर्वाह न करना चाहिये ।
अस्तु, जब तक गृहस्थाश्रम में हूँ तब तक वहां की मर्यादा का ख्याल रखना भी जरूरी है। वह युग अभी दूर है, अतिदर है, जव गृहस्थाश्रम में भी मोक्ष के दर्शन होने लगेंगे। उस युग के लाने की मैं चेष्टा करूँगा, इस तरह के चित्र भी खीचूंगा, जिससे इस सत्य को लोग समझे, पर अभी तो वह दुर्लभ है। और मेरी साधना तो उस रूप में हो ही नहीं सकती। मुझे तो अपना
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जीवन विकट परीक्षाओं में से गुजारना होगा। . देवी ने यह ठीक कहा था की मुझे अभ्यास करने की - जरूरत नहीं है । सचमुच नहीं है, पर वास्तविक बात तो
यह है कि मुझे इस अभ्यास में एक तरह का आनन्द आता है, ठीक उसी तरह जिस तरह एक योद्धा को युद्ध में आनन्द भाता है। प्रकृति पर अधिक से अधिक विजय पाना मेरी साध है, यही जिनत्व है और मुझे जिन बनना है । अस्तु ! मेरी गृहतपस्या बाहर से भले ही कम होगई हो पर भीतर तपस्याओं में कोई कमी न आने पायगी।
१५- उलझन १४ चन्नी ९४३१ इ. सं.
माताजी का स्वर्गवास हुए एक वर्ष से भी ऊपर होगया, भाई साहब को जो एक वर्ष का वचन दिया था वह भी बीत चुका । अब भाई साहब से अनुमति मिलने में सन्देह नहीं । पर भाई साहब तो निमित्तमात्र हैं वास्तविक प्रश्न तो देवी का है। इधर एक दो माह से उनके चेहरे पर ऐसी विह्वलता छाई रहती है और चिन्ता के कारण उनको शरीरयष्टि इतनी दुर्वल होगई है कि उनके सामने निष्क्रमण की चर्चा .असमय के गीत से भी भद्दी मालूम होती है। अब तो कठिनाई
यहां तक बढ़गई है कि जीवन की समाज की, कोई चर्चा भी ( नहीं होपाती। थोड़ा सा ही प्रकरण छिड़ते ही वे यह समझकर : अत्यन्त व्याकुल होजाती हैं कि यह सब निष्क्रमण के प्रस्ताव की ही भूमिका है।
मैं अटका देकर नहीं जाना चाहता । मैं तो चाहता हूँ कि. वे किसान किसी तरह इस अप्रिय सत्य को समझे । जगत्कल्याण के लिये मुझे जिस मार्ग पर बढ़ने की जरूरत है उस मार्ग पर वे
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स्वयं तो नहीं बढ़सकती, खासकर अभी तो नहीं बढ़ सकती. पर मुझे अनुमति देकर जगत्कल्याण करानेका पुण्य ले सकती है। उनका यह त्याग सहर्ष हो या विचार पूर्वक हो तो मुझे तो सन्तोप रहेगा ही, साथ ही उनका जीवन भी विकसित होगा। अगर उनकी इच्छा क विना मैं उन्हें छोड़कर चलदं तो इसमें उनका त्याग न होगा, लुटजाना होगा, यह तो एक तरह का वैधव्य होगा। मुझे स्वेच्छासे अनुमतिदेकर वे महासती बनसकती है, त्यागमूर्ति वनसकता है, आध्यात्मिक दृष्टिले परम सौभाग्यवती बनसकती हैं। पर यह हो कैसे ? जब तक मेरी वात विवेक पूर्वक उनके गले न उतर जाय तब तक ठाक पीटकर वैद्यराज बनाने से क्या होगा? पिछले कुछ दिनों से मैं इसप्रकार बड़ी उलझन में पड़ा हूं।
१६ - देवी की अनुमति .. ... ४ सत्येशा ९४३२ इ. सं.
. . . इधर कुछ दिनों से जो उलझन थी. वह अकस्मात् ही आज सुलझ गई। आज भोजन के अपरान्त मैं अपने कक्ष में बैठा था, दवा भी मेरे कक्ष में आगई थीं, इधर उधर की चचा. चलरही थी पर निष्क्रमण की अनुमति मांगने लायक कोई प्रक रण नहीं आरहा था । इतने में दासी ने खबर दी कि बाहर कुछ लोग बैठ हैं और आप से मिलना चाहते हैं। ...
मैं-कौन हैं ? गृहस्थ हैं या सन्यासी? . . : ..
दाली- क्या बताऊं! कुछ समझ में नहीं आता । साधा रण गृहस्थ तो हैं नहीं, पर साधु सनवासियों सरीखे भी नहीं.. मालूम होते। पर आदमी कुछ ऊंची श्रगो के मालूम होते हैं । ऐसे आदमी अपने यहां आये हुए कभी नहीं देखे गये। ..... - मैं-अच्छा ता उन्हें भेजदे। ,
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मंदावीर का अन्तस्ल
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पहिले तो देवी की इच्छा कक्षके बाहर जान की हुई पर दासी ने जो वर्णन किया था उससे उनमें उन्हें देखने की उत्सुकता भी पैदा हुई । इसलिये वे बैठी रहीं ।
कुल आठ सजन थे। देखने से ही मालूम होता था कि ये लोग विद्वान होंगे, विचारशील होंगे। गृहस्थों सरीखा वेप नहीं था, पर श्रमणों या वैदिक साबुओं सरीखा भी वेप नहीं था । यथास्थान बैठने के बाद परिचय करने से मालूम हुआ कि ये लोग एक तरह के राजयोगी हैं। किसी तरह की कोइ बाह्य तपस्या नहीं करते, बड़े ही स्वच्छ परिमार्जित ढंग के कपड़े पहिनते हैं फिर भी ऐसे, जिनसे विलास या विटत्व न मालूम हो ! आजन्न ब्रम्हचारी रहते हैं, किसी राजदवार आदि में कभी नहीं जाते । शास्त्र का मनन चिन्तन आदि ही करते रहते हैं । जो पहिले नम्बर पर बैठे थे उन सारस्वतजी ने यह सब परिचय दिया। दूसरे आदित्यजी ने बताया कि इस गणतन्त्र के बाहर राजतन्त्र में वे रहते हैं । गणतन्त्र की सीमा से पांच गव्यूति दूर पर ब्रम्हलोक नाम का एक नगर है, अस नगर के बाहर आठों दिशाओं में आठ आश्रम हैं । हम लोग नहीं आश्रमों में रहते हैं । बाकी छः के नाम थे वह्नि, अरुण, गर्दतोय, तुपित, 1 अध्यावाध, अरिए | सब के अलग-अलग आश्रम थे
!
उनके आश्रमों में स्त्रियाँ नहीं होती, शिष्य नहीं होते, . सभी वयस्क आर विद्वान ब्रह्मचारी होते हैं। किसीसे कोई विशेष सम्बन्ध नहीं रखते । किसी उत्सव में शामिल भी नहीं होते ।
उनका परिचय पाकर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई और मन में आश्चर्यपूर्ण यह जिज्ञासा भी हुई कि जब ये किसी श्रीमान या शासक से मिलने नहीं जाते यहां तक कि प्रजा के किसी उत्सव सम्मिलित नहीं होते तब मेरे पास आने की कृपा क्यों की ? यह बात मैंने उनस पूछी भी ।
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महावीर वा अन्तस्तल
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. बोले-यद्यपि हम लोग जगत के मायामोह से अलग है, फिर भी आँखें बन्द करके नहीं बैठते । जगत को देखते हैं कि वह सुधरे । इस समय समाज की बड़ी दुर्दशा है, ज्ञान विज्ञान सब " नष्ट होरहा है , शास्त्र तो वस अन्धश्रद्धापूर्ण क्रियाकांड की जानकारी में समाप्त होगये हैं। समाज का एक वर्ग इस तरह पदद. . लित किया जारहा है मानो वह मनुष्य ही नहीं हे, कदाचित् पशु ... से भी गई वीती उसकी दशा है । यज्ञ के नाम पर हत्याकांड इतने बढ़गये हैं कि यातायात के लिये अश्व और कृषि के लिये बलीवर्द भी नहीं मिलते | कृषक वर्ग तड़प रहा है, शुद्ध वर्ग पिन रहा है, पर कोई सुननेवाला नहीं है । जिनके पास वैभव है उन्हें स्वर्ग में अप्सराओं को नियंत कर लेने की चिन्ता है। उर्वशी और तिलो- ... त्तमा पर सव की अष्टि हैं। पर इससे समाज का बहुभाग कंगाल बनता जारहा है इसकी तरफ किम्ली की दृष्टि नहीं है।
मैं-तब आप अपने यहां के शासकों से यह वात क्यों नहीं कहत?
वे-कहने का क्या अर्थ ? शासक तो दो बाते ही जानते हैं-युद्ध और विलास । वाकी और सब बातें समझने का ठेका उनने ब्राह्मणों को दे दिया है।
मैं-तो ब्राह्मणों से ही कहिये। - वेब्राह्मणों से कहने का भी कुछ अर्थ नहीं है। क्योंकि लोगों के अन्धविश्वास तथा बेकार के इन क्रियाकांडों पर ही . , ब्राह्मणों की जीविका निर्भर है। और इस जीविका को व्यवस्थित रखने के लिये जिस बड़प्पन की जरूरत है, वह जन्म से जाति. मानने से तथा दूसरों को नीचा दिखाने से ही मिल सकता है, समाज की दुर्दशा पर ही जिनके स्वार्थ टिके हैं, वे दुर्दशा को क्या दूर कर पायंगे ? और क्यों करेंगे?
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महावीर का तस्तल
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मैं-तब आप मुझसे क्या आशा करते हैं ?
वे-हम लोगों ने आपके बारे में बहुत सुना है । आप बहुत ज्ञानी हैं, तपस्वी हैं, संसार की इस दुर्दशा से चिंतित हैं। इसलिये आप एक नये तीर्थ की स्थापना कर सकत है । जब तक नया तीर्थ न बने, तीर्थ के आधार से विशाल संघ न बने तर तक साधारण जनता के मन पर अपने विचारों की कार न पड़ेगी, समाज का इस दुर्दशा से उद्धार नहीं होगा।
बीच में बोल झुठी देवीजी-पुगने तीर्थ कुछ कम नहीं है, तब एक नया तीर्थ वनाने से क्या लाभ ?
वे-घर में अगर बहुत से बुड्ढे बैठे हो नत्र क्या इलीले नये बालक की आवश्यकता नहीं रहती माई ?
देवी-बालक क्या वृद्ध न बनेगा ? ।
वे-बनेगा, पर वृन्ध बनने के पहिल जवाना भर काम कर जायगा, आगे के लिये नया वालक भी पैदा कर जायगा। जगत् की व्यवस्था तो इसी तरह चलती है माई । पुराने व्याक्त मरते हैं, नये पैदा होकर उनकी जगह लेते हैं, पुराने तीर्थ मरते हैं. उनकी जगह नया पैदा होता है, घम की परम्परा मानव की परम्परा की तरह इसी तरहं चलती है।
— कुछ क्षण सब चुप रह, फिर लौकान्तिक बोले-इसमें सन्देह नहीं माइ !कि कुमार के जान स आपके जीवन में शून्यता आजायगी। पर आज की दुर्दशा के कारण कितने घरों में शून्यता आरही है इसका पता अगर आपको एक बार भी लगजाय तो दिन रात आपक आंसु थमेंगे नहीं। पशुओं की दुर्दशा की बात जान दीजये, उसके लिये तो ब्राह्मणों का साफ कहना है कि 'यज्ञार्थ पशवः सृष्टाः' यज्ञ के लिय ही पशु बनाये गये हैं
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महावीर का अतन्तल
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और यज्ञ का अर्थ कर रक्खा है उन्हें जीवित जलाकर खाजाना, पर मनुष्यों का जो यज्ञ होता है, उसके स्मरण मात्र से छाती थरी जाती है। अभी दो सप्ताह पहिले की बात है, कृषकों का एक दल हमारे पास आया था, सत्र के पास रजतपिंड थे पर उससे वे बलीवर्द न खरीद सके । सामन्तों ने स्वर्ण पिंड देकर यज्ञ के लिये सब बलीवर्द खरीद लिये । बलीव के बिना वे इसी तरह तड़पते थे जैसे कोई सन्तानहीन व्यक्ति तड़पता है, वलीवर्द के मरने से वे इतने ही दुःखी होते हैं जैसे कोई जवान वेटेके मरनेसे, आज समाजके हजारों घरोंमें इसी तरह का सूतक छाया हुआ है। कृषक पात्नेयोंके उच्छ्वासासे वायुमण्डल तप्त होग
या है, अन्न क विना उनका सौभाग्य दुर्भाग्यसे भी बुरा बना हुआ - है। बलीवदोंके अभावमें कृपकोको, कृषकपत्नियोंको, कृषक-चालकों
को खेत में जाकर स्वयं बलचिर्द बनना पड़ता है । उधर लाखों आदमी जातिमद के शिकार हैं। अभी एक सप्ताह पहिले की बात है-हमारे नगर के बाहर कुछ चांडाल कुटुम्ब रोते चिल्लाते जारहे थे। मालूम हुया कि अमुक मर्यादा के भीतर एक चांडाल क प्रवेश से यज्ञ भ्रष्ट होगया था इसलिये उस चांडाल की हत्या कर दी गई थी। कैसा सुन्दर हृष्ट पुष्ट युवक था! उसके पीछे उसकी विधवा पत्नी, बुडढी मां और तीन वर्ष की छोटी सी बच्ची क्या दहाडै मारमार कर रोरही थी, देखकर पत्थर के भी आंसू निकल सकते थे, पर आजका मनुष्य पत्थर से भी अधिक कठोर है, उसे पिघलाने के लिए किसी महान तपस्वी का तप चाहिये यह योग्यता हम वर्द्धमान कुंमार में ही देखते हैं । माई ! जगत् के उद्धार के लिये तुम्हें भी इस तपस्या में सहायक होना पड़ेगा, वर्द्धमान कुमार को छुट्टी देना होगी। तुम्हारा यह त्याग जगत के महान से महान त्यागों में होगा। तुम दयालु हो माई, लाखों व्यक्तियों की आंखों से निकली जलधारा को देखकर तुम अपने आंखों के आसू भूल जाआगा माई ! .. :: ., , . . ...
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महावीर का अन्तस्तल .
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देवी सिर झुकाकर बैठी रहीं। उनकी आंखों में आंसू भर आये और क्षणभर वाद उनने मेरे पैरो पर सिर रखदिया और रोती रोती बोली क्षमा कीजिये देव, में बहुत स्वार्थिनी हूँ. मैंने अपने सुख के लिये जगत के सुखका बलिदान किया है, अपने आंसू बचाने के लिये लाखों प्राणियों के आंसुओं की वैतरणी बनने दी है. अपने आंसुओं की ओट में जगत के आंसू देखने से बचती रही हूँ:। पर अब मैं यह पाप न करूंगी। आयके मागे में बाधान डालेंगी। .. लौकान्तिक धन्य हे माई ! धन्य है !! . इसके बाद लोंकान्तिक चले गये और जाते जाते कह. गये-अब हम जगत का कहेंगे-शान्त हो रे जगत्, धीरज रख रे जगत्, तेरे उद्धार के लिये नया सृष्टा आरहा है, नया तीर्थंकर आरहा है।
. उनके जाने पर मैंने देवी के सिर पर हाथ रक्खा ! अपनी दृष्टि से ही कृतज्ञता प्रगट की । वे अपने उमड़ते हुए आंसुओं को रोक रही थीं। ....
१७-निष्क्रमण : ५ सत्येशा ९४३२ इतिहास संवत् । . . . . कल सन्ध्या को ही मैंने भाई साहब से निष्क्रमण के निश्चय की बात कह दी । और आज तीसरे पहर गृहत्याग करने का कार्यक्रम सूचित कर दिया। इससे एक तहलका मा मचगया। दौड़ी दौड़ी भाभी जी आगई, दासियाँ भी आगई । सब ने मुझे घेर लिया। पर ठिठकीसी रह गई। थोड़ी देर बाद भाभी ने मेरे कंधे पर हाथ रखते हुए कहा-माताजी के लिये तुम कई वर्ष रुके देवर, अपने भैया के लिये भी एक वर्ष रुके, अब क्या अपनी भाभी के लिये छः मास भी नहीं रुक सकते ? क्या भामी का इतना भी अधिकार नहीं ?
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महावीर का अन्तस्तल
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मैने मुसकराते हुए कहा-तुम्हें भैया से जुदा समझने का पाप नहीं कर सकता भाभी! . मेरी बात सुनकर दासियाँ तक मुसकरा पड़ीं । भाभी ने कहा-दूसरों का मुंह बन्द करना खूब जानते हो देवर !
बीच में बोल उठे भैया । बोले-वर्धमान कुमार सब बातों में असाधारण हैं, अन्यथा किसी भाभी का मुंह. बन्द कर सकने वाला कोई देवर तो आजतक देखा सुना नहीं।
फिर एक हलकी सी मुसकुराहट की लहर सत्र के बीचमे दौड़गई । . . . . . .. इसके बाद भैया ने कुछ गम्भीर हाकर कहाभव. तुम्हें रोक सकने का कोई शस्त्र हमारे पास नहीं रहा वर्धमान ! हम हारे हुए हैं, इसलिये कल तुम जिस तरह विदाई चाहोगे उस तरह तुम्हें विदा करदेना पड़ेगा। __ मैं-इस के लिये कुछ विशेष योजना तो करना नहीं है भैया ! मैं कल तीसरे पहर अपने वस्त्राभूपण गरीबों को दान देकर सिर्फ एक चादर लपेटकर बन की ओर अकेला चल दूंगा।
भाभी ने अचरज से कहा-पैदल ही?
मैं-पैदल नहीं तो क्या ? परिव्राजक साधु क्या हाथी घोड़े शिविकाओं पर घूमा करते हैं ? अब तो मुझे जीवन के अन्त तक पैदल ही भ्रमण करना है ।
मेरी वात सुनकर भाभी क्षणभर को स्तब्ध होगई। फिर अंचल से अपनी आँखें पोंछकर बोली-जीवनभर तुम जैसे चाहे घूमना देवर, पर मैं ऐसी अभागिनी भाभी नहीं बनना चाहती जिसका देवर साधारण भिखारी सा बनकर घर से निकलजाय।
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महावी. का अ तम्तल
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अगर मेरा दवर साधारण युद्ध विजय के लिये भी जाता तो गांव__ भर की सीमन्तिानयाँ उसकी आरती उतारती, वह अश्वारूढ़ होता, . उसके रास्ते में फूल विछे होते । पर कल तो मेरा देवर विश्वविनय के लिये जारहा है, लोगों के शरीर पर नहीं आत्माओं पर विजय ने लिये के जारहा है तब उसका समारोह उसके अनुरूप ही होगा।
भैया ने कहा- हां ! हां ! प्यों नहीं होगा ? इस विषय में वर्धमान कुछ नहीं कह सकते । मैं अभी से सब तैयारी कराता हूँ।
यह कहकर भैया जी उठकर चलेगये। मैं भी उठकर चला आया । प्रसाद के आगे रातभर ठक ठक चलती रही, राजपथ स्वच्छ और सजा हुआ करने की धामधूम होती रही। अश्वारोहियों के इधर उधर जाने की आवाजें आती रहीं। माम होता था कि जितनी दूर तक के सामन्तों और प्रजाजनों को खवरं दीजासकती थी, खबर दीगई।
कुछ तो इस तरह रात्रि की निस्तब्धता भंग होने के कारण, कुछ निष्क्रमण के उल्लास के कारण, कुछ आगे के कार्यक्रम के विचार के कारण मुझे नींद नहीं आई। बीच बीच में मैं कक्ष के भीतर चंक्रमण करने लगा, यहां तक कि निशीथ का समय आगया इतने में मैं चौंका । देवी के कक्ष से थपथपाने की आवाज आई। समझगया कि देवी को भी नींद नहीं आरही है और इसीसे प्रियदर्शना भी नहीं सो रही है, उसे सुलाने के लिये वे थपथपारही हैं। - यद्यपि पिछले एक वर्षसे में कुछ अलग सा ही रहता हूँ, एक तरह से मेरा सारा समय अपनी साधना में लगा रहा है फिर भी मिलने जुलने और बात करने का समय तो मिलता ही रहा है। पर आज उनके और मेरे जीवन के ऊपरी मिठनकी अंतिम
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८.]
महावार का अन्तस्तल
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रात्रि है । इसके बाद ऊपरी दाम्पत्य भी विच्छिन्न होजायगा।। .. कल उन लोकान्तिक राजयोगियों को गते सुनकर देवीने मुझे निष्क्रमणका अनुमति देदी, फिर भी इस. त्याग का बोझ उन्हें काफी भारी पड़रहा ह । उनके विवेकले, विश्वाहतारताने अनु-'. मति दी है पर मन तो कराह ही रहा है.. पर इसका उपाय क्या है ? दुनिया के तामस यज्ञों को दूर करने के लिये यह महान, सात्विक यज्ञ करना ही पड़गा। . .. ... .
एक बार इच्छा तो हुई कि देवी के कक्षम : जाकर उन्हें सान्त्वना दे आऊं जिसमें उन्हें नींद आजाय, पर रुकगया। इस समय उन्हें सान्त्वना देने का अर्थ होता उन्हें रातभर. रुलाना, इसलिये नहीं गया।
. मैं चाहता हूँ कि मेरे जाने के बाद वे वैधव्य की यातना का अनुभवं न करें, किन्तु त्याग के महान गौरव का अनुभव करें।'
- इन सब विचारों में काफी रात निकल गई । चंक्रमण से कुछ थकावट सी मालूम हुई और मैं लेट गया। थोड़ी देर में निद्रा भी आगई। पर कुछ मुहूर्त ही 'सोपाया था कि मैं चौक गया । आंख खुलते ही देखा कि देवी शैया के नीचे बैठी बैठीइकटक मेरे मुँह की ओर देख रही हैं। मुझे आश्चय नहीं हुआ । फिर भी प्रेमल स्वर में मैंने पूछा-इतनी गत तक क्या तुम सोई नहीं दंवी? . . . . . . . . . . . . . . . . . . देवी के ऑट कांपने लगे, मालूम हुआ दोनों ओठ उम ड़ती हुई रुलाई का धक्का नहीं सह पारंहे है। बड़ी कठिनाई से रुंधे गलेसे उनने कहा-सोने को तो सारा जावन पड़ा है देव! .. मैं उठकर बैठ गया । देवी का हाथ पकड़ कर मैंने उन्हें शय्या पर बिठला लिया और हल्की सी मुसकुराहट लाते कहा-इस तरह इकटक क्या देख रही थीं देवी?
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देवी- आपक रूप पारही थी देव! सोचा जावनभर सेना ही है, यह अन्तिम रात्रि है, जितना पी
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> सकूँ पी लूँ !.
महावीर का अन्तस्तल
मैंने कहा - मोक्ष के सिवाय क्या कभी काम से प्यास बुझी है देवी ?
देवी चुप रही।
मैंने कहा - इस तरह धीरज खोने की आवश्यकता नहीं है देवि! तुम्हें तो अपनी दानवीरता का अनुभव करना है। लाखों सुवर्ण मुद्राओं का दान करने वालों की दानवीरता तुम्हारी इस दानवीरता के आगे पासंग भी नहीं है। वे सुवर्ण के टुकड़ों का दान करते हैं पर हृदय के टुकड़ों का या पूरे हृदय का दान वे नहीं कर पाते । तुमने तो आज अपने हृदय का जीवन के उन सुखों का. जिसके लिये लोग न जाने कितने पाप करते हैं, दान किया हैं; और यह सब किसी स्वर्ग की लालसा से नहीं, किन्तु विश्व के कल्याण के लिये किया है, इस महान गौरव को पाने वाली सीमन्तिनी मुझे कोई दिखाई नहीं देती। आये दिन युद्ध होते रहते हैं, हजारों योद्धा मारे जाते हैं, लाखों महिलाओं के आंसुओं से समुद्र का खारापन चढ़ता जाता है, वह खारापन रोकना है, आंसू बहाकर वह बढ़ाना नहीं है। दुदैव से लुटी हुई उन अभा गिनी महिलाओं में तुम्हें अपनी गिनती नहीं कराना है, कंगाली और त्याग को एक नहीं बनाना है । कल देश में वह कौन स्त्री होगी जो विश्वकल्याण के लिये सर्वस्व का त्याग करने वाली यशोदा देवी के सामने सिर ऊंचा करके चल सकेगी ? पर अगर तुम दनिता का अनुभव कर स्वयं ही अपना सिर नीचा करलो तो दूसरों का सिर आप ही ऊंचा रह जायगा । यह तो विलास के सामने त्याग की हार होगी। यह सब वर्धमान की पत्नी के योग्य नहीं ह ।
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८२. ]
महावीर का अन्तस्तल
देवी ने अपने आंसू पोंछ लिये । क्षणभर रुककर बोलींक्षमा कीजिये देव, मेरा कोमल हृदय थोड़े से ही ताप से पिघलकर आंसू बनने लगता है। मैं तो समझती हूँ नारी में यह कोमलता, जिसे दुर्बलता ही कहना चाहिये, सहज है । पर मैं नारी की इस सहज प्रकृति पर विजय पाने का पूरा प्रयत्न करूँगी । आपकी पत्नी के योग्य भले ही न बन सकूँ, पर उसके गौरव की रक्षा तो करना ही है।
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मैं- नारी के हृदय की कोमलता को मैं दुर्बलता नहीं कह सकता दोवे ! वह कोमलता ही तो धर्मों का, सभ्यताओं का मूल है । नारी का यह पिघलता हुआ हृदय जब अपनी असंख्यधाराओं स दसों दिशाओं को व्याप्त करलेता है तब वही तो 'सत्वेषु मैत्री' वन जाता है, वही तो भगवती अहिंसा की त्रिपथगा मूर्ति वनजाता है; और जब उसे कोई पुरुष पाजाता है तब देवता कहलाने लगता है । इसलिये उसे दोष समझकर उसपर विजय पाने की कोशिश न करो ! किन्तु उसे फैलाओ । इतना फैलाओ कि संसार का प्रत्येक प्राणी तुम्हें प्रियदर्शना सा मालूम होने लगे और मेरा निष्क्रमण असंख्य प्रियदर्शनाओं की सवा में लगा हुआ दिखाई देने लगे ।
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देवी ने एक गहरी सांस ली और कहा- ऐसा ही करूंगी देव, मैं आपका अनुसरण तो नहीं कर पाती पर थोड़ा बहुत अनुकरण करने का यत्न अवश्य करूंगी । अनुसरण अगर इस जन्म में न होसका तो अगले जन्म में अवश्य होगा ।
इतने में कुक्कुट का स्वर सुनाई दिया । मैने कहाउपाकाल आगया है देवि !
देवी उठीं, बोलीं- तो जाती हूँ, प्रियदर्शना जागं कर रोने नलगे । यह कहकर वे आंसू पोंछती हुई चली गई ।
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महावीर का अन्तस्तल
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प्रातः काल होते ही जब मने राजपथ पर नजर डाली तब मालूम हुआ कि आज सवेरे से ही काफी भीड़ है। आसपास के गांवों की जनता सधेरे से ही इकट्ठी हो रही है . विचारी भोली जनता नहीं समझती कि मैं क्या करने जारहा हूँ । जनता सिर्फ इस कुतूहलस इकट्ठी होरहो है कि एक गजकुमार वैभव को लात मारकर जारहा है । मूल्य त्याा के उद्देश का नहीं है, राजकुमारपन का है।।
. प्रासाद के भी भीतर बड़ी चहलपहल थी, हां ! उल्लास नहीं था। सुगन्धित चूण से मेरा उबटन किया गया. हेमन्त ऋतु हान से गर्म जल से स्नान कराया गया । भोजनमें व्यसनों की भरमार थी, सर कुछ था, पर हास्य क.-विनोद की सब जगह कमी थी। ...
भोजन के बाद मेरा बहुतसा समय गरीबों को दान देने में गया, तब तक राजपथ पर दोनों ओर सहस्रों नरनारियों की भीड़ इकट्टी होगई। भाई साहब ने शिविका. को जिस तरह सजाया था वैसी सजावट मेरे विवाह के समय भी नहीं की गई थी। फिर भी ऐसा मालूम होता था कि बहुत कुछ सजकर भी शिविका हँस नहीं रही है।
दिन का तीसरा. पहर बीता जारहा था, इसलिये मुझे विदा लेने के लिये शीघ्रता करना पड़ी। पुरुष वर्ग तो बातखंड तक साथ चलने वाला था ! दासी परिजनों से भाभी से और देवी से विदा लेना थी। सब ने साधु नयनों से विदा किया, सब आंसुओं से मेरे पैर धोती. गई; और अंचल से पोचती गई। भाभी ने मांस भरकर और मेरी भुजापर अपना हाथ रखकर कहा-देवर, हम लोग क्षत्राणियाँ हैं, जन्म से ही अपने भाग्य
में यह लिखा लाई हैं कि मौत के मुंह में जाते समय अपने पति .: पिता पुत्र भाई और देवर की आरती उतारा करें आर विना
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आंसू निकाले विदा किया करें, पर आज सरीखी विदाई देना भी अपने भाग्य में लिखा लाई है इसकी हमें कल्पना तक नहीं थी, इसलिये इस अवसर पर अगर हम अपने हृदयों को पत्थर न बना पायें तो हमें क्षमा करना !
महावीर का अन्तस्तल
मैंने कहा- भाभी, मैं इसलिये विदा ले रहा हूँ कि भविष्य में भी बहिन पुत्री पत्नी और भाभियों को अपने हृदय को पत्थर बनाने के अवसर ही न आयें। आशीर्वाद दो कि मैं अपनी साधना में सफल हो सकूँ !
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इसके बाद विदा दी देवी ने । अनके मुँह से कुछ कहा न गया । पहिले तो पास में खड़ी प्रियदर्शना को उनने मेरे. पैरों पर झुका दिया फिर स्वयं झुककर मेरे पैरों पर सिर रख कर फक्क पड़ी। उनके आंसुओं से मेरे पैर भींगने लगे। मैंने अन्हें उठाते हुए कहा- धीरज रक्खो देवी, मोतियों से भी अधिक सुन्दर और बहुमूल्य आंसुओं को इस तरह खर्च न करो । दुःख से जलते हुए संसार की आग बुझाने के लिये इन आंसुओं को सुरक्षित रखना है।
देवी ने गद्गद् स्वर में कहा चिन्ता न करो देव, नारियाँ धीरज में भले ही कंगाल हों पर आंसुओं में कंगाल नहीं होती; आंखों का पानी ही तो अनके जीवन की कहानी है ।
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मैं तो तुम भी आशीर्वाद दो देवी कि तुम्हारे आंसुओं मैं मैं संसार भर की नारियों की कहानी पढ़ सकूं 1
देवी बगल में खड़ी भाभी जी के कन्धे पर सिर रखकर - उनका कन्धा भिगाने लगी.
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क्षणभर मैं स्तब्ध रहा । फिर भाभी से वाला-अब, चलता हूँ भाभी, साहस बटोरने का काम तुम्हे सौंप जाता भांशा है उसका बड़ा हिस्सा तुम देवी को प्रादान करोगी।
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महावी. क अन्तस्ल
. मैं प्रासाद के बाहर निकला । मुझे देखते ही हजागे कंठ चिल्लाये-वर्धमान कुमार की जयं । मैं शिविका में वठा । हजारों, आदमा अंगे और हजारों आदमी पीछे चल रहे थे । गवाक्षों से सीमन्तिनियाँ लाजा बरसा रही थीं । बस्ती के बाहर जय जुलूस पहुंचा तब मेरी हाटे पथ से दूर खड़े हुए एक मानव समूह पर - पड़ी। वे चांडाल कुटुम्ब थे। शिवकेशी की घटना के बाद मेरे. • विषय में उनका आदर काफी बढ़ गया था। चाहते थे कि जुलूस में आकर मेरी शिधिको पर लाजा बरसा जायें, पर यह उनके लिये आग में कूदने से भी भयंकर था । इसलिए चांडालवधुआंने अपन अञ्चल में रक्खे हुए लाजा मेरी ओर लक्ष्य करके अपने हा आगे बरसा लिये थे। यह देखते ही मेगा दहय 'भर आया । जिन आंसुओं को मैं देवी और भाभी
के आगे रोक सका. था वे अ न रुके, उन्हें पोंछकर मैंने • अपना उत्तरयि पवित्र किया ।
".क्षणभर को इच्छा हुई कि शिविका में से उतर कर मैं, च डालवधुओं को सान्त्वना दे आऊं, पर पीछे यह सोचकर रुक.
गया,कि इससे जनता में इतना क्षेोम फैलेगा कि रास्ते से दूर ... खड़े होने के अपराध में भी जनता उन चांडालों को मेरे जाने के बाद पति डालेगी, इसलिए रुक गया।
ज्ञातखंड पहुंचने पर मैं शिविका से उतरा। जनता एक समूह में खड़ी होगई । मैंने सबको संबोधन करते हुए कहा-अव मैं आप लोगों से विदा लेता हूं। इसलिए नहीं कि आप लोगों
से कौटुम्बिकता तोड़ना चाहता हूं, किन्तु इसलिए कि मैं वह · साधना कर सकूँ जिससे आप लोगों के समान मनुष्य मात्र से • या प्राणिमात्र से एक सरीखी कौटुम्धिकता रख सई। जिस
तृष्णा और अहंकार ने आत्मा क भीतर भरे हुए अनन्त जुख के
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महावीर का अन्तम्तल
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यह कहकर मैन एक एक आभूषण अतार कर फैंक दिया। पीछे वस्त्रों की बारी आई । एक देवदूप्य उत्तरीय छोइकर बाकी सब वस्त्र भी अलग कर दिये।
यह सब देखकर भाई नन्दिवर्धन की आखों में आंसू भागये और मैंकड़ों उत्तरीय अपनी अपनी आंखें पोछते हुए दिखाई देने लगे। मैंने कहा- आप लोग इसका शोक न करें । . अपरिग्रहता दुर्भाग्य नहीं, सौभाग्य है । किसी पशु पर लदा हुआ बोम उतर जाय तो यह झुल पशु का दुर्भाग्य होगा या सौभाग्य? इसलिये प्रसन्नता से अव आप लोग घर पधारे, मैं अपनी साधना.. के लिय विहार करने जाता हूं।
यह कहकर में चल दिया और फिर मुंह फेर कर उनकी तरफ देखा भी नहीं। काफी रास्ता चलने के बाद जब रास्ते के मुड़ने से मुझे मुड़ना पड़ा तंव मेरी नजर विदाई की जगह पर पड़ी। सब जनता ज्यो की त्यों खड़ी थी। सम्भवतः वह तब तक मझे देखते रहना चाहती थी जब तक मैं दिखता रहूं| इसमें सन्देह नहीं. स्नेह का आकर्षण सव आकर्षणों से तीन होता है। पर मैं आज उसपर विजय पासका, उसका बन्धन तोड़ सका। हां! यह बन्धन तोड़ने के लिये नहीं तोड़ा है पर विश्व के साथ नाता जोड़ने के लिये तोड़ा है।
१-अव मी गजकुमार ५ सत्येशा सन्ध्याकाल ९४३२ इतिहास संवत्
विदा देनेवाली जनता ओझल हो चुकी थी और मैं आगे बढ़ता हुआ चला जारहा था । इतने में पीछे से किसी की पुकार सुनाई दी 'वर्द्धमान कुमार ! ए वर्द्धमान कुमार..! मैं नहीं चाहता था कि ममताका कोई जाल अब मेरे ऊपर फिर आक्र. मण करे, इसलिये पुकार की पवाह न कर मैं आगे बढ़ता ही
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महावीर का अन्तस्तल
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गया। पर फिर सनाई दिया-वर्धमान कुमार, तनिक ठहरो तो
मैं बूढ़ा ब्राह्मण हूँ. दौड़ता दौड़ता थक गया हूं। २. मैं रुका और लौटकर देखा कि सोम काका हांफते हए
चले आरहे हैं । पिताजो को ये समवयस्कता और परिचय के नाते मित्र कहा करते थे इसलिये मैं इन्हें चाचा कहता रहा हूं। इधर एक वर्ष में ये दिखाई नहीं दिये । एक कारण तो यह कि पिताजी चले गये थ, दृसग यह कि में अपनी साधना में लीन था। आज इन्हें देखकर याद आई । सोचा बेचारे विदाई के समय न आपाये थे सो अब आगये हैं।
___ फाका का यह वात्सल्य देखकर कुछ अचरज हुआ। . काका पास में आकर खड़े होगये । ठंड के दिन थे पर दौड़ने की गर्मी से स्वेदविन्दु उनके ललाट पर मोतियों की झालर से लटकने लगे थे। क्षणभर गककर अपने कन्धे पर पड़े हुए फटे चिथड़े से उनने वह मोतियों की झालर मिटादी और गहरी सांस लेते हुए बोले-मुझे यह ज्ञान नहीं था कुमार, कि तुम आज निष्क्रमण करने वाले हो । मैं अभागी दरिद्री गांव गांव भिक्षा मागा करता हूं तब भी चरितार्थ नहीं चलता । अभी अभी जव में गांव से भिक्षा मांगकर आया तब तुम्हारी ब्राम्हणी काकी ने मुझ खूब फटकारा, कहा-तुम अभागी हो, और तुम्हारे ही कारण मैं भी अभागिनी हूं कुमार चले गये, और अटूट सम्पत्ति दान कर गये पर तुम उस अवसर पर पहुँचे ही नहीं, और न कुमार को विदाई दी। जग का दारिद्रय मिटगया और तुम कंगाल के कंगाल ही रहे । क्या कहूं कुमार, तुम्हारे निष्क्रमण की बात सुनते ही मैं इतना बेचैन होगया कि हारा थका होने पर भी न तो मैंने विश्राम किया न भोजन किया और दौड़ा हुआ चला आया।
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मैं- पर अव इस तरह दौड़े आने की क्या आवश्यकता थी कांका ?
काका कुछ गम्मीर होगये और गहरी सांस लेकर, सिर मटकाते हुए बोले - कुमार तुम्हें क्या बताऊं ? अगर न आता तो ब्राह्मणी खाने भी न देती। .
मरे हृदय को एक धक्का सा लगा । सचमुच निर्धनता इतना बड़ा पाप है कि उसमें प्रेम सहानुभूति सज्जनता शिष्टता आदि गुण नहीं पनप सकते । सम्पत्ति के एक जगह इकट्ठे होजाने से जो जगत में निर्धनता फैलती है उससे मनुष्यों को ही भूखों नहीं मरना पड़ता, किन्तु मनुष्यता को भी भूखों मरना पड़ता है।
मेरे मन में ये विचार कुछ तूफान सा मचाये हुये थे कि सोम काका ने कहा-कुमार अब ऐसा अपाय करो कि लौटने पर ब्राह्मणी की फटकार न सहना पड़े।
मैं-तुम देख तो रहे हो काका कि मैं एक निष्परिग्रह श्रमण हूँ।
सोम-पर मेरे लिये तो तुम अब भी राजकुमार हो कुमार!
मैं तुम्हारी इस वत्सलता के लिये साधुवाद, पर इस वत्सलता की राजकुमारता से वह धन तो नहीं टपक सकता जो काकी का मुंह वन्द कर सके।
ब्राह्मण का चेहरा उतर गया। सारे शरीर का पर्साना तो सूख गया था पर अब ऐसा मालूम होने लगा कि आंखों को पसीना आजायगा।
कुछ क्षण रुककर ब्राह्मण ने दीर्घ उच्छ्वास के साथ पूछा-तो क्या में खाली हाथ जाऊं?
ओह, ब्राह्मण के चेहरे पर कितनी दनिता थी, कितनी
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वेदना थी ! मुझसे यह सब न देखा गया। मैंने अपना उत्तरीय निकालकर उसके दो टुकड़े किये और एक टुकड़ा ब्राह्मण को देकर कहा-इस समय और कुछ तो मेरे पास है नहीं, यह आधा कपड़ा ले जाओ ! बहुमूल्य है यह, इसके विक्रय से अनेक दीनारें मिल जायँगी
ब्राम्हण की आंखें चमक उठी, मुग्ध मण्डल पर हँसी लहलहाने लगी । बाला-मैने तो कहा था कि तुम हमारे लिए अभी भी राजकुमार हो कुमार ! तुमने मुझे संकट से बचा लिया कुमार, ब्राह्मणो तुम्हें भूरि भूरि आशीर्वाद देगी।
" मैं-अकेली ब्राह्मणी के आशीर्वाद से काम न चलेगा काका, तुम भी आशीर्वाद देते जाता, नहीं तो तुम्हारा आशीर्वाद यदि झुधार रहगया तो फिर क्या देकर मैं उसकी भरपाई करूंगा।
ब्राह्मण ने अट्टहास्य किया। और यह कहते कहते चला गया कि तुम तो मेरे लिए अब भी राजकुमार हो कुमार। /
१९-पारिपाचक एक बाधा ६सत्येशा ९४३२ इ. सं.
कल सूर्यास्त होते तक जितना दूर चला जासकता था उतना चला । कूार गांव के पास आपहुँचा । वस्ती में जाने की इच्छा नहीं थी । आज तक वस्ती में रहते रहते ऊब गया था, इसलिये वस्ती के बाहर अटवी के किनारे ही रात विताना तय किया। रात भर हृदय में विचारों का तूफान सा आता रहा। यह बात वार वार ध्यान में आई कि एक राजकुमार की हसियत से नहीं, किन्तु साधारण जन की हसियत से जगत के सामने अपने को उपस्थित करूं ? क्योंकि इसके बिना मेरा जीवन साधारण जन को अनुकरणीय नहीं बन सकता। लोग अपनी
चला जार
पास आप
आज
सलिये व
उपस्थित कम जन की हासिक राजकुमार काता रहा
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साधारणता को शिथिलता का बहाना बना लेते हैं । अत्र में राजकुमारपन के बन्धनों से मुक्त होगया हूँ अब साधारण जन की आंखों से जगत को देखूंगा और साधारण जन की कठिनाइयों का अनुभव कर जगत की और जीवन की चिकित्सा करूंगा ।
महावीर का अन्तस्तल
रात इसी तरह के विचारों में निकल गई । उपाकाल में जब कि मैं कार्योत्सर्ग से खड़ा हुआ था दो बैल आकर मेरे पास बैठगये । वैलों का स्वामी किसान शामको यहां चरने छोड़ गया था और वस्ती में चला गया था । बैल चरते चरते अटवी की तरफ निकल गये थे और पेट भरने के बाद उषा काल में फिर आकर बैठ गये थे । किसान रातभर बैलों को ढूँढ़ता रहा और रातभर की परेशानी से झल्ला गया ।
-
सवेरे जब बैल उसने मेरे पास बैठे देखे तब उसे भ्रम हुआ कि बैल रातभर मैंने छिपा रखे थे और सवेरे ले भागने वाला था । इसलिये आक्रोश करते हुए बोला कि यह सब तुम्हारी बदमाशी है । बनते हो साधु, और करते हों बदमाशी । इस प्रकार गुनगुनाते हुए वह मुझे रस्सी लेकर मारने को दौड़ा। इतने में बगल से आवाज आई- अरे मूर्ख, यह क्या करता है ?
•
किसान का हाथ तो रुक गया पर मुँह चला । वोलायह साधु मेरे बैल लेकर भागना चाहता था ।
आगन्तुक ने कहा- अरे मूर्ख, जानता है ये कौन हैं ? ये कुंडलपुर के राजकुमार वर्धमान हैं जिनने कल ही इतना दान किया है जिसमें तेरे कई कुर्मार गांव खरीदे जासकते हैं । ये सर्वस्य का व्याग कर तपस्या के लिये निकले हैं। क्या ये तेरे चैल लेंगे ?
मेरा नाम सुनते ही और मेरी राजकुमारता का पता
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पाते ही किसान वुरी तरह घबराया और बैलों को भगाता हुआ इस तरह भागा मानों जंगलमें कोई बाघ दिख पड़ा हो ।
मैंने आगन्तुक को पहिचाना और यूछा-इन्द्रगोप, तुम इससमय यहां कैसे आये ?
इन्द्रगोर ने हाथ जोड़ कर कहा-कुमार, मैं तो कल से ही आपके पीछे पीछ हूँ।
मैं- तुम्हें इस काम के लिये किसने नियुक्त किया ?
इन्द्र- सभी ने नियुक्त किया समझो कुमार. हालांकि मुझ से आपके साथ रहने की बात यशोदा देवी ने ही कही है • कल जब आप हम सबको छोड़कर चले आये तर कुछ देर तक हम लोग मूर्ति की तरह खड़ खड़ आपको देखते रहे। जबतक आप दिग्वते रहे तबतक नन्दिवर्धन भैया के साथ सब लोग आपको देखते रहें, पर ज्यों ही आप ओझल हुप, नन्दिवधन भैया बच्चों की तरह फूट फूटकर रोने लगे . हम लोगों ने स्वयं रोते रोते बड़ी कठिनाई में भैया को धैर्य बंधाया और किसी तरह घर की तरफ लौटाया।
ज्यों ही में घर पहुंचा त्यों ही सुपर्णा मेरे पास आई और उसने कहा-छोटी आर्या जी तुम्हें बुलाती है । मैं तुरन्त उनकी सेवा म उपस्थित हुआ । उनका चेहरा देखते ही मैं थक रहगया। थोड़े हा समय में क्या से क्या होगया था। कपाल । उनके अभी भी गीले थे । वोलों - इन्द्रगोप जी, आर्यपुत्र तो मुझे छोड़कर चले गये, अथवा उन्हें क्या दोष दूं? मैंने ही तो उन्हें अनुमति दी थी।
इतना कहते कहते वे विलख विलखकर रोने लगी, मुझम भी इतनी हिम्मत न रही कि उन्हें धीरज बंधाऊ, मुझे भी अपने आंसू पोंछने की पड़ी थी। कुछ समय में स्वयं स्वस्थ
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होकर वे बोलीं-वे तो मुझे छोड़गये पर मैं तो उन्हें नहीं छोड़ सकती। मुझे उनकी बड़ी चिन्ता है । मैं उन्हें जानती हूँ | उनकी साधना के ध्येय का तो मुझे पता नहीं, पर वे कुछ ऐसे हठी हैं कि सामने मौत आजायगी तो भी किनारा काटने की कोशिश न करेंगे । इसलिये मैं चाहता हूं कि उन्हें विना जताये दूर दूर रहकर तुम सुनके आसपास रहो। और जव. कोई संकट आये तव सारी शक्ति लगाकर निवारण करो। और किसी तरह जब उनकी अनुमात मिल जाय तब सुनके पारिपार्श्वक बनने की चेटा कगे। तुम्हें जो आजकल वृति मिलती है अससे चौगुणी भृति मिलेगी। इतना ही नहीं, मेरे पास की जो सम्पत्ति तुम चाहोगे वह भी तुम्हें मिलेगी। .
मन हाथ जाड़कर कहा-आप की दया से मुझे किसी बातकी कमी नहीं है बहूरानी, चांगुनी भृति लेकर तो मैं क्या करूंगा, विता भात के भी अगर कुमार मेरी सवा लेना स्वीकार करेंगे तो मैं अपने को सौभाग्यशाली समझूगा । यह कहकर में आया । रास्ते में सोम काका मिलगये, सुनसे पता लगा कि आप इस तरफ आये हैं । म जब आया तव पहर भर रात बीत चुकी थी, रात तो अंधेरी थी पर तारों के प्रकाश में मैं आपको पहिचान सका। फिर उस नीम के झाड़ के नीचे रातभर रहा । बीच
वीच में सोता भी रहा; और आपकी आहट भी लेता रहा । अभी __ 'उस गमार की दुष्टता देखकर मुझे खुलकर पास आना पड़ा।
इन्द्रगोप की बातें सुनकर मैं चकित होगया। देवी को दिव्यता से हृदय श्रद्धा से भरगया पर यह भी सोचा कि देवी के इन प्रयत्नों से मेरी साधना में कितनी बाधा पड़ सकती है इसका देवी को पता नहीं हैं, अन्यथा वे एसा प्रयत्न कभी न करती । मैं कुछ ऐसे ही विचार कर रहा था कि इन्द्रगोप ने कहाकुमार अभी न जाने आपको कितने वर्ष कैसी तपस्या करना है
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और उसमें न जाने कितने नीच और मूर्ख लोगों से आप पर
संकट आयेंगे ऐसी अवस्था में मुझे पारिपार्श्वक बनान की दया of कीजिये, इससे आपको भी सुविधा होगी, बहगनी को भी कुछ सन्तोप होगा और मेरा जीवन भी सफल होगा।
मैंने कहा- इन्द्रगोप, क्या तुम यह सममत हो कि हम तरह पहरेदारों के भरोसे कोई मनुष्य निर्भय, कष्टसहिष्णु और जिन या अर्हत् बन सकता है ? ऐसा होता तो घर में ही क्या बुरा था?
इन्द्रगोप चुप होगया। फिर सोचते सोचते बोलाकुमार, एक गमार आप को इस तरह रस्सा माग्ने दाड़े इसमें आपकी साधना को क्या बल मिलेगा यह तो में अज्ञानी क्या समा? पर यह समझता हूं कि जो आप पर हाथ उठायगा उसको नरक के सिवाय और कहीं जगह न मिलेगी। ऐसे लोगों को अगर आपका परिचय दे दिया जाय ता उनका अधःपतन रोका जासकता है।
मैं- नहीं रोका जासकता। राजकुमारपन के परिचय देने से साधु का विनय न होगा, राजकुमार का विनय या आंतक हागा । ऐसी आतंकितता पशुता का चिह्न है देवत्व का नंहा ।
इन्द्रगोप फिर चुप रहा और कुछ सोचकर बोला-पर कुमार, जंब इन गमारों को यह मालूम होगा कि साधु के वेप में चोर नहीं राजकुमार तक रहते हैं तब इस तरह साधु का अपमान करने का उनका दुःसाहस नष्ट होजायगा।
मैंने कहा-नहीं ! एक भ्रम पैदा होजायगा | जनता यह समझने लगेगी कि राजकुमार साधुओं के पास तो पारिपार्श्वक रहा करते हैं जिनके पास पारिपार्श्वक नहीं हैं वे चोर हैं। इस कारण बहुत से सच्चे साधुओं का अपमान होने लगेगा। जो हिंसा
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और जा परिग्रह पाप का प्रतीक है वह पूज्यता का प्रतीक वन बठेगा। बात यह ह कि माधुता का अपमान इसतरह नहीं मंकसकता, वह रुकसकता है साधुसंस्था को पवित्र करने से । आज साधुसंस्थामें चोर उचक्के मोघजीवी दम्भी लोग घुसगयह इसलिये अपरिचित लोग उनका अपमान करें यह स्वाभाविक है। मुझे ऐसे लोगोंकी साधुसंस्था . बनाना है जिनके पास कुबेर की सम्पत्ति और इन्द्र को अप्सराएँ तक सुरक्षित समझी जायँ । उस ग्रामीण ने मुझे चोर समझा इसमें उसका कुछ अपराध नहीं है। साधुसंस्था के वर्तमान रूप का अपगध है । उस रूप को बदलना है, उस क्रांति के लिये भी मेरी साधना है । इसलिये तुम जाओ इन्द्रगोप, निश्चिन्त होकर जाओ ! और देवी मे कहदो कि वे अब मेरी तरफ से निश्चिन्त होजायं निर्मोह होजायं । पारिपार्श्वक भेजकर साधना में वाया न डाल।
इन्द्रगोप ने मुझे प्रणाम किया और आंसू पोंछता हुआ चला गया।
२० रससमभाव ८ सत्येशा ९४३२ ई. सं.
आज कोलाक ग्राम में वेला (दो उपवास) का पारणा होगया । बहुल ब्राह्मण ने बहुत आदर से भोजन कराया। मिष्टान्न की योजना भी उसने की थी। ब्राह्मण के घर इसलिये. '. गया था कि उसके यहां नीरस भोजन मिलेगा पर मिला मिष्टान्न ही । मिष्टान्न देखकर कुछ सन्ताप हुआ। यह एक तरह की निर्वलता ही है । नीरस और सरस में मुझे समभावी बनना है । . . पर यह समभाव अभी स्वाभाविक नहीं है। समभाव के लिये कुछ मनोवल लगाना पड़ता है वह मनोवल न लगाया जाय तो
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समभाव ढीला होना। यही तो कारण है कि मिष्टान्न देवकुछ और के बारे में कुछ सद्भावना मेरी है। इसका तात्पर्य तो यह हुआ कि कोई नो भोजन कराये तो बाहर से समभाव का प्रद कभी भीतर से अष्ट होजाऊंगा, इस प्रकार नियका अपमान करूंगा | अब आशा भरि मेरी रसमभावी बन जाऊंगा |
नियंता
का अन्तस्तल
के लिये रखमभावी होना आवश्यक है । जपान से आधे पापों की जड़ यह नाही सारे पाप समझता चाहिये। जब कि जीवन की दृष्टि से उनका कोई प्रयोग नहीं है मीठा खाने से नहीं सकती. केवता ही बढ़ती है, इसलेसरण की योग्यता भी रहती है । मैं रस-लोलुपता का एक भी के भीतर नहीं रहने देना चाहता ।
-
दाता की भावनाओं का आदर करना एक बात है और रस की प्रिय अधिवता का आदर अनादर करना दूसरी बात हैं । मैं दाता की भावना का तो ध्यान रखूंगा पर रस की यता का नहीं।
अत्रि
२१- केशलौंच
१४ सन् २४३२ इ. स.
मेरे घुराले बालों में निष्क्रमण के दिन डाले गये सुगन्धी इसी का असर कई दिन तक बना हुआ था । इससे बड़ा अनर्थ हुआ । प्रमदाएँ उन बगळे विकरों को देखकर विनोद करने लगी कामयाचना करने लगीं । निराश होने पर मुझे नपुंसक कहने लगीं, यौवन को व्यर्थ नष्ट न करने की प्रार्थना करने लगा युवक लोग सुगंधित द्रव्य बनाने की विधि पूछने लगे। इन सब यानों से मुझे बड़ा खेद हुआ।
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., कितनी लज्जा की बात है कि इस देश का चरित्र इतना · · गिर गया है कि ब्रह्मचर्य की आवश्यकता लोग समझते ही नहीं। "दास्पत्य बहुत शिथिल होगया है । अगर यही दशा रही तव मनुष्य का और पशु का अन्तर मिटजायगा, घर घुड़साल से भी भी बुरे वन जायेंगे । साधु भी काम के जाल में फंसकर मोघः जीवी विट वन जायँगे।
.....इसलिये मैने निश्चय किया है कि जब मैं अपना संघ बनाऊंगा तब ब्रह्मचर्य पर वहुत बल दूंगा, इसे एक मुख्य रत बनाऊंगा, साधुसंस्था में ब्रह्मचर्य अनिवार्य कर दूंगा । देशकाल को देखते हुए मुझे यह आवश्यक ज्ञात होता है । लैंगिक असंयम भी इस युग की मुख्य समस्या बनी हुई है। उस पर विजय पाने क लिये मुझे उसके बाहरी साधनों से बचना बचाना पड़ेगा । तपस्याएँ करना कराना पड़ेगी, देह दण्ड भोगना पड़ेंगे। यही कारण है कि मुझे अपना केशलाँच कर लेना पड़ा।
जव मे भिक्षा लेने के लिये ग्राम की ओर जारहा था तव ग्राम के पास मुझे चार पांच युवतियां इठलाती हुई आती मिली और मेरा रास्ता रोककर खड़ी होगई। एक हँसती हुई, बोली-मदनराज! यह श्रमण का वेष क्यों बनाया है ?
. दूसरी वोली-ऊपर से वेष बनाने से क्या होता है ये धुंघराले बाल कामदेवत्व को स्पष्ट ही प्रगट करते हैं।
. तीसरी बोली-अरी इसमें तो न जाने कितनी रतिदेविया फंसकर रह जायगी। .: चौथी बोली-हम तो सब की सब फेस ही गई हैं ? : :
उन लोगों की बातें सुनकर मुझे इस बात का बड़ा खेद होरहा था कि मेरे केशो ने मेरे सौंदर्य को इतना बढ़ा रक्खा है कि इन विवेकहीन युवतियों का असंयम झुद्दीप्त होरहा है । इसलिये
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मेंगर के किनारे बैठगया। युवतियाँ भी मेरे चारों तरफ खड़ी होगई और आपस में कुछ इंगित करने लगी। इतने में मैंने झटका बालों का एक गुच्छा सिर से निकाला और फेंक दिया ।
महावीर का अन्तस्तल
मेरी यह बेटा देखकर वे घबराई और भाग गई । मन निश्चय कर लिया कि अब सिर में एक भी बालग्न रहने दूँगा । धीरे धीरे मैं सारे सिर का लौच कर लिया। जब में लांच कर ततियां एक जनसमूह के साथ फिर आई । सब जमा मांगने लगी पर मैंने एक भी शब्द मुंह से नहीं करे वहां से उठकर चला आया ।
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मेरे आने के बाद उन लोगों ने मेरे बाल वीनलिये और एक निधि न सपने बांट लिये।
मुझे इससे क्या तात्पर्य ? ये चाहे उन्हें जलायें चाहे पूजा करें, चाहे उनसे कामयाचना करें। अब मैं विश्वास करता का लालच न करेंगी ।
मुझे
मुझे सम्भवतः ऐसे बहुत से नियम बनाना पड़ेंगे जो साधु की अनिवार्य भले ही न कहे जांग पर आज की उपयोगिता की दृष्टि से जिन्हें पर्याप्त स्थान देना होगा ।
केशलोंच के बाद फिर मैं भिक्षा लेने नहीं गया । रुचि भी नहीं रही थी और लोकाचार की दृष्टिसे भी केशलौच के बाद भिक्षा लेना ठीक नहीं मालूम हुआ ।
२२ – अदर्शन विजय :
११ बुधी ६४३२ इतिहास संवत
घर छोड़े करीब चार माह होगये, इन चार मासों में इतने कठोर अनुभव हुए जितने पहिले जीवनभर नहीं हुए थे
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कितनी लज्जा की बात है कि इस देश का चरित्र इतना गिर गया है कि ब्रह्मचर्य की आवश्यकता लोग समझते ही नहीं । दाम्पत्य बहुत शिथिल होगया है । अगर यही दशा रही तव मनुष्य का और पशु का अन्तर मिटजायगा, घर घुड़साल से भी भी बुरे बन जायेंगे। साधु भी काम के जाल में फँसकर मोघजीवी चिट वन जायँगे ।
इसलिये मैंने निश्चय किया है कि जब मैं अपना संघ बनाऊंगा तब ब्रह्मचर्य पर बहुत बल दूँगा, इसे एक मुख्य वरत बनाऊंगा, साधुसंस्था में ब्रह्मचर्य अनिवार्य कर दूँगा । देशकाल को देखते हुए मुझे यह आवश्यक ज्ञात होता है । लैंगिक असंयम भी इस युग की मुख्य समस्या बनी हुई है । उस पर विजय पाने के लिये मुझे उसके बाहरी साधनों से बचना बचाना पड़ेगा | तपस्याएँ करना कराना पड़ेगी, देह दण्ड भोगना पड़ेंगे । यही कारण हैं कि मुझे अपना केशलौंच कर लेना पड़ा । जब में भिक्षा लेने के लिये ग्राम की ओर जारहा था तव ग्राम के पास मुझे चार पांच युवतियां इठलाती हुई आती मिलों और मेरा रास्ता रोककर खड़ी होगई। एक हँसती हुई, बोली- मदनराज ! यह श्रमण का वेष क्यों बनाया है ?
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दूसरी वोली - ऊपर से वेष बनाने से क्या होता है ये. घुंघराले बाल कामदेवत्व को स्पष्ट ही प्रगट करते हैं ।
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तीसरी बोली- अरी इसमें तो न जाने कितनी रतिदेविया फंसकर रह जायगी ।
:: चौथी बोली- हम तो सब की सब फंस ही गई है ?
उन लोगों की बातें सुनकर मुझे इस बात कर बड़ा खेद होरहा था कि मेरे केशों ने मेरे सौंदर्य को इतना बढ़ा रक्खा है कि इन विवेकहीन युवतियों का असंयम अद्दीप्त होरहा है । इसलिये
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मैं रास्ते के किनारे बैठगया । युवतियाँ भी मेरे चारों तरफ खड़ी होगई और आपस में कुछ इंगित करने लगी । इतने में मैंने झटका देकर बालों का एक गुच्छा सिर से निकाला और फेंक दिया। .
मेरी यह चेष्टा देखकर वे घबराई और भाग गई । 'मन निश्चय कर लिया कि अब सिर में एक भी बाल न रहने दूंगा। धीरे धीरे मैंने सारे सिर का लौंच कर लिया। जव में लांच कर चुका तब व युवतियां एक जनसमूह के साथ फिर आई । संघ हाथ जोड़कर क्षमा मांगने लगी । पर मैंने एक भी शब्द मुंह से नहीं कहा और वहां से उठकर चला आआ।
मेरे आने के बाद उन लोगों ने मेरे बाल वीनलिये और एक निधिकी तरह सबने बांट लिये।
मझे इससे क्या तात्पर्य ? वे चाहे उन्हें जलायें चाहे एजा करें, चाहे उनसे काम-याचना करें । अब में विश्वास करता हूं कि वे अब मुझे छेड़ने का लालच न करेंगी।
मुझे सम्भवतः ऐसे बहुत से नियम बनाना पड़ेंगे जो साधुता की दृष्टिसे अनिवार्य भले ही न कहे जांय पर आज की उपयोगिता की दृष्टि से जिन्हें पर्याप्त स्थान देना होगा।
केशलाँच के बाद फिर में भिक्षा लेने नहीं गया। रुचि भी नहीं रही थी और लोकाचार की दृष्टिसे भी केशलोंच के बाद भिक्षा लेना ठीक नहीं मालूम हुआ।
२२-- अदर्शन विजय : . ११ वुधी ६४३२ इतिहास संवत
घर छोड़े करीब चार माह होगये, इन चार मासों में इतने कठोर अनुभव हुए जितने पहिले जीवनभर नहीं हुए थे ।
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wwwer लोगों में विषय लोलुपता, अद्दण्डता असहिष्णुता आदि दोष यहुत फैल हुए हैं। इन कारणों से लोगों ने मुझे काफी परेशान किया है। राजकुमार या या राजा बनकर मैं जीवनभर इस परेशानी का अनुभव न कर पाता, तब समाज की चिकित्सा भी क्या करता? आज मेरी पूजा प्रतिष्ठा बिलकुल नहीं है, लोग साधारण जन की तरह मेरे साथ व्यवहार करते हैं या मुझ में नो बाहरी असाधारणता देखते हैं उसे हंसने की, अपमान करने की या आलोचना की ही बात समझते हैं।
कई बार इस बात का विचार आया कि मैं राजकुमार की . अवस्था में क्या था और आज क्या हूं ? पर ऐसे विचारों को क्षणभर से अधिक मैंने ठहरने नहीं दिया । क्षणभर के लिये होने घाले इस अदर्शन या कुदर्शन को मैले सत्यदर्शन से जीता है। ...
साधकके लिये यह बड़ी भारी मानसिक बाधा है कि छोटे से छोटे व्याक्त झुप्सका अपमान कर जाते हैं और दम्भी नीच असंयमी सन्मानित होते रहते हैं। पर सच्चा साधक इन. अपमान के घूटों को विना मुंह विगाड़े पीजाता है, जगत की इस अंधेरशाही को हंसकर निकाल देता है। मूढ़ और नासमझ लोग अगर योग्य सन्मान नहीं करते या अपमान करते हैं तो इसमें अपने मन को छोटा करने की जरूरत नहीं है। . . . .
आज सवेरे की ही बात है, मेरे सामने गाय बैलों का. शुण्ड चला आरहा था। सब मस्तानी चाल से मेरे पास से ही नहीं मुझे घिसते हुए निकल गये किसी ने सुझे रास्ता देने की पर्वाह नहा की। पर ज्योंही एक सांड आया सबने मैदान साफ कर दिया । तब क्या मैं इसके लिये राऊंगा कि मेरा सन्मान एक सांड बराबर भी नहीं है ? जनता राजाओं का राजकुमारों का, दम्भी वाहन का सम्मान करती है और मुझे चार माह से परेशान कर रखा है इसकी मुझे चिन्ता नहीं है। जनता मूद है,
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दयनीय है उसपर अनुकम्पा ही करना चाहिये।
अल्पदर्शन अदर्शन या कुदर्शन से ही चित्त चलायमान होता है पर सम्यग्दर्शन से वह स्थिर हो जाता है । चार महीने में सुने इस बात क काफी अनुभव हुए । अदर्शन परिपह विजय पर मुझे काफी विचार सामत्री मिली।
२३-तापसाश्रम में ६६वुधी २४३२ इ. सं.
आज दुइजनक तापलों के आश्रम के बाहर एक वृक्ष के नीचे बैठा था कि तापसों के कुलपति अपनी शिप्य मण्डली के साथ वहां से निकले । मुझे भी एक तापस समझकर मेरे पास भी आये । कुलपति वृद्ध थे इसलिये मैंने उठकर और हाथ जोड़कर उनका सन्मान किया । उनन परिचय पूछा | परिचय मिटने . पर इकदम हर्षित होकर बोले-तुम तो मेरे भतीजे हो। राजा सिद्धार्थ मेरे मित्र थे । वे कई बार इस आश्रम में आये हैं और आश्रम को भेंट भी देते रहे हैं । तुम इस आश्रम को अपना घर ही समझो और यहीं रहो ।
मैंने कहा-अभी तो मेरी इच्छा पर्यटन करने की ही है।
बोले-कोई बात नहीं, इच्छानुसार पर्यटन करो ! पर चतुर्मास में तो एक जगह रहना होगा। इस वर्ष का बर्यावास यहीं आकर विताना ।
___ मैंने कहा-यह ठीक है। १४ इंगा ९४३२ इ. सं.
ग्रीष्म ऋतु भर इधर सुधर विहार करके में तापसाश्रम में आगया । कुलपति ने घाम की एक झोपड़ी रहने को दे दी। पर आज उस झोपही को गायों ने चरलिया।
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प्रारम्भ में थोड़ी वर्षा हुई थी पर इधर वर्षा न होने में गर्मी बहुत बहुत पड़ने लगी है और जमीन में घास भी नहीं दिखाई देती है इसलिये गाया ने झोपड़ियों का सूखा घास चरना ही शुरु कर दिया। दूसरे तापलों ने तो गायों को हकालदिया इम लिये उनकी झोपड़ियाँ वचगई पर मेरी झोपड़ी चरली । मैं अपने विचारों में इतना मग्न था कि मुझे पता ही न लगा कि झोपड़ी गायों ने चरली है। उसका छप्पर वर्षाऋतु के लिये उपयुक्त नहीं रहगया है।
मैंने सोचा तो यही था. कि इस टूटे छप्पर के नीचे ही वर्षाकाल निकाल दूंगा। मैं ठण्ड गरमी के समान वर्षा के कष्ट सहने में भी अपने को निष्णात बना लेना चाहता हूँ। पर बात कुछ दूमरी ही होगई। वाहर कुलपति की शिष्य मण्डली मेरे विषय में जो चर्चा कर रही थी वह सुनकर मैं चौंका. वे लोग जानबूझकर इतने जोर से बोल रहे थे कि मैं सुनलूं।
एक वोला-वस ! अब आश्रमम एक ही मुनिराज आये हैं जिनने सब आश्रमवासियों को अपना दास समझ रखा है।
. दुसरा हँसते हुए बोला-भाई वे मुनिराज दीर्घ तपस्वी हैं, इतने कि उनके तपस्तेज से गांयें भी नहीं डरती और उनकी झोपड़ी चर जाती हैं।
तीसरा वोला-चर न जायँ झोपड़ी, दीर्घ तपस्वी जी को क्या पर्वाह, हम लांग दास जो विद्यमान हैं, बार वार वनादिया करेंगे, आखिर वे कुलपति जी के लाइले जो कहलाये।
चौथे को यह व्यंग्यविनोद अपर्याप्त मालूम हुआ, उसने तर्जनीभाषा में कहा-होगा कुलपति का लाड़ला, इससे क्या हमारे सिर पर सवार होगा। हम कुलपति जी से स्पष्ट कह देते हैं कि ऐसे भोंदू मुनिको यहां रखने से क्या लाभ ? वह मुनि है तो क्या हम लोग मुनि नहीं हैं ?
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महाराय जी डाल तो ऐसा करते हैं मानो आप तीर्थकर बनने वाले हो।
अरे गाय तो सम्हलती नहीं तीर्थ क्या सम्हलेगा और क्या रनेगा?
__ वह तीर्थकर बने चाहे भगवान, अपनी दम पर बने । हमारे ऊपर सवार होकर नहीं।
___ इस प्रकार पर्याप्त आलोचना होने के बाद वे लोग कुलपति के पास गये । योड़ी देर में कुलपति आगये । बोले
वल, यह क्या बात है ? तुमसे झोपड़ी की भी रक्षा न हुई ? तुम्हारे पिता ना चारों आश्रमों की रक्षा करते थ । दुष्टों को दंड देना और अनधिकार चेष्टा रोकना ता तुम्हारा व्रत होना चाहिये । तुम्हारे पिता की मित्रता के नाते मैं विशेप कुछ नहीं कहता पर आने से ऐसा प्रमाद न होना चाहिये। - कुलपति ने जो कहा ठीक ही कहा । आश्रमकी व्यवस्था की दृष्टि से उन्हें ऐसा ही कहना चाहिये था । फिर भी मैं यह सोचता है कि यहां रहने से न में इन्हें कुछ दे सकृंगा, न मैं इनसे कुछ लेसबुंगा । मेरे जीवन का ध्येय, मेरी महत्ता ये समझ नहीं सकते । मेरे तीर्थकरत्व का ये मजाक उड़ाते हैं। ये नहीं जानते कि इसीके लिये तो में अहर्निश तैयारी करता रहता हूँ, तपस्या . करता रहता हूँ, अनुभव बटोरता रहता हूँ, वितर्क और विचार में लीन रहता हूँ । गायों की रखवारी करने की मुझे फुरसत कहां है ?
पहिले मैं सोचता था कि कुलपति पूर्वपरिचित होने से सहायक होगा पर अब यह सोचता हूँ कि पूर्वपरिचित जन ही विकास में सब से बड़ी बाधा है । यह ठीक ही है | अपने साथी या परिचित को आगे बढ़ते देखकर पीछे रह जाने का अपमान सहने को कौन तैयार होगा ? उनकी तो चेष्टा ही यही होगी कि
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महावीर का अन्तस्तल
परिचित की महत्ता किसी तरह बढ़ न जाय। अगर बढ़ भी जाय तो उस महत्ता को ये किसी तरह स्वीकार न करेंगे बल्कि झूठे सच्चे बहानों से उसकी घटाने की चेष्टा करेंगे ब्रिन्दा करेंगे । सारी शक्ति लगाकर भी अगर वे महत्ता न घटा सकेंगे तो अन्तमें उस महत्ता का श्रेय लुटने की कोशिश करेंगे, उसके निर्माण में अपने सहयोग के गीत गाते फिरेंगे, इस तरह तर्थि रचना और जन जागृति के काम म हर तरह अडंगे डालेंगे । परिचितों के कार्य होते हैं विकास में बाधा डालना, निन्दा करना, हितैषी वनकर साहस नष्ट करता और सफलता में सारा या आर्धक स अधिक श्रेय लूट लेना ।
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मुझे कुलपति से कुछ सीखना नहीं है, तीर्थकर बनने वाला व्यक्ति श्रुतिस्मृति के बलपर ज्ञान प्राप्त नहीं करता, वह इस प्रकृति को इस संसार को ही बड़ा वेद मानता है । मैं उसी का अध्ययन कर रहा हूं। चार मास एकान्त में निराकुलता से रहकर मैं यही कार्य यहां करना चाहता था पर अब यहां न रहूंगा 1
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इस घटना ने मुझे बहुतसी बातें सिखाई हैं ।
पहिली बात यह है कि पूर्व परिचितों के सम्पर्क से न रहना । इससे साधना में बाधा ही नहीं पड़ती किन्तु परिचितों का अधःपतन भी होता है ।
दूसरी बात यह कि जहां क्लेश हो वहां न रहना । भले ही वह क्लेश चाहे शब्दों से प्रगट हो चाहे उपेक्षा पूर्ण चेष्टाओं से । इससे उन लोगों को दुःख तो होता ही है साथ ही सत्य का, धर्म का अपमान भी होता है, और उन्हें पापी बनना पड़ता है ।
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तीसरी बात यह कि अपात्र का विनय न करना । अपात्र
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का विनय करने से उसमें अहंकार जाता है, वह सत्य का अपमान करने को तैयार हो जाता है. सत्य को ग्रहण करने की उसकी क्षमता नष्ट हो जाती है, वह असत्य में सन्तोप का अनुभव करने लगता है।
- चौथी बात यह कि कम से कम बोलना । अत्यावश्यक होने पर या जिम्ली की प्रेरणा पाने पर ही बोलना । । - पांचवीं बात यह कि हाथ ही आहार लना । पात्रमें याहार लेने से. पात्र लटकाये रहने से, झंझट बढ़ती है या जिसके यहां भोजन कगे उसे पात्र के लिये परेशान होना पड़ता है। फल गतिक शिष्यों को इसके लेिय भी कुछ परेशान होना पड़ा इसलिये भा उनके मन में खेद होगया।
यद्यपि चार्तुमास शुरु होचुका है फिर भी मैंने विहार करना निश्चित कर लिया है। क्योंकि वम विहार के पाप से यहां के क्लेश का पाप अधिक है।
२४ - शूलपाणि यक्ष का मन्दिर १५ इंगा ६४३२ इ. सं.
तापसाश्रम से निकलकर मैं अस्थिक ग्राम म आया। ज्ञात हुआ कि अस्थियों के ढेर पर, यहां शूलपाणि यक्ष का मन्दिर बना हुआ है। इसी मन्दिर में वर्षा ऋतु बिताने का मने विचार किया। गांववालों से अनुमति मांगी तो उनने कहाआपको ठहरने के लिये दूसरा स्थान हम बतादेते हैं, यहां पर ठहरना तो मौत के मुंह में जाना है।
जब मैंने विशेष कारण पूछा तब उन लोगों ने एक कहानी सुनादी । बोले-एक वार धनदेव नामका व्यापारी पांचसौ गाड़ियों में किराना भरकर यहां से निकला। वेगवती नदी में
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महावीर का अन्तम्तल
कीचड़ होने से बैलों को बड़ा कष्ट हुआ। एक बैल के मुंह में से तो रुधिर निकल पड़ा। तर उस व्यापारी ने गंववालों को वह बैल सौंप दिया और उसके खाने के लिये धन भी.दे दिया, और वह चला गया । पर गांववालों ने उसका धन तो रख लिया पर बैल को खाने न दिया . बैल भूखसे मरकर यक्ष होगया,। तब उस यक्ष ने गांव में ऐसी महामारी फैलाई कि मृतकों का दाहकर्म करना भी कठिन होगया । लोग यों ही मृतकों को मैदान में फेंकने लगे और वहां अस्थियों का ढेर लगगया। इससे इस गांव का नाम अस्थिक होगया।
. हम लोग गांव छोड़कर भागे तो वहां भी महामारी साथ गई । ज्योतिपियों से बहुत पूछा, गृहदेवियों की पूजा की, पर महामारी न गई । तब ज्ञानदादा ने कहा कि तुम लोगों ने जो बैल का धन खाया था उसीके पाप से यह सब हुआ है। वह वैल यक्ष हुआ है और हाथमें पैना शूल लिये घूमा करता है, उसी शूलपाणि यक्ष के नामले तपस्या करो ! पूजा करो ! तब वह यक्ष प्रसन्न होगा।
ज्ञानदादा के कहने के अनुसार हम लोगों ने उपवाल किये, केवल फलहार पर रहे, गरम पानी पीने लगे, नगर की सफाइ को और उसे सजाया, सब हड्डियाँ उठवाकर एक जगह गड्ढे में भरदी और उस पर यक्ष का मन्दिर बनवा दिया, खूब पूजा की. तब कहीं यक्षराज प्रसन्न हुए और महामारी दूर हुई। लेकिन यक्षक डर से इस मन्दिर में रातमें कोई नहीं रहता.। एक बार एक आदमी गत में रहने से मरगया था। तब से लोग शाम को ही यहां से चले जाते हैं। - सारी कहानी सुनकर मैं मन ही मन खूब हँसा । जनता के अन्धविश्वास और मूर्खता पर खेद भी, हुआ। कहानी का रहत्य ता कहानी सुनते सुनते ही ध्यान में आगया था । लोग
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जब उपवास करेंगे, गरम पानी पियेंगे, सफाई करेंगे तो कोई बीमारी किस दम पर रहेगी ?
मैंने हँसकर पूछा- अब तुम लोग किसी का धन तो नहीं मारते, जैसे उस बैल का मार लिया था ?
वे- नहीं महाराज, अत्र तो बहुत डरकर रहते हैं । मैं- अच्छा तो मैं उस यक्ष को समझा दूंगा, नहीं मानेगा तो पराजित करके भगा दूंगा। तुम सब जाओ ! मैं रातकों इसी मन्दिर में रहूँगा ।
मुँह पर चिन्ता का रंग पोतते हुए वे चले गये । मैं रातभर निर्भयता से सोया । पिछली रात मुझे बहुत से स्वप्न आये और में जागगया ।
प्रातःकाल जब लोग आये और सुनने मुझे जीवित देखा तब बड़ा आश्चर्य हुआ और प्रसन्न भी खूब हुए। यहां के ज्योतिषी ने स्वप्न का फल ऐसा बताया कि सारा गांव मेरा भक्त हो गया ।
मेरा यह चातुर्मास काफी निराकुलता से बीता ।
मेरे मन में यह वार वार आया कि यक्ष की कल्पितता का रहस्य इन्हें बता दूँ, पर यह सोचकर रहगया कि पहिले तो इनका अन्धश्रद्वालु हृदय विज्ञान की इतनी मात्रा पत्रा न पायगा, दूसरे यह कि यक्ष का भय निकल जाने से ये लोग फिर दूसरों का धन मारने लगेंगे । इसप्रकार इस तथ्य को असत्य समझ कर प्रगट न किया ।
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२५- दम्भी का भण्डाफोड़ ३ सत्येशा ६४३३ ई. सं.
लोकहित की दृष्टि से यक्ष की घटना का रहस्य तो मैंने नहीं बताया फिर भी मेरे मन में यह अभिलाया बहुत तीव्र हुई कि जो पाखण्डी मंत्र तंत्र के बल पर लोगों को ठगते हैं और ठगना ही जिनकी जोषिका है ऐसे लोगों का भण्डाफोड़ करूं । जब मैं मोराक के तापलाश्रम में था तब अच्छदक नाम के एक धूर्त के बारे में बहुत सुना था। वह व्यभिचारी था चोर था और अपनी स्त्री को सदा पीटा करता था । फिर भी भविष्यदर्शी के नाम पर गांवभर में पुजरहा था। लोग दैववादी बनकर भविष्यवाणियों के चक्कर में पड़कर पुरुषार्थहीन बनते हैं, इस. प्रकार के धूतों का पेट भरते हैं और धन तथा धर्म से हाथ धोते है। . . . . . . . . . . ... .. अच्छंरक के पापों को दो एक घटनाएँ मुझे भी मालूम हैं। एक दिन भिक्षा से लौटते समय मैंने उसे चोरी का माल जमीन में गाड़ते देखा था, एक दिन तो उसने एक मेढ़ा हो चुराकर खालिया था और हड्डियाँ जमीन में गाड़ दी थीं । इन दो घटनाओं के आधार से मैंने अच्छंदक के भण्डाफोड़ का विचार कियां । इसीलिये मैं फिर माराक आया। तापसाश्रम में जाने की आवश्यकता तो थी नहीं, सीधे गांव में गया ।
गांववाले मुझे पहिचानते नहीं थे। तापसाश्रम से भिक्षा लेने कभी थाया भी था तब अन्य तापसों से अलग में नहीं पहिचाना गया । अच्छंदक का भण्डाफोड़ करने के लिये यह परिस्थिति काफी अनुकृल थी। .....
जब मैं गांव किनारे पहुंचा तब मुझे एक ग्वाला मिला। .. यहां के ग्बाले क्या खाते हैं यह मुझे मालूम ही था । इसलिये
मैंने कहा-आज तूने कंगकर का भोजन किया है।
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अगर पूरी तबाहता कि
ग्याला अचरज में पड़गया । बाला ही महाराज । पर आपको कैसे पता लगा ? आप तो बड़े ज्ञानी मालूम होते हैं !
. मैंने मुसकरा दिया और फिर कहा-तू सपने म रोया क्यों करता है ?
. अब तो ग्याला मेरे पैगें पर गिर पड़ा । बोला-आप देवार्य तो घट घट की बातें जानते हैं। .
इसके उत्तर में भी मैंने मुसकगदिया।
वह गांव की तरफ दौड़ा गया । दो एक साधारण वातों से वह इतना प्रभावित हुआ कि वह मुझे त्रिकालवेत्ता समझने लगा। लोग इतने मूद हैं कि थोड़े से चतुर आदमी को सर्वज्ञ त्रिकालदर्शी आदि सब कुछ समझ डालते हैं। में चाहता हूँ कि इन मूढो का यह अन्धविश्वास हटा दूं, अगर पूरी तरह न हया सकं तो इतना तो कर ही दूं कि ये धूनों के शिकार न हुआ करे, अन्धविश्वास का झुपयोग धर्म सदाचार आदि को पाने और स्थिर रखने के काममें किया करें।
थोड़ी देर में वह ग्वाला गांव की भीड़ लेकर मेरे पास माया । मैंने इधर अधर की साधारण बाते सुनाकर अन सव को प्रभावित कर दिया । ये लोग इतने मूर्ख और सहज श्रद्धालु है.कि कोई भी चतुर आदमी इनके सामने सर्वज्ञ बनसकता है। इनकी बात सुनकर ही उन्हीं के आधार से वहतली. वाते ऐसी
जासकती हैं कि ये प्रभावित हो जाते हैं । मैंने भी यही किया।
एक बोला-देवार्य तो अच्छदक गुरु की तरह. अब बाते बनाते हैं।
भने कहा-वह तो धर्त है , तुम लोगों को ठगकर जीविका करता है, वह कुछ नहीं जानता ।
वास का अपही है कि ये
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लोग चकित होकर चले गये। थोड़ी देर बाद अच्छेदक को साथ लेकर आये । वह मुझे पराजित करने आया था । उसने एक घासका तिनका हाथ में लेकर पूरा इसके टुकड़े होंगे कि नहीं ? उसने सोचा कि यह देवार्य हां कहेगा तो टुकड़े न करूंगा, न कहेगा तो कर दूंगा।
महावार का अन्तस्तल
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पर मैंने उत्तर दिया- इसके टुकड़े एक बैल करेगा । मेरी बात सुनकर जनता हँस पड़ी | अच्छंद ने भी यह सोचकर तृण फेंक दिया कि मैं टुकड़े करूंगा तो बैल कहलाऊंगा । जनता ने यह सोचकर सन्तोष किया कि सचमुच कोई बैल ही इसके टुकड़े करेगा, अच्छंद नहीं । देवार्य ने ठीक भविष्यवाणी की है ।
अब मेरी बारी थी । मैंने कहा- यहां कोई वीरघोष है । वीरघोष वहीं बैठा था । असने कहा -- उपस्थित हूँ
देवार्य
मैंने कहा- ग्रीष्म ऋतु में तेरा कोई पात्र चोरी गया था ? वीरघोष ने कहा- गया था देवार्य, पर उसका अभी तक पता नहीं लगा ।
मैंने कहा- बताओ अच्छंदक, वह कहां है ?
अब अच्छेदक क्या बताये ? अपनी चोरी कैसे खोलदे । इसके बाद मैंन पूछा - यहां कोई इन्द्रशर्मा है ?
इन्द्रशर्मा हाथ जोड़कर बोला- जी हां ! मैं हूँ | मैंने पूछा- क्या पहिले तेरा मेढ़ा खोया गया था । उसने कहा- जी हां !
मैंने कहा- बताओ अच्छेदक वह कहां है ?
अच्छेदक का मुँह उतर गया | तब मैंने कहा- देख
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और
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वीरघोष अच्छे ने ही तेरा पात्र चुराया है। तू जा, अपने घर की पूर्व दिशा में जो एक बड़ा झाड़ है उसके नीचे हाथभर जमीन खोद, सब पता लग जायगा ।
महावीर का अन्तस्तल
फिर इन्द्रशर्मा से कहा - अच्छंदक ने ही तेरा मेढ़ा मार कर खालिया हैं | अब मेढ़ा तो मिल नहीं सकता लेकिन उसकी हड्डियाँ बेरी के झाड़ के पास गड़ी हुई अब भी मिल सकती हैं । वीरोप और इन्द्रशमी कुछ आदमियों के साथ अपनी अपनी जगह खोड़ने चले गये। अच्छेदक का मुँह जरा सा रह गया. लोगों की घृणापूर्ण दृष्टि असपर पड़ने लगी। इसके बाद लोगों ने कहा- और भी कोई बात बताइये देवार्य, अच्छन्दक ऐसा पापी है इसकी हमें कल्पना तक नहीं थी ।
मैंने एक बात ऐसी हैं जिसको मैं नहीं कहना चाहता, उसकी पत्नी बतायगी, क्योंकि वह बात अच्छे दक के शील से सम्बन्ध रखती है |
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घबराकर अदक उठकर भागा, लोग भी उसके पीछे दौड़े । घर जाकर लोगों ने उसकी पत्नी से पूछा । पत्नी ने कहा यह व्यभिचारी है, एक नाते की बहिन के साथ यह व्यभिचार करता है । दिनमें उसे बहिन बहिन कहता है और रात में व्यभि चार करता हूँ । मुझे तो यह पूछता भी नहीं !
गांव भर में अच्छेदक का धिक्कार होने लगा। दो दिन वह घर के बाहर न निकला, तीसरे दिन उपाकाल के समय वह एकान्त में मेरे पास आया और रोता हुआ बोला- भगवन्, आप मुझ पर दया करके चले जाइये ! नहीं तो मैं मर जाऊंगा । मैंने कहाअच्छे के पापों
पर तो मैं दया कर सकता हूं पर
नहीं कर सकता ।
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अच्छे पर आज से में वे स पाप छोड़ता हूं भगवन्, न मैं चोरो करूंगा न व्यभिचार करूंगा ।..
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मैं- पर पत्नी के साथ मारपीट तो करोगे ।
अच्छे नहीं भगवन्, अब उसके साथ मारपीट करने की मेरी हिम्मत ही नहीं है । मैंने शपथ ले ली है कि मैं उसके ऊपर उंगली भी उठाऊं तो उंगली पर इन्द्र का वज्र पड़े । मैं- पर झूठी भविष्यवाणियां सुनाकर लोगों को ठगते तो रहोगे !
अच्चंदक- अब जुसकी भा सम्भावना न रही भगवन् ! 'अब तो गांव मुझपर विश्वास नहीं करता । मैं वह सब छोड़ दूंगा। जो कुछ ज्योतिष का मुझे थोड़ा बहुत ज्ञान है उसीसे मुहूर्त आदि बतादिया करूंगा। अब तो भूखों मरने की बारी आगई है भगवन् !
मुझे अच्छक पर दया आगई । मैंने उससे कहा- मैं आज ही चला जाऊंगा और लोगों को समजाभाऊंगा कि वे तुम्हें भूखा न मरने दें | अच्छन्दक प्रणाम कर चला गया।
अच्छे उपयोगी होगा ।
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अच्छन्दक के चले जाने पर लोग मेरे पास आये। मैंने कहा - अच्छन्दक ने अत्र अपने पाप छोड़ दिये हैं और तुम लोगों कोन ठगन की भी प्रतिज्ञा ली है इसलिये अब तुम लोग असे निक्षा देते रहना ।
के हृदय परिवर्तन के लिय इतना अवसर
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वीर का अन्तस्तल
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२६ - वस्त्र छूटा
३० सत्येशा ६४३३ इ. सं.
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आज मैं दक्षिण चावाल से उत्तर चावाल की तरफ जा रहा था । सुवर्ण वालुका नदी के किनारे कटीली झाड़ियों के बीच में मार्ग चलने में बड़ा कठिनाई मालूम हुई । मैं बहुत सम्हल सम्हल कर चल रहा था कि एक गड्ढे के कारण लम्बा कदम भरना पड़ा । मैं तो आगे बढ़गया पर मेग वस्त्र कांटों की एक झाड़ी में बुरी तरह फैनकर रहगया । में कांटों में से वस्त्र निका लने के लिये लौटा पर वस्त्र कांटों में इतनी जगह फस गया था कि जल्दी न निकला बस्त्र निकालते निकालते मेरे मनमें विचार आया कि आखिर यह जंजाल क्यों ? मैं अपनी गति को अप्रतिहत रखना चाहता हूँ. वत्र अगर उसमें बाधा देता है तो वह भी जाय | यह विचार आते ही मैंने हाथ खींच लिया । वस्त्र वहीं रहने दिया । यद्यपि मैं मानता हूँ कि हर एक साधु को वस्त्र त्याग अनिवार्य नहीं है फिर भी मैंने वस्त्र न रखने का ही निश्चय कर लिया है ।
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२७ अहिंसा की परीक्षा
४ मम्भेशी ९४३३ इ. सं.
मैं श्वेताम्बी नगरी तरफ जारहा था कि एक जगह मार्ग: को दो भागों में विभक्त देखा। मैं निश्चय न कर सका कि इनमें से श्वेताम्बी का मार्ग कौन है ? पास में कुछ ग्वाल वालक खेल रहे थे | मैंने अनसे पूछा तो उनने कहा- दोनों ही मार्ग श्वेताम्बरी: की तरफ जाते है। पर बायें हाथ की पगडंडी से श्वेताम्बी : निकट है और दाहिने हाथ के मार्ग से काफी चक्कर है।
मैंने कहा पर बायें हाथ की पगडंडी अधिक चलती नहीं
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मालुम होती, दाहिना मार्ग ही अधिक चलता है इसका कारण
क्या ?
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छोटे बालक एक दूसरे का मुँह ताकने लगे, पर उनमें से एक बड़ा चालक बोला-बायें हाथ की पगडंडी में बड़ा संकट देवार्य इस पथ एक भयंकर नांग मिलता है जो पायकों को काट खाता है । इसप्रकार कई पथिकों को वह मार चुका है इस. लिये यह पंथ बहुत चलता नहीं है ।
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सोचने के लिये मैं क्षणभर रुका फिर उसी पगडंडी की सरफ मुड़ा ।
पर बड़ा बालक बोला- आप देवार्य उस पथ से न जायँ, . कुछ देर तो लगेगी पर दाहिना मार्ग ही पकड़े ! नागराज के कोप से बचें।
मैंने कहा - चिन्ता न कर बच्चे, नागराज अहिंसक का कुछ नहीं बिगाड़ सकते ।
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यह कहकर मैं उसी संकटापन्न मार्ग से आगे बढा । अपनी अहिंसा की परीक्षा का यह शुभ अवसर छोड़ना मैंने उचित नहीं समझा । मनुष्य के बारे में संदेह रह सकता है कि आसा का प्रयोग सफल होगा या नहीं, क्योंकि मनुष्य इतना चक्र है कि उसकी मनोवृत्ति का पता लगाना कठिन है पर मनुष्येतर प्राणियों के बारे में अहिंसा के प्रयोग सरलता से किये जासकते हैं | अगर हम अहिंसक होकर वीतराग मुद्रा से रहे तो जानबूझकर कोई मनुष्येतर प्राणी हमें न सतायगा । व्याघ्रादि जिन पशुओं के लिये मनुष्य भक्ष्य है उनकी वांत दूसरी है। पर चें भी मनुष्य को तभी खाते हैं जब बहुत भूखे हो और दूसरा मिल न सकता हो । वाकी जिनके लिये मनुष्य भक्ष्य नहीं हैं वे अहिंसक मनुष्य को कभी नहीं छेड़ते । सर्प के लिये मनुष्य
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[ १.३
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भक्ष्य नहीं हैं इसलिये अहिंसा के द्वारा सर्प से बचना सरल 흄 हां ! कोई कोई सर्प होते हैं जो दौड़कर भी मनुष्य को काटते हैं । यह नागगज भी ऐसा ही मालम होता है । पर इस आक मण का कारण भी भ्रमवश शत्रुता की कल्पना है । सच्चा अहि: सक अपनी मुद्दा से सर्प के मन में यह कल्पना भी पैदा नहीं करने देता है । भय भी वैर की निशानी है । हां ! अशक्तिपूर्ण वैर को निशानी है इसलिये अहिंसक भय भी नहीं रखता ।
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अहिंसा के बारे में जो मेरे ये विचार है उन्हें आजमाने का यह अवसर जानकर मैं आगे बढ़ा। हां ! ईयसमिति मे आगे बढ़ा । अहिंसा की परीक्षा में ईर्या समिति अर्थात् देख देख कर चलना जरुरी है। क्योंकि मन अहिंसकता रहनेपर भी अगर अजानकारी से किसी जन्नुपर पैर पहजाय तो वह उसे श्राक्रमण ही समझकर प्रत्याक्रमण करेगा । इसप्रकार अहिंसा की साधना निष्फल जायगी । प्रमाद भी अहिंसा की साधना को नष्ट कर देना है |
थांडी दूर जानेपर दर से ही मुझे वह सर्प दिखाई दिया । अकस्मात् की बात कि वह मेरी तरफ ही आरहा था । ऐसी हालत में यह बिलकुल स्वाभाविक था कि मुझे अपनी तरफ आता देखकर वह भ्रम से मुझे शत्रु समझने इसलिये मैंने उसकी तरफ जाना ठीक न समझा | अगर मैं पीछे लौटता तो वह मुझे डरपोक शत्रु समझता तत्र मेरा जीना मुश्किल होजाता । क्योंकि प्राणी सबल की अपेक्षा निर्वलपर अधिक जोर करता है। निर्बल के आगे उसका आत्माभिमान युद्दण्ड होजाता है।
विचारों से न मैं आगे बढ़ा, न पीछे हटा,
sa इन सब किनारे ध्यान लगाकर खड़ा होगया ।
सर्प आया, मुझे देखा और फंण उठाकर खड़ा होगया !
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पर मुझमें कोई अस्थिरता न देख पाया। तब वह आगे बढ़ा और मेरी बाई ओर आगया फिर फणं उठाकर मुझे देखने लगा। स्थिर देखकर विशेष परीक्षा के लिये फुसकारा। इतने पर भी मुझमें कोई विकृति न देखकर मेरे विलकुल पास आगया । इसके बाद उसने मेरे दो तीन चक्कर काटे फिर भी मुझे निश्चल पाया। तब वह मेरे पैरों को स्पर्श करतो हुआ दो तीन बार इधर से अधर उधर से इधर घूम गया। अन्त में मुझे विलकुल निरुपद्रवं समझकर मेरे चारों तरफ घूमघामकर चलागया ।
अहिंसा की परीक्षा सफल हुई। इस सफलता का मुख्य कारण यह था कि सर्प के बारे में मेरा हृदय वत्सलता से परिपूर्ण था। मेरे हृदय में सर्प के बारे में ऐसे ही विचार आत रहे जैसे किसी:अनाड़ी बच्चे के बारे में किसी मां के मन में आते रहते हैं । मैं मन ही मन सर्प से कहने लगा-वत्स, शान्त र, निर्भय रह, जगत् का बुरा न कर, जगत तेरा बुरा न करेगा। । ... सर्प वचारा-मेरे मनकी वात क्या सुनता और मेरी भाषा भी क्या समझता ? पर मन की भावनाएँ मुख-मण्डल पर विशेष आकृति के रूप में जा लिख जाती हैं उन्हें कोई भी पढ़ सकता है । सर्प ने भी मेरी मुखाकृति को पढ़ा होगा और इसी कारण मैं अहिंसा की परीक्षा में उत्तीर्ण हुआ। ..
२४-शुद्धाहार २० सम्मेशी ९४३३ इ. सं.
. उत्तर चावाल ग्राम के बाहर नागसेन श्रेष्ठी का भवन है। उसके घर कोई महोत्सव होरहा था। मैं भीड़भाड़ से बचने के लिये किनारे से निकल जाना चाहता था पर नागसेन ने मुझे दखलिया। नागसेन मुझे पहिचानंता तो था नहीं, पर मेरी
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उसका
नग्नता देखकर ही उसने न जाने किननी पवित्रता देखली | इसीलिये दौड़ा दौड़ा मेरे पास आया। बोला- भगवत् आपकी कृपा से कई वर्ष में अकस्मात मेरा पुत्र घर आया है, महोत्सव है पर आप सरीखे मह श्रमणों के पैर पड़े बिना न तो मेरा घर पवित्र होसकता है. न उत्सव की शोभा होसकती है. इसलिये पधारिये, आहार लेकर मेरा घर पवित्र कीजिये ।
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मैने कहा नागसेन, किसी के आहार करने से घर पवित्र नहीं होता. घर पवित्र होता है मन पवित्र होने से और मन पवित्र होता है पावत्र व्यक्ति के गुणों का विशेष परित्रय होने से, उसके विषय में विशेष आदर होने से, और उसके गुणों की तरफ अनुराग होने से । पर आज जैसी तुम्हारे यहां भीड़भाड़ है असम तुम्हें इतना अवकाश नहीं ह कि तुम मन पवित्र 1. करसको ! मैं ऐसी भीड़भाड़ में आहार लेना पसन्द नहीं
करता ।
नागसेन - नहीं भगवन् मुझे पूरा अवकाश है; आनेवालों की भीड़भाड़ जितनी है. सम्हालनेवालों की भीड़भाड़ भी सक अनुरूप है । इसलिये मेरे मन को पर्याप्त अवकाश है भगवन् ! आप अवश्य पधारें भगवन्, आज में किसी तरह भी यह अलभ्य लाभ न छोडूंगा ।
शब्दभाषा के साथ स्वर चेष्टा और मुखाकृति से भी 'उसने इतना अनुनय विनय किया कि मैंने समझा कि यदि मैं न जाऊंगा तो इसके मनको काफी चोट पहुँचेगी । इसलिये मैं
चलागया !
• मेरे सामने एक से एक बढ़कर मिष्टान्नों, और व्यञ्जनों के थाल सजाकर रखादये गये । पर उनकी गंधसे तथा नकी आकृति देखकर मैं समझ गया कि इन सबों में किसी न किसी. रूप में भांस मिला हुआ है । जिन्हें देखकर दुसरों के मुँह में
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महावीर का अन्तम्तल पानी भर आता है अन्हें देखकर मैं सिहर उठा। ..
थालॉ के भीतर मुझे मिष्टान्न नहीं, व्यसन नहीं, किन्तु . . जानवरों के करुण दृश्य दिखाई देने लो। मैंने देखा. हरिण / हरिणी का जोड़ा आपसमें किलोल कर रहा है इतने में व्याध के याण से हरिण घायल होकर गिर पड़ा है। हरिणी कातर नयनों
से अश्रु वहारही है। मेरी आंखें बन्द होगई और मनही मन में __ आंसू बहाने लगा।
- मुझे ध्यानस्थ सा देखकर पहिले तो :नागसेन शान्त . रहा, उसने समझा भोजन के पहिले मैं किसी इष्ट का ध्यान कर रहा हूँ पर जब मेरे मुंह से एक आह निकली तर वह चौंका : बोला-क्या सोचरहे हैं भगवन् , आहार ग्रहण कर मुझे कृतार्थ : कीजिये। - मैंने कहा-नागमेन, पेट के लिये मैं अपनी सन्तान और भाइ बन्धुओं को नहीं खासकता ।
नागसेन कुछ न समझ सका, नासमझीमें घबराकर. बाला-मैं अज्ञानी हूँ भगवन, कोई. अपराव हुआ हो तो क्षमा करें! मैने जानबूझकर कोई. अविनय नहीं किया है भगवन, अपनी सन्नान और भाई बन्धुओं को कौन खासकता ह.भगवन, आपकी. चात का तात्पर्य में समझ नहीं सका भगवन! आहार ग्रहण कर मुझे कृतार्थ कर भगवन !.
नाग पेन की व्याकुलता देखकर तथा टूटी कड़ियों , सरीखी उसकी बातें सुनकर मैं चिन्ता में पड़गया । आहार ग्रहण न करने से इसके मनको, कितनी चोट पहुँचेगी इसका बड़ा करुण चित्र मेरी आंखों के आगे नाचने लगा। फिर भी मेरा निश्चय था कि अशुद्धाहार किसी भी अवस्था में में न लूंगा। मेने कहा-पशुपक्षी भी हमारे भाई बन्धु या सन्तान के समान हैं।
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महावीर का अन्तस्तल
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भागसेन, भले ही वे छोटे भाई है पर क्या इसीलिये उन्हें मार कर खाजाना चाहिये ?
. नागसेने शक होकर रहगया । क्षणभर उसके मुंह से एक शब्द न निकला, फिर सम्हलकर बोला-पेमा सूक्ष्म विचार तो आज तक किसी श्रमण ब्राह्मण के मुंह से नहीं सुना भगवन् ।
में-सुनने का समय नहीं था नागसेन ! कृषि का विकास न होसफने से और पशुओं के उपद्व की बहुलता होने से यह सूक्ष्म विचार सुनने को कोई तैयार नहीं था नागसेन, पर अब परिस्थिाने बदलगई है, पशुओं की हमें जरूरत है और अन्न से सारी जनता पेट भर सकती है, ऐसी अवस्था में पीढ़ियों से जो ऋग्ता हिंसा हम करते आये हैं उसे त्यागना होगा, पशुओं के साथ भी कौटुम्बिकता निभाना होंगी।
नागसेन के मनपर मेरी बातो का प्रभाव पड़ा । वह भक्ति से हाथ जोड़कर बोला-धन्य है भगवन, आपको दया अनन्तं है, कौटुमित्रकता असीम है । ऐसे महाभाग के पधारने से मेरी सात. पीढ़ियाँ तरगई । भगवान के लिये में अभी दूसरा पवित्र निरामिष भोजन तैयार कराता हूँ, जिस ढंग में, और जो · कहिये वह । ..
मैंने कहा-नागसेन, सच्चा श्रमण समाज के लिये बोझ नहीं होता। वह . समाज को कोई विशेष क; पहुँचाये विना शरीर स्थिति के लिये कुछ इंधन लेलेना चाहता है । वह बचें खुचे से गुजर कर लेना चाहता है इसलिये वह अद्दिष्ट त्यागी होता है। तुम मेरे लिये जो भोजन तैयार कंगेगे वह मेरे लिये अग्राह्य होगा इसलिये मेरे लियें भोजन बनाने तैयारी न करो। ... : मेरी बात सुनते ही नागमेन की आंखें डबडया आई, उसके आंठ कांपने लगे पर सलाई का धमान सहपाये, नागसेन.
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महावीर का अन्तस्तल
रोते ही लगा, विलाप करने लगा-" में बड़ा अभागी हूँ, आज मेरे द्वार से महाश्रमण भूखे लोट जाने वाले हैं। धिक्कार ह मरी इस सम्पत्ति को ! जिससे महाश्रमण का आहार भी नहीं होसकता; धिकार है मुझे ! जो घर आये हुए महाश्रण को भोजन भी नहीं दे सकता। मेरे जन्मसे क्या लाभ? मैं पैदा होते ही क्यों न मरगय। !'' इस के बाद वह हिलक हिलक कर रोने लगा । उसके बच्चे भी रोने लगे, और पत्नी भी रोने लगी मुझे ऐसा मालूम हुआ मानों में रुदन के समुद्र में डूब जाउँगा ।
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मैंने इस रुदन समुद्र में तैरने के लिये हाथ चलाने के समान हाथ उठाकर धीरज रखने का संकेत किया। और जब वे सब के सब मेरी ओर उत्सुकता से देखने लगे तंत्र मैने कहातुम लोग दुःखी न होओ ! मैं तुम्हारे यहां से निराहार नं जाऊंगा। यह ठीक है कि इन थालों में रक्खा हुआ भोजन मैं नहीं सकता, और अपने लिये नया भोजन भी तैयार नहीं करा सकता, पर गुड़ लेकर पानी पलिकता हूँ, दूध हो तो दूध भी लेंसकता हूँ ।
नागसेन की पत्नी बोली- तो दूध लें देवार्य, मलाई लै देवार्य, हमें भाग्यवान बनायें दवार्य ।
मैने कहा - मलाई रहने दे बाई, दूध ही ले आ । इन्द्रियों की पूजा नहीं करना है शरीर को ईंधन देना हैं ।
अन्त में मैंने दूध लिया | दूध इतना स्वादिष्ट और गाढ़ा था कि उसे शरीर का ईधन ही नहीं कहा जासकता, इन्द्रियों की पूजा सामग्री भी कहा जासकता है । पर मैंने इन्द्रियों की पूजा नहीं की, ईधन समान समझकर ही उसे लिया।
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मरे भोजन लेलेने से उन सब को बड़ा सन्तोष हुआ । अतिथि गण भी धन्य धन्य कहने लगे । कोई कोई 'अहोदान अहोarr' बोलने लगे । नागसेन तो प्रसन्न होकर कहने लगा- आज मेरे घर में जैसी वसुधारा हुई वैसी कभी नहीं हुई, कभी नहीं हुई ।
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२९.-स
: १३ वुधी ९४३३ इ. सं.
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... ... सोचा तो मैंने यही था कि श्वेताम्बी नग में हीचौमासा करूंगा क्योंकि सुना था कि यहां का प्रदेशी राजा बड़ा धर्मात्मा है सो सचमुच वह बड़ा धर्मात्मा विनीत और सेवाभावी है। जिस दिन में इस नगरी में आया उसी दिन. चौथे पहर प्रदेशी राजा मुझसे मिलने आया । उसे यह पता लगगया था कि मैं एक क्षत्रिय राजकुमार हूं जो.तपस्या के लिये वैभव छोड़कर विहार कर रहा हूँ । इसालेये मेरा उमने वह सत्कार किया जो शायद ही किसी श्रमण ब्राह्मण को मिलता है। अपने अन्तःपुर मन्त्रीवर्ग:
और सचिव वर्ग, नगर का श्रीमन्तवर्ग और. :योद्धावर्ग को लेकर ''वह मेरी वंदना को आया । मेरे चारों तरफ़ इतने महर्द्धिक आदमी इकठे होगये कि साधारण जनता मेरे पास आने का साहस न दिखलासकी। ........ .. .. :
राजाने मुझसे अनुरोध किया कि मैं इसी नगरी में चौमासा करूं । मेने वचन तो नहीं दिया, ऊपर से इतना ही कहां । कि समय आने पर देखा जायगा। पर भीतर ही भीतर यह इच्छा थी ही कि यहां चातुर्मास करने से सब तरह का सुभीता रहेगा। खैर ! मैं यहां रहने लगा। नगर में सन्मानं, बहुत था और चूंकि बड़े बड़े महर्द्धिक मेरा सन्मान करते थे इसलिये मुझे देखते ही सारा नगर डर जाता था। मेरे ज्ञान में अनुराग किसी को न था और अभी मैंने वह ज्ञान पूरी तरह प्राप्त भी नहीं किया था जिसका सन्देश दुनिया को ,, मैं तो राजगीर या राजर्षि के नाम से.पुजरहा था।
.. पुजना या सत्कार पाना किसे बुरा लगता है फिर भी इसके बारे में संयम और विवेक की आवश्यकता है। जैसे विवाह
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हरएक को अच्छा मालूम होने पर भी बाल विवाह जीवन के लिये घातक है उसी तरह सिद्धि पाये बिना सिद्ध की तरह पुजना जीवन के लिये घातक है ।
अगर विना सिद्धि पाये मैं यहां सत्कार पाता रहा तो सत्कार के जाल में फँसकर ही मेरा जीवन मोघ होजायगा । सत्कार एक प्रलोभन है और सब से बड़ा प्रलोभन है, इसका सामना करना बड़ा कठिन है । विपदाएँ होनवार्य व्यक्ति के लिये ही आकर भ्रष्ट कर पाती हैं पर सत्कार बलवान व्यक्ति को भीलुमाकर भ्रष्ट कर देता है । मुझे इस सत्कार को ठुकराना होगा, सत्कार पर विजय करना होगी, सत्कार परिवह जीते बिना मेरी प्रगति असम्भव है। सत्य के पूर्ण दर्शन होने के बाद सत्कार सत्य के प्रचार की सामग्री चनजाता है उससे व्यक्ति के पतन की ऐसी सम्भावना नहीं रहती, पर साधक अवस्था में सत्कार वह पौष्टिक खुराक हैं जिसे साधक पत्रा नहीं सकता, वह अर्थात् उसका आत्मा असका जीवन, रुग्ण होकर मरता है पतित होता है । इन विचारों से मैंने श्वेताम्बी नगरी छोड़ दी। यहां अभी चौमासा करने का विचार भी छोड़ दिया । 10- संवर्तक ( बड़ा तूफान
२५ बुध ६४३३ इ. सं.
श्वेताम्बी नगरी से निकलकर में भ्रमण करता हुआ सुरभिपुर पहुँचा । छोटा सा अच्छा नगर है । पर मनमें राजगृह नगर पहुंचने की इच्छा थी । सम्भव है सिद्धि प्राप्त करलेने पर सत्यप्रचार के लिये राजगृह अनुकूल क्षेत्र सिद्ध हो। इस विचार से सुरभिपुर छोड़ दिया । पर राजगृह आने के लिये गंगा पार करना जरूरी था । यद्यपि ग्रीष्म ऋतु होने से गंगा की धारा की चौड़ाई कम रहगई है फिर भी विशाल है और अगाध भी है ।
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म पवार का अन्तस्तल
__[१२१
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सचमुच गंगा नदियों की रानी है। चौड़ी तो यह है ही, पर गहराई में कदाचित् ही कोई नदी इस की बराबरी कर सके.और जल तो इसका इतना अच्छा है कि उसे अमृत ही कहना चाहिये। पर प्रकृति के इस सौन्दर्य का मैं क्या करूं ? इस गंगा से भगीरथ के पुरखों का कैसे उद्धार होगया, कौन जाने, पर मुझे तो मानव जाति का उद्धार करना है, झुनका उद्धार इस गंगा से न होगा, उसके लिये जिल ज्ञानगंगा को लाना है उसके लिये भगी. रथ से अधिक और उच्चश्रेणी की तपस्या मुझे करना है। इस जड़ गंगा का मेरे लिये क्या मूल्य है ? इसके तो पार ही जाना चाहिये।
में नदी किनारे आया। एक नाव पार जाने के लिये छूटनेवाली थी। बहुत सं यात्री उसमें घंठ गये थे इतने में पहुंचा में। मल्लाह ने मुझे देखते ही कहा-आओ देवार्य, इस सिद्धदन्त की नाव को पवित्र करो। मैं बैठ गया। नाव चलने लगी। इतने में आया तूफान ।
___ ग्रीष्म ऋतु में कभी कमी वायु का वेग काफी प्रबल होजाता है। पर आज की प्रबलता कल्पनातीत थी । जब नाव मझधार में पहुंची तब वायु का वेग इतने जोर का बढ़ा कि सद कहने लगे यह संवतक (प्रलय कालका वायु) है। नौका दाय वायें इस प्रकार डोलने लगी मानों वह भूतापेश में आगई हो। समी लोग घबरागये। पर मैं शान्त रहा। सोचा घबराने से अगर तुफान शान्त नहीं होसकता तो घबराने से क्या लाभ ? .
मेरी नग्नता के कारण मुझपर सब की दृष्टि थी ही, परं मेरे शान्त रहने के कारण और भी आधिक होगई। मेरे बारे में सभी लोग कानाफूसी करने लगे। एक बोला-यह तूफान इसी. देवार्य के कारण मालूम होता है अन्यथा ऐसा तूफान तो आज तक नहीं देखा।
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महावीर का. अन्तस्तल
दूसरा वोला-देवार्य तो परमशान्त परम दयालु मालूम होते हैं वे किसी को क्या.. सतायेंगे ? हां, यह-होसकता है कि कोई देव उनका चैरी,हो और वह बदला लेरहा हो।.
.: तीसरा-परम शांत. परस दयालु का वैरी कौन होगा ?. .... दसरा-वैरी इसी जन्म के नहीं होते, पूर्वजन्म के भी होते हैं। हो सकता है कि पहिले किसी जन्म में देवार्य राजा रहे हों और सुनने किसी शेर का शिकार किया हो और कालान्तरं में वह शेर मरकर कोई नागदेव होगया हो जो इस गंगा में रहता हो । देवार्य को देखते ही पूर्वजन्म के स्मरण से वह उपसर्ग करने आया हो।
पहिला-तब तो इस देवार्य के पीछे हम सब भी मरेंगे ।
दसरा-हां. देवायं मरेंगे तो हम भी मरेंगे। पर ऐसे देवार्यों के जितने वैरी होते हैं उससे अधिक भक्त होते हैं। मगर देवार्य का वैरी कोई एक देव उपसर्ग कर रहा है तो दो देव रक्षा को भी आसकते हैं। ..... ....
तसरा-सम्भवतः इसीलिये देवार्य निश्चित बैठे हैं। पलपलपर नाच इवने का डर है पर वे आंख बन्द किये इसप्रकार वैठे हैं मानों कुछ हो ही नहीं रहा है।
... दूसरा-दवार्यों की निश्चिंतता देवताओं के भरोसे नहीं होती, परमात्मा के भरोसे होती हैं, जीवन-मरण में समभाव के भरोसे होती है।
: यह सब खुसखुसफुसफुस हो ही रही थी कि धीरे धीरे तुफान का जोर घटने लगा और नौका बढ़ने लगी । सवने छुटकार की सांस ली । मल्लाह जल्दी से जल्दी नाव पार लेजाने लगे... अव.. उन · लोगो की चर्चा को काफी बल आगया। . .
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.. तीसरा भाई बोला-मालूम होता है देवार्य की रक्षा के लिये कोई देव आगया है।
दूसरा-एक नहीं दो। एक तो वैरी देव से लड़ रहा है दूसरा नाव को जल्दी जल्दी आगे बढ़ा रहा है। देख नहीं रहे हो ? नौका किस तरह झुड़ी जारही है।
यह ठीक है कि मैं निश्चित था, पर किसी एग्मात्मा में ध्यान लगाने के कारण नहीं, केवलं समभाव के कारण ! ध्यान तो मेरा उन लोगों की खुसस्नुस फुसफुल में लगा था। प्राकृतिक घटनाओं को लोग किस तरह दिव्य रूप दे देते हैं यह जानकर मुझे बड़ा कुतूहल हुआ। मैं समझता हूं इस युग में उनके इस आधार को तोड़ा नहीं जासकता। ईश्वर के सिंहासन को कंदाचित खाली किया जासकता है पर इन देवताओं के जगत्
को नहीं मिटाया जासकता। नये.तीर्थ के निर्माण में मुझे इस . वात का ध्यान रखना होगा।
. . . . . . .३१.-गोशाल. ... . . ... . १४ धनी ६४३३ ३ स. . . .
राजगृह नगर में मैंने दूसगं चौमासा पूरा किया। रहने के लिये मैंने नालन्दा का भाग चुना था। वहां कपड़े वुनने : की एक विशाल शाखा थी, इसाके एक हिस्से में एक खाली स्थान में मैंने चौमासा विताया । कट-सहिष्णुता का अभ्यास . करना, और जगत् को. देने लायक सत्य की शोध करने के लिये चिन्तन करना ये ही दो मुख्य कार्य मेरे रहे । पारण के लिये मैं कभी विजय श्रेष्ठी के यहां कभी आनन्द श्रेष्ठी के यहां, कभी सुनंद के यहां चला जाता था। इन लोगों के यहां मुझे शुद्ध भोजन मिल जाता था, और मेरे निमित्त से इन्हें कुछ बनाना भी न पड़ता था। और ये लोग काफी आदर प्रेम से
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महावीर का अन्तस्तल
भोजन कराते थे मेरी निस्पृहता के कारण भी इनकी अनु.
रक्ति थी ।
भोजन के विषय में भी मुझे लोगों के जीवन में क्रांति करना है । निर्दयता - पूर्ण मांस भोजन और उन्मादक मद्य । का भोजन में कोई स्थान न रहे ऐसी मेरी इच्छा है । मैं स्वयं इन वस्तुओं का उपयोग नहीं करता। यहां तक कि जिस भोजन में इनका मिश्रण हो वह भी नहीं लेता । आजकल इसप्रकार का निरुदिष्ट भोजन मिलना कठिन तो होता है पर एक दिन ऐसा अवश्य आयगा जब घर में ऐसा पवित्र भोजन मिलने लगेगा । इस चातुर्मास में उन श्रेष्ठियों के यहां पवित्र भोजन मिला इसलिये वारी वारी से मैं उन्ही के यहां गया। मेरे भोजन की पविता तथा मेरी निहता देखकर वे अत्यधिक आदर या अनुराग से भोजन कराते थें 1
मेरे विषय में आदर और अनुराग प्रगट करते हुए इन श्रेष्ठियों को देखा गोशाल ने, इसलिये यह भाई मेरे पास आकर रहने लगा । यह एक भिक्षुक का पुत्र है। इसके पिता का नाम है मंखली और माता का नाम है भद्रा । शरवन गांव की गोशालामै उसका जन्म हुआ था इसलिये इसका नाम गोशाल रक्खा
गया ।
मातापिता के साथ यह भी भिक्षा मांगा करता था। पर माता पिता से न बनी और यह अलग होगया । अस दिन जब म आनन्द श्रेष्ठी के यहां भोजन करने गया तब यह भी वहीं खड़ा था । श्रेष्ठी ने जिस आदर से मुझे भोजन कराया उससे इसने मुझे कोई बड़ा महात्मा समझा और शाम को मेरे पास आकर बोला- गुरुदेव, मैं आपका शिष्य होता हूँ । मैंने न 'हां' कहा न 'ना' जब तक मैंने सत्य का पूर्ण दर्शन नहीं पाया है तब तक किसी को शिष्य बनाने से क्या लाभ ? पर यह मेरे पास रहने
1
लगा ।
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A
na......
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महावीर का अन्तम्तल :
१२५ ..... ___ गोशाल है तो भोला, पर जन्म के संस्काग ने इसकी मनोवृत्ति को शुद बना दिया है । यह धीरज नहीं रख सकता। जहां न मांगना चाहिये वहां भी मांग बैठता है और बढ़ी निर्ल
जता से मांग बैठता है । इसको दखकर मैं सोचता हूं कि मातां पिता के द्वारा मिले हुए संस्कागं का भी जीवन में एक विशेष महत्व है । ऐसा मालूम होता है पत्र भी जीवन की एक बड़ी विशेषता है । यही कारण है कि गोशाल कई माह मेरी संगति में रहा पर अपने नीचगोत्र का असर चह-दूर न कर सका ।
यद्यपि यह मैं नहीं मानता कि गोत्र वदल नहीं सकता । ज्ञान और संयम से जन्म के संस्कार भी बदल जाते हैं। नीचगोत्री मनुप्य में जो एक तरह की क्षुद्रता की भावना, आत्मगौरव. हीनता या नकली वाभिमान आदि नीच गोत्र के चिन्ह होते हैं वे दूर होसकते हैं और समय पाकर मनुप्य उच्चगोत्री बन
सकता है। में तो समझता हूं कि संयमी मनुण्य नीचगोत्री रह . . नहीं सकता, भले ही उसके माता पिता नीचगोत्री रहे हो ।
लेकिन में देखता हूं कि यह असाधारण परिस्थिति गोशाल कं, जीवन में नहीं दिखाई देरही है। जहां में जाता है वहां पीछे से यह भी भोजन करने पहुंच जाता है, मुझे यह लाओ, मुझे वह लाओ, कह कह कर परेशान कर देता है । फल यह हुआ है कि इसका आदर नहीं रहपाता है । जिस दिन में भोजन करने जाता है अस दिन तो असे अच्छा भोजन मिल जाता है पर जिस दिन
भोजन नहीं करता उस दिन यह मारामारा फिरता है और - आदर सन्मान खोता रहता है।
कभी कभी यह रूपया वगैरह भी मांग बैठता है पर इस तरह भिखारियों को कहीं रुपये मिलते हैं ? यह.. पहिले से ही अच्छे अच्छे भोजनों के नाम गिना गिनाकर भोजन मांगता है, लोग भी चिढ़कर खगव से खरार भोजन बताते हैं। इसप्रकार
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महावार का अन्तस्तल
लोगों के मन में गोशाल के बारे में प्रतिक्रिया होगई है। यह जो मांगता है लोग उससे उल्टा ही देते हैं और बहुत बुरी वञ्चनापूर्ण हँसी भी उड़ाते हैं। ... आज असने मुझसे पूछा-बताइये ! मुझे आज भिक्षा में क्या मिलेगा ? :: ...::...:... मैंने कहा-तम क्या चाहते हो? :
: वोला-अच्छा मीठा दही, बदिया शालिका भात, और दक्षिणा में चमचमाता हुआ चोखा निक' (रुपया)। . . . अब मुझे यह समझने में देर न लगी कि आज इसे. भिक्षा में क्या मिलेगा? यह जो चाहता है वहीं मांगता है। एक बार इसे खोटा निष्क मिला था तब से यह चोखा निष्क मांगने लगा है, उसकी इस विचित्र याचना से सभी हँसने लगते हैं और उलटा ही देते हैं। ..
. इसलिये मैंने जरी मुसकराते हुए कहा-आज तुम्हे खट्टा छांछ, कोद्व का भात, और दक्षिणा में खोटा निष्क मिलेगा। ............. ...... ..
गोशाल भिक्षा लेने चला गया। :: :: 5. उसके जाते ही मेरे मन में आया कि ऐसे मनुष्य को पास में रखना ठीक नहीं, इसलिये मैंने भी विहार कर दिया और सन्ध्या तक कोल्लाक गाव में आ पहुँचा । आशा है स्थान पर मुझे न पाकर वह कहीं अन्यत्र चला जायगा। .. .
३२- नियतिवाद चीज ... .. १६ धनी ६४३३ इतिहास संवत् .. . __ में तो समझता था कि गोशाल से पिंह छूट गया इस लिये कुछ, निश्चिन्तता का अनुभव कर रहा था। आज भोजन . कंगने के लिये गया तो कुछ निश्चिन्तं सा था क्योंकि अन्य दिन
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महावीर का अन्तस्तल
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रहेगा कि वह दीन बनना उसमें आत्मगौरव लेकर बड़ा है।
यह चिन्ता रहती थी कि मेरा शिप्य वनकर गोशाल जाकर न जाने कैसी क्षुद्रता का प्रदर्शन करेगा । आज यह चिन्ता नहीं थी।
भोजन बहुल ब्राह्मण के यहां हुआ। यह ब्राह्मण होनेपर . भी श्रमणों को बहुत आदर से जिभाया करता है मुझे भी इसने बड़े आदर से जिमाया । मैं समझता हूं कि साधु को भोजन में यथोचित आदर का ध्यान अवश्य रखना चाहिये । आदर इस बात का चिह्न है कि साधु मोघजीवी नहीं है, यह समाज सेवा का महान साधक है । इसलिये भोजनादि के रूप में जो कुछ यह जनता से लेता है वह अमाप विनिमय का बहुत ही तुच्छ अंश है ।
आदर सत्कार का परिणाम यह होगा कि साधु में दीनता न आने पायगी। साथ ही असे इस बात का भी ध्यान रहेगा कि वह मोघजीवी न बनजाय । मोघजीवी मनुष्य को किसी न किसी तरह दीन बनना पड़ता है। सच्चे साधक को दीन बनने की जरूरत नहीं है। उसमें आत्मगौरव रहना ही चाहिये। आजकल साधु या उससे मिलता जुलता वेष लेकर बहुत से मनुष्य भीख मांगा करते हैं इससे साधुता दूषित होरही है। जनता भी किंकर्तव्य विमूढ़ है । वह भिखारी और साधु को एक समझने लगती है। मुझे साधुओं को इतना आत्मगौरवशाली बनाना है कि इनके शब्दों का मूल्य इतना बढ़जाय कि समाज उनकी अवहेलना न कर सके । अस्तु
बहुल ब्राह्मण के यहां खीर मिष्टान्न और घृतका स्वादिष्ट भोजन कर मैं ग्राम के बाहर एक वृक्ष के नीचे ध्यान लगाकर बैठ गया । पहर भर तक साधु संस्था के बारे में सोचता हुआ निश्चेष्ट बैठा रहा । ध्यान के बाद ज्यों ही मैंने नजर खोली कि देखा कि सामने से गोशाल महाशय चले आरहे हैं । पहिले तो मैंने उन्हें पहिचाना ही नहीं, पास पाने पर मालूम हुआ कि महाशयजी गोशाल हैं। . .
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एक ही दिन में आपने कायापलट करली थी । सिर ___ का पूरी तरह मुंडन करालिया था और सब वस्त्रों का त्याग कर मेरे ही तरह दिगम्बर वेय ले लिया था । आते ही कहा
- भगवन, आप मुझे अपात्र समझ कर छोड़कर चले आये । पर अब देखिये में पात्र होगया हूं। जब मैं आप ही की तरह दिगम्बर हूं, आप ही की तरह मुंडी हूं। आगे भी ने आप की ही तरह रहने का संकल्प कर लिया है।
मैने कहा-केवल दिगम्बर ओर मुंडा होने से ही तो मेरा अनुकरण नहीं होसकता । आगे तुम कैसे निकलोगे इसका क्या ठिकाना?
__गोशाल-ठिकाना क्यों नहीं है भगवन, जो जैसा होने वाला होता है वैसा ही होता है उसमें न गई घट सकती है न तिल बढ़सकता है। सब भविष्य नियत है । इसलिये आप कोई चिन्ता न कीजिये ! ___ मैं-तुम तो पक्के नियतिवादी वनगये गोशाल !
गोशाल-आपने ही तो मुझे नियतिवाद का पाठ पढ़ाया है।
मैं-पर तुम सरीखा घोर नियतिवादी तो मैं भी नहीं हूं। मैं तो नियतिवाद को सचाई का एक अंश ही मानता हूं वह भी मुख्यांश नहीं । मैं तो यत्नवादी हूं। तब तुम्हें नियतिवाद का पाट कैसे पढ़ाऊंगा?
गोशाल-परसों आपने कहदिया था कि मुझे भिक्षा में खट्टा छाछ, कोद्रव का भात और खोटा निष्क मिलेगा । मैंने दिनभर यत्न किया, और हर एक से कहा कि मुझे खट्टा छाछ न देना, कोद्रव का भात न देना, खोटा निष्क न देना, पर किसी के यहां दूसरी चीज न मिली | तव भूख से पीड़ित होकर शाम
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को मुझे खड्डा छाछ और कोद्रव का भात ही स्वीकार करना पड़ा । निष्क भी जो मिला वह यद्यपि खोटा कहकर नहीं दिया गया था पर निकला खोटा ही । इसलिये मेरा तो निश्चय होगया हैं कि जो भविष्य नियत है वह कितने भी यत्न करने से टल नहीं सकता ।
गोशाल की बात सुनकर सुझे उसके भोलेपन पर खूब हँसी आई। इस समय उसे समझाना व्यर्थ था । सोचा फिर कभी समझाऊंगा । असकी dia sच्छा देखकर मैंने उसे साथ रहने दिया ।
२२ धनी ६४३३ ई. सं.
आज मैं स्वर्णखल की तरफ रहा था, गोशाल मेरे साथ था हो । वीचमें एक वृक्ष के नीचे विश्राम करने के लिये 1 बैठ गये । कुछ दूसरे पथिक भी पथ की दूसरी ओर एक वृक्ष के नीच आकर ठहर गये । मध्यान्ह का समय आरहा था । वे बेवारे भूखे थे। मालूम हुआ कि उनके पास चावल ही थे और श्री एक छोटीसी हंडी | सुनने हंडी में चावल पकाकर ही क्षुधा को शांत करने का निश्चय किया । पथिक थे चार, और उसके पास चारों के खाने लायक चावल भी थे, पर हंडी ऐसी नहीं थी कि चारों के लिये भात पक सके । छोटी हंडी देखकर ही मेरा ध्यान जुस तरफ गया । और मैं कुतूहल से उनकी ओर देखने लगा उनने आग जलाई, इंडी चढ़ाई, उसमें पानी डाला चावर धोये और एंडी में डाल दिये। चावल इतने अधिक डाले कि इंडी गले तक भरगई । मैंने मन ही मन कहा कि अब इनका भात पक चुका | मालूम होता है इन लोगों ने कभी भात नहीं पकाया ।
इतने में गोशाल मेरे बहुत निकट आकर बोला- भगवन मुझे बहुत भूख लगी है. सामने ये लोग भात पका रहे हैं चलिये
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अपन यह भोजन करें।
मैंने कहा-तुम उसकी आशा न करो, भात पकनेवाला नहीं है । पकने के पहिले ही हंडी फूट जायगी।
मैं समझ गया था कि जो इतने नासमझ हैं वे फलकर निकलते हुए भात को रोकने की कोशिश अवश्य करेंगे । और इसीसे हंडी फूट जायगी।
अन्त में ऐसा ही हुआ । जव भात फूलकर निकलने लगा तब वे हंडी के मुँह पर पत्थर का एक ढक्कन ढककर वांस से दवाकर बैठ गये । थोड़ी ही देर में हंडी फूट गई । भात बिखर गया। पर पथिक बहुत भूखे थे । उनने ठीकरों में से अधपके भातको बीन बीनकर खालिया, गोशाल वहां गया पर असे कुछ मिल न सका। - । लौटकर गोशाल ने कहा-भगवन अव मेरा और भी पक्का निश्चय होगया है कि नियतिवाद ही सत्य है । जो होना होता है वह होकर रहता है, यत्न उसे रोक नहीं सकता।
मैंने देखा कि अब गोशाल को समझाना वृथा है । उसके मन में नियतिवाद के वीज बहुत पक्के जम गये हैं। .: - कार्यकारण की जो परम्परा है अस पर विचार करन से और थोड़े से मनोविज्ञान से बहुत सा. भविष्य बताया जासकता है, पर गोशाल में इतनी समझ नहीं है, किन्तु वह अपनी नासमझी को नहीं समझना चाहता इसलिये वह उसे प्रकृति के मत्थे थोप देना चाहता है। वह अपनी असफलता को अपनी मूर्खता का परिणाम नहीं मानना चाहता किन्तु यह कहना चाहता है कि वह घटना तो प्रकृति से नियत थी, उसे किसी भी तरह बदला नहीं जासकता था, तब मैं क्या करता ?
गोशाल जो इसप्रकार.नियतिवाद के बन्धन में पड़ रहा
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महावीर का अन्तस्तल
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है उसका कारण गोशाल का भोलापन नहीं है किन्तु असंयम है। अपने अज्ञान को छिपाने के लिये एक छल है छद्म है । जो इस प्रकार छलछद्म कर सकता है वह छद्मस्थ अज्ञानी तो कहा जासकता है पर भोला नहीं कहा जासकता। उदम एक बड़ी भारी चालाकी है। .
गोशाल में अज्ञान होता तो उसे दूर किया जासकता था पर उसमें एक प्रकार का अहंकार है और उसे चरितार्थ करने के लिये वह छद्म का सहारा लेरहा है इसलिये उसे समझाना व्यर्थ है।
मुझे आशा नहीं कि गोशाल सत्य के दर्शन कर सकेगा फिर भी यदि वह मेरे साथ रहता है तो उसे भगाऊंगा नहीं, कभी न कभी वह स्वयं चला जायगा। अगर संगति से सुधर गया तो यह अच्छा ही होगा।
में सोचता हूं नियतिवाद के बीजवपन के लिये मनुष्य की मनोभूमि बड़ी उर्वर है। सम्भवतः इसको मिटाया नहीं जासकता, हां उसका समन्वय कर उसका विपापहरण किया जासकता है । भविष्य में मैं यही करूंगा।
६३-उदासीनता की नीति ३जिन्नी ९४३४ इ. सं.
संसार में जो वुगइयाँ हैं उनका विरोध में भी करना चाहता हूं फिर भी मैं इस तरह रहता हूं मानों मैं बुराइयों से भी उदासीन हूं। गोशाल को यह वात पसन्द नहीं है। वह अपने को रोक नहीं सकता। फल अफल अवसर अनवसर का विचार किये बिना वह उखड़ पड़ता है । विरोध की मर्यादा और उचित तरीके का भी विवेक उसे नहीं रहता । फल यह होता है कि वुराई मिटने के बदले बदजाती है।
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महावीर का अन्तस्तल
इतना ही नहीं, गोशाल सामाजिक अनीतियों को और अपने अपमानों को एक सरीखा समझता है । सामाजिक अन्यायों का विरोध कभी तीव्रता से किया भी जासकता है पर अपने अपमानों का विरोध सुतनी तीव्रता से नहीं किया संकता ! हम सन्मान के ठेकेदार नहीं हैं कि जहां जायँ वहां हमाग सन्मान हो ही । लोगों की इच्छा होगी सम्मान करेंगे, न होगी न करेंगे। हमें सन्मान वसूल करने के लिये बलात्कार क्यों करना चाहिये ?
मैं गोशाल को ये सब बातें समझाता नहीं हूं, क्योंकि बिना जिज्ञासा प्रगट हुए मैं किसी को समझाना भी पसन्द नहीं करता, पर गोशाल को अपनी उतावळी का और असंयम का परिणाम भोगना पड़ा हैं :
उस दिन ब्राह्मण ग्राम में ऐसा ही हुआ । इस गांव के दो संचालक हैं एक नंद दूसरा उपनंद, दोनों भाई हैं। आधा गांव नंद के हाथ में है आधा अपनंद के । नंद उपनंद की अपेक्षा कम - धनी है। गांव में घुसते ही गोशाल ने इन सब बातों का पता लगालिया । में तो नंद के यहां ही भिक्षा लेने चलागया और गोशाल इसलिये उपनंद के यहां गया कि अधिक धनी के यहां अधिक अच्छा भोजन मिलेगा पर हुआ उल्टा ही । उपनन्द ने एक दासी को आज्ञा देकर वासा भात दिलवादिया । वाला भात देखकर गोशाल बकझक करने लगा । उपतन् ने गुस्से से दासी से कहा- अगर यह न लेता हो तो इसी के सिर पर डाल दे 3 इसपर गोशाल ने इतनी गालियाँ दी कि स्वनन्द का जी जलने लगा और उसने भी गालियाँ दीं। और उसके घरवाले आकर भी गालियाँ देने लगे । इस तरह गोशाल ने सब घर में तो आग लगादी पर न तो सन्मान पाया न किसी का सुधार करपाया । साधुता का यह मार्ग नहीं है ।
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मवीर का अन्तस्तल
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१७चिंगा ९४६४ इ. स.
चम्या नगर्ग में तीसरा चातुमांस पूरा कर मैं फिर कोल्लाक गांव में आया। बस्ती क बाहर शून्य गृह में ठहरा। रातमें एक जवयुवक अपनी एक दासी के साथ रति क्रीड़ा करने के लिये उस मकान में आया। मकान वड़ा था। दूसरे हिस्से में जाक वह उस दासी के साथ व्याभेचार करने लगा। जब वे निकलने लगे नव गोगाल ने दासी को धिकार फिया, तब उस नवयुवक ने गोशाल को खूब पीटा।
इसी तरह की एक घटना पत्रकाल नगर में भी हुई, वहा भी गोशाल एक व्यभिचारी के द्वारा पिटा।
आज जो घर घर में व्यभिचार का तांडव होरहा है इससे गार्हस्थ्य जीवन शिलकुल नष्ट होरहा है। ब्रह्मचर्य तो दूर, साधारण शील भी लोगों में नहीं पाया जाता | व्यभिचार की कोई मर्यादा ही नहीं है। पुरुष जिस चाहे और जितनी चाहे स्त्रियों के साथ व्य भचार करने में नहीं हिचकता, और उनके साथ वेवाहिक बन्धन में भी नहीं रहना चाहता, इस तरह समाज व्यभिचारजात मनुष्यों से भर रहा है । उनकी माताएं व्यभिचारिणी हो । हैं, बाप का पता नहीं होता, इसलिये कौटुम्बिक संस्कारों का लाभ भी उन्हें नहीं मिल पाता, इससे मनुष्य का चरित्रवल गिरता जाता है और प्रायः सभी घर अशांति की क्रीडाभूमि बने हुए हैं । इस उद्दाम व्यभिचारवृत्ति पर कुछ न कुछ नियन्त्रण लगाना होगा। पर इस तरह व्यभिचारियों को गाली देने से यह नियन्त्रण न होगा ! उसके लिये एक व्यापक आन्दोलन द्वारा समाज का वातावरण वदलना होगा। अवसर आने पर मैं वह सब करूंगा । आज जो मैं इन बातों को तरफ उदासीन रहता हूं उसका एक कारण तो यह है इन पापों को में समाज का अपराध मानता हूं, समाज ने जो विचारधारा
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स्वीकार कर रक्खी है और विवाह की मर्यादा को जो ढीला बना रक्खा है उसे सुधारने की जरूरत है । बहुविवाह को सम्भवतः मैं न रोक सकूंगा फिर भी विवाह के विना सम्मिलन को अवैध तो ठहराना ही होगा | तीर्थ प्रवर्तन के बाद मैं यह सब
करूंगा !
उदासीनता का दूसरा कारण यह है कि मैं जानता हूँ कि अमुक जगह रोकने से प्रतिक्रिया ही होगी तब वहां रोकने से क्या फायदा ? अवसर देखकर ही प्रयत्न करना चाहिये । अपनी शक्ति को व्यर्थ खर्च न करना चाहिये और न अपने शब्दों में मोघता आने देना चाहिये । गोशाल मेरी इस नीति को नहीं समझपाता ।
३४ - एक राज्य की आवश्यकता
२३ जिन्नी ६४३५ इतिहास संवत्
कल सन्ध्या को ही मैं चोराक गांव के बाहर आगया था । रातभर तो मैं आराम से सोया, चौथे पहर में खड़ा होकर ध्यान करने लगा । दिनभर के लिये मैंने मौत लेलिया था । मौन से चिन्तन में बड़ा सुभीता होता है, कम से कम गोशाल के साथ बड़बड़ करने से बच जाता हूँ ।
सूर्योदय होने के बाद राज्य के आरक्षक आये और पूछा तुम लोग कौन हो ?
मौन होने से मैं तो चुप रहा, गोशाल बोला- हम लोग परित्राजक साधु है ।
आरक्षक यहां क्यों आये ?
गोशा- हमारी इच्छा हुई सो हम आये, क्या आने की भी मनाई है ?
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महावीर का अन्तस्तुल
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आरक्षक - हां, बाहरवालों की आनेकी मनाई है। इस राज्य के ऊपर पड़ौसी राज्य आक्रमण करनेवाले हैं । तुम लोग उनके गुप्तचर मालूम होते हो ।
गोशाल ने हँसी उड़ाते हुए कहा- अरे वाहरे अन्तर्यामी ! आरक्षक ने उपटकर कहा- हम तुम्हारी सारी हँसी ठिकाने लगा देंगे । बताओ तुम कौन हो ?
आरक्षकों का कठोर स्वर सुनकर गोशाल को भी क्रोध आगया । यह बोला जाओ ! नहीं बताते ।
आरक्षक ने कहा- अच्छा, देखता हूं कैसे नहीं बताते।
यह कहकर सुन लोगों ने मुझे और गोशाल को रस्सी से बाँधा और छाती के पास एक लम्बासा रस्सा बाँधकर कुए में बड़े की तरह लटका दिया। धीरे धीरे पानी में ले गये । गोशाल चिल्लाने लगा, उसकी आवाज से वहां कुछ लोग इकट्ठे होगये | आरक्षक रस्सा ढीला करके हमें दुबाते थे और फिर खींचकर ऊपर उठाते थे । और हर बार पूछते थे कि बताओ तुम कौन हो ?
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दस बारह बार उनने ऐसा किया । इतने में मैंने ऊपर बहुत लोगों की आवाज सुनी, बहुत से लोग आरक्षकों को उलहना देने लगे । जनता के विरोध के भय से आरक्षकों ने हमें कुप में से निकाला इस घोर संकट के समय भी मेरे चेहरे पर मुसकराहट थी । मानों एक तमाशा था. जो होगया। भीड़ में से दो परिवाजिकाओं ने मुझे पहिचान लिया। वे कुछ रोप में आकर आरक्षकों से बोली तुम लोगों ने यह क्या दुष्ट कार्य किया ? ये तो कुंडलपुर के राजकुमार और परम त्यागी वर्द्धमान कुमार हैं जो बड़े सिद्ध पुरुष हैं। जिनने हमारे अस्थिक गांव के शूलपाणि यक्ष को जीतकर भगा दिया था । तुम लोगों ने ऐसे महात्मा को सताकर अपना सर्वनाश कर लिया है ।
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. महावीर का अन्तस्तल
: मेरे राजकुमारपन के कारण और यक्ष-विजय के कारण आरक्षक बहुत डरे और पैरों पर गिरकर क्षमा मांगने लगे। फिर भी मैं शांत मौनी बना रहा । परिवाजिकाओं ने लोगों की अस्थिक गांव की कहानी सुनाई और मैंने वहां चातुर्मास किया था असकी बात भी कही। उनकी बातों से मालूम हुआ कि उनका नाम सोमा और जयन्तिका है, उनका भाई उत्पल ज्योतिष का धन्धा करता है । इसी उत्पल ने शूलपाणि यक्ष के मन्दिर में मेरे स्वप्नों का फल बताया था जिससे लोगों की अनु. रक्ति आर बढ़गई थी।
आज दिनभर में इस घटना पर कई दृष्टियों से विचार करता रहा। एक बात जो वार वार विचार में आई, वह थी एक राज्य की आवश्यकता । आज कल राज्य इतने छोटे छोटे हैं कि दो चार गांव जाते ही दूसरे राज्य की सीमा आजाती है। राज्य की रक्षा के लिये राज्य की सीमा की रखवाली के लिये प्रत्येक राज्य को इतनी शक्ति लगाना पड़ती है कि प्रजा की सेवा के लिये राजा के पास शक्ति सम्पत्ति कुछ नहीं बचती। लोगों को भी यातायात में बड़ी कठिनाई होती है । एक ही दिन की यात्रा में कई बार नये नये राज्यों की सीमाएँ आजाती हैं, प्रत्येक स्थान पर यात्रियों की जांच परख होती हैं, आरक्षकों के द्वारा यात्री तंग किये जाते हैं। इसकी अपेक्षा सारे भरत क्षेत्र में एक चक्रवर्ती का राज्य हो तो लोगों को भी यातायात में सुविधा हो, गांव गांव में परचक्र का भय भी न रहे, सेना और परराज्य से रक्षा आदि का व्यय भी घट जाय और बचीहुई शक्ति सम्पत्ति जनता के हितमें लगाई जा सके।
यद्यपि मेरा कार्य महाराज्यं या साम्राज्य स्थापन करना .. नहीं है फिर भी मैं अपने तीर्थ में इस तरह के विशाल साम्राज्यों का समर्थन अवश्य करूंगा, इसप्रकार की कथाएँ भी वनाऊंगा जिस से सारे भरतक्षेत्र के एक राज्य की व्यावहारिकता पर प्रकाश पड़े।
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३५ शृंगार का प्रवाह
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३७ सत्येशा ६४३६ इ. सं.
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पिछले दस मास में कोई विशेष घटना नहीं हुई । पृष्ठचम्पा नगरी में चौथा चौमासा अच्छी तरह किया । चिन्तन मनन निरीक्षण का काम चलता रहा पर ऐसा मालूम होता है कि अभी इस दिशा में बहुत काम करना है । अनुभवों का संग्रह तो करना ही है । यह सब कार्य होरहा है ।
फल इस कृतमंगल नगर में आया । यह नगर उत्तर की और नया वसता जा रहा है। दक्षिण की तरफ पुरानी वस्ती है। यहां कुछ चेपधारी भिखारी रहते हैं। नगर का यह भाग कभी पर्याप्त सुन्दर रहा होगा। क्योंकि बीचमें जो यक्ष मन्दिर है वह पर्याप्त विशाल दृढ़ और सुन्दर हैं ।
गर्भगृह के आगे की जगह छोड़कर - जिससे दर्शनार्थियों को कोई असुविधा न हो - मैं एक कोने में ठहर गया । शरीर को टिकाने के लिये यह कोना काफी था ।
पहरभर रात निकलने पर कुछ परिवार वहां आये । प्रोढ़ प्रशढ़ाओं, युवक युवतियों तथा वालक वालेकाओं का वहां अच्छा जमघट लगगया। पहिले तो उनने मद्यमान किया फिर नशा आने पर नृत्यगान शुरु किया । स्त्रियों ने भी असमें भागलिया। गीतों में भी और श्रृंगार का मिश्रण था पर चेष्टाओं में 'गार की प्रधानता थी । धर्म के नामपर रात्रि जागरण करने की जी परम्परा है उसके पालन करने के लिये यह सव आयोजन था ।
मेरे लिये यह सब चिन्तन की अच्छी सामग्री थी । मैं नाना दृष्टिकोणोंसे इन सव वातों का चिन्तन करने लगा । जो कुछ अप्रिय या अनिष्ट मालूम हुआ असे सहन करने लगा । पर
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महावीर का अन्तस्तल
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गोशाल को यह सहन न हुआ। वह बोला-ये कैसी निर्लज्ज स्त्रियाँ है जो इस तरह मद्यपान कर नाच करती हैं।
युवतियों के पति, जो कि यौवन के साथ मद्य से भी उन्मत्त थे, गोशाल की बात सुनकर विगडं पड़े । उनने कहा तो कुछ 'नहीं, पर गोशाल की गर्दन पकड़कर मन्दिर के बाहर कर दिया। शिशिर का प्रारम्भ था, पर्याप्त ठण्ड पड़ती थी। गोशाल कांप गया। यहां तक कि उसके कांपने का स्वर मन्दिर के भीतर सनाई पड़ने लगा। तब एक वयस्क व्यक्ति ने द्वार खोलकर उसे भीतर कर लिया । गोशाल चुपचाप एक तरफ बैठ गया । उनका नृत्यगान चलता रहा।
थोड़ी देर बाद नृत्य में एक युवति ने एक युवक की तरफ ऐसी विटत्वपूर्ण चंष्टा की कि गोशाल से चुप'न रहा गया और उसके मुंह से आवेश में निकल गया "धिकार है ऐसी वेश्याओं को"।
. अब की वार गोशाल को दो तीन धपे भी लगे और मन्दिर के बाहर निकाल दिया गया। थोड़ी देर में गोशाल की दंतवीणा का स्वर बहुत बदगया । वयस्क व्यक्तियों को फिर दया आई और गोशाल फिर भीतर ले लिया गया।
सम्भवतः गोशाल चुप ही रहना चाहता था । पर उसमें वचनगुप्ति नहीं थी। कभी कभी वचन को वश में रखने की भी आवश्यकता होती है। आवश्यकतानुसार मन वचन कार्य की प्रवृत्ति भले ही कोजाय पर हममें इतनी शक्ति तो होना ही चाहिये कि अपने मन . वचन और शरीर को अंकुश में रख सकें. अपने संकल्प के अनुसार इन्हें रोक सके। पर गोशाल में इन तीनों गुप्तियों की कमी थी। इसलिये अव की चार मंद्य के उन्माद में और · श्रृंगार के प्रवाह में जब एक युवति
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महावीर का अन्तम्तल
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पर बिगड़ने पापों को क्यों नहाल पीटने को तैयार मारत हो
ने एक युवक का चूमा ले लिया तव गोशाल चिल्ला पड़ा-तुम लोगों को लज्जा नहीं आती कि अपने गुरुजनों के सामने ऐसी पशुता दिखा रही हो । मैं निर्भयता से संच बोलनेवाला आदमी हूं, मुझ पर बिगड़ने से तुम्हारे पाप न धुल जायेंगे, मुझे मारन की अपेक्षा अपने पापों को क्यों नहीं मारते? .
अब की बार युवक उसे पीटने को तैयार होगये ? पर चयस्कों ने उसे बचा लिया। कहा-इस बेचारे को क्यों मारते हो? इसे बकने दो! तुम लोग जोर जोर से वादित्र बजाओ, इसका चकवाद न सुन पड़ेगा।
. अन्तमें यही हुआ। गोशाल बीच बीचमें बड़बड़ाता रहा पर उन लोगों ने ध्यान ही नहीं दिया । सवेरे तक नाचगाकर वें लोग चले गये।
रातभर इसी बात पर विचार आते रहे कि इस तरह का रात्रि जागरण किस काम का ? रात्रि जागरण का अभ्यास हो यह अच्छी बात है, जिससे कभी किसी अवसर पर किसी रोगी की परिचर्या करना पड़े तो कर सकें. किसी संकट में रक्षा के लिये रातभर पहरा देना पड़े तो देसके, दिन में जहां शान्तिपूर्ण एकान्त न मिलता हो वहां रात्रि के शान्तिपूर्ण एकान्त में कुछ चिन्तन मनन कर सत्य का शोध करना हो तो कर सके । इन लोगों को इन कामों में से कुछ भी नहीं करना था तब यह सब किसलिये? देवपूजा के वहाने श्रृंगार का उन्माद चरितार्थ करना था इसीलिये इनने रात्रि नष्ट की।
पर प्रश्न ग्रह है कि श्रृंगार के इस प्रवाह को कैसे रोका जाय ? बिलकुल रोकना तो अशक्य मालुम होता है सम्भवतः उससे विष्फोट होगा धर्मस्थानों को छोड़कर अन्यत्र यह प्रवाह बहाया जायगा। वहां वह आर भी निरंकुश होगा। इसलिये उसे मर्यादित करना ही ठीक है।. .. ..
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महावीर का अ-तम्तल
मर्यादित करने के लिये यह आवश्यक है कि मद्यपान' बिलकुल बन्द किया जाय, क्योंकि जहां मद्यपान आया वहां सारी मर्यादाएँ टूटीं । अपना मान भूलजाना तो सब पापों की जड़ है । इसलिये मद्यनिषेध पर मैं अधिक से अधिक जोर दूंगा । जब मैं अपना तीर्थ बनाऊंगा तब जो लोग तीर्थ प्रचार के लिये साधु साध्वी बनेंगे उनके लिये तो मद्य पूर्ण निषिद्ध रहेगा ही, पर जो गृहस्थ भी मेरी बात के सच्चे श्रोता बनेंगे, श्रावक बनेंगे, अनके लिये भी मद्य निषिद्ध रहेगा क्योंकि इसके बिना किसी भी कार्य में कोई मर्यादा कराई ही नहीं जासकती ।
शृंगार के प्रवाह के बारेमें यह नियम बनाऊंगा कि कामुकता के गांत न गाये जायें, न नृत्य में काम वेष्टाएँ की जायँ । भक्ति और कर्तव्यबोधक गीत ही गाये जायें और गीतों के अनुरूप ही नृत्य चेष्टाएँ हों। इस ढंग से नृत्यगीत की प्यास भी वुझ जायगी और अपेय भी न पीना पड़ेगा ।
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सम्भव है कभी मेरा तीर्थ विशाल रूप धारण करे, जब मैं प्रवचन के लिये किसी नगर में समवशरण करूं तो लोग उसके लिये विशाल मंडप बनायें, गायक नृत्यकार भी वहां आयें, उस समय उन्हें इसी मर्यादा के भीतर नृत्यगान करने दूंगा । नृत्यगान से जविन में कलुपता भी न आने पायगी और उनके रुकने से विष्फोट भी न होने पायगा ।
पर यह सब दूर की बात है । अभी तो मुझे यह सर्व अंधेर चुपचाप देखते रहना पड़ेगा। जब तक अन्य परिस्थितियाँ अनुकूल न होजायें तब तक गाल बजाने से क्या लाभ? पहिले मनुष्य में पात्रता पैदा करना चाहिये । ऐसा वातावरण और प्रभाव पैदा करना चाहिये कि नियन्त्रण से विद्रोह न पैदा हो सके । आज यहां मेरा क्या प्रभाव था, और क्या वातावरण था कि मैं रोकता तो सफल होता ? कदाचित् मेरे बोलने की
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महावीर का अन्तस्नल
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सभ्यरीति के कारण गोशाल वरावर अपमान न होता, पर वे लोग इतना अवश्य कहते " आप अपने ध्यान में तल्लीन रहिये देवार्य, हमारे कार्य में अहंगा न डालिये " और मुझे चुप रहना पड़ता। इसलिये पहिले से ही चुप रहना ठीक है हां ! जब और जहां मेरा प्रभाव बढ़ा होगा, मेरे शब्दों को झेलने के लिये लोग तैयार होंगे, वहां अनेक प्रकार के नियन्त्रण लगाऊंगा तब यह श्रृंगार का प्रवाह भी नियन्त्रित होजायगा ।
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बीभत्स टोटके
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१० मम्मेशी ६४३६ . इतिहास संवत्
आज प्रातःकाल ही श्रावस्ती आगया, पर रहा नगर के बाहर ही । कभी कभी नगर के बाहर ही नगर के ठीक ठीक समाचार मिलते हैं। जो लोग नगर के भीतर भय संकोच आदि के कारण सभ्यता का आवरण डाले रहते हैं वे भी नगर के बाहर आकर खुले होजाते हैं । और तभी अनकी, उनके नगर की सभ्यता का पता लगता है । साथ ही नगर के बाहर रहने में चिन्तन के लिये एकान्त भी मिलता है। इन सव विचारों से मैं बाहर ही रहा । गोशाल नगर देखने चल दिया ।
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मैं एक वृक्ष के नीचे खड़ा था, और वृक्ष की पीड़ की ओट में था। थोड़ी दूर पर कुछ स्त्रियाँ, जो शौच के लिये नगर के बाहर आई थीं, खड़ी खड़ी बात करने लगीं स्त्रियों की चर्चा का पहिला विषय होता है सन्तान । एक बोली-रात को श्रीभद्रा बहिन के बच्चा होनेवाला था, पता नहीं क्या हुआ ?
दूसरी बोली- बेचारी के हरवार बच्चें सरे ही पैदा होते हैं। पांचवार हो चुके हैं, देखें अब की बार क्या होता है ?
तीसरी बोली- पर अब की बार एक ज्योतिषी ने ऐसा टोटका बताया है कि फिर आगे कभी मरे बच्चे पैदा ही न हों ।
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महावीर का अन्तस्तल
पहिली बोली-बता बता, क्या टोटका है ? ..... तीसगे-पर किसी से कहना मत! ..
पहिली-हमें क्या गरज पड़ी कि किसीसे कहने जायें। ऐसी बात क्या किसी से कही जाती है ?
तीसरी-इसीसं तो कहती हूं। ज्योतिषी ने कहा था कि अव की गर अगर मरा बच्चा पैदा हो तो उसका खून मांस नख बाल लेकर तथा उसकी नाक काटकर दूध में मिलाना और फिर उसकी बढ़ियां खीर वनाना, अच्छा और अधिक मधु डालना, तब किसी एक भिक्षुक का खिलादेना जो इस गांव का न हो। इस के बाद घर छोड़ कर दूसरे घर में रहने लगना। . . पहिली-टोटका है तो पक्का, पर है बड़ा कठिन। अपने वेटे का मांस किसी को कैसे खिलाया जायगा और उसके अंग काटकर उसकी ऐसी दुर्दशा अपने हाथसे कैसे की जायगी? -
दूसरी-पर ऐसा किये विना इन मरे बेटों की अक्ल ठिकाने न आयगी। न जाने कहां का बदला लेने के लिये हर वार मर मरकर पदा होते हैं और माता पिता का तन मन धन नष्ट करते हैं। एक बार ऐसी दुर्दशा की कि फिर कभी इस प्रकार मर मर कर पैदा होने का नाम न लेंगे। .
तीसरी-वात विलकुल ठीक है । इसके सिवाय दूसरी राह नहीं है।
तीनों चलीगई । में सोचने लगा कैसे कैसे अन्धाश्वासों ले माह यह जगत् । ये सोचती हैं कि मरा बच्चा अपनी दुर्दशा दखता हागा, समझता होगा, दुर्दशा से डर कर फिर इनके यहाँ पैदा न होने का संकल्प करता होगा और फिर भी मरा बना रहता होगा। केसी अद्भुत सूढ़ता है ! . .
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महावीर का अन्तस्तल
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सम्भवतः यह मूत्रता जन्मसिद्ध है। छोटे बच्चों में यह वृत्ति पाई जाती है कि जब उन्हें कोई लकड़ी या पत्थर लगजाता है तब वे लकी पत्थर को पीटने लगते हैं। वे सोचते हैं कि जैसे हम जानबूझ कर ऊधम करते हैं और मार से डरते हैं उसी प्रकार लकड़ी पत्थर भी डरते होंगे ।
बाल्यावस्था की यह मूढ़ता किसी न किसी रूपमें साधारण मनुष्य में जन्मभर बनी रहती है और ज्योतिषी लोग जनता की इस मूह मनोवृत्ति का उपयोग कर धनधान्य कमाते हैं कैसा भद्दा व्यापार है यह !
पर किस किसको दोष दिया जाय ? बड़े बड़े विद्वान भी अपनी विद्वत्ता वुद्धिमता का उपयोग इसी मार्ग में करते हैं । - इसी आधार पर यहां ब्रह्माद्वैत दर्शन खड़ा होग्या है जो कहता है कि संसार का प्रत्येक पदार्थ प्रत्येक परमाणु तक सूत्र में सचेतन है अर्थात वह अनुभव को की शार्क रखना है । यह बालमनोवृत्ति ही एकान्तवाद के आधार पर विकसित होकर ब्रह्माद्वैन दर्शन नगई। खैर, दार्शनिक क्षेत्र में अनेकान्त दृष्टि से कुत्र नये विचार तो मैं जगत् को दूगा ही, पर सब से अधिक अ श्यक है इस प्रकार के टोन टोटकों को निर्मूल करना । मग्ना क्या है ? मरने के बाद आत्मा किस प्रकार तुरंत दूसरे शरीर में चला जाता है, पुराने शरीर में असका कोई सम्बन्ध नहीं रहता, न मग शरीर कुछ अनुभव करता है आदि वात दुनिया को सिखाना होगी ।
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आत्मा मरने के बाद शरीर के आसपास घूमता रहता है, घर में घूमता रहता है, श्मशान में घूमता रहता है, या अंतरीक्ष में चकराता रहता है या दूसरे शरीर की घाट देखता हुआ यमपुरी में बैठा रहता है, या पितृलोक जाकर अपने वेटों की भेंट खाता रहता है, इस प्रकार के न जाने कितने अन्धविश्वास समाज
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महानार का अन्तस्तल
में फैले हुए हैं, और इन मूढ़तापूर्ण विश्वासों को टिकाये रखने का काम कर रहे हैं चदिक ब्राह्मण, क्योंकि इस बहाने से उन्हें पर्याप्त से अधिक भेट पूजा मिलती है। अपनी इसी भेट पूजा के लिये भोघजीवी बनकर ये लोग जनता को कुमार्गस्थ किये हुए। हैं। मुझे इन अन्धश्रद्धाओं के विरोध में एक पूरी और व्यवस्थित योजना का निर्माण करना पड़ेगा । सुसमें मैं कितना तथ्य रख सागा यह तो बाज नहीं कह सकता पर इसमें सन्देह नहीं कि उसमें सत्य पर्याप्त होगा । जनता की वञ्चना अससे रुकेगी और उससे रुकेंगे और सैकड़ों अनर्थ भी। .
___ इतने में आया गोशाल । बोला-बहुत सुन्दर नगर हैं प्रभु!
मैंने अपेक्षा से कहा-अच्छा।
वह बोला-जब आप आहार के लिये जायेंगे तब देखकर कहेंगे कि मैं ठीक कहता था। .. मैंने कहा-पर मुझे आज आहार नहीं करना है, मेरा उपवास है। . . . . .
. . . गोशाल-पर मुझे तो बड़ी भूख लगी है । मैं तो भिक्षा के लिये जाऊंगा। ... मैंने कहा-अवश्य जाओ ! पर इस बात का ध्यान रखना कि स्वाद के लोभ में कहीं नरमांस न खाजाओ।
गोशाल-ऐसा कैसे होगा प्रभु, मैं उस घर में जाऊंगा ही. महीं. जहां मांस की गन्ध भी आती होगी ।.....
.. मैंने कहा-अच्छी बात है, फिर भी सम्हलकर रहना। - थोड़ी देर बाद गोशाल भिक्षा के लिये नगर की तरफ चलागया । मैं इस टोटके की यात पर विचार करता रहा । रह.
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रह कर यही बयान में आती रही कि आज ये ज्योतिषी लोग अपनी जीविका के लिये जैसे वीभत्स कृत्य कराते हैं, उनका A. ठिकाना नहीं ।
महावीर का अन्तस्तल
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सोचता हूँ किं अगर गोशाल को यह बात मालूम होगी तो वह खूब उपद्रव करेगा, पर उस चालाक ज्योतिपी ने इस यात का ध्यान पहिले से ही रक्खा है। इसलिये उसने कहा था । कि बाहर के साधु को आहार देना, और सम्भवतः बाहर के साधु को भी पता लगजाय तो तुरन्त घर बदलने की बात है । इस प्रकार उपद्रव से बचने की पूरी सतर्कता रक्खी गई है। खेद है कि ये पण्डित लोग पाप कराने में जितने सतर्क रहते हैं उतने सत्य में नहीं रहते । अगर रहत तो उनका भी भला होता और जनता का भी भला होता 1
दो मुहूर्त में गोशाल भोजन करके आगया । भोजन को और भोजन करानेवाली सेठानी की बड़ी प्रशंसा करने लगा | बोला- आज तक न तो इतने आदर से मुझे किसी ने भोजन कराया न इतना स्वादिष्ट भोजन मिला !..
मैंने कहा- खूब स्वादिष्ट खीर खाई है न ? बोला- हां !
मैंने कहा- उसमें खूत्र मधु भी पड़ा था । बोला- हां !
थे।
मैंने कहा- और एलची वगैरह मसाले भी खूब
बोला- जी हां ! बिलकुल ठीक। आप से यह सब किसने कहा ?"
मैंने उसकी बात अनसुनी करके कहा और सेठानी कर नाम श्रीभद्रा था न १
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महावीर का अतितल
गोशाल बोला- नाम तो मैने नहीं पुत्रा, पर इतना मैंने सुना था कि किसी ने उसे श्रीभद्रा नाम से पुकारा था, पर आप से यह सब कहा किसने ?
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मैं- भेरे ज्ञानं ने कहा । मैं पहिले ही जान गया था कि आज तुम नरमांस का भोजन करोगे । अन्ततः वही हुआ । उस खार में नरमांस नररत यहां तक कि नख और बाल तक मिले थे ।
अब तो गोशाल बहुत घबराया। ग्लानिसे थोड़ी देर में उसे उल्टी हाई । उल्टी को उसने ध्यान से देखा तो उसमें बाल और नख के छोटे छोटे टुकड़ दिखाई दिये । वह क्रोध से कांपने लगा और क्रोध में ही नगर की तरफ भागा। तीन मुहूर्त में लीटा। अभी भी उसके चेहरे पर कठोरता के भाव थे । सेठ सेठानी असे नहीं मिले, तब सारे मुहल्ले को हजारों 'गालियाँ देकर और सेठ के घर में आग लगाकर चला आया ।
1
मुझे यह सब सुनाकर गोशाल बड़बड़ाता ही रहा । बोला- आखिर जो होना होता है होकर ही रहता है । नियतिवाद ही सच्चा है ।
३७ - पथिक का उत्तरदायित्व
१२ मम्मे ६४३६ ३. सं.
आने जाने में मनुष्य इतना अनुत्तरदायी है कि वह इस यात कानिक भी ध्यान नहीं रखता कि दूसरों के प्रति भी हमारा कुछ कर्तव्य है । वह अच्छे से मच्छे स्थानपर जायना तो उसे गंदा कर देगा, आग जलायगा तो बिना बुझाये चलदेगा । मनुष्य के भीतर यह पशुता पूरी मात्रा में विद्यमान हैं । गत रात्रिमें इसका बड़ा कबुआ अनुभव मिला ।
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महावीर का अन्तस्त्रल
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. महाग्द्र गांव के बाहर ठहरा हुआ था कि रात्रिके पहिले पहर में वहां एक सार्थ आकर ठहरगया, पिछले पहर ठंड आधिक पड़ने से अन लोगों ने ज ह जगह आग जलाई । और सुर्योदय के पहिले ही आग को जलती छोड़कर चल दिये। मैदान में घास सर जगह था और वह सूत्र गया था इसलिये उप्लके सहारे आग फैलने लगी। जगह जगह आग जलाई गई थी इस. लिय फैलते फैलते वह मेरे चारों तरफ फैल गई । गोशाल चिल्लाया और भाग जाने की प्रेरणा की, पर एक तो ऐसे साधा. ग्ण से संकट से डर कर भागना ठीक नहीं मालूम हुआ, दूसरे भागने का गस्ता बन्द ही होगया था क्योंकि मेरे चारों तरफ आग फेलगई थी, तीसरे जहां मैं खड़ा था उसके चारों तरफ हाथ हाथ तक घाल नहीं था और फिर मैं नग्न था, कपड़ा होता तो आग कपड़े को पकड़कर सुझे सिर तक जला सकती थी, इन सब बातों से में स्थिर रहा । यों भी मृत्युंजय वनने के लिये मेरा दृढ़ रहना ही ठीक था। आग मेरे पास तक आई, ज्वालाओं की
उष्णता मे मेरे पैरों में वेदना हुई पर मैंने उपेक्षा ही की । थोड़ी . देर में आने शान्त होगई। पर मैं इस बात का विचार करने
लगा कि मनुष्य अपनी लापर्वाही से दूसरों का कितना नुकसान कर जाता है । प्रत्येक पथिक का यह उत्तरदायित्व है कि जहां से जाय वहां कोई ऐसा कार्य न कर जाय जिससे पीछे रहने या पीछे आनेवालों को कष्ट हो । देखकर उठाना. देखकर रजा देखकर मल सुत्र निक्षेपण करना आदि प्रत्येक पथिक या प्रत्येक व्यक्ति का आवश्यक और प्रथम कर्तव्य होना चाहिये में अपनी साधु संस्था में इस विषय के नियम अनिवार्य कर दूंगा।
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M
- ३८- श्रमण विरोध .. . . i.:::. ५ जिन्नी ६४३६ इ. सं. __ आजकल श्रमण और ब्राह्मणों का विरोध अत्यग्र होरहा ।
है। ब्राह्मण संस्था जीर्ण होगइ है समाज सेवा का जो कुछ काये वह कर सकती थी कर चुकी । जीविका की दाष्ट से कुछ क्रिया: । 'कांड कराने के सिवाय उसका कोई कार्य नहीं रहगया है। सदा-. : चार सेवा त्याग का कोई कार्यक्रम इनके पास नहीं है, समाज... की दशा को सुधारने की बात भी ये नहीं करते । समाज साधार: : 'णतः रूढ़िका अपासक होता है उसकी इस दुरलता और मूदता. का उपयोग कर ब्राह्मण लोग दिन पूरे कर रहे हैं। श्रमण लोग . क्रान्तिकारी हैं, सुधारक हैं विचारक हैं तपस्वी है त्यागी हैं, एक .. नये संसार का निर्माण करना चाहते हैं। जनता कई भागों में विभक्त है । कुछ तो ब्राह्मण भक्त है, जो कि अन्धश्रद्धा और . रूढ़ियों के चंगुल में फंसी हुई है। कुछ श्रमण भक्त है, जो कि 'सुधारक है जातिवाद के आक्रमण से जो पीड़ित हैं वे लोग भी श्रमणों की तरफ झुक रहें हैं । कुछ लोग दोनों को मानते हैं । पर झुकाव श्रमणों की तरफ बढ़ रहा है।
... ब्राह्मणों में भी ऐस विचारक है जो ब्राह्मणों की दूकानदारी से ऊब गये हैं पर बहुत कम हैं । क्षत्रिया में श्रमणों का प्रभाव आधिक हैं, आधेकतर श्रमण क्षत्रिय ही है फिर भी क्षत्रियों के द्वारा श्रमण संताय जाते हैं । इसका एक कारण यह है कि हर एक राजा अपने गुप्तचर को श्रमण का वेष देता है। गुप्तचरों को श्रमण वेष में कुछ सुभीता होता है पर यह ब्राह्मणों का षड्यंत्र भी है। आजकल राजाओं के यहां मंत्री और पुरोहित अधिकसर ब्राह्मण ही होते हैं, वे श्रमणों को बदनाम करने के लिये भी गुप्तचरों को श्रमण का वेष देते हैं । फल यह हुआ है श्रमण लोग राजयुरूपों के द्वारा अनावश्यक रूप में भी सताये जाते हैं। इस
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बहाने भी ब्राह्मणों के द्वारा श्रमणों का दमन होता है । वैश्य दोनों : के पुजारी है। व स्वर्ग की कामना से ब्राह्मणों की पूजा भी करते हैं और श्रमण के आशीर्वाद में धन तथा सन्तान में वृद्धि की आशा कर श्रमण की भो भात करते हैं ।
. वंश्यों को श्रमण भक्ति का एक लाभ यह भी है कि उनके बारे में शुई का आदर बढ़ जाता है, क्योंकि शूद प्रायः श्रमण-. भक्त है। श्रमग लोग शूदों के सामाजिक आधेकार बढ़ाने का प्रयत्न भी करते हैं। हम श्रमण ब्राह्मण संघर्ष का परिणाम यह हुआ है कि कहीं कहीं श्रमणों को निष्कारण ही सताया जाता है, . नानक तनिक सी बात में अपमान किया जाता है उनकी हँसी. उड़ाई जाती है। .
आज लांगलगांव में आया । यहां एक लांगली का . मन्दिर है उसी में ठहग । यहां बहुत से बालक खेल रहे थे। हम . दानों को देखते. ही बालक हमारी हँसी उड़ाने लगे, तालियों पीट पीट पीटकर चिढ़ाने लगे। निःसन्देह इनके मां वाप-श्रमण विरोधी हैं उन्ही के संस्कार बालकों पर पड़े हैं। गोशाल को यह सहन नं हुआ उसन बालकों को खूब डराया धमकाया। बालक डर कर भागे और अपने बापों को लेआये । उनले पहिले तो गोशाल को मारा, पर गोगाल पिट पिटर भी उनकी निन्दा करतारहा, तब उनने मुझे भी माग । पर मैं बिलकुल मौन और निश्चेष्ट रहा, इससे उनने मुझे कोई शक्तिशाली योगी समझा, तव क्षमा मांग.. कर चले गये। ....... ... ... ... ... . -: श्रमणों को अपनी तपस्या और सहिष्णुता से ही जनता के मन को जीतना है। मैं तो इस मार्ग में अधिक से अधिक आगे .. घदना चाता है। इससे वातावरण श्रमणों के अनुकूल होगा,. श्रमणों की महिमा. बढ़ेगी तब सामाजिक क्रांति का मार्ग सरल होगा। . . .. :
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...
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११ जिन्नी ९४३६ इ. सं.
आज चोराक गांव में आये। यहां कहीं ब्राह्मग भोजन के लिय रसोई न दी थी। गांगाल वहां भिक्षा के लिये गया। तर निष्कारण ही ब्राह्मणों ने उसे पीटा । जब जनता के कुछ लोगों ने विरोध किया तब उनने कहादिया कि यह चोर की तरह छिप छिपकर देखता था इसलिये हमने इसे चोर समझा। यह उनका निपट बहाना था। सूल यात श्रमण विरोध की थी।
पर जनता के कुछ लोगों को ब्राह्मणा का यह बहाना जचा नहीं, इसलिये उनमें से किसी ने गोष्ठी मंडप में चुपचाप आग लगादी, इसलिये मंडप जलाया। १४ जिन्नी ६४३६ इ. सं. . आज कलंधुक ग्राम में आय । यहां मेध और कालहस्ती नामक दो शैलालक भाई रहते थे। इनने हमें चोर समझा और पकड़ लिया। पर मेघ ने पीछे से घहिन्नान लिया। मेध पिताजी के समय में हमारे यहां नौकरी कर चुका था इसलिये पहिचानने पर क्षमा मांगी और हमें छोद दिया। गुप्तचरों को श्रमण वेप देने से ऐसी ही भ्रमपूर्ण दुर्घटनाएं होरही हैं। १० धामा ६४३६ इ.सं.
यह सोचकर मैं लाट देश फी तरफ गया कि देखें तोश्रमण संस्था के विषय में इस तरफ लोगों के क्या विचार हैं। पर यहां मुझे निराश होना पड़ा। यहां सब के सब आदमी श्रमण-विरोधी हैं।
लाट देश में प्रवेश करते ही यहां के लोग मुंडा मुंडा भिखमंगा कहकर नाक सिकोड़ने लगे, फोह पत्थर मारने लगे, ऊपर कुत्ते छोड़ने लगे, कोई चिहाने लगे, कोइ विदूषक की
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तरई नकल करने लगे, गाली देना तो बहुत साधारण बात थी। । चार दिन में एकाध वार कहीं भिक्षा में संखा सुखा मिलता था, नहीं तो कोई भिक्षा भी न देता था। . ........"
. गोशाल इन बातों से बहुत घबराया । असो अनुरोध से मुये लाट देश से लौटना पड़ा। कहीं कहीं मेरे शांत व्यवहार से लोगों पर कुछ असर पड़ा होगा, फिर भी अभी यह भूमि श्रमणों के योग्य नहीं है । सम्भवतः लोकोत्तर महर्धिकता के बिना यहां कुछ कार्य नहीं हो सकता। - अस्तु; एक नई जनता.का अनुभव हुआ यही सन्तोय है ।
१६ धामा ९४३२ इ. सं.
आसमान में मेघ छाने लगे थे, बिजली चमकने लगी थी इसलिये लाट देश के बाहर ही कहीं चातुर्मास बिताने के लिये हम लोग लौट रहे थे। इधर से दो आदमी जो डकैत मालूम होते ये लाट देश में घुस रहे थे। इतने में अंतरीक्ष से दोनों पर बिजली गिरो और दोनों मर गये। उन दोनों के हाथ में खुली नंगी तल. वारें थी. सम्भवतः उसी के कारण अनपर विजली पड़ी। लोहे के ऊपर बिजली अधिकतर गिरती है। . . !: :.!
। गोशाल बोला-ये लोग भी श्रमण विरोधी थे और अपने को मारने आरहे थे इसलिये इन्द्र ने वज्र फेंककर दोनों को" समाप्त कर दिया।
में मन ही मन मुसकराया । ऐसे ऐसे घोर संकटो में इन्द्र की नींद खुलती नहीं, आज ही अचानक खुलगई। पर मैंने कहा कुछ नहीं। अच्छा हुमा बेचारे गोशाल के मन को सान्त्वना होगई।
१७ धनी ९४३६ इ. सं. महिलपुर में पांचयाँ चौमासा पूरा किया। यहां मी
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श्रमणों के विरुद्ध वातावरण था । प्रारम्भ के कुछ दिनों तक तो भिक्षा नहीं मिलती थी। बाद में मेरी निस्पत्ता शान्ति आदि देखकर श्रमणों के बारे में लोगों के विचार बदलने लगे, भिक्षा मिलने लगी फिर भी अनी वातावरण को पूरी तरह अनुकूल होने में समय लगेगा।
२८ धनी ९४३६६.सं.
आज कदलीग्राम आया। यहां भी श्रमण विरोधी वाता. वरण था। गोशाल भोजन करने गया तो लोगों ने उसे भोजन तो दिया पर खादाड़ आदि कहकर काफी गलियाँ भी दी। भोजन के लिये गोशाल यह सब सहगया, पर मैं तो भिक्षा लेने गया ही नहीं । सम्भव है मेरे भिक्षा न लेने से यहां के लोग समझ जाय कि श्रमण खादाड़ नहीं होते।
१० चन्नी ६४३६ इ.सं.
बीच के गांव में मैंने भोजन लिया था। पर आज जंवू गांव में आया तो यहां भोजन नहीं लिया। यहां के लोगों ने भिक्षुकों के लिये सदावत खोल रक्खा है। किसी के यहां जाओ तो वे लोग निक्षा न देकर असे सदावत में भेज देते हैं। यहां जो कर्मचारी रक्ख गये हैं वे अपमान तिरस्कार करते हुए मिक्षकों को भोजन करात है। गोशाल ने यह सब सहकर भोजन कर लिया। गोशाल से ही मालूम हुआ कि साधारण भिक्षुक से श्रमण को आधिक गालिया मिलती हैं, इसालेये भी मैं नहीं गया।
___ बिना भोजन किये बिहार करते समय में सदावत के सामने से ही निकला । मुझे आते देखकर पहिले तो कर्मचारियों ने नाक मुँह सिकोड़ा, पर जब मैंने मिक्षा. नहीं ली तब उनने पुकारा । पर मैं अपनी गति से आगे बढ़ता ही गया । गोशाल ने कहा-तुम लोग श्रमणों का तिरस्कार करते हो, असभ्य हो,
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तुम्हारे यहां प्रभु भिक्षा न लेंगे। तब वे लोग क्षमा मांगकर भोजन के लिये आग्रह करने लगे ! पर मैंने मिक्षा नहीं ली।
मैं अपने तर्थि में साधुओं के लिये नियम कर दूंगा। कि कोई भी साधु सदाव्रत में भोजन न ले ।
मेरे सदावत में भोजन न लेने से श्रमणों के बारे में इस गांव का वातावरण अच्छा ही हुआ।
६-सत्येशा ९४३७ इ. सं.
तुम्बाक गांव में आया यहां एक मर्मभेदी समाचार सना। पार्श्वनाथ की सम्प्रदाय के मुनिचन्द्राचाय नामक श्रमण को रातमें आरक्षका ने मार डाला | सुनते हैं ब्राह्मणों की इनपर वहुन दिनों से तीखी दृष्टि थी । आरक्षकों को उनने षड्यंत्र में शामिल किया . और तब उतने रातमें चोर के बहाने उन्हें मार डाला । पर श्रमणों के बारेमें इसका परिणाम अच्छा ही हुआ । इस निरपराध हत्या से सारा गांव श्रमणभक्त बनगया। मुनि की अंत्येष्टि क्रिया में सारा गांव शामिल हुआ और वातावरण ब्राह्मणों के प्रतिकूल और श्रमणों के अनुकूल होगया। मैंने भी पार्खापत्यों क त्याग आदि के बारे में लोगों से चर्चा की और श्रमणों की प्रशंसा की।
१९-सत्येशा ६४३७ इ. सं
कपिका ग्राम में हम दोनों को आरक्षकों ने खूब सताया। इतने में दो परिव्राजिकाएँ वहां से निकली । उनने देखा कि दो श्रमण सताये जारहे है। मेरी निर्भयता निश्चलता देखकर उनपर बहुत असर पड़ा और उनने मेरी वन्दना की। आरक्षकों को डर लगा कि सम्भवतः लोकमत उनके विरुद्ध होजायगा इसलिये उनने हमें छोड़ दिया।
पर इन संकटों को देखकर गोशाल घबरा गया। इसलिये जब मैं विशालापुरी की तरफ जा रहा था तब एकत्रिक पर
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महावीर का अन्तस्तल
पहुंचने पर गोशाल ने मेरे साथ आने से इनकार कर दिया बोला-आपके साथ रहने से मुझे बहुत संकटों में पड़ना पड़ता है।
मैंने कहा-जैसी तुम्हारी इच्छा। .: गोशाल अलग होगया । श्रमण ब्राह्मण संघर्ष के कष्ट उसे अपह्य होगये थे। पर वह नहीं जानता कि यही तो सत्य-विजय . का माग है।
३९ - दुःख निमन्त्रण हेय . २४ सत्येशा ९४३७ इतिहास संवत्
मनुष्य में दुश्व सहने की शक्ति होना चाहिये, जिसमें कष्ट सहिष्णुता नहीं है वह तपस्वी नहीं बन सकता, और न पूरी . तरह लोकहित के कार्य में लगसकता है। पर जो लोग जानबूझ कर दुःख को निमन्त्रण देते हैं वे ठीक नहीं करते। वे समझते हैं कि दुख सहन से ही तप होजायगा दुःख सहने की अपने जीवन के लिये या लोकहित के लिये क्या उपयोगिता है इसका विचार नहीं करते। कई लोग चारों तरफ अंगीठी जलाकर उष्णता सहने का प्रदर्शन करते हैं, कोई ठंडे से ठंडे जल में नहाकर ठंडी हवा में बैठते है। जो लोग प्रदर्शन के लिये यह सब करते हैं चे तो दम्भी वंचक हैं पर जो लोग दुःख को ही धर्म समझकर दुःख सहते है और दुःख को निमन्त्रण देकर धर्म होने का भ्रम करते हैं वे भी मिथ्यात्वी हैं। इन वाहगे तों से न तो मात्मा का उद्धार होसकता है न लोकहित होसकता है। असली . तप तो भीतरी तप हैं। अपने दोषों को देखना दूसरों की सेवा करना चिन्तन मनन करना आदि भीतरी तप हैं | बाहर्ग तपों की सार्थकता भीतरी तपों की प्राप्ति में है.। कोरे बाहरी तप किसी काम के नहीं। बल्कि कमी कभी वे वदा अनर्थ कर जाते हैं।
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गत रात्रि की बात है । मैं एक ट्रेवरी के नीचे ध्यान लगा कर बैठा था । टेकरी के ऊपरी भाग में एक ऐसा वृक्ष था जो आडा होकर मेरे सिर पर, फैला हुआ था । रात्रि के पिछले पहर एक तापसी वहां आई। उनके बड़े बड़े, जंटा थे, वल्कल सुसने पहिन सक्खे थे। निकट के कुंड में उसने स्नान किया और टेकरी पर चढ़कर सुस वृक्ष पर चढ़ी और उसकी ऊपरी शाखाओं को पकड़कर नीची शाखाओं पर खड़ी होगई तीन वेग से ठंडी हवा चल रही थी, और वह ठंड के मारे कांप रही थी, दतवाणा बजा रही थी। इस प्रकार के घोर कष्ट सहने से असीम धर्म होजायगा ऐसी असकी समझ थी, पर उसके इस प्रयत्न झा फल था दूसरों को घोर कष्ट, जिससे कि पाप होरही था।
- तापसी टीक मेरे सिर पर थी। उसके वल्कलों में से जटाओं में से पानी की बूंदें गिर कर मेरे ऊपर पड़ती थीं। उधर ठंडी बूंद और ठंडी हवा, इधर नग्नशरीर, इससे पर्याप्त शीत वेदना होरही थी। . यह बात दूसरी है कि उन्नु वेदना ने मेरे मनको स्पर्श नहीं कर पाया । प्रारम्भ में कुछ क्षण तो मुझे वेदना हुई, पीछे में अपनी गुत्थी सुलझाने में लगगया । इसलिये सधेरे तक पता ही न लगा कि शरीर पर क्या बीतरही है।
. इस ध्यान का परिणाम यह हुआ कि मेरी गुत्थी सुलझ गई । वहुत दिनों से मैं इस विचार में था कि जगत के आकार के विषय में निर्णय क । क्योंकि जगत् के आकार का निर्णय किये बिना यात्मवाद पर विश्वास कराना कठिन है, और यात्मघाद पर विश्वास कराये विना ऐहिक-फल-निरपेक्ष धर्म कराना कठिन है। इसलिये लोक का ज्ञान आवश्यक है जिससे स्वर्ग नरकं आदि की व्यवस्था बनाई जासके ।
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इस विषय में बहुत सी मान्यताएँ प्रचलित हैं । कोई कोई लोग लोक को ब्रह्मांड कहते हैं, ब्रह्मका अण्ड । इस तरह उनकी हाट में जगत् अंडे के आकार का बना हुआ है । पर अण्डे. में ऊचलोक क्या, मध्य लोक क्या और अधोलोक क्या ? यह सब बताना कठिन है। और भी लोगों की नाना कल्पनाएं हैं। पर उससे मन को सन्तोष नहीं मिलता। मैं विचारते विचारते इस निश्चय पर पहुँचा हूं कि लोक पुरुषाकार है। कटि के स्थान पर यह मध्यलोक है, ऊपर ऊर्ध्व लोक, नीचे पाताल लोक । अपने मनमें मैंने इस बात का भी चित्र तैयार कर लिया है कि स्वर्ग आदि कहां है नरक कहां है असुर आदि देव कहां रहते हैं । इस प्रकार एक बड़ी गुत्थी सुलझ गई है। इस विचार में में इतना लीन हुआ कि तापसी के शीत विन्दु मेरे शरीर में कैसी घेदना पैदा कर रहे हैं इसका भी मुझे भान न हुआ मैं तो लोकावधि ज्ञान पाने में लीन था और वह मैंने पालिया : लोक की अवधिका निश्चय होगया।
जब प्रातःकाल हुआ तब वह तापसी नीचे उतरी, टेकरी से नीचे उतरते समय उसकी दृष्टि मुझ पर पड़ी। वह चौंकी। झाड़ पर जहां वह खड़ी थी ठीक उसी के नीचे मुझे ध्यान लगाये देखकर उसे पश्चात्ताप होने लगा। उसने आकर मुझे प्रणाम किया, क्षमा मांगी।
मेरी इच्छा तो हुई कि उसे समझाऊँ कि इस प्रकार दुःख को निमन्त्रण देने से क्या लाभ ? तुझे विवेकपूर्वक यत्न के साथ सार्थक कष्ट सहन करना चाहिये, या कभी आकस्मिक कष्ट आजाये तो उसे सहना चाहिये । इस तरह दुःखों को जानबूझकर निमन्त्रण क्यों देती है ! पर मेर। यह उपदेश अप. देश न होता उलहना होता, क्योंकि उसके व्यवहार से मुझे कष्ट हुआ था। उपदेश में अपने स्वार्थ की जरा भी छाया न हो
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तभी उनका अप्लर होता है, उस विचार से मैने कुछ नहीं कहा । वह तीन बार प्रणाम कर चलीगई।
____ अब मुझे तपस्याओं के बारेमें कुछ ठीक ठीक निर्णय करना है जनमेवक को कष्ट सहना तो आवश्यक है पर अनावश्यक कष्टों को निमन्त्रण देना मूढ़ता है, दु:ग्व से धर्म होजायगा यह मिथ्यात्व है । तपों के भेद प्रभेद करके में इस विषय को पर्याप्त रूपमें स्पष्ट करदूंगा।
२० ~ स्वघातक विद्वेष अंका ६४३७ ई. सं.
ग्रामानुग्राम भ्रमण करता हुआ में कल संध्या को विशाला नगरी में आपहुंचा । एक लुहार की शाला में बहुन से मनुष्य कार्य कर रहे थे उनकी अनुमति लेकर मैं झुस विशाल शाला के एक कोने में ठहर गया । रात्रिभर वहीं रहा। आज उपवास होने से पोरनी का समय होने पर भी मैं भिक्षा लेने के लिये नहीं गया। वहीं बैठा रहा!
भृत्य लोग काम करने लगे और कल की अपेक्षा व्यवस्थित रूपमें काम करने लगे। ज्ञात हुआ कि आज छः महीने के बाद इस शाला का स्वामी शाला में आनेवाला है। अभी तक वह छः माह से बीमार था । बीमारी चली गई है, केवल निर्बलता है। परिजनों के कंधों पर हाथ रखकर वह शाला का निरीक्षण करेगा इसलिये सभी भृत्य सतर्कता से कार्य कर रहे हैं।
मैं सोचने लगा । मनुष्य और पशु में यही अन्तर है। पशु शक्ति से प्रेरित होकर भय से कार्य करता है, मनुष्य कर्तव्य से प्रेरित होकर निर्भयता से कार्य करता है। परं बहुत कम भृत्य या दास इस मनुष्यता को सुरक्षित रख पाते हैं। वे पशु के समान भय प्रेरित होकर काम करते हैं । मैं इन सब विचारों में
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लीन बैठा था कि लुहार की आवाज मेरे कानों में पड़ी। वह चिल्ला रहा था- इस नंगे को यहां किसने बुलाया ? छः महीने में तो मैं यहां आया और आते ही अपशकुन की मूर्त्ति एक श्रमण दिख पड़ा | निकालो इसको यहां से !
मेरी विचारधारा टूटी। सब लोग चुप रहे | किसीको साहस न हुआ कि मुझे निकाले । लुहार इससे और भी उत्तेजित हुआ और उत्तेजित होकर वह स्वयं ही मुझे निकालने को आगे बढ़ा | 'सिर तोड़ दूंगा तेरा' - कहता हुआ क्रोध में घन उठाकर दौड़ा | पर बेचारा बहुत निर्बल था इसलिये उसका तन मन क्रोधावेग को न सह सका और घन लिये हुए ही लड़खड़ाकर गिर पड़ा और मूच्छित होगया । लड़खड़ाने में उसके हाथ का न उसी के सिर पर पड़ा जिससे उसका सिर फट गया । थोड़ी देर में उसकी मूर्च्छा अनंत मूर्च्छा बनगई । उसके जीव ने शरीर छोड़ दिया । उसका श्रमण-विद्वेष उसका ही घातक सिद्ध हुआ । मुझे इस बात का खेद हुआ कि मेरे निमित्त से उसकी मौत हुई, यद्यपि इसमें मेरा तनिक भी अपराध न था ।
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मैंने देखा कि लुहार के मरने पर भृत्यों और दासों के मनमें कोई खेद नहीं था बल्कि उसके लड़खड़ाकर गिरते ही कोई कोई तो मुसकराने लगे थे। इससे मुझे यह समझने में देर न लगी कि भृत्य और दास श्रमण-भक्त हैं। यों तो जाति व्यवस्था की दृष्टि से लुहार को भी श्रवणभक होना चाहिये पर महर्द्धिक होने से इसे ब्राह्मणों का आशीर्वाद मिलता मालूम होता है । जीविका-लोभी ब्राह्मण-वर्ग अर्थ-लाम की दृष्टि से शुद्ध को भी सन्मान दे देते हैं । और पीढ़ियों से दबा हुआ शूद्र इतने में ही सन्तुष्ट होजाता है कि दूसरे शूद्रों से मैं अधिक सम्मानित हूँ । जाति-पांति का उच्च-नीचता का भूत, शूत्रों के मन में भी अली,
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महावीर का अन्तस्तल
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तरह घुसा हुआ हैं जिस तरह अन्य वर्गों के मनमें। वे भी एक दूसरे को नांचा समझने की धुन में रहते हैं । और किसी भीःअवसर पर अपने ही लोगों से उच्च कहलाने का अवसर नहीं चूकते। इसी कारण यह लुहार ब्राह्मणभक्त और उग्र श्रमणविद्वेषी वनगया था जिसके कारण आज असने अपना जीवन खोया ।
४१ - यक्षपुजारी की श्रमणभक्ति
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१० घामा ९४३६ ई. सं.
गांव गांव घूमता हुआ आज म ग्रामक गांव आया यहां एक यक्षमन्दिर है । इस यक्ष का नाम है विभेलिक, इसलिये जहां यक्षमन्दिर है उस उद्यान का नाम है विभेलिकोद्यान | उद्यान अच्छा है, ग्रीष्म ऋतु में भी इसमें हरियाली दिखाई देती है । पर इस अधान से जो ठंडक मिली अससे सौगुनी ठंडक मिली इस उद्यान के यक्षमन्दिर के पुजारी से है तो यह ब्राह्मण, पर बड़ा विचारक और श्रमण-भक्त मालूम हुआ ।
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जब मैं पहुंचा तब दिन का तीसरा प्रहर बीत चुका था । पर्याप्त उष्णता थी उष्णता और यात्रा के कारण मैं कुछ थक सा गया था। एक अशोक वृक्ष के नीचे एक शिलापटटू पर मैं विश्राम करने लगा। थोड़ी देर में यह आया और प्रणाम करके सामने बैठ गया। पाईले तो परिचय वार्ता हुई, फिर समाजके अन्धविश्वासों रूढ़ियों, मानव की सामाजिक घोर विषमताओं आदि पर चर्चा होने लगी ।
अन्त बोला- जीविका के लिये मैं पुजारी का धंधा करता हूँ पर ऐसा ज्ञात होता है कि में मोघजीवी हूँ । यक्षपूजा एक आतंक पूजा है आदर्शपूजा नहीं । ब्राह्मण लोग इस क्रियाकांड को जीविका के लिये सुरक्षित रक्खे हुए हैं ।
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महावीर का अन्तस्तल
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मैंने कहा- सचमुच यक्षपूजा हेय है फिर भी यज्ञकांडों बरावर हेय और घृणित नहीं। श्रमणों का यह ध्येय है कि वे जनता को इस जंजाल से छुड़ायँगे, और उसके स्थान पर आदर्श व्यक्तियों की पूजा चलायंगे, जिससे जीवन में कुछ सीखने को मिले । जीवन में कुछ सुधारकता उत्पन्न हो ।
पुजारी- मैं बहुत श्रमणभक्त हूँ भगवन् ! मैं- सो तो तुम्हारी बातों से स्पष्ट मालूम होता है।
पुजारी- मैं क्रिया से भी श्रमणभक्ति का परिचय देना चाहता हूँ भगवन् ! - मैं मुसकराकर बोला-जिसमें तुम्हें आनन्द हो वही करो।
इसके बाद उसने मेरी खूब पगचम्पी की, शरीर पर .. लेप किया, अच्छे जल से शरीर साफ किया। और नाना तरह के सुगन्धित पुष्पों से द्रोण भरकर मेरे चारों तरफ रख दिये।
फूलों का तो मेरे लिये कोई उपयोग नहीं था क्योंकि वे केवल इन्द्रियों की खुराक थे पर पगचंपी आदि से थकावट दूर हुई और शरीर कुछ अधिक सक्षम बना।
पर शारीरिक सेवा से अधिक हुई मानसिक सेवा । इस पुजारी की भक्ति से ब्राह्मणों के विषय में मेरा दृष्टिकोण ही बदल गया। इसमें सन्देह नहीं कि ब्राह्मण ही आज श्रमणों के उग्र विरोधी हैं। मुझे जो कष्ट सहना पड़े हैं उसमें ब्राह्मणों का प्रच्छन्न हाथ बहुत है । फिर भी ब्राह्मण एक महाशक्ति हैं। इनके पास मस्तिष्क है और पीढ़ियों से यह मस्तिष्क संस्कृत होरहा है। यह ठीक है कि रूदिभक्ति के कारण असकी उर्वरता नष्ट होगई है फिर भी उस शक्ति का उपयोग करना आवश्यक है। अगर यह पुजारी ब्राह्मण होकर भी श्रमणभक बन सकता है तो
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अच्छे अच्छे विद्वान भी श्रमणभक्त क्यों नहीं बन सकते ? अगर उनका सहयोग मुझे मिल जाय तो मैं अपने ज्ञान का प्रकाश चारों ओर अच्छी तरह फैला सकता हूँ 1 चन्दन का वृक्ष अपने में सुगन्ध पैदा कर सकता है पर झुसे फैलाने का काम तो वायु का ही है। ये ब्राह्मण वायु का कार्य कर सकते हैं । इनके पिता मेरा कार्य अधूरा ही रहेगा । अस्तु ! अभी तो मुझे और भी तपस्या करना है, अन्तिम ज्ञान प्राप्त करना है, श्रमण-विरोधी वातावरण को दूर हटाते हुए भ्रमण करना है, लोगों के हृदय पर अपनी तपस्या की छाप मारना है, इसके बाद जब मैं नये धर्मतीर्थ की स्थापना करूंगा तव सब से पहिले ऐसे विद्वान् ब्राह्मणों की खोज करूंगा जो मेरी इस सुगंध को फैलाये ।
आज की घटना का स्मरण मेरे हृदय में अल्लास भर रहा है। इतना ही नहीं, वह अशोक वृक्ष भी मेरे उल्लास का एक प्रतीक वन वेठा है।
५२- जीवसमास और अहिंसा ६धनी ९४३७ इ. सं.
इस भद्रकापुरी में मैंने अपना छट्टा चातुर्मास निरुपद्रव रीति से पूरा किया। श्रमणों के बारे में इस पुरी के लोगों के परिणाम बड़े भद्र है और मेरे यहां रहने से, मेरी निस्पृहता देखकर श्रमणों के विषय में इनके मनमें भक्ति पैदा होगई है।
यहीं मैंने अपनी ज्ञानसाधना का एक बड़ा भारी काम पूरा किया है, और वह है जीवसमासों का निर्माण । चातुर्मास में मैंने कीड़ों मकोड़ों पतंगों आदि का पर्याप्त निरीक्षण किया है। और इस बात का निश्चय किया कि किस जीव के. कितनी इन्द्रियाँ हैं । यह मैंने देखा कि चलते फिरते इन प्राणियों में दो
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इन्द्रियाँ तो प्रत्येक के हैं । एक तो स्पर्श का ज्ञान दूसरे स्वाद. का ज्ञान । माड़ों में मुझे स्वाद का ज्ञान नहीं मालूम हुआ फिर भी स्पर्श का ज्ञान अवश्य है । स्पर्शन इन्द्रिय एक मूल और व्यापक इन्द्रिय है जो हरएक प्राणी के पाई जाती है । पर लट वगैरह के गन्ध का ज्ञान नहीं दिखाई दिया, इसलिये इन्हें द्वीन्द्रिय ठहराया। चिन्टियाँ जिस तरह अन्धेरे में चलती हैं उससे मालूम होता है कि इन्हें अँधेरा उजेला एक सरीखा है पर . गंधज्ञान इनका बहुत तीव्र है । इसलिये इन्हें तीन इन्द्रिय, पतंग आदि को चार इन्द्रिय कहना चाहिये ।
. एक तरह से यह अच्छा ही हुआ कि चौमासे के प्रारम्भ में ही गोशाल लौट आया था। छः महीना इधर उधर भटककर ' और लोगों के द्वारा काफी सताया जानेपर वह फिर आगया। मैं समझता हूँ कि वह टिकेगा नहीं, क्योंकि इसकी दृष्टि लोगों . से विशेषतः अशिक्षित लोगों से पूजा वसूल करने की है। वह अवसर ढुंद रहा है कि गमारों का परमगुरु बनजाऊं। अच्छे हों या बुरे, पक्के हों या कच्चे, जहां जहां में जाऊं वहां वहां गवारों की भीड़ जरूर पहुँचे । सम्भवतः वह यह भी सोचता है कि जव गमारों की भीड़ मेरे पीछे होजायगी तव गमारों की भीड़ से अपना स्वार्थ सिद्ध करने वाले कुछ शिक्षित लोग भी मेरा मुँह ताकने लगेंगे । वह समाज को सुधारना नहीं चाहता; केवल बातों से, संगीत से, नृत्य में लोगों को रिझाकर आकर्षण का ..पूजा का सुख लूटना चाहता है । इस चातुर्मास में झुसकी इस मनोवृत्ति का सूक्ष्म परिचय मिला है। पर कभी न कभी यह पल्लवित होगी। ... पर हो ! इसके लिये मैं क्या करूं ? ऐसे लोग पूरी सफ.लता तो पा नहीं सकते, केवल क्षेत्र को वश में कर पाते हैं पर काल को नहीं । ये कुछ समय के लिए बरसाती नालों की तरह
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[ १६३ सर्वत्र शब्दायमान होजाते हैं पर कुछ दिनों बाद वहां मुखे । पत्थर ही दृष्टि पड़ते हैं, अस्तु गोशाल की मुझे चिन्ता नहीं है। जब तक उसे मेरे साथ रहना हो, रहे । जब जाना हो जाये । इस चातुर्मास में तो सुसका कुछ उपयोग भी होगया । जब में यह जानना चाहता था किसी प्राणी पर शब्द का प्रभाव पड़ता है या नहीं तब उसकी परीक्षा के लिये चिल्लाने का काम गोशाल ही करता था।
वह भिक्षा में कभी कभी भोजन ले आता था असे कीड़ियों में विखेरकर भी उनकी परीक्षा के काम में मुझे सहायता करता था। इस तरह इस चातुर्मास में पर्याप्त प्राणिपरीक्षा की है । और मैंने संसार के सब प्राणियों को एकेन्द्रिय द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय पंचेन्द्रिय इसप्रकार पांच भागों में विभक्त कर लिया है।
पर मेरा यह प्राणिविज्ञान प्राणिशास्त्र की दृष्टि से नहीं है किन्तु धर्मशास्त्र की दृष्टि से है । संसार को सुखी करना और यथासम्भव अधिक से अधिक अहिंसा का पालन करना मेरा ध्येय है। और यह ध्येय केवल ध्यान का ही विषय नहीं है किन्तु व्यवहार का भी विषय है । इसलिये यह देखना पड़ता है कि हिंसा में तम्तमता किस प्रकार है । यो-तो जीवमय संसार में स्वास लेने में भी जीव मरते हैं, कृषिमें, शाकभाजी खाने में भी जीव मरते हैं पर इस हिंसा में और पशु पक्षियों को या कीड़ों मकोड़ों को मार कर खाने की हिंसा में अन्तर है । इस अन्तर को दिखलाये विना अहिंसा को व्यावहारिक नहीं बनाया जासकता।
- इसीलिये मैने श्रेणीविभाग किया है । और जिस प्राणी में जितना अधिक चैतन्य है जितनी अधिक समझदारी है उसकी हत्या में उतना ही अधिक पाप है ऐसा निश्चय किया है। इस
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१६४ ].
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प्रकार एकेन्द्रिय की अपेक्षा द्वीन्द्रिय आदि में आधिक पाप है। .
पर इस प्रकार का विचार करते समय मुझे पंचेन्द्रिय प्राणियों को दो भागों में विभक्त करना पड़ा है । कुछ प्राणी तो । ऐसे हैं जो मनुष्य के भावों को समझ सकते हैं। मनुष्य उन्हें सिखा सकता है, अपनी भाषा के संकेत समझा सकता है, वे मनुष्य के चेहरे को पढ़ सकते हैं, मनुष्य की अच्छी वुरी चेष्टाओं को या स्वर को पहिचान सकते हैं उससे प्रेम या वैर कर सकते है, इस प्रकार मनुष्य के साथ किसी न किसी तरह के कौटुम्बिक सम्बन्ध रखने की योग्यता रखते हैं। उनकी हिंसा करने में बहुत पाप है, और उनकी हिंसा में कम पार है जो ऐसी योग्यता नहीं रखते, भले ही उनके पांचों इन्द्रियाँ हो ।
अनुभव से मैंने जाना है कि जिनके पांच से कम इन्द्रियाँ हैं उनमें इस प्रकार समझदारी, जिससे वे मनुष्य से सामाजिकता स्थापित कर सके, नहीं होती। इसलिये मनप्य की दृष्टि से वे असंज्ञी ही कहलाये। इस प्रकार चतुरिन्द्रिय तक सवको असंज्ञी, पंचेन्द्रिय में कुछ को असंही ठहराया है। इससे हिंसा अहिंसा के निर्णय करने में, हिंसा की तरतमता जानने में सुभीता होगा। - कुछ दर्शन ऐसे हैं जो मानते हैं कि प्रत्येक जीव के साथ मन होता है, यह बात ठीक है । वैसा मन कीड़ी मकौड़ियों में भी होता है, वे अपने पक्ष की और दूसरे पक्ष की कीड़ियों को पहिचानती हैं, लड़ती है, सहयोग करती हैं, संग्रह करती है, घर बनाती है परस्पर में सुनमें पूरी सामाजिकता होती है, इसलिये उन्हें मन तो है, फिर भी मैं उन्हें समनस्क नहीं कहना चाहता क्योंकि प्राणिमात्र के जो भावमन या तुच्छ मन है उससे किसी को समनस्क कहना व्यर्थ है, उससे हिंसा अहिंसा की तरतमता
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नहीं बताई जासकती। इससे कीड़ी की हत्या और पशुपक्षी की हत्या एक ही श्रेणी की बनजाती है इससे लोग अहिंसा को अव्यवहार्य मानकर टाल देते हैं।
हिंसा अहिंसा का विचार मनुष्य को करना है 1 किस जीव की हिंसा से उसके परिणामों परं न्यूनाधिक प्रभाव पड़ता हैं इसका विचार करते समय मनुष्य की सामाजिकता विचारणीय है । इसलिये संज्ञी असंज्ञी या समनस्क असमनस्क का विचार करते समय मैंने मनुष्य की अपेक्षा से निर्णय किया है । कीड़ी कीड़ी के लिये समनस्क होसकती है पर मनुप्य के लिये वह अमनस्क ही है । इसलिये मनुष्य कीड़ों को बचाने के लिये जितना प्रयत्न करता है उतना ही प्रयत्न पशुपक्षियों को बचाने के लिये करे यह ठीक नहीं, इसलिये समनस्क अमनस्क भेद ठीक ही है। इस प्रकार आज मैंने एकेन्द्रिय, दोइन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय,संज्ञी पंचेन्द्रिय इसप्रकार छः भागों में जीवों का समास किया, इससे हिंसा आहिंसा की यवहार्यता में बड़ी सुविधा होगी। अब यह स्पष्ट विधान बनाया जासकता है कि एकोन्द्रिय की हिंसा तो अनिवार्य है पर दो इन्द्रिय आदि की हिंसा रोकना चाहिये और संज्ञी पंचेन्द्रिय की हिंसा का बचाव सत्र से अधिक करना चाहिये । गोशाल को भी मने यह बात समझा दी है।
१ चिंगा ९४३७ इ. सं.
गोशाल में चपलता बहुत है और लड़कपन सरीखा उन्माद भी। आज जब वह मेरे साथ आरहा था तब वन में उसने वहत सी वनस्पति का नाश किया। चलते चलते किसी झाड़ की शाखा तोड़ देना, कोई पौधा उखाई देना, किसी को कुचल देना. इस प्रकार कुछ न कुछ उपद्रव करते चलना उसका स्वभाव सा बन गया था । यह सब देखकर मैंने कहा-गोशाल
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वेचारे झाड़ों को व्यर्थ कष्ट क्यों दे रहे हो?
. गोशाल बोला-झाड़ तो एकेन्द्रिय है भगधन्, उनके विषय में हिंसा अहिंसा का क्या विचार ?
. . मैं- चलते फिरते त्रस जीवों के बराबर विचार भले ही न किया जाय पर विचार तो करना ही चाहिये। :::
गोशाल-तब तो स्वास लेने का भी विचार करना पड़ेगा।
मैं-स्वारू लेने का विचार नहीं किया जासकता क्योंकि उसमें वे सूक्ष्म प्राणी मरते हैं जिन्हें हम देख नहीं सकते हैं। पर झाड़ तो स्थूल प्राणी है सूक्ष्म और स्थूलों की हिंसा में बहुत अंतर है । सूक्ष्म प्राणियों की हिंसा के विषय में संयम पाला नहीं जासकता पर स्थूल प्राणियों की हिंसा के विषय में संयम , पाला जासकता है। - इसके बाद गोशाल चुप होगया और फिर उसने निरर्थक उपद्रव नहीं किया। - इसके बाद जब मैं ध्यान लगाने बैठा तब मैंने तय किया कि जीवलमास छः के स्थान पर सात कर देना चाहिये । सुक्ष्म एकेन्द्रिय. स्थूल एकेन्द्रिय, दोइन्द्रिय, तीनइन्द्रिय, चारइन्द्रिय, असंज्ञपिंचेन्द्रिय, संज्ञीपंचेन्द्रिय । सूक्ष्म एकेन्द्रिय की हिंसा अनिवार्य है, स्थूल एकेन्द्रिय की हिंसा निरर्थक न .. करना चाहिये, वाकी त्रस जीवों की हिंसा उनके निरपराध होने पर जान बूझकर कदापि न करना चाहिये । छः की अपेक्षा सात श्रीवसमास मानने से अहिंसा के सूक्ष्म विचार और उनकी व्यवहार्यता का अच्छा समन्वय होता है ।
२८-मस्मेशी ९४३८ इ. सं. गत छः वर्षों के भ्रमण और तप का इतना प्रभाव तो
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हुआ है कि श्रमण विरोधी वातावरण बहुत कुछ शांत होगया है । यही कारण है कि इधर दस ग्यारह माह से मेरे ऊपर कोई अपसर्ग नहीं हुआ । और अब लोग मेरा आदर एक राजपुत्र के नाते नहीं किन्तु एक श्रमण के नाते करने लगे हैं । यद्यपि अभी मैं तीर्थकर नहीं बन पाया हूँ फिर भी लोग मरी बातों का थोड़ा बहुत पालन करने लगे हैं । और पालन न करने पर पश्चात्ताप भी करने लगे हैं ।
आज शालिशीर्ष गांव का भद्रक नामका युवक मेरे पास आया और हाथ जोड़कर बोला- भगवन् मैंने आपके सामने मांस खाने का निश्चय प्रगट किया था पर विवशता के कारण मैं उस निश्चय पर दृढ़ न रह सका ।
मैं- ऐसी क्या विवशता थी भद्रक ! शालिशीर्ष ग्राम में शालि दुर्लभ होजाय और मांस सुलभ होजाय ऐसा तो हो नहीं
सकता ।
भद्रक- सो तो नहीं हो सकता, पर बीमारी में वैद्य ने कहा तुम अगर अंडा न खाओगे तो तुम्हारी रक्तहीनता दूर न होगी । इसलिये मैं अंडा खाने लगा और जब अंडा खाने लगा तब मुर्गी भी खाने लगा !
*मैं - शाकाहार से भी रक्तवृद्धि होसकती थी भद्रक । यह एक कुसंस्कार है कि मांस के बिना रक्तवृद्धि नहीं हो सकती । गाय महिष अश्व, हरिण आदि जानवर पूर्ण शाकाहारी हैं पर इनमें रक्त की कमी नहीं होती तब मनुष्य को ही उस आपत्ति का सामना क्यों करना पड़ेगा ? अस्तु, अंडा लेलिया सो लेलिया, यद्यपि सका लेना भी हिंसा है, त्याज्य है, पर उसके लेने से तुम मुर्गी क्यों लेने लगे ?
भद्रक - मुर्गी और मुर्गी का अंडा एक ही बात है
भगवन् !
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.
.... .........
मैं- एक ही बात अवश्य है फिर भी हिंसा में बहुत अन्तर है। मुर्गी को मारने पर जितनी उसे वेदना होती है उतनी अंडे को नहीं। क्योंकि अंडे का चैतन्य उतना जाग्रत नहीं हुआ है। जब तक अंगोपांग नहीं बनते तब तक चैतन्य पूरा प्रगट नहीं होता इसलिये सुख दुःख संवेदन भी कम होता है । तदनुसार घातक के भावों पर भी प्रभाव पड़ता है । यद्यपि उचित तो यही है कि तुम न मुर्गी खाओ, न अंडा खाओ, मांस विरत को दोनों का त्याग उचित है पर अगर कभी अंडा खालिया तो इससे मुर्गी भी खालेना चाहिये, यह विचार मिथ्या है।
इसके बाद भद्रक ने दृढ़ प्रतिज्ञा ली कि न मैं कभी मुर्गी खाऊंगा न अंडा।
उसके जाने पर ध्यान लगाने पर मैं सोचने लगा कि जीवस- . मास वर्णन में मुर्गी और अंडे के बीच में कुछ भेद बताना जरूरी है। किसी प्राणी की एक वह अवस्था जिसमें झुलके अंगोपांगों का निर्माण नहीं हुआ है यहां तक कि उनके कोई चिन्ह भी प्रगट नहीं हुए है, दूसरी वह अवस्था जिसमें अंगोपांग वनजाने से वह प्राणी के आकार में आगया है, पर्याप्त अन्तर है। यद्यपि प्राणी दोनों हैं फिर भी जब तक अंगोपांग बनने नहीं लगते तव तक प्राणीपन पर्याप्त नहीं है इसलिये उन्हें अपर्याप्त करना चाहिये, वाद में पर्याप्त । इस प्रकार सात प्रकार के प्राणियों के दो दो भेद होगये | सात पर्याप्त, सात अपर्याप्त | अपर्याप्त की अपेक्षा पर्याप्त के घात में हिंसा बहुत आधिक है। इस प्रकार चौदह जीवसमासों के बनने से हिंसा अहिंसा का विचार और भी अधिक व्यवस्थित और व्यवहार्य बनगया है।
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४३ - विरोध और सभ्यता
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१८ चिंगा ६४३८
आलभिका नगरी में मेरा सातवां चातुर्मास बहुत अच्छी तरह व्यतीत हुआ यहां भी कोई अपसर्ग नहीं हुआ । श्रमण विरोधी वातावरण अब काफी शान्त होगया है । नये तीर्थ की स्थापना की भीतरी भूमिका तो बन ही रही है पर बाहरी भूमिका भी वन रही है ।
चातुर्मास समाप्त कर मैं कुंडक ग्राम आया। यहां एक कामदेव का मन्दिर है । जीवन में काम पुरुषार्थ को भी एक स्थान तो है पर इस तरह काम की मूर्ति बनाकर उसके आगे वीभत्स नृत्य करना ठीक नहीं। मेरे विचार से तो आदर्श गुणों के और आदर्श मनुष्यों के ही मन्दिर बनाना चाहिये । और उनकी उपासना का तरीका भी ऐसा योग्य होना चाहिये जिससे जीवन पर कुछ अच्छा प्रभाव पढ़े । मन्दिरों की, उपासना का और उपासना के ध्येय का जो वर्तमान रूप है उसे मैं पसन्द नहीं करता ।
गोशाल को मेरे इन विचारों का परिचय हैं । इसलिये जब मैं विशाल मन्दिर के एक एकान्त भाग में ठहर गया और ध्यान में लीन होगया तब गोशाल ने एक उपद्रव खड़ा कर दिया । ये काम मन्दिर मुझे पसन्द नहीं हैं इसलिये झुंसने मूर्त्ति का भयंकर अपमान किया । मूर्ति के आगे खड़ा होकर उसे पुरुष चिन्ह बताने लगा । यह विरोध नहीं अलभ्यता की सीमा श्री । इसका परिणाम भी बहुत बुरा हुआ ।
1
थोड़ी देर में मन्दिर का पुजारी आया और झुसने गोशाल की यह कुचेष्टा देखली । श्रमणों की निन्दा करने का यह बड़ा अच्छा अवसर था इसका उसने पूरा उपयोग किया । वह चुपचाप जाकर पड़ौस के लोगों को वुलालाया और चुपचाप
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गोशाल की कुचेष्टा बतलादी । लोगों ने यह दृश्य देखा तो श्रमणों का धिक्कार करने लगे और वालकों ने तो गोशाल को खूब मारा भी । कुछ लोग श्रमणों से सहानुभूति रखते थे उनने गोशाल को छुड़ाया तो जरूर, पर उनकी मुखाकृति से मालूम होता था कि उनके मनमें भी श्रमणों से घृणा सी पैदा हो रही है ।
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सभ्यता और शिष्टाचार भूलने का यह स्वाभाविक परि णाम था | इस घटना से उस गांव का वातावरण इतना श्रमणविरोधी होगया कि हम फिर उस गांव में ठहर न सके। खैर ! मेरा तो उपवास था पर भूखे गोशाल का चिहरा भूख से जितना उतर गया उतना मार और अपमान से भी नहीं उतरा था । इस दुर्घटना से गोशाल को कुछ सभ्यता का पाठ तो पढ़ना चाहिये पर ऐसा नहीं मालूम होता कि वह सभ्यता का पाठ पढ़ेगा ।
२७ चिंगा ६४३८
आज मर्दन ग्राम में आया और बलदेव के मन्दिर में ठहरा । कुंडक ग्राम की तरह गोशाल ने यहां भी बलदेव की मूर्त्ति का अपमान किया । और ग्रामवासियों ने मार-पीट की। कुंडक ग्राम की दुर्घटना से कुछ पाठ सीखने की अपेक्षा गोशाल मैं प्रतिक्रिया ही अधिक हुई। अब वह देवमूर्तियों के साथ साधारण ग्रामवासियों का उग्र विरोधी और अकारण द्वेषी होगया है । अब वह अकारण ही इनका अपमान करने को लालायित रहता है ।
पर मुझे उसकी यह बात बिलकुल पसन्द नहीं । क्योंकि इस तरीके से लोग कुदेव पूजा तो छोड़ेंगे नहीं, उल्टे श्रमण विरोधी बनकर श्रमणों की बात सुनना अस्वीकार कर देंगे । धार्मिक और सामाजिक क्रांन्ति के पथ में यह एक बड़ी भारी चाधा होगी ।
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__ महावीर का अन्तस्तल
६.१७१
इस घटना से खिन्न होकर मैने तुरंत मर्दन ग्राम भी . छोड़ दिया । सोचा कि इसकी अपेक्षा तो वन में ठहरना अच्छा। इसलिय में शालवन की तरफ चला । वन में पहुंचकर मैंने गोशाल से कहा-गोशाल, ऐसा नहीं ज्ञात होता कि तुम्हें मेरे निकट रहने से कुछ लाभ होगा। ___ गोशाल सिर नीचा करके चुप रहा ।
मैंने कहा-देखो गोशाल, किसी के ऊपर किसी भी तरह का झुपदेश लादने का मेरा स्वभाव नहीं है । मैं तो चाहता है कि मेरे निकट में रहने वाले मेरी प्रकृति तथा व्यवहार से ही कर्तव्य को समझकर स्वयं प्रेरित होकर कार्य करें ! कुंडक ग्राम में जो दुर्घटना हुई, मैं समझता था उससे तुम सभ्यता का पाठ सीख जाओगे पर तुम्हारे प्रतिक्रियावादी स्वभाव ने तुम्हे ज्ञानी. की अपेक्षा अज्ञानी ही अधिक वनाया। जब तुम इतनी सी बात स्वयं नहीं सीख सकते तब मैं तुम्हें कुछ भी नहीं सिखा सकंगा। तुम सोच नहीं पा रहे हो कि तुम्हारे इन असभ्यतापूर्ण कार्यों से मेरे मार्ग में कैसी बाधा उपस्थित होरही है, जिस क्रांति के लिये मैंने जीवन लगाया है उसके मार्ग में कैसे रोड़े अटक रहे हैं।
__गोशाल ने कहा-तो भगवन् आपने मुझे पहिले ही क्यों न रोक दिया, मैं ऐसा कार्य फिर न करता। .
मैंने कहा-क्या अब भी शब्दों से रोकने की जरूरत थी गोशाल, स्वयं प्रेरितता मनुष्यता का चिन्ह है और पर प्रेरितता पदाता का चिन्ह है । थोड़ी बहुत यह मनुप्यता और थोड़ी बहुत यह पशुता हर एक में रहती है, पर ऐसी दुर्घटना होने पर भी और इस प्रकार तुरंत ही गांव छोड़ देने पर भी अगर तुम कुछ न सीख सको तो यह पशुता का अतिरेक ही कहलायगा।
गोशाल-क्षमा करें भगवन् ! मैं समझता था कि आप
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१७२]
महावीर का अन्तस्तल . कुदेव पूजा के विरोधी हैं इसलिये कुदेवों का जो मैं अपमान्त करता हूँ उससे आप सहमत होंगे।
मैं-पर ऐसे बीभत्स तरीके से कुदेव पूजा का विरोध करना विष्ठा से कपड़े का मैल धोना है। तुम्हारी यह बीभत्स असभ्यता तो कुदेव पूजा से भी बुरी है। विरोध में भी संभ्यता की मर्यादा न छोड़ना चाहिये। - गोशाल-तो अब मैं ऐसी असभ्यता का प्रदर्शन न करूंगा।
४४- मल्लि अहंत १२ वुधी ९४३९ इतिहास संवत
शालवन में रहनेवाली एक भिल्लनी ने खूब गालिया दी। मालूम नहीं उसे आयर्यों से ही चिढ़ थी, या श्रमणों से चिढ़ थी, या मेरे नग्न वेष से चिढ़ थी, पर बिना किसी स्पष्ट कारण के वह दिनभर गालियाँ देती रही। बीच बीच में दो चार बार तो उसने कंकड़ भी मारे जब वह थक गई तब मैं वहां से चला आया।
मार्ग में जितशत्रु राजा की सीमा में प्रवेश करने पर शत्रु का गुप्तचर समझकर जितशत्रु के मनुष्यों ने पकड़ लिया और राजा के सामने उपस्थित किया। वहां किसी ने मुझे पहिचान लिया। जितशत्रु को जब मेरा परिचय मिला तब सुसने क्षमा मांगी।
वहां से विहार कर मैं कल ही इस पुरिमताल नगर में आया हूँ। और इस मल्लि देवी के मन्दिर में ठहरा हूँ। यक्षों के मन्दिर बहुत देखे, कामदेव आदि के मन्दिरों में भी ठहरा पर इस मन्दिर सरीखा शान्त वातावरण कहीं नहीं पाया।
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[१७३
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___ यहां मल्लिदेवी की मूर्ति है । मल्लिदेवीं की जो कथा सुनी - उससे बहुत प्रसन्नता हुई । वह एक राजकुमारी थी। पर अपने
हंग की अलग । साधारणतः राजकुमारियों की चर्चा का विषय होता है शृंगार और विवाह । कली खिलते न खिलते उनपर भोरे गुनगुनाने लगते हैं और उनका सारा ध्यान सुसी गुनगुना. हट में चला जाता है । पर मल्लिदेवी बिल्कुल अद्भुत थी। उनका सारा समय तत्वचर्चा और ज्ञान से जाता था । संसार की सेवा करना और क्रान्ति मचाना पुरुषों का ही काम नहीं है स्त्रियों का भी काम है. मल्लिदेवी के हृदय में सेवा की यही महत्वाकांक्षा जागती थी । और इसी के अनुसार उनने काम किया।
चार राजकुमार उनके साथ शादी करना चाहते थे चारों ही मल्लिदेवी के लिये प्राण देने को तैयार थे किन्तु मल्लिदेवी ने उन्हें अपना शिष्य बनाकर छोड़ा । उनने एक अपनी ही सुन्दर मूर्ति बनवाई जो भीतर से पोली थी। और जिसके सिर पर ढक्कन था । उस मूर्ति के भतिर उनने सुगंधित पुष्प, रस आदि भर दिये जो कि कुछ दिन में भरे भरे वहीं सड़ गये और अनसे दुर्गध आने लगी ! जब तक ढक्कन बंद रहता तब तक दुर्गन्ध दबी रहती और जव ढक्कन खोल दिया जाता तब दुर्गन्ध कमरे में फैल जाती।
इतनी तैयारी करने के बाद, उनने चारों राजकुमारों को। विवाह के विषय में चर्चा करने के लिये बुलवाया । आते ही पहिले उनने उसे मूर्ति को देखा। मूर्ति के सौदय से वे बहुत प्रभावित हुए पर ज्यों ही वह मूर्ति के पास आने लगे त्यों ही मल्लिदेवी ने उसका ढक्कन खोल दिया । ढक्कन खुलते ही मूर्ति से ऐसी दुर्गन्ध निकली कि राजकुमारों ने अपनी नाक दवा ली और कुछ हट गये । मल्लिदेवी ने जरा मुस्कराते हुए पूछा 'मूर्ति के इतने अच्छे सौंदर्य से आप लोग पीछे क्यों हट रहे हैं।
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......
राजकुमारों ने कहा-' जिस सौंदर्य में ऐसी दुर्गन्ध भरी हो उस सौंदर्य के पास कैसे जाया जा सकता है।'
मल्लिदेवी बोली-तो क्या आप समझते हैं कि मल्लि की मूर्ति के भीतर ही दुर्गन्ध है मल्लि के शरीर के भीतर दुर्गन्ध नहीं है ? मूर्ति तो पवित्र धातु की है जबकि यह शरीर हाइ, मांस, खुन आदि अपवित्र धातुओं से बना है । शरीर के भीतर जैसी चीजें डाली जाती हैं उससे भी अधिक सुगन्धित चीजें इस मूर्ति के भीतर डाली गयी है । फिर भी जब आप लोग मूर्ति के सौंदर्य से दूर भागते हैं तव इस मल्लि के सौंदर्य से चिपटने की कोशिश क्यों करते हैं ? यह तो मूर्ति से भी अधिक दुगंधित और अपवित्र है।
मालदेवी की चतुराई काम कर गयी । राजकुमार । अत्यन्त लज्जित हुए और उनने मल्लि के चरणों पर सिर झुका दिया। इसके बाद मल्लि ने गृहत्याग किया, धार्मिक और सामाजिक सुधार के लिये प्रयत्न किया और इन चारों राजकुमारों ने उनके सहयोगी या शिष्य वनकर उनका साथ दिया । और वह इतनी लोक पूज्य हुई कि आज मैं उनका यह मन्दिर बना हुआ देखता हूँ।
.. नारियों को तीर्थ-प्रचार के कार्य में लगाने के लिये मल्लिदेवीका उदाहरण एक अच्छा नमूना है। नारियों में उत्साह
भरने के लिये मैं अपने तीर्थ में मल्लिदेवी की कथा को अच्छा . स्थान दूंगा। नर और नारी दोनों ही आत्मोत्कर्ष के क्षेत्र में ऊंचे
से ऊंचे जासकते हैं इसका यह सुन्दर उदाहरण होगा और यक्ष
मन्दिरों की अपेक्षा इस प्रकार के आदर्श व्यक्तियों के मन्दिर . जनता के लिये हजार गुणे कल्याणकारी होंगे । यक्ष मन्दिरों में
जो आतंक पूजा का दोष है वह इनमें नहीं होगा।
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मल्लिदेवी की कथा से मुझे एक विशेष बात और मिली कि शरीर की अशुचिता की भावना तुच्छ स्वार्थों को हटाने के लिये काफी अपयोगी होती है । वैराग्य को पैदा करने में और उसे टिकाये रखने में यह बहुत सहायक है । सोचता हूँ इस प्रकार की कुछ भावनाएँ और बनाऊंगा जो संसार के और विषय भोगों के मोह से मनुष्य को बचाकर रख सकें । यह ठीक है कि भावना किसी वस्तु के एक अंग को ही बतलाती है उसके आधार पर तत्व-ज्ञान या दर्शन सरीखी गम्भीर चर्चा नहीं दी जासकती, वह बुद्धि को प्रभावित भी नहीं कर सकती, किन्तु मन को प्रभावित अवश्य कर सकती है और उनके आधार से जीवन की दिशा भी बदली जासकती है ।
अस्तु ! यह अशुचि भावना तो है ही, पर एक दिन विचार कर और भी कुछ भावनाएँ निश्चित करूंगा और उसका एक व्यवस्थित पाठ बनाऊंगा ।
अभी अभी मेरे मन में यह विचार भी उठा हैं कि मल्लि देवी को मैं अपने तीर्थ में कोई खास स्थान हूँ । यद्यपि अभी निश्चय तो नहीं है फिर भी ऐसा ज्ञात होता है कि मैं जिस तीर्थ की स्थापना करूंगा उसे अनादि या बहुत प्राचीन तो सिद्ध करना ही होगा, क्योंकि इस के बिना यह भोला जगत असकी सचाई पर विश्वास ही न करेगा । वह तो यही कहेगा कि तुम्हारे तीर्थ की हमें क्या जरूरत है ? झुसके बिना अगर हमारे पुरखों का उदार हो गया तो हमारा भी हो जायगा और अगर यह कह कि मेरे तीर्थ के बिना आज तक किसी का उद्धार नहीं हुआ तब तो लोग मुझे पागल समझकर इतने जोर से हँसेंगे कि उस हँसी के प्रवाह में मेरा. तथिं ही उड़ जायगा । इसलिये सोचता हूँ कि मुझे अपने तीर्थ का संस्थापक बनना ठीक नहीं, जीर्णोद्धारक बनना ठीक होगा और इस प्रकार अनादि से अनन्त काल तक
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जीर्णोद्धारकों की श्रेणीका एक सिद्धान्त बनाना होगा और उससे मैं अपने को एक जीर्णोद्धारक मानूंगा और उन जीर्णोद्धारकों में मल्लिदेवी का भी एक नाम होगा। इससे एक पंथ कई काज होंगे। तीर्थ की प्राचीनता की छाप जनता पर जल्दी लग जायगी, तथि के प्रचार में सुभीता होगा, क्योंकि मल्लिदेवी की ऐतिहासिकता और पूज्यता को लोग मानते हैं । इधर मल्लिदेवी को एक तीर्थकर मान लेने से नारियों में भी आत्मविश्वास आत्मगौरव की भावना बढ़ेगी, और साथ ही तीर्थ प्रचार के कार्य में या धार्मिक और सामाजिक क्रांति. में नारियों से सहयोग भी मिलेगा।
आज इस मल्लि-मन्दिर में ठहरने से मुझे बहुत ही ज्ञानसामग्री मिली है । भविष्य में इस का बहुत उपयोग होगा।
४५-सत्य और तथ्य २४ वुधी ६४३९ इ. सं.
गोशाल स्वभाव से बहुत अथला है इसीलिये उसका विनोद भी उथला होता है। आज जब मैं उष्णाक ग्राम की तरफ जारहा था, तब रास्ते में वर वधू का एक जोड़ा मिला। साथ में वाराती लोग भी थे। इसमें सन्देह नहीं कि दोनों बहुत कुरूप थे। पर इसमें अब घर वधू का क्या वश था । लेकिन गोशाल ने उनकी हँसी उड़ानी शुरु की | 'क्या लंगूर कैसी शक्ल है !
इस प्रकार बार वार हँसी उड़ाई, तब वारातियों को . . क्रोध आगया और वे गोशाल को बांधकर एक बांस विड़े के पास डालने लगे।
- मैं तटस्थ ही रहा । गोशाल का अपराध स्पष्ट था । फिर भी मैं यह सोचता खड़ा रहा कि इस घटना का अंत होजाय फिर गोशाल मेरे साथ चलने लगे।
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मुझे खड़ा देखकर मेरे लिहाज से उनने गोशाल को छोड़ दिया । गोशाल मेरे साथ आगया । पर मन ही मन वह भनभनाता रहा। अपनी दुष्कृति का दुष्परिणाम देखकर उसे पश्चात्ताप होना चाहिये था पर गोशाल के चेहरे से ऐसा नहीं मालूम हुआ । सम्भवतः असमें प्रतिक्रिया होरही थी । थोड़ी देर बाद उस प्रतिक्रिया का परिचय भी मिला ।
आगे चलने पर एक गोचर भूमि मिली। जहां बहुत से ग्वाले गायें चरा रहे थे । गोशाल भन्नाया हुआ तो था ही, ग्वालों को उपटता हुआ बोला- अरे, ओ वीभत्स म्लेच्छो, जानवरों के साथियो ! बोलो यह मार्ग कहां जाता है ?
ग्वालने कहा- किस तरह बोलता है रे साधुड़ा ! गाली क्यों बकता है ?
गोशाल ने कहा- अरे दासीपुत्रा, सच बोलने से बिगड़ते क्यों हो ? क्या तुम बीभत्स नहीं हो, क्या जानवरों के साथ नहीं रहते ? तब सच बोलने में गाली क्या हुई ?
ग्वालों ने उसकी बात का उत्तर न दिया । कुछ तरुण ग्वाल लट्ठ लेकर उसकी तरफ दौड़े, पर कुछ वयस्क ग्वालों ने वचालिया ।
आगे बढ़ने पर मैंने गोशाल से कहा- भाई, तुम सत्य का रूप नहीं समझते ।
गोशाल तो क्या मैंने झूठ कहा था ? क्या वे सब जानवर के साथी नहीं थे ? बीभत्स नहीं थे ?
मैं थे, फिर भी तुम्हारा कहना उसे कहते हैं जिससे अपनी और दुनिया तुम्हारे इस बोलने से न तो दुनिया की भलाई हुई । तथ्य होने से ही सत्य नहीं
सत्य नहीं था । सत्य की भलाई हो । परन्तु भलाई हुई न तुम्हारी होजाता, वह हितकर
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भी होना चाहिये ! हितकर होनेपर अतथ्य भी सत्य होजाता है । और अहितकर होन पर तथ्य भी असत्य होजाता है ।
गोशाल चुप रहा ।
मैंने सोचा कि जब मैं आत्मविकास की श्रेणियाँ या गुणस्थान निश्चित करूंगा तब इस बात का ध्यान रक्खूंगा । अतथ्य तो जीवन के अन्त तक रहे पर असत्य का त्याग जल्दी होना चाहिये ।
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४६ - पांचव्रत
२२ मुंका ६४३६ इतिहास संवत्
राजगृह नगर में मेरा अठवां चातुर्मास पूरा हुआ । राजगृह बहुत समृद्ध नगर है । नगर की ऊपरी चमक भी देखी और भीतरी कालिमा भी एक तरफ अटूट सम्पत्ति है तो दूसरी तरफ दयनीय अभाव । ऐसा मालूम होता है कि सम्पत्ति एक तरफ सिमिटकर इकट्ठी होगई है और दूसरी तरफ सूखा सा पड़गया है । अगर यह सिमिटी हुई सम्पत्ति वटजाय तो अभावग्रस्त लोगों को इसप्रकार दयनीय अवस्था का अनुभव न करना पड़े | इसलिये यह आवश्यक मालूम होता है कि अपरिग्रह पर पूरा जोर दिया जाय | आज तक साधुओं के लिये अपरिग्रह पर जोर दिया जाता रहा है । वास्तव में वह उचित है । पर केवल इतने से ही समाज की आर्थिक समस्या हल नहीं होसकती । जब तक गृहस्थ भी इस विषय का पालन न करेंगे तब तक केवल साधुओं के पालन से काम नहीं चल सकता | इससे मैंने तय किया है कि साधुओं के लिये जो व्रत बनाये जायँ उनका आंशिक पालन गृहस्थों के लिये भी आवश्यक ठहराया जाय । साधुओं का व्रत महाव्रत हो तो गृहस्थों का व्रत अणुव्रत, पर व्रत हो अवश्य । अपरिग्रह महाव्रत और अपरिग्रह अणुव्रत इस प्रकार व्रत की दो श्रेणियाँ होना चाहिये ।
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इस चातुर्मास में व्रतों के बार में काफी विचार किया। और मुख्य रतों की संख्या भी नियत कर दी । तय किया कि पांच रत मानना चाहिये । अहिंसा तो मुख्य है ही । सत्यवचन और अचौर्य भी आवश्यक है । साथ ही एक ब्रह्मचर्य व्रत भी अवश्य मानना चाहिये । यद्यपि ब्राह्मणों ने भी संन्यासी को ब्रह्मचर्य आवश्यक माना है पर उनका ब्रह्मचर्य साधना नहीं है, अत्यन्त वृद्धावस्था में होने के कारण उपयोगिताशून्य और यत्नशून्य है। . मैं ब्रह्मचर्य को लोकसाधना का अंग बनाना चाहता हूं। ब्रह्मचर्य केवल ब्रह्मचर्य के लिये ही न हो, किन्तु वह धर्मप्रचार का विशेष साधक हो । इसलिये मैं सिर्फ वृद्धों को ब्रह्मचारी नहीं बनाना चाहता हूं किन्तु उन तरुणों को भी ब्रह्मचारी वनाना चाहता हूं जो साम्प्रदायिक क्रांति और धर्म संस्थापना में जीवन दे सकते हैं । ब्रह्मचर्य के बिना यह कार्य कठिन है। क्योंकि सपत्नीक व्यक्ति धर्म प्रचार के लिये विहार नहीं कर सकता। साथ ही कुटुम्ब बढ़जाने से जीविका की समस्या भी विकट होजाती है।
निःसन्देह वानप्रस्थावस्था में सपत्नीक रहकर भी मनुष्य कुछ काम कर सकता है पर उसमें भी अड़चनें हैं । आजकल सपत्नीक रहकर मनुष्य विहार नहीं कर सकता, दूसरे वानप्रस्थ अवस्था में क्रांति के मार्ग में आने वाली कठिनाइयों को झेलना कठिन होता है।
. आजकल कुछ श्रमण सम्प्रदाय भी ऐसे हैं जो ब्रह्मचर्य को महत्व नहीं देते, वे चातुर्मास को ही मानते हैं पर इसका परिणाम यह हुआ है कि वे कुछ भी नहीं कर पा रहे हैं। मुझे तो एक क्रांति करना है उसके लिये ऐसे साधु सेवक चाहिये जो युवक हों, कर्मठ हो, और ब्रह्मचारी हों। इन सब बातों का
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विचार कर ब्रह्मचर्य को भी एक आवश्यक रत मानलिया है। इसका अणु रूप होगा यह कि गृही मनुष्य व्यभिचार से। मुक्त रहे।
इसप्रकार आहंसा सत्य अचौर्य ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये पांच मूलरत मानना उचित है। साधुओं के लिये इन्हें महारत कहना होगा और गृहस्थों के लिये अणुब्रत ! अन्य सब उपरत इन्हीं पांच व्रतों के सहायक होंगे।
. . ४७-बाईस परिषह ११ धनी ९४४. ई. सं. .
एक वार फिर म्लेच्छ देशों में भ्रमण करके वहां के अनुभव प्राप्त करने का प्रयत्न किया । इसलिये वज्रभूमि, शुद्ध भूमि और लाट देशों में घूमा। पर ऐसा मालूम हुआ कि अभी यह भूमि धर्म प्रचार के योग्य नहीं है। यहां के लोग घोर हिंसक, अकारण द्वेषी और निर्दय हैं । यह सोचकर मैंने यहां अपना नवमा चातुर्मास भी बिताया कि सम्भव है मेरी तपस्या का इनपर कुछ प्रभाव पड़े। पर कुछ भी प्रभाव न पड़ा। यहां के लोग मेरे पीछे कुत्ते छोड़ देते थे, कभी पत्थर मारते थे। गालियाँ देना तो मामूली बात थी । गोशाल तो काफी उद्विग्न होगया । सम्भवतः वह चला जाता, पर इस लज्जा के कारण नहीं गया कि एक बार जाकर असे लौटना पड़ा था।
मैंने इस चातुर्मास में इसी बात का हिसाब लगाया कि कितनी तरह की बाधाएँ साधुको जीतना चाहिये । अधिकांश वाधाएँ तो मेरे जीवन में ही भोगने में आगई और मैंने उन्हें जीता, कुछ निकट सम्पर्क में आये हुए लोगों में देखने को मिली। मैं समझता हूं कि अगर मनुष्य इन्हें जीतने की शक्ति न रक्खें तो आजकल जनसेवा के मार्ग में आगे बढ़ना, और पूरी तरह
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साधुता का पालन करना कठिन है । होसकता है कि इन कष्टों को जीतने का अवसर हरएक को न मिले, परन्तु अगर मिले तो इन्हें जीतने की शक्ति अवश्य होना चाहिये । वास्तव में इन्हें जीतने में शारीरिक शक्ति की इतनी आवश्यकता नहीं है जितनी नानसिक शक्ति की । मन अगर चलवान हो तो ये बाधाएँ या परिप सहज ही जीती जासकती हैं । मन अगर वलवान न हो, संयमी और तपस्वी न हो, तो शरीर में सहनशक्ति अधिक होने पर भी इन्हें जीता नहीं जासकता । परिहों को जीतने में शारीरिक असमर्थता का इतना विचार नहीं करना है जितना मानसिक असमर्थता ओर असयंम का ।
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भूख प्यास और ठण्ड गर्मी ये चार परिपहें तो स्पष्ट हैं । मैंने इनपर पर्याप्त विजय पाली है । उपवासों का तो मुझे काफी अभ्यास है और इससे मेरे आत्मगौरव की और संयम की काफी रक्षा हुई है । ऐसे अवसर आये हैं जब अगर मैं भिक्षा लेता तो बड़ा अपमानित होना पड़ता और श्रमणों के विषय में लोगों की हीन भावना होजाती । पर उस अवसर पर मेरे उपवासों ने उस दीनता से मुझे बचाया. इससे श्रमणों का गौरव बढ़ा जो भविष्य में सत्यप्रचार में बहुत सहायक होगा ।
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भूख पर विजय पाने के लिये सिर्फ अपवास ही काफी नहीं है, स्वाद विजय भी जरूरी है । जैसा भी भोजन मिल गया, या जितने परिमाण में मिलगया उतने से ही काम चला लेना और सन्तोष के साथ अपना काम करना भी आवश्यक है इससे मनुष्य प्रत्येक परिस्थिति में स्वपर कल्याण के कार्य में लगा रह सकता है । अगर अधिक भूखा रहने से पित्त प्रकुप्त होने का भय हो तो कम खाकर, या स्वादहीन वस्तु लेकर मनुष्य भूखपर विजय पासकता है । साधु को इसका अभ्यास तथा मनोबल होना ही चाहिये ।
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यही वात ठण्ड गर्मी के बारे में है । अभ्यास से बहुत कुछ सहने की आदत पड़जाती है । हां! शरीर को स्वस्थ रखने का तो ध्यान रखना ही चाहिये पर अधिकांश अवसरों पर होता है यह कि शरीर तो सहने को तैयार रहता है पर मन सहने को तैयार नहीं रहता। यह कमजोरी जाना चाहिये।
डांस मच्छर का कष्ट भी एक परिषह है. जिसे जीतना चाहिये । साधु को प्रायः एकान्त स्थानों में ही ठहरना पड़ता है ऐसे स्थान में डांस मच्छर कीड़े मकोड़ों का राज्य रहता है । इन म्लेच्छ देशों में तो मुझे प्रतिदिन इन कष्टों का सामना करना पड़ा है । अगर इसका सामना न कर पाता तो यहां एक दिन भी न ठहर पाता। इसलिये स्वपर कल्याण की दृष्टि से दंशमशक परिषह जीतना भी आवश्यक है ।
साधु को विहार तो करना ही पड़ता है इसके लिये झुसमें पैदल श्रमण करने की ताकत तो होना ही चाहिये । रथ तथा अन्य वाहनों का उपयोग करना आज कल उसके लिये झुचित नहीं है। क्योंकि इससे परिग्रह वढ़ेगा और पराधीनता पैदा होगी। हां ! नद नदी समुद्र आदि पार करने के लिये नौका का उपयोग करना पड़े तो बात दूसरी है । साधारणतः पैदल विहार ही व्यावहारिक मार्ग है इसलिये थकावट से घबराना न चाहिये । चर्या परिपह विजय करना चाहिये ।
इसी प्रकार शय्या परिपह जीतना भी आवश्यक है। साधुको तूल तल्प की आशा न करना चाहिये । मिट्टी के शरीर को मिट्टीपर सुलाने की आदत डलवाना चाहिये । तभी साधु सब जगह जाकर आनन्द से गुजर कर सकेगा और जगत को भी आनन्द का सन्देश देसकेगा।
आसन भी एक परिषह है ।चर्या में थकावट होती है तो आसन में भी एक तरह की थकावट या व्याकुलता होती है ।
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[१-३.
मनुष्य एक जगह बैंठ बैठे ऊब जाता है, हाथ पैर हिलने डुलने को लालायित होजांत हैं, इस समय उनको वश में रखना आव: श्यक है । सभा आदि में तो इसकी आवश्यकता है ही, पर अन्य.. भी अनेक स्थानों पर इसका उपयोग होता है । उसदिन यक्षम-: न्दिर में जब गोशाल सुन युवकों के द्वारा पीटा गया तव में अपनी निश्चेष्टता या आसन परिपह विजय के कारण सुरक्षित रहा । बात यह है कि साधु को चाहे चलना पड़े, चाहे एक आसन में बैठना पड़े, चाहे जमीन पर सोना पड़े, प्रत्येक परि. स्थिति पर विजय पाने की उसमें शक्ति होना चाहिये और उसे अस शक्ति का उपयोग भी करते रहना चाहिये।
वध अर्थात् मारपीट आदि को सहने की शक्ति भी साधु में होना चाहिये । साधु को जनता के आचार विचार में क्रांति करना है और जनता के मानस पर अपनी हितषिता की छाप मारना है, ऐसी अवस्था में वह मारपीट को चुपचाप सहन कर जाय तभी वह जनता के हृदय पर अपनी हितैपिता की छाप मार सकता है । साधु के एसे कोई अपने स्वार्थ नहीं हैं जिनके लिये असे किसी से संघर्ष करना पड़े, उसे जो कुछ करना है जनता के लिये करना है इसके लिये वध परिपह का जीतना जरूरी है।
रोग भी एक परिपह है । रोग का शरीर पर जो असर पड़ता है असका तो उपाय क्या है ? पर रोग में धीरज रखना . अपने वश की बात है, यही रोग विजय है । जो आदमी शरीर को आत्मा से भिन्न समझता है उसे शरीर की विकृति से आत्मा को विकृत न करना चाहिये ।
ये दस परिषहें ऐसी हैं जो शारीरिक कहीं जासकती हैं क्योंकि इनपर विजय पाने के लिये शरीर को अभ्यास कराना पड़ता है, या शरीर में सहिष्णुता की जरूरत होती है। हालां कि
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शारीरिक परियों को जीतने में असली काम तो मन को ही
करना पड़ता है |
मैं समझता था कि शारीरिक परिषहें ये दस ही पर्याप्त हैं पर आज गोशाल को जो कांटा लगा उससे गोशाल तड़प गया । मैंने जब धीरज रखने को कहा तो कहने लगा- मैं बीमारी से नहीं डरता, डांस मच्छर से भी नहीं डरता, पर कांटा तो वस कांटा ही है । मैंने किसी तरह उसका कांटा निकाल दिया । पर बाद में यह सोचा कि कांटा कंकड़ घास तृण आदि की भी एक परिपह है जिसमें धीरज रखने की जरूरत है । इस प्रकार शरीर से सम्बन्ध रखने वाली ग्यारह परिपडें मैंने निश्चित की है । इन्हें शरीर प्रधान परिपहें कहना चाहिये ।
कुछ परिप मनप्रधान है । म्लेच्छ देशों में मुझे नग्न देखकर बच्चे चिढ़ाते थे हँसते थे । इससे मुझे शारीरिक क्लेश तो था नहीं, सिर्फ मन को कट होता था, पर मैं उपेक्षाभाव से सब सहन करता था । नग्नता एक उपलक्षण है, लंगोटी लगाने पर भी लोग हँसी उड़ा सकते हैं. मैले कुचले कपड़े पहनने पर या चिन्दियाँ पहिनने पर भी लोग हँसी उड़ा सकते हैं यह भी एक तरह की नग्नता ही है, इससे डरना न चाहिये। अगर हम यह सोचलें कि आज गरीबी के कारण अधिकांश आदमी नंगे या नंगे के समान बनकर रहते हैं ऐसी अवस्था में उनका हिस्सा हम क्यों लें ? तो हमें नग्नता न खटकेंगी । आज अन्न इतना दुर्लभ नहीं है जितना वस्त्र दुर्लभ है । इसलिये उपवास करने की अपेक्षा नग्नता अधिक आवश्यक है । फिर नग्नता में कोई शारीरिक कष्ट की समस्या नहीं है सिर्फ मन को जीतने की समस्या है | हां ! अगर कभी कोई ऐसा युग आये जिसमें अन्न कम और वस्त्र अधिक होजायँ तब इस बात पर जुस परिस्थिति के अनुसार विचार करना पड़ेगा । पर अभी तो नग्न परिषद्द विजय की आवश्यकता है ।
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स्त्री परिषह भी एक मानसिक परिपह है। दीक्षा के बाद ही जब मैं भिक्षा लेने जाने लगा था तब कुछ नव यौव. नाओं ने मुझे घेर लिया था। उस समय मुझे झुनपर विजय पाने के लिये अपने बाल उखाइकर फेंक देना पड़े थे । वास्तव में इस परिपह का जीतना कठिन है । यो इस परिपह को काम परिपह या मदन परिपह कहना चाहिये क्योंकि पुरुषों के समान स्त्रियों को भी इस परिपह का थोड़ा बहुत सामना करना पड़ सकता हे, फिर भी में इसे स्त्री परिपह कहता हूँ। कारण यह है कि स्त्री पुम्प के शरीर के अन्तर की दृष्टि से स्त्री पुरुष की मनोवृत्ति में अन्तर है । किसी स्त्री के सामने अगर कोई पुरुप काम-याचना करे तो साधारणतः स्त्री इसमें अपमान समझेगी, किन्तु अगर कोई स्त्री किसी पुरुप से काम-याचना करे तो पुरुष इसे स्वीकार .करे या न करे किन्तु इसमें वह अपना अपमान न समझेगा।
ऐसी अवस्था में स्त्री परिपह जीतने में विशेष कठिनाई है । इसलिये मुख्यता की दृष्टि से इसे स्त्री परिपह नाम देना ही ठीक समझा है । यो इसे कोई मदनपरिपह कहे या काम परिपह कहे तो भी अनुचित न होगा । मैं अपनी दृष्टि से इसे स्त्री परिपह ही कहूंगा।
साधक जीवन में एक तरह का रूखापन मालूम होता है। बहुत से लोग पूजा प्रतिष्ठा की, स्वादिष्ट भोजन की तथा और भी अनेक तरह की आशा लगाये रहते हैं । गोशाल का स्वभाव कुछ ऐसा ही है, थोड़ा सा संकट आते ही वह भाग खड़ा होता है। ऐसे लोग कोई साधना नहीं कर पाते, स्वपरकल्याण नहीं करपाते । इसके लिये साधना में अनुराग चाहिये रति चाहिये, अरतिभाव पर विजय चाहिये। इसलिये अरति परिपह विजय एक आवश्यक विजय है । इसका तात्पर्य यह है कि संयम साधना में, लोकसाधना में, आनन्दका अनुभव हो। एक
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मां बच्चेकी सेवामें जिस प्रकार आनन्दका अनुभव करती है वैसा एक साधक को स्वपर साधना में मिलना चाहिये । साधुता आनन्दमय हो, अल्लासमय हो, दुःख दीनता का भाव उसमें कदापि न आना चाहिये।
इन म्लेच्छ देशों में मुझे गालियाँ बहुत खाना पड़ी हैं। गालियों से शरीर को कोई पीड़ा नहीं होती, क्योंकि जिन स्वर व्यंजनों से प्रशंसा के शब्द बनते हैं उन्हीं से गालियों के भी बनते हैं। इसलिये कान में या शरीर के किसी अन्य भाग में उनले पीडा होना सम्भव नहीं है। सिर्फ उनसे यही मालूम होता है कि गाली देने वाले ने मेरा अपमान किया है यह मानसिक पीड़ा है। पर साधु को यह पीड़ा क्यों होना चाहिये ? अगर गाली देनेवाले ने हमारी कोई गलती बताई है तो हमें गलती सुधारना चाहिये, उसने तो चिकित्सक की तरह लाभ ही पहुँचाया है । अगर उसने झूठा अपमान किया है तो उसकी नासमझी पर दया करना चाहिये और मुसकराकर टाल देना चाहिये । यही आक्रोश परिपह विजय है जोकि साधु के लिये आवश्यक है और उसके मनोवल का परिचायक है।
. याचना और अलाभ ये दो परिषहें भी मानसिक परिष हैं। होसकता है कि साधु ने राज्य वैभव का त्याग किया हो पर आज तो उसे पेट के लिये याचना करना पड़ती है, रातभर ठहरने के लिये या चौमासा विताने के लिये याचना करना पड़ती है । इन सब बातों से साधु के मन में दीनता का भाव न आये, याचना में वह आत्मगौरव न छोड़े, यह याचना परिषह विजय है । जो सच्चा साधु है, जो समाज से कम से कम लेकर अधिक से अधिक देता है उसमें याचना की दीनता नहीं होसकती। जो मोघजीवी है वह बाहर से कितनी भी निरपेक्षता दिखावे उसके मन में दनिता पैदा होगी, और लोग भी मन ही मन घृणा करेंगे ..
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या उसे दीन हीन समझेगे । याचना परिपह विजय का तरीका यही है कि मनुष्य सच्ची साधुता का परिचय दे। . .
पर यह भी होसकता है कि कभी कभी याचना व्यर्थ जाय । खाने-पीने को न मिले, ठहरने को जगह भी न मिले, "जैसा कि इन म्लेच्छ देशों में अभी अभी हुआ । ऐसी अवस्था में
भी घबराना न चाहिये, अलाभ पर विजय करना चाहिये, नहीं ' तो साधुता टिक न सकेगी।
१२ धनी ९४४० इ. सं.
कल मैंने सत्रह परिपहों का निर्णय किया था । पर गोशाल की एक बात से मुझे अठारहवीं परिपह की भी जरूरत मालूम हुई । गोशाल की यह आदत है कि जहां उसने कोई मलमूत्र देखा, कोई बीमार देखा कि नाक सिकोड़ी और भागने की चेष्टा की। पर इस तरह भागने से सफाई कैसे होगी ? अगर हम स्वच्छता पसन्द करते हैं तो हमें मल परिपह जीतना चाहिये तभी हम सफाई कर सकेंगे, बीमार की परिचर्या कर सकेंगे, असे स्वच्छ रख सकेंगे । मल के देखते ही घबराने से हम घृणा और अपमान कर सकते है पर स्वच्छता नहीं कर . सकते, न सेवा कर सकते हैं । ऐसी अवस्था में साधुता कैसे टिकेगी ? इसलिये मल परिपह का जीतना आवश्यक है।
१३ धनी १५४० इ. सं.
आज एक विशेष परिपह की तरफ ध्यान गया । . साध सय परिषों को सरलता से जीत सकता है पर सत्कार पुरस्कार को नहीं जीत सकता पर इसका जीतना आवश्यक है।
सत्कार पुरस्कार ऊँची श्रेणी का भोग है। अधिकांश लोग इसके लिये खाना-पीना छोड़ सकते हैं रूखा सूखा खास. कते हैं अनेक तरह के कष्ट भोग सकते हैं, केवल इसलिये कि
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जहां जायें वहां आदर सत्कार हो और चार जनों में अन्हें आगे वैठाया जाय या आगे किया जाय । योग्यता तथा सेवा के अनुसार ऐसा होता भी है और होना भी चाहिये । फिर भी सत्कार पुरस्कार की तीर लाल सा होना साधुता के पतन का मार्ग खुलना है ! जितने सत्कार पुरस्कार के योग्य हम नहीं हैं उतना सत्कार पुरस्कार ले लेना मोघजीवी बनना है और साधुता से भ्रष्ट होना है। यही कारण है कि श्वेताम्बी नगरी से मैं जल्दी चला आया था, क्योंकि वहां मेरा इतना अधिक सत्कार पुरस्कार होने लगा था जितने के में योग्य नहीं था, जिससे मेरी साधना में बाधा ही पड़नेवाली थी। सत्कार पुरस्कार पर विजय प्राप्त किये बिना साधना अक्षुण्ण नहीं रह सकती । बल्कि इससे धीरे धीरे सच्चा सत्कार पुरस्कार भी नष्ट होसकता है । इन सब कारणों से सत्कार पुरस्कार विजय करना आवश्यक है।
१४ धनी ६४४० इ. सं.
आज विचारते विचारते तीन परिषहे और ध्यान में आई । उनके नाम रक्खे प्रज्ञा अज्ञान और अदर्शन ।
विद्वत्ता का घमण्ड होता प्रज्ञा परिपह है इसका विजय करना आवश्यक है। क्योंकि विद्वत्ता के घमण्ड से मनुष्य का विकास रुक जाता है साथ ही उसके ज्ञान का लाभ जगत नहीं ले पाता । उसके ज्ञान का लाभ लेने से पहिले ही उसके मद का आघात मनुप्य को घायल कर देता है तब ज्ञान लाभ की पात्रता ही नष्ट होजाती है । इसलिये प्रज्ञा को नम्रता से पचालेना. आवश्यक है । यही प्रज्ञा परिपह का जय है। .
प्रज्ञा से उल्टी अज्ञान परिपह है। विद्या बुद्धि की कमी से मनुष्य में एक प्रकार की दीनता आजाती है, इससे भी मनुष्य का विकास रुक जाता है, अथवा गुरुजनों के शब्दों से पीड़ित होकर अनसे घृणा होजाती है । यह मानसिक निर्वलता भी दूर
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होना चाहिये । श्रम और मनोयोग से अज्ञान पर भी विजय प्राप्त की जासकती हैं ।
सब से महत्वपूर्ण अदर्शन परिपह है । संयम तप त्याग आदि का फल है आत्मशांति और विश्वशांति | पर इस फल का दर्शन हरएक को नहीं होता । अल्पज्ञानियों को सन्तोष देने के लिये ऐहिक या पारलौकिक भौतिक फलों का अल्लेख किया जाता है वे भी दिखाई नहीं देते, इस प्रकार के अदर्शन से लोग सन्मार्ग छोड़ देते हैं। अगर धर्म का मर्म समझ जायँ तो अदर्शन या अविश्वास के द्वारा होनेवाला पतन रुक जाय । अदर्शन परिवह पर विजय प्राप्त किये विना मनुष्य न तो मोक्षसुख पा सकता है, न जनसेवा के मार्ग में टिक सकता है, न प्रलोभनों के जाल से बच सकता है ।
परिपछे और भी हो सकती हैं पर इन बाईस परिपहों के निर्णय से इस विषय का आवश्यक ज्ञान होसकता है । ४८ - मंत्रतंत्र
२ चिंगा ९४४० इ. सं.
एक दिन मैंने सोचा था कि ईश्वर का सिंहासन तो खाली किया जासकता है पर देवताओं का जगत नहीं मिटाया . जासकता । मनुष्य इतना विकसित नहीं है कि पारलौकिक देवताओं के बिना वह धर्म पर स्थिर रह सके और लौकिक देवत्व से ही सन्तुष्ट होसके । आज एक ऐसी घटना हुई कि मुझे यह भी मानना पड़ा कि मंत्रतंत्र के बिना भी आज के जगत का काम नहीं चलसकता । मनुष्यमात्र के हृदय में जन्म से ही मंत्रतंत्र के ऐसे संस्कार डाल दिये जाते हैं कि अज्ञानरूप में भी मन इनसे प्रभावित होजाता है । मंत्रों के दुष्प्रभाव से बचाने के लिये मंत्रों का अस्वीकार काम न देगा किन्तु प्रतिस्वीकार काम देगा तब इसके साथ मंत्रों का स्वीकार हो ही जायगा ।
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१६०]
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आज कृर्मग्राम में जहां मैं ठहरा था वहां से थोड़ी दूर एक तापस तपस्या कर रहा था । मध्यान्द्र के समय एक हाथ ऊंचा किये सूर्य मण्डल की तरफ दृष्टि रक्खे स्तंभ की तरह स्थिर खड़ा था | पीछे की तरफ उसकी जटाएँ कमर के नीचे तक लटक रही थीं। उसमें जूवें पड़गई थीं, वे कभी धरती पर गिर पड़ती तो वह तापस उन्हें उठाकर फिर सिर में डाल लेता इस तरह काफी कष्ट उठा रहा था।
कुछ तो धर्म के लिये बाह्य तपों की आवश्यकता है ही, क्योंकि कष्ट सहिष्णुता के विना साधुता तथा जनसेवा के मार्ग में आगे बढ़ा नहीं जासकता । फिर भी हाथ उठाने आदि के कृत्रिम तपों को या तपों के प्रदर्शनों को मैं ठीक नहीं समझता । प्रदर्शनों से वास्तविक तप तो क्षीण होजाता है सिर्फ जनता पर प्रभाव डालकर कुछ पूजा प्रतिष्ठा वसूल करना प्रधान बनजाता है। मेरे तीर्थ में बाह्य तपों को तो स्थान होगा, पर वाह्य तपों के प्रदर्शनों को नहीं । कष्ट सहिष्णुता का अभ्यास करना, समाज के ऊपर अपने जीवन का कम से कम बोझ डालना, किये हुए पापों या अपराधों की क्षति पूर्ति करना ही तपों का ध्येय है। अस्तु ।
मेरे ये विचार गोशाल अच्छी तरह समझता है और अपने स्वभाव से लाचार होकर बहुत बुरी तरह इनका समर्थन .. करता है । कूर्मग्राम में आने के थोड़े समय वाद ही वह उस.. तापस के पास गया, और उसकी तपस्या की हँसी उड़ाने लगा...
कुछ देर तक उस तापस ने उपेक्षा की, पर उसकी . उपेक्षा गोशाल ने निर्वलता समझी, इसलिये उसकी उद्दडता
और बढ़ती गई 1 तव उस तापस को क्रोध आगया और उसने गोशाल पर कुछ ऐसी मुद्रा से मांत्रिक प्रयोग किया कि गोशाल घबरागया, तब अस तापस ने भयंकर मुद्रा से हाथ फटकारते
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हुए कहा- जा, इस अमोघ तेजोलेश्या से तू भस्म होजायेगा और तेरे शरीर में ऐसा दाह पैदा होगा कि सन्ध्या तक उस दाह के बढ़ने से तू मर जायगा ।
यह सुनते ही गोशाल हतप्रभ होकर मेरे पास दौड़ा आया, और उसे ऐसा मालूम होने लगा कि उसका शरीर जल रहा है। आते ही असने कहा- प्रभु, मुझे बचाइये मेरा शरीर जल रहा है । मैंने सब बात पूछी और गोशाल ने सारी बात ज्यों की त्यों बतादी । उस समय अगर मैं यह कहता कि तेजोलेश्या कुछ नहीं होती यह एक भ्रम है, तो गोशाल असपर विश्वास न करता और सम्भवतः अपनी मानसिक दुर्बलता से सन्ध्या तक मर भी जाता । इसलिये मन्त्र की शक्ति को अस्वी कार करने की अपेक्षा प्रतिमंत्र का उपयोग करना ही ठीक समझा ।
"
मैंने कहा- गोशाल यह तेजोलेश्या का प्रयोग है इसके दाह से सचमुच मनुष्य मरजाता है पर मैं शीतलेश्या के प्रयोग से इस तेजोलेश्या को मारदेता हूं। तुम सर नहीं सकोगे । देखो, ज्यों ज्यों मेरे हाथ की छाया तुम्हारे सिर से नीचे की ओर जायगी त्यों त्यों तेजोलेश्या का प्रभाव घटता जायगा । और सातवीं बार बिलकुल घट जायगा ।
मैंने जिस दृढ़ता के साथ ये शब्द कहे थे उसका प्रभाव गोशाल पर आशातीत पदा, मैंने हाथ को ऊपर से नीचे इसप्रकार किया कि उसकी छाया गोशाल के सिर से पैर की तरफ निकलने लगी | मुझ पर दृढ़ विश्वास के कारण गोशाल यह अनुभव करने लगा कि उसका दाह कम होरहा है । सातवीं बार मैं प्रसन्नता से उछल पड़ा और हर्षोमन्त होकर चिल्लाने लगा - मरगई, शीतलेश्या से तेजोलेश्या मरगई । मेरा सारा दाह दूर होगयो ।
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गोशाल ने ये सब बातें इतने जोर से कहीं कि तापस ने भी सुनीं और वह चकित होकर नाचते हुए गोशाल को देखने लगा | वह मुझे अपने से बड़ा मन्त्रवादी समझकर मेरे पास आया । और बोला- प्रभु, मैंने आपका प्रभाव जाना नहीं था इसलिये मेरा अपराध क्षमा कीजिये |
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मैंने कहा - प्राणिरक्षा की दृष्टि से मैंने शीतलेश्या का प्रयोग कर गोशाल के प्राण बचाये। मुझे तुमसे द्वेष नहीं है । मैं किसी से द्वेष नहीं करता ।
"
उसने कहा -धन्य है प्रभु आपकी वीतरागता ।
उसके चले जाने के बाद गोशाल ने मुझ से पूछा । वह तेजोलेश्या कैसे मिलती है प्रभु, और इस तापस को कैसे मिल गई ? मैंने कहा- छः महीने तक बेला उपवास करने से तथा तीसरे तीसरे दिन पारणा में मुट्ठीभर सुखा अन्न और अञ्जलिभर पानी पानी से तेजोलेश्या सिद्ध होती है ।
मैं जानता हूं कि एक बार वेला करना भी गोशाल की शक्ति के बाहर है फिर छः महीना तक क्या करेगा, और इतने से पारणे से इस खादाड़ का क्या होगा ?
४९ - गणतंत्र और राजतंत्र
१६ जिन्नी ९४४१ इ. सं.
कर्मग्राम से जब मैं सिद्धार्थपुर आरहा था तभी मार्ग में गोशाल ने मेरा साथ छोड़ दिया । सम्भवतः वह तेजोलेश्या सिद्ध करने की चिन्ता में गया है। आश्चर्य नहीं कि वह अपनी महत्वाकांक्षा पूरी करने के लिये छः महीने तक तपस्या भी कर जाय । यदि वह ऐसा करगया तो पूरा प्रवंचक बन जायगा ।
अस्तु ।
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सिद्धार्थपुर से में वैशाली आया हूँ। वैशाली गणतंत्र का केन्द्र है । यहां एक राजा नहीं होता, किंतु सभी क्षत्रिय अपने को एक तरह के राजा समझते हैं । मिलजुलकर अपने में से एक अध्यक्ष चुन लेते हैं । सारा शासन तंत्र क्षत्रिय परिपत के हाथ में रहता है । आज यहां का अध्यक्ष शंख सपरिवार मेरी वन्दना करने को आया था।
जन्मसे ही मैं गणतंत्र से परिचित हूं। फिर भी गणतंत्र की तरफ मेरी सहानुभूति कम है।
में तो सोचता हूं कि मानव समाज इतना विकसित हो कि असे शासन की जरूरत ही न हो अथवा योग्य मन्त्रियों और परिपदों से नियन्त्रित राजतन्त्र हो। आज मुझे ये दोनों ही तंत्र दिखाई नहीं देते । अपनी इस इच्छा को चरितार्थ करने के लिये मैंने देवलोक को दो भागों में विभक्त किया है। ऊंची श्रेणी के देवों में कोई शासनतंत्र नहीं होता. हर एक देव स्वयं शासित होता है। वहां का हर एक देव इन्द्र है । उसको मैं अहमिन्द्र लोक कहना पसन्द करता हूं। में उस आदर्श रचना समझता हूँ। में तो यह भी सोचता हूँ कि भूतकाल में यहां भी ऐसी रचना रही होगी । जव जीवन का संघर्ष बढ़ा तब यह शासनतंत्र आया और ये राजतंत्र पैदा हुए । स्वर्ग में भी यह राजतंत्र मानता है। जो नीची श्रेणी के देव है उनमें राजा प्रजा की
कल्पना होती है, अहमिन्द्र इस कल्पना से अतीत होते हैं इस. . लिये उन्हें कल्पातीत कहना भी ठीक है । . खैर ! देवलोक तो अपनी रचना है इसलिये असे जैसा
चाहे रच सकता हूँ। पर इस मानव-लोक की समस्या जटिल है। यहां राम की तरह राजतंत्र नहीं मिलता और लोकतंत्र जनतंत्र या अराजकतंत्र की कहानियाँ पुरानी होगई, उसकी जगह गणतंत्र है जो दोनों से बुरा है ।
रचना रही होगी म सोचता है किस आदर्श
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राजतंत्र में भी वुराइयाँ हैं। शासन निरंकुश होजाता है पर गणतंत्र की बुराइयाँ उससे भी अधिक है।
१- गणतंत्र में एक वर्ग शासक वनजाता है। क्षत्रिय वर्ग को छोड़कर प्रजा का प्रत्येक वर्ग उसका शिकार होता है। एक राजा को सन्तुष्ट रखने की अपेक्षा एक विशाल वर्ग को हर तरह सन्तुष्ट रखने में प्रजा का धन और मान काफी नष्ट होता है । राजा तो वर्ष में एकाध दिन भूला भटका मिलेगा, तब उसे प्रणाम करलिया जायगा, लेकिन ये गली गली फिरने वाले राजा न जाने दिन में कितने वार मिलते हैं इनको प्रणाम करते करते जनता की कमर झुकजाती है। राजसेवकों को राजा का डर रहता है, पर गणतंत्र में ये सब अपने अपने को राजा समझते हैं इसलिये इन्हें किसका डर ? अध्यक्ष तो इन्हीं का चुना हुआ होता है इसलिये वह इनके साथ किसी तरह की कड़ाई नहीं कर सकता । इस प्रकार गणतंत्र क्षत्रियों को छोड़कर बाकी समस्त जनता को अत्यन्त कष्टकर होता है ।
२- राजतंत्र में राजा अपने खास खास स्वजन परि जनों के बारे में ही पक्षपाती होता है इसलिये अन्हीं के साथ संघर्प होने पर जनता पर अन्याय होने की आशंका रहती है पर गणतन्त्र में एक विशाल वर्ग में से किसी एक के संघर्ष होने पर अन्याय होने की पूरी सम्भावना रहती है । गणतंत्र में तीन वर्गों पर एक वर्ग का शासन रहता है, राजतंत्र में चारों वर्गों पर एक व्याक्त का शासन रहता है। .
३- गणतन्त्र में शक्ति विकेन्द्रित होजाती है इसलिये .. राज्य बहुत समय तक वलंबान नहीं रह पाता, आपसी प्रतिस्पर्धा आदि से शाक्त आपस में ही कट जाती है। इसलिये गृहयुद्ध और परचक्र युद्धों की संख्या बढ़जाती है इससे जनता के जनधन का काफी नाश होता हैं ।
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४- अपर्युक्त कारण से गणतन्त्र छोटे ही रहते हैं इसलिये योजन योजन दो दो योजन पर राज्य बदलने से यातायात की कठिनाईयाँ बदजाती है । व्यापारी लोग तो प्रवेशकर और निर्यातकर देते देते लुटजाते हैं और मुझ सरीखे अपरिग्रही, गुप्तचर सममकर सीमा सीमा पर पकड़ लिये जाते हैं और उन्हें व्यर्थ कष्ट दिया जाता है। कई वार मेरे साथ ऐसा हो चुका है। इसलिये एक विशाल साम्राज्य की परमावश्यकता है । पर गणतंत्र इस प्रकार साम्राज्य नहीं बना सकते राजतन्त्र में ऐसा वन सकता है।
५- गणतन्त्र में लोगों को अपना शीलस्वातंत्र्य बचाना कितना कठिन होता है इसकी कल्पना से ही मन कांप जाता है । वैशाली में कोई सर्वोच्च सुन्दरी अपना विवाह नहीं कर सकती। क्योंकि उसके साथ विवाह करने के लिये गणतंत्र के सभी राजा या सभी क्षत्रिय आपस में कट मरेंगे, अगर कोई उसके साथ विवाह करलेगा तो उसे जीवित न छोड़ेंगे । इसलिये यह नियम वनादिया गया है कि जो सर्वोच्च सुन्दरी हो वह वेश्या बने, जिससे वह सभी के काम आ सके । वह सर्वोच्च सुन्दरी कितने भी ऊंचे घराने की हो, शील के लिये उसका कुल कितना भी प्रतिष्ठित हो पर उसे वेश्या बनना पड़ता है, कुटुम्बियों की प्रतिष्ठा, वैभव, स्नेह, और आंसू, असे वेश्या बनने से नहीं रोक सकते, अब गणतन्त्र की अनैतिकता का और क्या प्रमाण चाहिये ?
प्रत्येक शासन तंत्र में दोप होते हैं । भविष्य में द्रव्य क्षेत्र काल भाव बदलने पर कौनसा तंत्र आयगा कह नहीं सकता, अराजक तन्त्र या पूर्ण जनतन्त्र तो आज असम्भव है, गणतंत्र और राजतन्त्र व्यवहार में हैं, उनमें से मैं राजतंत्र में कम दोष समझता हूं । सम्भव है भविष्य में राजतन्त्र से भी अच्छा तंत्र निकले।
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५० - अनुमति की आवश्यकता २३ जिन्नी ९४४३ इ. सं.
वैशाली से मैं वाणिजक ग्राम की तरफ रवाना हुआ। थोड़ी दूर पर मंडकी नदी मिली । वहां नाव पड़ी थी, नाविक लोग यात्रियों को इस पार से उस पार पहुँचा देते थे। एक नाव पर बहुत से यात्री बैठे थे, नदी पार होने के लिये मैं भी उसपर बैठ गया । नाव नदीपार पहुंची, यात्री लोग साधनों के अनुसार उतराई के रूप में कुछ कुछ देते जाते थे और चले जाते थे। नाविकों ने मुझ से भी उतराई मांगी, पर मेरे पास था क्या जो मैं देता। इसलिये नाविकों ने मुझे रोक लिया। मैं पानी से निकलकर पुलिन में दो चार कदम बढ़ चुका था और वही नाविकों ने मुझे रोक लिया, मैं गरम बालुका में खड़ा रह गया ।
इधर कई वार नदियों को पार करने का अवसर मिला है पर आज सरीखी कभी किसी नाविक ने मुझसे उतराई नहीं मांगी। अपरिग्रही साधु समझकर इतनी सुविधा प्रत्येक नाविक ने दी है और कुछ सन्मान से दी है पर आज का अनुभव विलकुल उल्टा था।
एक नाविक ने जरा दृढ़ता से कहा-महाराज, जब तक उतराई न दोगे तब तक हम जाने न देंगे।
मैं गरम बालू में खड़ा रहा और अपनी भूलपर पश्चा. त्ताप करता रहा । अगर में नाव पर चढ़ते समय नाविकों से अनुमति ले लेता तो इस समय अपराधी की तरह विवश होकर खड़े होने का अवसर न आता । वेचारे नाविकों का इसमें क्या अपराध ?
में राज्य वैभव छोड़कर आत्मकल्याण या जगत्कल्याण के लिये साधु बना हूं इससे उन्हें क्या मतलब ? वे साधुसेवा के
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लिये नाव नहीं चलाते, जीविका के लिये नाव चलाते हैं। उनकी अनुमति लिये विना उनकी नौका का उपयोग करने का मुझे क्या अधिकार था ?
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मैं इन्हीं विचारों में लीन खड़ा था कि नानिकों के भीतर हलचल मची। एक सेनापति नासैनिकों को साथ लिये हुए घाट पर उतरा। उसके स्वागत के लिये नाविक लोग हाथ जोड़कर आगे बढ़े। पर सेनापति की दृष्टि अकस्मात् मुझ पर पड़ी। उसने तुरंत ही मुझे प्रणाम किया और कहा - प्रभु, आप किधर पधार रहे हैं ? आपने मुझे पहिचाना कि नहीं ?
मैं निषेध सूचक मुद्रा में उसे देखता रहा ।
उसने कहा- प्रभु, मैं शंख गणराज का भानेज हूँ । झुस दिन मामाजी के साथ मैं भी आपकी वन्दना को आया था । बहुत श्रादमी होने से आपने मुझे पहिचान नहीं पाया । मेरा नाम चित्र है ।
मैं स्वीकारता के रूप में मुसकराया ।
उसने कहा- पर आप इस तरह गरम बालुका में क्यों खड़े हैं ?
मैं कुछ कहूं इसके पहिले सबके सब नाविक मेरे पैरों पर गिर पड़े और दीनता से वोले- क्षमा कीजिये प्रभु, हम जानवरों ने आपको पहिचान नहीं पाया ।
चित्र ने पूछा- क्या बात है ?
नाविकों के मुखिया ने हाथ जोड़कर कहा- हमें मालूम नहीं था इसलिये अन्य यात्रियों की तरह हमने प्रभु से भी तराई मांगी।
चित्र ने भौंहे चढ़ाकर कहा- प्रभु को नग्न दिगम्बर देखकर भी तुमने उतराई मांगी ? और इसीलिये प्रभु को रोका ?
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नाविक सिसक सिसक कर आंखें पोछने लगे ?
चित्र ने क्रोध में कहा-तुम लोग हाथ पैर बांधकर इसी नदी में हुवा देने लायक हो।
मैंने कहा-इन्हें क्षमा करो चित्र, एक तो इनने मुझे पहिचाना नहीं, दूसरे ये लोग यहां साधुसेवा के नहीं, जीविका के लिये बैठे हैं।
चित्र-पर आपको उतार देने से इनकी जीविका में ऐसी क्या कमी जाती ? बल्कि इन गधों की लांत पीढ़ियाँ तर जाती।
मैं-मृत पीढ़ियाँ तो अपने अपने पुण्य पाप से जहां जाने योग्य होंगीं चली गई होगी। अब तुम इन्हें क्षमा कर दो जिससे कम से कम इनकी पीढ़ी तो तर जाय ?' _ चित्र-मैं आपकी आज्ञा से इन्हें क्षमा कर देता हूँ, नहीं तो इन्हें ठिकाने लगा देता।। - इसके बाद चित्र मुझे बार बार नमस्कार करके और नाविको को डांटता घुड़कता हुआ नाव में सवार होकर चला. गया । जब तक चित्र रवाना न हुआ तब तक मैं घाट पर ही रहा। क्योंकि मैं नहीं चाहता था कि मेरे चले जाने के बाद मेरे कारण चित्र उन नाविकों को सताये ?... ,
नाविकों ने फिर वार बार क्षमा मांगी। मैंने कहा-इसमें तुम्हारा कोई अपराध ही नहीं हैं और मेरे मन में तुम्हारे प्रति कोई रोप नहीं है तव में क्षमा कर तो क्या करूं' फिर भी मैं तुम्हारा बुरा नहीं चाहता। इसीलिये जब तक चित्र यहां से नहीं गया तब तक में रुका रहा । मैं नहीं चाहता था कि मेरे जाने पर वह तुम्हें सताये।
नाविकों ने गद्गदस्वर में मेरी प्रशंसा करते हुए मुझे बार बार प्रणाम किया।
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मैं वहां से रवाना होगया पर इस घटना पर नाना दृष्टिकोणों से विचार करता रहा । जगत शक्ति अधिकार वैभव आदि के द्वारा ही महत्ता को देखता है वास्तविक महत्ता को वह नहीं पहिचान पाता । मनुष्य में यह एक तरह की पशुता हैं। विवेक पैदा करके ही इस पशुता की चिकित्सा की जासकती है ।
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पर इन सब बातों के पहिले मुझे अपनी ही चिकित्सा करना चाहिये । इसके लिये मैंने नियम बनाया कि मुझे योग्य अधिकारी की आज्ञा बिना न तो नाव का उपयोग करना चाहिये न गृहादिका | भविष्य में अपने तीर्थ की साधु संस्था के लिये भी मैं यह नियम बनाहूंगा ।
५१ - अवधिज्ञाना आनन्द
६ वुधी ६४४१ इ. सं.
वाणिजक ग्राम में आनन्द वास्तव में सद्गृहस्थ हैं । यह महर्द्धिक होने पर भी तपस्वी ज्ञानी और विनीत है। मुझे तीर्थ स्थापना के बाद ऐसे ऐसे उपासकों की आवश्यकता होगी। जब से मैं इस ग्राम में आया हूं तब से यह प्रतिदिन मेरे पास आया करता है, तत्वचची करता है, मेरी तपस्या और विचारों की प्रशंसा करता है और अनुरोध करता है कि मैं तर्थिस्थापना करूं । पर मैं अपनी त्यों को जानता हूं । बहुत कुछ दूर होगई हैं, एक दो वर्ष में और भी दूर हो जायेंगी तब में जिन बनकर तीर्थ स्थापना करूंगा । आनन्द मेरे इन विचारों से सहमत है | आनंद स्वयं भी विचारक विद्वान है ।
एक दिन आनन्द ने कहा- मुझे स्वर्ग और नरक का प्रत्यक्ष होता है भगवन !
मैंने पूछा- क्या तुम्हें सारे लोक का प्रत्यक्ष होता है ?
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आनन्द-नहीं। मैं-स्वर्ग नरक में तुम क्या देखते हो?
आनन्द-वहां का हरएक. नारकी अपनी लम्बी आयु पूरे हुए बिना किसी भी, तरह नहीं मरता और जीवनभर ताइन छेदन ज्वलन पीड़न आदि की भयंकर वेदना सहता है । ये सत्र दृश्य आंख बन्द करने पर मुझे ऐसे दिखाई देते हैं मालों में अपनी आंखों से देख रहा हूं। इसी तरह स्वर्ग भी दिखाई देता है। वहां विषय भोगों का असीम विलास भरा हुआ है।
मैं-तुम्हें कितने स्वर्ग और कितने नरक दिखाई देते हैं ?
आनन्द- मुझे तो एक ही स्वर्ग और एक ही नरक .. दिखाई देता है।
मैं- एक गृहस्थ को स्वर्ग और नरक का इतना ही प्रत्यक्ष पर्याप्त है आनन्द ! यो नरक एक नहीं सात है। जो एक के नीचे एक है और उनमें एक से एक बढ़कर कष्ट हैं । स्वर्ग भी एक नहीं बारह हैं और उनके ऊपर भी ऐसे देवलोक हैं जिनकी तुम कल्पना नहीं कर सकते, वहां छोटे बड़े की कल्पना नहीं है।
आनन्द-पर इन सब का मुझे कैसे प्रत्यक्ष हो सकता है भगवन !
. मैं-आज तुम्हें उनका प्रत्यक्ष नहीं होसकता आनन्द, सुना हुआ ज्ञान अर्थात श्रुतज्ञान ही हो सकता है । प्रत्यक्ष तो तुम्हें पक देश का ही होसकता है, इस देशावधि प्रत्यक्ष की प्राप्ति भी कम दुर्लभ नहीं है आनन्द !
आनन्द- आपको यह प्रत्यक्ष कबसे है भगवन !
मैं- लोकावधि प्रत्यक्ष तो एक रात्रि में कठोर शीतोप. लगे सहते सहते ध्यानमग्न होने पर मिला था। पर देशावधि प्रत्यक्ष तो मुझे प्रारम्भ से ही है।
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आनन्द-आखिर आप तीर्थकर हैं भगवन् , तीर्थकर को कम से कम देशावधि ज्ञान जन्म से ही होना चाहिये ।
मैं- हां मैं ! जब से होश सम्हाला है, कुछ विचार करना सीखा है, तब से जो ज्ञान है उसे जन्म से ही कहने में कोई आपत्ति नहीं है।
___ आनन्द- क्या जन्म से और किसी को भी देशावधिज्ञान होसकता है भगवन् ?
मैं- यहां तो और किसी को नहीं होलकता, हां ! स्वर्ग नरक के प्राणियों को होसकता है । क्योंकि देशावधि ज्ञान ले हम स्वर्ग नरक का प्रत्यक्ष करते हैं, पर जो प्राणी स्वर्ग या नरक में ही पैदा हुए हैं उन्हें तो स्वर्ग या नरक का प्रत्यक्ष जन्म से ही होगा। उन्हें स्वर्ग नरक देखने के लिये तपस्या की क्या आवश्यसता होगी?
आनन्द- इसका तो मतलब यह हुआ भगवन, कि देवों और नारकियों को मनुष्य की अपेक्षा अधिक झान होता है। देवों को तो ठीक है, पर नारकियों को भी "
मैं-पर मनुष्य की अपेक्षा उनका दुर्भाग्य यह है कि जीवनभर उनका विकास रुका रहता है । पशु भी जन्म के बाद ज्ञान में शक्ति में कुछ विकास करता है पर देव नारकी कुछ विकास नहीं कर पाते । जीवन का सच्चा आनन्द विकास में हैं, जन्म की पूंजी में नहीं । जन्म से मनुष्य की अपेक्षा पशु क बच्चा अधिक समर्थ होता है पर विकास में वह शीघ्र ही पिछड़ जाता है इसलिये मनुष्य की अपेक्षा पशु विकास की दृष्टि से अभागी हं. और देव नारकी जन्म के समय पशु से भी अधिक समर्थ होते हैं पर विकास में बिलकुल प्रगति-हीन होते हैं इसलिये और भी अभागी है।
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आनन्द- यह आपने बहुत ही ठीक कहा भगवन ! विकास की दृष्टि से मनुष्य, पशु और लारकियों से श्रेष्ट तो है हो, पर देवों से भी श्रेष्ठ है । फिर भी इतना तो कहना ही पड़ेगा। कि जो देशावधि देव नारकियों को जन्म से मिल जाता है वह मनुष्य को जीवन के अन्त तक नहीं मिल पाता, इक्के दुक्के तप. स्त्रियों को मिला भी तो इससे क्या ?
मैं-पर इससे देव नारकियों का ज्ञान मनुष्य से अधिक . नहीं होसता।
___ आनन्द-जिन मनुष्यों को अवधिज्ञान नहीं मिला है उनसे तो अधिक होता ही है भगवन ।
मैं- तुम यहां बैठे बैठे वैशाली नगरी का चौराहा देख। सकते हो आनन्द ?
आनन्द- सो तो नहीं देख सकता प्रभु !
मैं-पर झुस चोराहे पर बैठा हुआ बैल वह चौराहा देख सकता है । तत्र क्या तुम समझते हो कि बैल का ज्ञान तुम से अधिक है ?
आनन्द-यह कैसे कह सकता हूँ?
मैं- इसी तरह देव नारकियों का अवधिज्ञान इन्हें मनुष्य सें अधिक ज्ञानी नहीं बनाता । स्वर्ग में रहनेवाले यदि स्वर्ग का प्रत्यक्ष दर्शन करें और नरक में रहने वाले अगर नरक का प्रत्यक्ष दर्शन करें और स्वर्ग नरक से दूर रहनेवाला मनुष्य उनका दर्शन न कर पाये तो इससे मनुष्य का ज्ञान कम नहीं होजाता । देवा नारकियों का अवधिज्ञान जन्म से होता है इस. लिये वह औपपादिक हैं । ज्ञान के विकास को रोकनेवाला जो अन्तमल है अर्थात् ज्ञानावरण है झुसका क्षय अपशम उसमें नहीं होता जिससे उनका विकास कहा जासके। पर मनुष्य के
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अवधिज्ञान में ज्ञान का विकास है अर्थात् ज्ञानावरण का क्षयोप शम है इसलिये उसे क्षयोपशम निमित्तक कहते हैं । इसलिये आनन्द, तुम अपने देशावविज्ञान के द्वारा देवों से अधिक ज्ञानी हो ।
आनन्द के चेहरे पर प्रसन्नता नाचने लगी । सर्वज्ञता
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२८ तुपी ६४४ इ. सं.
इस वाणिजक ग्राम में ही मेरा दसवां चातुर्मास बीत रहा है। श्रमणोपासक आनन्द प्रायः आता रहता है और कुछ न कुछ प्रश्न पूड़ता रहता है। उसके प्रश्नों से मुझे बहुतसी बातों पर गहराई से विचार करना पड़ा, और तीर्थ प्रवर्तन के समय किस नीति से काम लेना चाहिये इस विषय की पर्याप्त सामग्री मिली ।
मुझे मानव जीवन को पवित्र और प्राणियों को अधिक से अधिक सुखी बनाना है । पर अगर एक मनुष्य अपने सुख के लिये दूसरे के सुख की पर्वाह न करे तो परस्पर छीनाझपटी और संहार के कारण यह जग नरक बनजाय। इसलिये एक दूसरे की सुविधा का ध्यान रखना संयम से रहना आदि का सन्देश मुझे देना है | इतने पर पूरी तरह परस्पर न्याय होने लोगा, और संसार में किसी तरह का कट न रहेगा यह तो
नहीं सकते, इसलिये मनुष्य के मन को ही इतना स्वसन्तुष्ट 'बनाना पड़ेगा कि वह इस जगत को खेल समझकर निर्लिप्त भाव से रह सके, असका आत्मा बाहरी परिस्थितियों के बन्धन न रहे । इस प्रकार मुझे संयम का और परिस्थितियों के प्रभाव से मुक्ति का सन्देश / जगत को देना है । पर इनेगिने
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मनुष्यों को ही इतना ऊंचा कार्यक्रम दिया जासकता है क्योंकि जनसाधारण तो बाहरी फलाफल का विचार करके ही किसी मार्ग को अपनाता है । इसलिये वह संयम का पालन भी बाहरी फलाफल के विचार से करेगा, पर जगत की आज ऐसी व्यवस्था नहीं हैं कि जो संयमी हो वे बाहरी दृष्टि से भी सफल हो और जो असंयमी हों वे असफल संयम और सफलता का बहुत कुछ सम्बन्ध है, और इसी जीवन में भी संयमी आदमी बहुत सुखी या सफल पाया जाता है फिर भी इस सम्बन्धनियम के अपवाद भी बहुत से दिखाई देते हैं। उन अपवादों को देखदेख कर अधिकांश आदमी संयम का पथ छोड़कर किसी भी तरह बाहरी सफलता का मार्ग पकड़ते हैं । इस प्रकार असंयम की भरमार से सारा संसार दुखी होता है। दीर्घ दृष्टि से विचार किया जाय तो सत्य और संयम से ही सुख का सम्बन्ध मालूम होगा, पर ऐसी दो दृष्टि सब में है कहां ?
इस उलझन को सुलझाने के लिये स्वर्ग नरक आदि का विवेचत करना आवश्यक है । लोकावधि ज्ञान से मैंने इनकी रूपरेखा बना ही ली है । इन सब बातों के बारे में मुझे लोगों के प्रत्येक प्रश्न का समाधान करना पड़ेगा, और मुझे सर्वज्ञ कहलाना पड़ेगा | इसके बिना लोगों का समाधान न होगा, वे विश्वास न करेंगे उनके जीवन में संयम त्याग उदारता आदि आ न सकेंगे या आकरके टिक न सकेंगे I
सर्वज्ञ को यह जरूरत है कि वह वर्तमान के साथ भूत भविष्य का स्पष्ट और पर्याप्त ज्ञान रखता हो । आज की बुराई भलाई किन कारणों का फल है और आज की बुराई भलाई का आगे क्या परिणाम होगा, इस प्रकार भूत भविष्य और वर्तमान का इतना ज्ञानी हो कि लोगों की जिज्ञासाओं को सन्तुष्ट कर सके इस प्रकार वह त्रिकालदर्शी हो । पुण्यपाप का फल बताने के
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लिये यह स्वर्ग नरक की बात भी जानता हो, ऊर्ध्व लोक और पाताल लोक का भी उसे पता हो इस प्रकार वह त्रिलोकदर्शी भी हो । मुझे विश्वास है कि मैं त्रिलोकदर्शिता और त्रिकालदर्शिता का परिचय देस दूंगा।
पर यह त्रिलोक-त्रिकाल-दर्शिता तत्वविषयक ही है, अर्थात् कल्याण की दृाष्ट से उपयोगी पदार्थों के जानने के विषय में ही है, निरुपयोगी अनन्त पदार्थों को जानने से कोई प्रयोजन नहीं जो आध्यात्मिक और व्यावहारिक आचार का विषय है उसके लिये उपयोगी है, वही तत्व है, उसी का पूर्ण ज्ञान सर्वनता है। मैं उसके निकट पहुँच रहा हूं।
५३-त्रिभनी १५ टुंगी ९४११ इतिहास संवतआज मुझसे आनन्द ने पूछा-यह विश्व कब से है ? मैंने कहा-यह अनादि है। आनन्द- और कब तक रहेगा ? मैं- सदा रहेगा, इसका अन्त नहीं है ।
आनन्द - क्या इसका आदि और अन्त कोई नहीं कहसकता?
मैं जब आदि अन्त है ही नहीं, तव कौन कह सकेगा ? जो कहेगा वह झूठ कहेगा।
आनन्द-क्या विश्वकी प्रत्येक वस्तु अनादि अनन्त है ? मैं- प्रत्येक वस्तु अनादि अनन्त है।
आनन्द-तब हम पदार्थो की उत्पत्ति और नाश क्यों देखते हैं ? जन्म क्यों होता है ? मरण क्यों होता है ?
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२०६]
महावीर का अन्तस्तल
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and
मैं-द्रव्य की न. अत्पत्ति होती है न नाश होता है झुल की पर्याय ही बदलती है। जैसे पानी से भाफ बनती है, भाफ से वादल वनते है, वादलों से फिर पानी बनता है । इसमें द्रव्य का नाश नहीं है पर्यायों का ही नाश है और पर्यायों की ही उत्पत्ति है, द्रव्य तो ध्रुव है।
आनन्द-क्या पर्याय वस्तु से भिन्न है ?
मैं-भिन्न नहीं है । वस्तु के अनित्य अंश को पर्याय कहते हैं और नित्य अंश को द्रव्य, इसप्रकार वस्तु द्रव्यपयाँयात्मक या नित्यानित्यात्मक है। वस्तु की एक पर्याय नष्ट होती है और उसी समय दूसरी पर्याय पैदा होती है और वस्तु द्रव्य रूप से ध्रुव बनी रहती है । इस प्रकार प्रत्येक वस्तु में उत्पाद व्यय और धाव्य ये तीन भंग प्रतिसमय रहते हैं । इस त्रिभंगी के द्वारा ही तुम पदार्थ का ठीक ज्ञान कर सकते हो।
आनन्द-पर्यायों की इस परम्परा का प्रारम्भ कब से हुआ. और अन्त कब होगा ?
मैं-पहिली पर्याय नष्ट हुए विना नई पर्याय पैदा नहीं होती,,नई पर्याय पैदा हुए विना पहिली पर्याय नष्ट नहीं होती, तब न तो पर्याय-परम्परा का प्रारम्भ बताया जासकता है न . उसका अन्त ।
आनन्द कुछ क्षण सोचता रहा, फिर बोला-वस्तु का आदि अन्त जाने.विना किसी वस्तु को पूरी तरह कैसे जाना जासकता है?
____ मैंने कहा-अंश से ही अंशी का पूरा ज्ञान होता है आनन्द ! पहाड़ की एक बाजू देखकर ही पूरे पहाड़ का ज्ञान माना जाता . है । तुम मेरी आकृति और मैं तुम्हारी आकृति एक ही ओर से देख.रहे हैं पर पूरे आनन्द के साथ पूरे वर्धमान की बातचीत हो रही है।
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महावीर का अन्तस्तल
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-
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आनन्द-बहुत ठीक कहा भगवन् आपने । सर्वदशी भी वस्तु का इसी तरह दर्शन करते हैं । एक अंश से सब अंश, एक : .काल से सब काल । सर्वज्ञ अनंतन नहीं होता।
मैं-सर्वक्ष सर्वज्ञ होता है. अनंतज्ञ नहीं। वह आत्मकल्याण के लिये जितने ज्ञान की जरूरत है उतना सब जानता है. चाहे भूत भावग्य की हो, चाहे ऊर्ध्व लोक या पाताल लोक की, इस दृष्टि से वह त्रिकालदर्शी होता है, पर अनन्त को नहीं जानता । इसप्रकार सर्वज्ञ के विषयमें 'हाँ' और 'ना' अर्थात् अस्ति और नास्ति दोनों भंगों का उपयोग किया जासकता है।
आनन्द-फिर भी वाह्य वस्तुओं के जानने के बारे में ज्ञान की कुछ मर्यादा तो होगी। - मैं- हां ! मर्यादा होगी, पर वह बताई नहीं जा सकती। - वह अवक्तव्य है। यह भी एक त्रिभंगी होगई आनन्द, अस्ति नास्ति और अवक्तव्य।
आनन्द- पर यह तो एक तरह का अज्ञेयवाद हुआ
मैं- हां ! शेयवाद अज्ञेयवाद, नित्यवाद अनित्यवाद आदि सभी वादों का समन्वय करने से सत्य के दर्शन होते हैं आनन्द । - आनन्द-बहुत ही अपूर्व है प्रभु यह सिद्धांत, बहुत ही अद्भुत है प्रभु यह सिद्धांत, इससे दर्शन-शास्त्रों के सब झगड़े मिटाये जासकेगे प्रभु, में आपके इस सिद्धान्त से बहुत ही सन्तुष्ट हुआ भगवन् । अब आप तीर्थप्रवर्तन करें भगवन् !
मैं- तीर्थ प्रवर्तन का समय भी शीघ्र ही आनेवाला है आनन्द । . आनन्द प्रणाम करके चला गया । मैं सोचता हूं कि यही त्रिभंगी मेरे दर्शन का सार होगी । अर्थ की दृष्टि से उत्पाद व्यय ध्रौव्य, और ज्ञान की दृष्टि से अस्ति नास्ति अवक्तव्य । जो. इस त्रिभंगी को समझ लेगा वह मेरे दर्शन को समझ लेगा।
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२०८ ]
महावीर का अन्तस्तल
५४ - सप्तभंगी
'७ टुंगी ९४४१ ई. सं.
इन दो दिनों में त्रिभंगी के विकास पर बहुत विचार हुआ। किसी भी पदार्थ को जानने कहने के लिये या किसी प्रश्न का उत्तर देने के लिये अस्ति नास्ति अवश्य ये तीन भंग हैं । वस्तु धर्म के अनुसार तीन में से किसी एक भंग के द्वारा प्रश्न का उत्तर देना होगा । पर इन दो दिनों में जो गहराई से चिंतन किया उससे त्रिभंगी विकसित होकर सप्तभंगी होगई। क्योंकि कुछ प्रश्न ऐसे भी होसकते हैं जिनके अन्तर में दो दो भंगों का या तीनों अंगों का मिश्रण करना पड़े । सात तरह के प्रश्न और सात तरह के उत्तरों से सप्तभंगी होती है । जैसे ज्ञान के विषय में ।
१- प्रश्न - तत्व की दृष्टि से योगी कितना जानता है ? उत्तर- तत्वज्ञान की दृष्टि से योगी सर्वज्ञ है ( अस्ति ) २- प्रश्न अतत्वभूत पदार्थों की दृष्टि से योगी सर्वज्ञ है कि नहीं ?
असर्वश ?
उत्तर- नहीं है । ( नास्ति )
३ - प्रश्न - तत्व और अतत्व दोनों दृष्टियों का एक साथ विचार किया जाय तो ज्ञान की सीमा क्या है ?
72
उत्तर-ऐसी अवस्था में ज्ञान की सीमा कह नहीं सकते । ( अवक्तव्य )
४- प्रश्न- योगी या अर्हत् को हम सर्वज्ञ कहें या
उत्तर-तत्वज्ञान की दृष्टि से सर्वज्ञ कहें और अतत्वज्ञान की दृष्टि से असर्वज्ञ । ( अस्ति नास्ति )
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। अन्तस्तल
[२०९
- ५. प्रश्न- मुझे कुछ तत्वज्ञान सम्बन्धी शंकाएँ हैं कुछ अन्य शंकाएँ भी हैं। क्या, योगी उनका समाधान करेंगे ? योगी थाखिर जानते कितना हैं ?
उत्तर-तत्वज्ञान सम्बन्धी शंकाओं का तो जरूर समाधान करेंगे क्योंकि इस दृष्टि से वे सर्वज्ञ है । वाकी सद शंकाओं का चे समाधान करेंगे कि नहीं, कह नहीं सकते । क्योंकि इस दृष्टि से झुनके ज्ञान की सीमा कही नहीं जासकती। (अस्ति अबक्तव्य)
६प्रश्न- क्या योगी संसार के सब विषयों के सब प्रश्नों का समाधाल कर सकते है ? योगी कितना जानते होंगे?
अत्तर-सब विपयों के सब प्रश्नों का समाधान वे नहीं कर सकते, यद्यपि वे काफी जानते हैं पर कितना जानते हैं कह नहीं सकते । (नास्ति अवक्तव्य )
__ ७ प्रश्न- कुछ तो मेरी तत्वज्ञान सम्बन्धी शंकाएँ हैं और कुछ ऐसी हैं जिनका आत्मकल्याण के या तत्व के ज्ञान से कोई मतलब नहीं, क्या उन सब का समाधान योगी करेंगे ? योगी का सारा ज्ञान आखिर है कितना ?
अत्तर-तत्वज्ञान सम्बन्धी सव शकाओंका समाधान वे करेंगे क्योंकि इस दृष्टि से वे सर्वज्ञ हैं, पर अतत्वज्ञान सम्बन्धी सब शंकाओं का समाधान नहीं कर सकते । क्योंकि इस दृष्टि से सर्वज नहीं हैं। सब मिलाकर कितनी शंकाओं का समाधान करेंगे-कह नहीं सकते क्योंकि साधारणतः उनके जान की सीमा बताना अशक्य है । ( अस्ति नास्ति अवक्तव्य)
. मूलभंग तो तीन ही हैं पर तीन के सात भंग बनाने से प्रश्नों का उत्तर हर तरह से दिया जासकता है और उसमें
काफी स्पष्टता है । त्रिभंगी या सप्तभंगी के द्वारा ही प्रत्येक विषय .. का खुलासा किया जासकता है। हिंसा अहिंसा आदे संयम के
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- महावार का अन्तस्तल
अंगों में भी सप्तभंगी के बिना काम नहीं चल सकता । जैसे हिंसा पाप है । पर थोड़ी बहुत हिंसा तो होती ही रहती है वह अनिवार्य है उसे पाप नहीं कह सकते, इस प्रकार हिंसा के बारे में भी सप्तभंगी बनेगी।
१- हिंसा पाप है। (अस्ति) २- अनिवार्य आरम्भी हिंसा पाय नहीं है। [ नास्ति ]
३- वाहरी हिंसा (द्रव्य हिंसा) देखकर ही किसी को पापी या अपापी नहीं कह सकते । [अवक्तव्य ]
४- संकल्पी हिंसा पाप है, आरम्भी हिंसा पार नहीं। (अस्ति नास्ति)
५- भावहिंसा पाय है पर व्यहिंसा के विषय में निश्चित वात नहीं कह सकते । (अस्ति अवक्तव्य)
६- यद्यपि द्रव्यहिंसा के बारे में निश्चित कुछ नहीं कह - सकते फिर भी इतना निश्चित है कि अनिवार्य आरम्भी हिंसा पाप नहीं है । [ नास्ति अवक्तव्य]
-त्रसप्राणियों की संकल्पी हिंसा पाप है और स्थावरों . की अनिवार्य हिंसा पाप नहीं है इतना निश्चित होने पर भी . द्रव्य हिंसा होने से ही यह नहीं कह सकते कि यह हिंसा पाप है या अपाप । (अस्ति नास्ति अवक्तव्य )
कानसी हिंसा किसके लिये, किस जगह किस समय किस भाव से अनुकूल है और किसके लिये किस जगह किस लमय किस भाव से प्रतिकृल, इसका विचार करके ही सात भंगों में से चित भंग के द्वारा प्रश्न का ठीक अत्तर देना चाहिये । ज्ञान और चारित्र में ही नहीं किन्तु व्यवहार की हर बात में ये सात भंग लगाये जासकते हैं। प्रत्येक वस्तु के विचार में द्रव्य क्षेत्र काल भाव की अपेक्षा विचार करना चाहिये । इसप्र. कार मेरे दर्शन का असाधारण दृष्टिकोण आज निश्चित होगया।
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महावीर का अन्तस्तल
। २११
५५ - दासता की प्रथा १ मुका ६४४१ इ. सं
आज की सामाजिक और आर्थिक समस्याओं में दासता की समस्या भी एक समस्या है । मनुप्य को पशु के समान दाल बनाकर रखना, यहां तक कि सुसे पशु-समान चना खरीदना, मनुष्यता का बड़ा से बड़ा कलंक हैं। पशु में इतना ज्ञान नहीं होता, न उसे पूरी तरह उसका उत्तरदायित्व समझाया जासकता है कि जिलले हांक विना अपना कर्तव्य पूरा कर सके. इसलिये पशु को दास बनाकर रखना एक तरह का अपराध होने पर भी
अन्तव्य है। पर मनुष्य तो अपना उत्तरदायित्व समझता है. .भापा समझता है, तब उसे दास बनाना क्षन्तव्य नहीं कहा जासकता।
पर इस दासप्रथा को जड़ गहरी है । आज इसे इकदम निमल नहीं किया जासकता। हाँ ! एक न एक दिन यह जायगी अवश्य, क्योंकि दासों की पशुता दासों को ही दुःखद नहीं है दास-स्वामियों को भो दुःखद है । दामों को कार्य में काई आकपण या रुचि न होने से वे आधिक हानेि आर कम से कम काम करते हैं और इसके लिय प्रेरित करने में और ध्यान रखने में इतना कष्ट होता है कि दास रखना पर्याप्त महायं मालूम होने लगता है। इसको अपेक्षा भृतिजीवी व्याक्त आधक व्यवस्थित काम करते हैं । इसालेये एक न एक दिन दासा का स्थान मृतिजीवी लोग ही लेलेंगे । परन्तु जब तक वह समय नहीं आया है तब तक मैं दालों को बन्धनमुक्त करने की. और जिन लोगों के पास दास हैं उन्हें दासों की संख्या कम करने की प्रेरणा तो करंगा ही । आज मेरे निमित्त से एक दासो दासता से मुक होगई इससे मुझे पर्याप्त सन्तोप हुआ।
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२१२]
महावीर का अन्तस्तल
....
..2
आज मैं भिक्षा के लिये अचानक ही आनन्द के यहां जा पहुंचा । आनन्द अपने भवन के दूसरे भाग में था। मैं जिस द्वार पर पहुचा उससे एक दाली निकली। वह कल का वासा भात फेंकने आई थी। मुझे देखते ही वह रुकी । वोली-साधुजी, में दासी हूं, मेरे पास ऐसी कोई वस्तु नहीं है जिसे में अपनी कह सहूं और आपको दे सकूँ। यह वासा भात स्वामिनी ने फेंकने के लिये दिया है इसे मैं अपने स्वामित्व का कह सकती हूं। स्या यह वासा भात आपको चलेगा ?
बोलते वोलते असका गला भर आया और आंखें भी गीली होगई।
मैंने हाथ पसार दिये और उसने बड़ी भक्ति से करतल पर भात परोसा और मैंने थाहार लिया। आहार लेकर मैं निबटा ही था कि भीतर से आवाज आई, क्यों री वडुला! भात फेंकने में इतनी देर क्यों लगा रही है ?
आवाज के पीछे बहुला की स्वामिनी वहां आपहुँची। वह मुझे देखकर ठिठको । फिर क्षणभर रुककर कड़कती हुई आवाज में वोलो-क्यों री! तूने भगवान को वासा भात क्यों परोसा?
स्वामिनी की आवाज भवन में गूंज गई । अन्य दासी. दास भी इकट्ठे होगये, आनन्द भी आगया। उसने कहा-भगवन. यह मेरा कितना दुर्भाग्य है कि मेरे घर पर भी आपको वासा भात मिला। .. मैंने कहा- मैंने तुम्हारे यहां आहार नहीं लिया है
आनन्द, बहुला के यहां लिया है । बहुला दासी है, फेकने के लिये दिये गये भात पर ही उसका अधिकार कहा जासकता था इसलिये बहुला के यहां मुझे वही मिल सकता था।
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महावीर का अन्तस्तल
[२१३
· आनन्द ने कुछ अर्ध स्वगत के समान कहा-इतनी समृद्धि रहते हुए भी जो पुण्य मैं न खरीद सका वह पुण्य दासी होने पर भी बहुला ने खरीद लिया। - मैंने कहा- अब तुम वह पुण्य बहुला से खरीद सकते हो।
आनन्द-कैसे खरीद सकता हूं ? मैं- बहुला को दासता से मुक्त करके।
आनन्द-मैं प्रसन्नता से बहुला को दासता से मुक्त करता हूं। यह चाहे तो अभी जहां चाहे जासकती है, चाहे तो भतिजीविनी बनकर मेरे ही यहां रहसकती है । मैं राज्य में भी यह विज्ञप्ति भेज देता हूँ कि बहुला आज से स्वतन्त्र है। आनन्द की इस उदारता से मुझे पर्याप्त सन्तोष हुआ ।
५६-- स्वम जगत् २ चिंगा ६४३१ इ. सं.
एकबार फिर इच्छा हुई कि अकेला ही म्लेच्छ खण्डों में घ, इसलिये दृढभूमि की तरफ विहार किया, पेढाला गांव के पास एक उद्यान में पोलास नाम का चैत्य था उसी चत्य में मैं जशी रास्ते में स्वर्ग लोक के विषय में काफी विचार आते रहे इसलिये रात में जब सोया तव स्वप्न जगत् में उन्हीं विचारों की छाया पड़ी और बड़ा ही अद्भुत स्वम आया।
मैंने देखा कि स्वर्गलोक में इंद्र बड़े ठाठ से अपनी सभा में बैठा है और इधर झुधर की गपशप होते होते मेरा प्रकरण छिड़ पड़ा । इन्द्र ने मेरी तपस्या की बड़ी प्रशंसा की इतनी अधिक कि संगमक नाम के देव को झुमपर विश्वास ही नहीं हुआ, तब वह मेरी परीक्षा लेने के लिये मेरे पास आया
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महावीर का अन्तस्तल
1
और आकर के उसने अपनी शक्ति से मेरे पर खूब धूलवर्षा की पर मैं विचलित न हुआ । तब उसने बड़े बड़े चोटें पैदा किये । उनने शरीर के भीतर घुस - घुसकर मेरा सारा शरीर खा डाला, हड्डियों का पिंजरा ही रह गया, फिर भी मैं विचलित नहीं हुआ तब उसने बड़े बड़े डाँस पैदा किये, बनने मेरा खून चूस डाला फिर भी मैं विचलित न हुआ । तब उसने विच्छू पैदा कियें, उनके डंको से भी मैं विचलित न हुआ तब असने साँप पैदा किये जो मेरे शरीर से लिपट गये, फिर भी मैं विचलित न हुआ । तव असने बड़े बड़े दांतवाला हाथी पैदा किया, उसने मु उठाकर आसमान में फेंक दिया, फिर भी मैं विचलित नहीं हुआ । तत्र सुने दिशाच पैदा किया पर उसका भयंकर रूप देखकर भी मैं विचलित नहीं हुआ। तब असने वाघ पैदा किया, पर अससे भी विचलित नहीं हुआ। तब उसने एक रसोइया बुलाया जिसने मेरे दोनों पैरों का चूल्हा बनाकर आग जलाई, पर उससे भी मैं विचलित नहीं हुआ । तब उसने एक बड़ा तूफान पैदा किया, फिर भी मैं विचलित नहीं हुआ । तब उसने हजार मन वजन का एक कालचक पैदा किया जो असने मुझपर फेंका, उसके वजन से मेरा शरीर घुटने तक जनीत में घुस गया।
यद्यपि यह सब स्वप्न था, पर स्वप्न का असर भी शरीर पर पड़ता है | कालचक्र के स्वप्न से मुझे कुछ नींद में ही ऐसी घबराहट हुआ कि ठंड होने पर भी मुझे पसीना आ गया और मानसिक आघात से नींद खुलगई। देखा तो वहां कुछ नहीं था, मैं चैत्य में अकेला था।
स्वन की भी अद्भुत दुनिया होती है ! बिलकुल असंभव और परस्पर विरोधी घटनाये भी आँखों के सामने प्रत्यक्ष दिखलाई देने लगती हैं, फिर भी निराधार नहीं होती । मन में छिपी हुई वासनाएँ ही इनका आधार बनजाती हैं और कभी कभी
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महावीर का अन्तस्तुल
[२१५
....... .. annama
वासनामें इतनी प्रच्छन्न होती हैं कि वासनावाले मनुष्य को भी उनका पता नहीं लगता। यही कारण है कि कभी कभी ऐसे स्वप्न आते है कि जिनका कोई भी वीज हमें मन के भीतर दिखाई नहीं देता।
मैं इसी स्वप्न को लेता हूं । मेरे शरीर को चालनी की तरह छेद डाला, इसकी मुझे क्या कल्पना आ सकती है ? फिर भी स्वप्न में यह और ऐसी अनेक बातें प्रत्यक्षसी दिखाई दी, क्यों कि इनका वीज मनमें था। पिछले दिनों में जो मैंने अनेक कष्ट सहे हैं और अविचलित होकर सहे हैं उसके कारण मनमें एक ऐसा आत्मविश्वास पैदा हो गया है कि जो प्रच्छन्न अभिमान बन गया है । स्वर्ग में इन्द्रद्वारा मेरी प्रशंसा के स्वप्न से पता लगता है कि मनके भीतर एक तरह की महत्वाकांक्षा छिपी हुई है । असंयम के ये अंश इतने सूक्ष्म और प्रच्छन्न है कि उनको साधारण ज्ञानी जान नहीं सकता । मनकी इन सूक्ष्म पर्यायों का ज्ञान बहुत उंचे दरजे का ज्ञान है कि जो संयम की पर्याप्त विशुद्धि होनेपर ही हो सकता है । अवधिज्ञान की अपेक्षा इसका मिलना बहुत दुर्लभ है। अवधिज्ञान तो असंयमी को भी हो सकता है पर मनःपर्याय तो असी संयमी को हो सकता है जो अपने या पराये मन के भीतर छिपे हुझे पाप और असंयम को अपनी दिव्य दृष्टि से देख सकता है । साधारण मनोवैज्ञानिकता एक बात है झुसका संबंध विशेष विद्या बुद्धि से है जब कि मनःपर्याय ज्ञान विद्या बुद्धि के सिवाय बहुत उच्च श्रेणी की संयम-विशुद्धि के साथ दिव्य दृष्टिकी अपेक्षा रखता है।
आज अपने स्वप्न पर विचार करते करते मुझे मालूम होता है कि मुझे मनःपर्याय ज्ञान होगया है, इस ज्ञान से रहा सहा असंयम भी दूर हो जायगा । तव में अपने को इतना पवित्र बना
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महावीर का अन्तस्तल
सकूंगा जिससे अपने को जिन अर्हत् या बुद्ध कह सकूं। उस समय जो ज्ञान होगा वह विशुद्ध ज्ञान होगा, निर्लिप्त ज्ञान होगा, केवलज्ञान होगा ।
आज इस दुःस्वप्ने संयम और ज्ञान का सच्चा स्वरूप दिखा दिया है जो निकट भविष्य में पूर्ण होगा ।
५७ क्या लूटे ?
४ चिंगा ६४४१ इ. सं.
चैत्य से निकलकर मैं चालुकग्राम की तरफ चला । वालुकाम यथानाम तथागुण हे । असके चारों तरफ बहुत दूर तक बालु ही वालु है । यहां चाहे दिन हो चाहे रात, छिपने की कोई जगह नहीं है इसलिये चोर यहां नहीं रहते, डां हां रहत हैं जो यात्रियों के समान समूह बनाकर चलंत हैं और इक्के दुक्के राहगीर को मारपीटकर लूट लेते हैं ।
मैं जब बालु के मार्ग में से जा हा था तब दूर से इन डाकुओ ने मुझे देखा और दौड़ते हुए मेरे पास आये । पर मुझे देखकर बहुत निराश हुए। मेरे पास लूटने योग्य तो कुछ था ही नहीं, पर शरीर पर कोई चीर भी नहीं था जिसके भीतर किसी वस्तु के छिपाने का कोई सन्देह होसके और सन्देह के नाम पर मुझे तंग किया जासके । एक डांक बोला- अब इसे नंगे का क्या लट ?
दूसरे को मजाक सूझा। बोला-मामाजी, अपने इन भानेजों को कुछ न दोगे ? -
तीसरा बोला- अच्छा तो अपने बच्चों को गोद में ले लीजिये ।
यह कहकर वह मेरे कंधे से लटक गया। इसके बाद भी लटक गया। बाद में और डां भी चारों तरफ लटक
दूसरा
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{ २१७.
गये। चलना तो अशक्य हो ही गया पर मेरे पैर वाटु में फँस: कर रहगये । घड़ीभर उन लोगों ने अत्यन्त अपमान जनक उल्लं. उन किया।
फिर यह कहते हुए लौट गये कि मामाजी, अगर तुम्हारे पास लँगोटी भी होती तो वही लूटते, पर अब नंगे मामा का क्या लूटे ?
५८- तत्व टुंगी ६४४२. इ. सं.
हदभूमि में छः महीने तक विहार किया। वहां के लोग अभी काफी म्लेच्छ हैं फिर भी कुछ न कुछ असर हुआ ही। अनुभव भी मिले । यहां भिक्षा. की काफी कठिनाई रही क्योंकि जिस घर में जाता था उसमें ऐसा भोजन मिलना कठिन होता था जिसमें मांस न मिला हो। अगर कोई ऐसा भोजन मिला भी तो अस्वच्छता के कारण असे लेना ठीक नहीं मालूम हुआ । । इस प्रकार कहना चाहिये कि छः महीने तक एक प्रकार से अनशन ही हुआ। वहां से निकलकर जब एक गोकुल में पहुँचा तय एक गोपी के यहां शुद्ध आहार मिला । इसके बाद मैंने द्रुतगति से पर्याप्त विहार किया। श्वेताम्बी श्रावस्ती कौशाम्बी वाराणसी मिथिला आदि दूर दूर की नगरियों में भ्रमण करके इस विशाला नगरी में ग्यारहवां चातुर्मास किया है। इस भ्रमण में लोगों से जो चर्चाएँ हुई उनसे धर्मतत्वों के निर्णय करने में प्रेरणा मिली। आजकल वही कर रहा हूँ।
कल्याण की दृष्टि से मैंने सात बातो के विचार को मुख्यता दी हैं । और उनके नाम रखें हैं जीव, अजीव, आश्रव,
बन्ध, संवर, निर्जरा, मोक्ष। ... जीव-जो अनुभव करता है कि मैं हूं । चैतन्यमय, सुख
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२१८]
महावार का अन्तस्तल
...
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दुःख का भोक्ता जीव है।
अजीव-जो जीव से भिन्न है वह अजीव है । यह शरीर अजीव है जो जीवके साथ बँधा हुआ या जीव जिस के साथ बंधा हुआ है।
आश्रव-जो दुःख के श्रोत हैं व आश्रव हैं। मिथ्यात्व असंयम आदि के कारण प्राणो दुःखी होता है. ये ही आश्रव हैं।
बन्ध-आश्रवा के कारण प्राणो दुःखदायक परिस्थितियों से बँध जाता है, जिनका असे फल भोगना पड़ता है वह बंध है।
संवर-आश्रवों को रोक देना. अज्ञान . असंयम आदि दूर कर देना संवर ह । संवर होजाने से नये बन्ध नहीं हो पाते।
निर्जग जो कर्म बंध चुके है वे फल देकर झइजाँय या । तपस्या से पहिले ही झड़ा दिये जाय, यह निर्जरा है ।
मोक्ष-बंधी हुई चीज झड़ती तो जरूर हैं, कर्म भी झड़ते है पर मड़ते झरत फल दे जाते हैं। अगर झुसको सहन कर लिया. जाय तब तो ठीक, नहीं तो फल भोगने में जो अशांति
आदि होती है उससे फिर बन्ध होता है, इस प्रकार अनन्त परम्परा चलती रहती है । इसलिये आवश्यकता इस बात की है कि कर्म का फल महन कर लिया जाय और फिर इसप्रकार निर्लिप्त रहा जाय कि आगे बन्ध न हो । इलप्रकार धीरे धीरे ऐसी अवस्था पदा होसकती है जब मनुष्य दुःखों से मुक्त होस. कता है, वही मोक्ष है।
इन सात तत्वों का पक्का विश्वास हो सम्यदर्शन या सम्यक्त्व है, इन सात तत्वों का ठीक ज्ञान ही वास्तव में सम्यज्ञान है । इन तत्वों से बाहर का ज्ञान ठीक रहे या न रहे उससे सम्यग्ज्ञान में कोई बाधा नहीं आतो । इन तत्वों का जिन्हें पूरा अनुभव होजाता है, जो मुक्तावस्था तक का अनुभव करने लगते
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महावीर का अन्तस्तल
[२१२
हैं वे ही पूर्ण सम्यग्ज्ञानी, केवली या बुद्ध हैं । इन तत्वों के अनुरूप आचरण करने लगना मन को पवित्र बनाना ही सम्यक चारित्र है । जो इस चरित्र को पूर्ण कर जाते हैं जो अपनी दुर्वासनाओं को जीत लेते हैं और अपना जीवन स्वपर कल्याणकारी बनालेते हैं वे ही जिन हैं अहंत हैं। इन तत्वों को मैं खोज चुका हूं । बहुत कुछ अनुभव में भी ले आया हूं फिर भी थोड़ी कमी मालूम होती है । कुछ दिनों में वह कभी भी दूर होजायगी।
किसी चीज के मूल को या सार को तत्व कहते हैं। आत्मकल्याण या स्वपर कल्याण के लिये मूलभूत ये सात बात है इसलिये मैं इन्हें तत्व कहता हूं। ये सार तत्व ही मेरी धर्मसं. स्थाकी आधारशिला है।
५९ पुण्याप १६टुंगी ९४४२ इ सं.
परसों तत्वों के बारे में जो निर्णय किया था, उसके विषय में कुछ और गहराई से विचार हुआ। इसमें सन्देह नहीं कि पूर्ण सुखशांति के लिये समी तरह के आश्रवों का त्याग करना चाहिय । पर इस प्रकार की विशुद्ध परिणति हर एक व्यक्ति नहीं कर सकता, वह अशुद्ध परिणतियों में चुनाव ही कर सकता है । इसलिये आश्रवों में शुभ अशुभ का भेद करना पड़ेगा । यद्यपि शुभ भी अशुद्ध है और हानिकर भी है, फिर भी अशुभ की अपेक्षा शुभ बहुत अच्छा है और शुद्ध अवस्था को प्राप्त करने के लिये भी अनुकूल है। अशुभ से शुद्ध को पाना जितना कठिन है शुभ से शुद्ध का पाना अतना कठिन नहीं है ।
अशुभ परिणति में मनुष्य स्वार्थ के लिये वुगई करता है। शुभ परिणति में स्वार्थ को गौणकर भलाई करता है। शुद्ध,परिणति में भी शुभ की ही तरह स्वार्थ को गोणकर मलाई
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२२०]
महावार का अन्तस्तल करता है. इसलिये शुभ और शुद्ध स्थूल दृष्टि से एक मरीखे .. मालूम होते हैं परन्तु सूक्ष्म दृष्टि से शुभ और शुद्ध में बहुत अन्तर है । शुभ में राग या मोह परिणति है, शुद्ध में वीतराग परिणति है । भावों के इस भेद का परिणाम भी भिन्न भिन्न ही होता है । रागी के शुभ कार्य कुछ पक्षपान पूर्ण होत हैं, या कुछ आशा रखते हैं, इसलिये अन्त में मानसिक दुख देते हैं। हमने इतना भला किया है इसलिये इतना नाम होना चाहिये, उपकृतको मेरा उपकार मानना चाहिये या मरने पर मुझे उसका फल मिलना चाहिये इस प्रकार की रागपरिणति अन्त में दुःख देती है, फलाशा से कभी कभी अविवेक भी आजाता है. झुपकृत में प्रतिक्रिया भी होने की सम्भावना रहती है. इसलिये शुभ परिणति मोक्ष सुख नहीं दे सकती । वह अशुभ से अच्छी है, बहुत अच्छी है, पर शुद्ध के समान चिरन्तन स्वपर कल्याणकाग नहीं।
यह ठीक है कि अशुभ परिणति में फंसा हुआ जीव पहिले शुभ परिणति में आयगा, और वहां से शुद्ध परिणति में । शुभ और शुद्ध के बाहरी कार्य एक सरीखे होते हैं केवल परि जामों में अन्तर रहता है, जो धीरे धीरे दूर किया जासकता है।
मुझे तो मनुष्य को पूर्ण सुखी बनाना ह चिरन्तन सुखका आनन्द देना है, इसलिये में जगत को शुद्ध परिणति की ओर लेजाना चाहता हूं। इसलिये अशुभ परिणतिरूप पाप और शुभ परिणतिरूप पुण्य दोनों को आश्रव मानता हूं । परन्तु शुभ और अशुभ में अन्तर है, इस बात को समझाने के लिये पुण्य पाप के रूप में इनका अलग विवेचन भी करना पड़ेगा इसलिये सात तत्व नव तत्व वन जायंगे।
. ... कल्याण के मार्ग पर चलने के लिये इन नव पदों का अर्थ अच्छी तरह से समझ लेना चाहिये इसलिये इन्हें नव पदार्थ : भी कहसकते हैं। .
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६० - शुभत्व के दो किनारे २२ मुंका ९४४२ इ. सं.
सब से नीची श्रेणी का शुभ, जो अशुभ के बिलकुल पास है. और सब से ऊंची श्रेणी का शुभ, जो शुद्ध के बिलकुल पास है. दोनों के उदाहरण कल अकस्मात् ही देखने को मिल गये । इसप्रकार शुभत्व के दोनों किनारों से, या सीमा की रेखाओं से जीव के अशुभ शुभ और शुद्ध परिणामों का (पाप पुण्य मोक्ष का) ठीक ठाक विभाजन होगया।
इस चातुर्मास में जिनदत श्रेष्ठी मेरे पास प्रायः आता रहा ह । एक दिन यह बहुत श्रीमन्त व्यक्ति था पर आजकल बहुत गरीव है, यहां तक कि लोगोंने इसका नाम ही जीर्ण श्रेष्ठी रख लिया है । पर इसकी गरीवी ने इसकी धार्मिकता तथा सुदारता में कोई अन्तर नहीं किया है, यथाशक्ति अधिक से अधिक अदारता का परिचय यह आज भी दिया करता है । भले ही अस उदारता से इसका आर्थिक संकट बढ़ जाये।
अत्यन्त धार्मिक गृहस्थ होने पर भी इसके यहां में भोजन करने नहीं गया। क्योंकि मैं जानता हूं कि यह मेरे लिये अपनी आर्थिक शक्ति से अधिक खर्च कर जायगा । मेरा उद्दिष्ट त्याग इसीलिये ऐसे भोजन से मुझे दूर रखता है। फिर भी जाते जाते कल यह मुझे भोजन का निमन्त्रण दे ही गया । इसे मालूम नहीं कि मैं भोजन का निमन्नग स्वीकार नहीं करता।
मैं दसरे सेठ के यहां भोजन करने गया। वह धन के मद में मत्त था । मुझे देखते ही उसने दासी को आज्ञा दी कि इस भिक्षुक को भिक्षा देकर जल्लो. विदा करदे । दासी एक लकड़ी के पात्र में दाल के छिलके और भुसी का भोजन लेकर आई । मैंने अपने करतल पर झुसी का भोजन लिया। मैं भोजन
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करके निकला ही था कि जनता की एक भीड़ वहां कुतुहल से पहुंच गई । क्योंकि मेरे अनशन की तपस्याओं ने जनता में एक कुतुहल पैदा कर दिया है । मैं कहां आहार लेता हूं इस विषय में भी जनता के मन में एक प्रकार का कुतूहल रहने लगा है।
में तो भोजन लेकर चला आया, पर जनता उस नये सेठ की बड़ी प्रशंसा करने लगी. और करने लगी मेग गुणगान भी । अब सेठ को ज्ञान हुआ कि मैंने किसी बड़े तपस्वी को भिक्षा दी है। सम्भवतः ऐसी रद्दी भिक्षा देने के कारण वह मन ही मन पछताने भी लगा। इतने में एक मनुष्य ने कहा- सेठ जी, धन्य है आपको, जो ऐसे महान तपस्वी का आहार आपके यहां हुआ । तपस्वीराज को क्या भोजन दिया था आपने ? . सेठ झूठ बोलने में काफी चतुर था । उसने बिना संकोच के कहा-बढ़िया खीर खिलाई थी।
धन्य है ! धन्य हैं ! की ध्वनि चारों ओर गुजगई। धीरे धीरे यह चर्चा सारे नगर में फैलगई । जर्णि श्रेष्ठी ने भी सुनी। उसे बहुत खेद हुआ।
तीसरे पहर वह मेरे पास आया । नवीन श्रेष्ठी के यहां आहार लेन आदि की सब बातें सुनाते हुए उसने कहा-प्रभु, मैं बड़ा अभागी है । आपके चरणों से मेरी झोपड़ी पवित्र न होपाई।
मैंने मुसकराते हुए कहा-पर मन तो पवित्र होगया।
सेठ ने कुछ उत्तर न दिया । खेद के चिन्ह उसके चेहरे पर दिखाई दे रहे थे।
मैंने कहा-नवीन श्रेष्ठी को मिलनेवाली प्रशंसा तुम्हें न मिल पाई, क्या इस बात का खेद होरहा है ? . सेट ने कहा-जब आपको निमन्त्रण दिया था उस समय
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मुझे इस प्रशंसा की तनिक भी कल्पना नहीं थी । उस समय तो मैं यही सोच रहा था कि जीवन की पवित्रता का चरमरुप * बनाने के लिये, और जगत् में सुख शांति का साम्राज्य स्थापित करने के लिये जो आप महान तपस्या कर रहे हैं असपर श्रद्धांजलि चढ़ाना मेरा कर्तव्य है । इसी कर्तव्यभावना से मैं अपने को कृतकृत्य बनाना चाहता था । पर जब लोगों के मुँह से नवीन श्रेष्ठी की प्रशंसा सुनी तब मेरा ध्यान इस तरफ गया और मन चल विल होगया ।
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मैंने कहा- अगर इस बात से मन विचल न होता तो तुम अर्हत् होगये होते । पर अब तुम सिर्फ इन्द्रासन के ही अधिकारी रहगये ।
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सेठ मुसकराकर रह गया ।
मैंने कहा- सेठ ! तुम अर्हत् नहीं होपाये पर नवीन श्रेष्ठी की अपेक्षा तुमने असंख्यगुणा पुण्य कमाया है ।
सेठ बहुत सन्तुष्ट हुआ। और प्रणाम करके चला गया । नवीन श्रेष्ठी पापी है, वह झूठ बोलकर भी प्रशंसा लूटना चाहता है, भिक्षा भी अपमान से देता हैं और वह भी रही से रद्दी, फिर भी देता है यह पुण्य का प्रारम्भ है । पाप से लगा हुआ विलकुल नीची श्रेणी का पुण्य है यह । जीर्ण श्रेष्ठी जो पुण्य करता है वह कर्तव्य की प्रेरणा से । किसी ऐहिक स्वार्थ की लालसा से नहीं । यह पुण्य की पराकाष्ठा है । अगर पीछे पीछे इसका मन प्रशंसा की बात से चल विचल न होता तो यह शुभोपयोग न रहकर शुद्धोपयोग वनजाता | थोड़ी सी अशुद्धि मिलजाने से यह आश्रवरूप होगया, नहीं तो मोक्ष रूप होता । इसप्रकार इस घटना से अशुभ शुभ और शुद्ध की सीमा रेखाएँ बड़ी अच्छी तरह से बनगई । शुभत्व के दोनों किनारों का स्पष्टीकरण होगया |
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महावीर का अन्तस्तल
६१ - तप त्याग का प्रभाव
१७ चिंगा १४४२ इतिहास संवत् ।
अनेक गावों में भ्रमण करता हुआ इस सुशुमार पुर में आया हूं । यद्यपि यह अनुभव मैं जन्मसे ही कर रहा हूं कि मनुष्य कुलजाति का, वैभव का और शासन के अधिकार का जितना सन्मान करता है उतना तपत्याग का नहीं । कुलजाति जगत की कोई भलाई नहीं होती, केवल दूसरों का अपमान होता है, मद से आत्मा का पतन भी होता है। वैभव से जीवन शुद्धि का कोई सम्बन्ध नहीं, बल्कि एक के पास अधिक सम्पत्ति पहुँच जाने से दूसरों के पास सम्पत्ति की कभी पड़ती है, विलास से धनी का भी प्रतन होता है । अधिकार का मद तो सबसे बड़ा मद है, इससे मनुष्य अत्यन्त विलासी घमंडी अविवेकी और अत्याचारी होजाता है । मैं कुलजाति की महत्ता तोड़ना चाहता हूं । अपरिग्रह की ओर जगत को लेजाना चाहता हूं और चाहता हूं कि अधिकार न्याय की व्यवस्था के लिये ही हो । अधिकारी सेवक के रूप में जनता के सामने आये, जनता का देवता बनकर नहीं । पर यह बात तभी होसकती है जब जनता गुणपूजक, त्यागपूजक हो । अभी तक जनता कुल की, धन की, अधिकार की पूजा करती रही है; इसलिये सच्चा त्याग तप दुर्लभ होरहा है। इसका परिणाम यह हुआ है कि जगत में जन्म मरण आदि का जितना प्राकृतिक दुःख है उससे असख्यगुणा दुःख मनुष्य के पल्ले पड़गया हे । वैभव और अधिकार की महत्ता ने मनुष्य के मनपर ऐसी छाप मारी है कि जो लोग तप-त्याग भी करते हैं वह तप-त्याग का आनन्द लेने के लिये नहीं, जगत की सेवा के लिये भी नहीं, किन्तु वैभव-विलास के रूप में उसका फल पाने के लिये ।
मैं ऐसे तप को कुतप मानता हूं जिसमें आत्मशुद्धि नहीं, सिर्फ उसी बिलास को हजारों गुणं रूप में पाने की लालसा है,
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अन्तस्तल
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जिसका त्यागकर वह त्यागी-तपस्वी बना है। इससे वैभव विलास मिल सकता है, पर यह देवी वृत्ति नहीं आसुरी वृत्ति है। ऐसे लोग देवराज का पद नहीं पासकत, मोक्ष नहीं पासकते, कदाचित् असुरराज ही बन सकते हैं ।
में अपने त्याग-तप को आत्मशुद्धि का, मोक्ष का और जगत के उद्धार का अंग बनाना चाहता हूं । मुझे तो देवराज का पद भी इसके आगे तुच्छ मालूम होता है । मैं ऐसा जगत बनाना चाहता है जिसमें देवराज और असुरराज सब सच्चे त्यागी तपस्वियों के आगे नतमस्तक रहें, भक्तिभय से ओतप्रोत रहें, और त्यागी के आगे शक्ति वैभव अधिकार के प्रदर्शन करने का साहस न कर सके, बलिक स्थायीरूप में शान्ति की ओर झुकें ।
१८ चिंगा ९४४२, इ. सं.
आज मैं शौच के लिये ईशान कोण की ओर गया था। लौटते समय मैंने देखा कि एक वट वृक्ष के नीचे एक तापस लेटा हुआ है और चार पांच ग्रामीण उसके आसपास बैठे हुए है। मेरे कानों में आवाज आई कि अब महाराज एक दो दिन से अधिक जीवित नहीं रह सकते । कोई अन्यसाधारण घटना समझकर मैं झुल ओर मुड़ा । मुझे आया हुआ देखकर ग्रामीण एक और हट गये । तापस का शरीर अस्थि पंजरला रहगया था । कुछ सोच समझकर में झुलके पास वैउगया । और पृछाक्या आपने आजीवन अनशन लिया है'
तपस्वी बहुत निर्बल होगया था। ध्वनि झुलकी बहुत . धीमी होगई थी। इसलिये सिर हिलाकर उसने तुरंत स्वीकृति दी, फिर कुछ देर में शक्तिसंचयं करके उसने मुँह से भी 'हां' कहा।
उसकी निर्वलता देकर मेरी इच्छा बात करने की नहीं
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नाहावार का अन्तस्तल
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थी। पर थोड़ी देर में उसीन धीरे धीरे कहना शुरु किया-जीवन म ज्ञाफी वैभव और सन्मान पाया, अन्त में सोचा कि पहिले जन्म की पूंजी समाप्त होजाय इसके पहिले ही अगले जन्म के लिये कुछ जोड़ लेना चाहिये । इसलिये मैं तापस होगया। मैं विनय और दान को सच से मुख्य धर्म समझता हूं | इसलिये मैं सभी को प्रणाम करता रहा हूं और जो भिक्षा में मिला है उसका पक हिस्सा खाता रहा है बाकी तीन हिस्से पथिकों जलचरों और पक्षियों को समर्पित करता रहा हूं। मेरे भिक्षापात्र में चार खंड है-एक मेरे लिये, और बाकी तीन इन तीन वर्षों के लिये । इसप्रकार नपस्या करके मने आजीवन अनशन ललिया है, अब जीवन का अंतिम समय आनेवाला है।
इतना बोलने से ही उसे ऐसी थकावट होगई कि वह हांपनेसा लगा । मेरी इच्छा नहीं थी कि मैं कुछ बातचीत करके असे और थकाऊं। पर असको मुखमुद्रा से ऐसा मालूम हुआ कि वह और चर्चा करना चाहता है और मुझ स कुछ सुनना चाहता है । कम से कम अपनी प्रशंसा तो अवश्य ।
मैंने कहा-इसमें सन्देह नहीं कि नम्रता और उदारता बहुत प्रशंसनीय धर्म है । यह ठीक है कि उसमें यथाशक्य अधिक से अधिक विवेक का उपयोग करना चाहिये पर विवेक का उपयोग तो तभी किया जाय जत्र मूल में वे गुण हों। आप में वे गुण हैं यह पर्याप्त असाधारण बात है।
यद्यपि मैने सम्यक्त्व का ध्यान रखते हुए काफी नपे तुल शब्दोम उसकी प्रशंसा की थी फिर भी उसे पयाप्त सन्तोष हुआ । वह बोला-मुझे विश्वास है कि इस जीवन में जितना बभव और अधिकार पाया था उससे असंख्यगुणा अगले जन्म में पाऊंगा । इस जीवन में मुझे यह घात खटकती रही कि मुझसे भी बड़े वैभववाल है, मुझसे बड़े आधिफारी लोग हैं, जिनकं आगे मुझं निष्प्रभ होना पड़ता है । इस
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प्रकार आधिकार और वैभव से सम्पन्न होने पर भी जैसी शान्ति मुझे मिलना चाहिये थी वैसी न मिली । मेरा नाम पूरण है पर जैसा चाहिये वैसा पूरण मैं बन नहीं पाया!
मैंने कहा-पर क्या आप समझते हैं कि इस राह से कभी किसी को स्थायी शांति मिल सकती है ? अधिक वैभव का अर्थ हैं दूसरों का अधिक गरीब होना, अधिक अधिकार का अर्थ है दूसरों में अधिक दासता होना, इससे मोह और मद ही बढ़ता है। इस प्रकार न हम आत्मा को शुद्ध कर सकते है न दुसरों को शुद्ध और सुखी बना सकते हैं बल्कि दुसरों में ईर्ष्या द्वेष पैदा करने के कारण विरोधियों की संख्या ही बढ़ाते हैं। उनमें से कोई विरोधी शक्ति संचय करके हमें पराजित भी कर सकता है, उसकी चिन्ता से भी हमें शान्ति नहीं मिलती। इसलिये अच्छा यही है कि हम विश्वप्रेम अर्थात् परम वीतरागता के ध्येय से तप करें | वैभव के ध्येय से नहीं।
तापल थोड़ी देर चुप रहा, फिर बोला-आप कोई महान ज्ञानी मालूम होते है. मैं आपको प्रणाम करता हूँ। यो तो प्रणाम सम्प्रदाय का तापस होने के कारण में सभी को प्रणाम किया करता हूं पर आपका उत्कृष्ट ज्ञान और परम वीतरागता देखकर यापको विशेष प्रणाम करता हूं।
यह कहकर उसने मेरी तरफ तान वार अंजलि जोड़कर प्रगाम किया। फिर बोला-पर मैं क्या करूं ! आपकी बातों में अनुराग होनेपर भी उन्हें जीवन में नहीं उतार सकता । जीवनभर के संस्कार सहसा नष्ट नहीं होपाते हैं। मैं मृत्यु शय्यापर पड़ा हूं पर महत्वाकांक्षा भीतर ही भीतर तांडव कर रही है। फिर भी मैं चाहता हूं कि मरने के बाद घरलोक में मेरी महत्वाकांक्षा पूरी हो या न हो, या कितनी भी हो, फिर भी मैं आपको न भूलें।
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इसके बाद उसने मुझे फिर प्रणाम किया। थोड़ी देर बैठकर मैं चला आया । नाना तरह के विचार मेरे मन में आते रहे | और तब तक आते रहे जब तक मुझे नींद न आगई । १६ चिंगा ६४४२ इ. संः
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कल दिनभर जो विचार आते रहे उनने विकृत होकर रात में बड़े विचित्र स्वप्न का रूप लिया | मैंने देखा कि पूरण तापस मरगया है और मरकर असुरों का इन्द्र हुआ है । पैदा होते ही उसने चारों ओर देखा कि यहां मुझसे बड़ा कोई है तो नहीं । आसपास जो असुरियाँ और असुर खड़े थे वे प्रणाम कर रहे थे, पर ऊपर जब उसने स्वर्ग देखा तब वहां देवेन्द्र का वैभव देखकर उसे क्रोध आगया । बोला यह कौन है जो मेरे सिर पर बैठकर राज्य कर रहा है ? साथी असुरों ने कहा- यह देवराज शक है। इसने कहा- तो मेरे रहते इसे स्वर्ग पर राज्य करने का क्या अधिकार है ? मैं उसे नीचे गिराऊंगा ।
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असुरों ने रोका पर यह न माना। एक मुहर लेकर यह देवेन्द्र विजय के लिये चल निकला। पर रास्ते में उसे मेरा इसलिये मेरी वन्दना को मेरे पास आया और
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खयाल आया
बोला- आशीर्वाद दीजिये कि मैं देवेन्द्र को जीत लृ ।
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चुप रहा !
फिर बोला- अगर में देवेन्द्र को न जीत पाऊं तो मैं आपकी ही शरण आऊंगा । आशा आय मेरी रक्षा करेंगे 1
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मैं कुछ मुसकराया पर बोला कुछ नहीं । वह प्रणाम करके चला गया ।
आसमान में पहुचकर उसने विशाल रूप बनाया, उसके हस्तचालन से और मुद्गर घुमाने से तारे टकरा गये और टूटने लगे । सौधर्म स्वर्ग में उसका विकराल रूप देखकर साधारण देव
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तो डर के मारे छिपगये और यह गर्जन करता हुआ इन्द्र के
सामने पहुँचा और बोला-रे देवेन्द्र मेरे रहते तुझे इस इन्द्रासन 2 पर बैठने का क्या अधिकार है ? तृ थासन छोड़दे अन्यथा मैं तुझे नीचे गिरा दूंगा।
. इन्द्र कुछ तो चाकेत हुआ, कुछ क्रुद्ध हुआ, उसने तुरंत असुरेन्द्र के ऊपर अपना वडर छोड़ा । हजारों विजलियों से भी अधिक तेजस्वी उस वर को देखकर असुरेन्द्र घबराया और उसे देखते ही भागा। सब देव असकी हँसी उड़ाने लगे। पर जब इन्द्र को मालूम हुआ कि असुरराज मेरी तरफ भाग रहा है तब वह घबराया । और वज्र को पकड़ने के लिये वह भी पीछे पीछे दौड़ा । अन्त में असुरराज अपना छोटा रूप बनाकर मेरे पैरों के बीच में आवठा, वजर थोड़ी दूर पर. आपाया था कि इन्द्र ने उसे पकड़ लिया । इन्द्र ने मुझे नमस्कार किया और कहा-प्रमु, धृष्ठता क्षमा करें ! मुझे पता नहीं था कि वह आपका भक्त है। अब में इसे क्षमा करता हूं। यह कहकर इन्द्र चला गया : जाते जाते उसने मुझे बार बार प्रणाम किया।
इसके बाद मेरी नींद खुलगई ।
स्वप्न पर मुझे कुछ आश्चर्य नहीं हुआ। दो दिन से जैसे विचार मेरे मन में चक्कर लगा रहे हैं उसके अनुसार ऐसे स्वप्न थाना स्वाभाविक हैं । लोक प्रचलित सुरासुर विरोध की कथाओं के संस्कार भी इसमें कारण है।
मुझे इस सुरासुर विरोध से कोई मतलब नहीं, पर मैं यह अवश्य चाहता हूँ कि संसार में शक्ति वैभव और आधिकार से अधिक तप त्याग सेवा और ज्ञान का प्रभाव हो । वे देवेन्द्र हो या असुरेन्द्र, दोनों ही सच्चे तपस्वीयों के वश में रहें । अर्थात् तामसी और राजसी शाक्तियाँ सात्विकी शक्तियों के आगे झुकी रहें।
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- जगत् इस दिशा में जितना आगे बढ़ेगा जगत् को सच्चे सेवको का, ज्ञानियों तपस्वियों और त्यागियों का उतना ही अधिक लाभ होगा। साथ ही धन वैभव अधिकार की महत्ता कम होने से इनकी तरफ जनता का झुकाव भी कम होगा। इस प्रकार पाप का बीज भी निर्मूल होने लगेगा।
जगत् में धन वैभव कम हो यह दुःख की बात नहीं है पर वीतरागता विवक त्याग तप आदि कम हो यही दुख की बात है। मैं ऐसे तीर्थ की रचना करना चाहता हूँ जिसमें पद पद पर तप त्याग की और ज्ञान की महिमा दिखाई दे ।
६२-निमित्त और उपादान ८चन्नी ६४४२ इ.सं.
सुसुमार पुर से भ्रमण करता हुआ मैं भोगपुर आया। वहां एक महिन्द्र नामका क्षत्रिय मुझे देखते ही भड़क उठा। और बकझक करता हुआ खजूर की टहनी लेकर मुझे माग्ने दौड़ा, परन्तु सनत्कुमार नाम के एक दूसरे क्षत्रियने, जो उस गांव का अधिपति था, असे रोका।
वहां से भ्रमण करता हुआ मैं नंदीग्राम आया, यहां के अधिपति ने मेरा खूब आदर सत्कार किया। .. यहां से मैं मेढक गांव आया । यहां एक ग्वाला मुझे रस्सी लेकर मारने दौड़ा, यहां भी गांव के एक मुखिया ने देखलिया और उसे रोका।
___इन घटनाओं से पता लगता है कि श्रमण विरोधी वातावरण अभी भी काफी है। फिर भी उसमें इतना सुधार होगया है कि अव श्रमणों का पक्ष लेनेवाले भी काफी लोग होगये हैं।
इन घटनाओं से मेरे मन में एक विचार बार बार आता
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क्षण भर
था कि मैं इतना वीतराग होने पर भी लोग आक्रमण क्यों करने लगते हैं। मेरी अहिंसा का कोई भी प्रभाव उनपर क्यों नहीं पड़ता? क्या मेरी अहिंसा मिथ्या है ? या अहिंसा का सिद्धान्त अकिञ्चित्कर है।
क्षण भर को ही मेरे मन में यह विचार याया और दूसरे ही क्षण समाधान होगया कि-निमित्त कितना भी बलवान हो किन्तु जब तक उपादान में योग्यता न हो तब तक निमित्त कुछ नहीं कर सकता । यही कारण है कि परम आहिंसक के भी शत्रु निकल आते हैं, और स्वार्थवश भ्रमवश वे उन्हें सताते हैं । निमित्त व्यर्थ नहीं है पर वही सब कुछ नहीं है । निमित्त का एकान्त या अपादान का एकान्त, दोनों मिथ्या हैं ।
६३ - दासता विरोधी अभिग्रह १ सत्येशा ९४४३ इ. सं.
जब मैं कौशाम्बी नगरी की ओर आरहा था तब मेरे आगे आगे जो पथिक समूह था उसकी बातें मैंने बड़े ध्यान से सुनी। उससे पता लगा कि यहां के शतानिक गजा ने विजयादशमी के दिन सीमोल्लंघन का उत्सव चम्पा नगरी पर आक्रमण करके मनाया । चम्पा नगरी का दधिवाहन राजा डर के कारण भाग गया । शतानिक ने सेना को आज्ञा दे दी कि जिससे जो लूटते बने वह लूटलो! इस प्रकार सारा नगर.लुट गया। दधिवाहन राजा की रानी और पुत्री भी लुट गई। लुटेरे ने रानी को पत्नी बनाना चाहा, पर यह बात सुनते ही रानी को इतना दुःख हुआ कि वह मानसिक आघात से मर गई। उसकी लड़की वसुमती को लुटेरों ने कौशाम्बी में बेच दिया है । और भी सैकड़ों सुन्दरियाँ वेचकर दासी बना दी गई हैं।
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इस समाचार से मुझे बहुत दुःख हुआ । एक विशाल राज्य की कल्पना मुझे प्रिय होने पर भी मैं यह पसन्द नहीं करता कि राजा लोग तनिक सी ताकत हाथमें आते ही इसप्रकार मनुष्यों का शिकार करने के लिये निकल पड़ें, डकैतों की तरह लूट खसोट करने लगें, न्यायका, अहिंसा का, मानवता का अपमान कर निरपराधों की हत्या करें, दासता की कुप्रथाको पनपायें । में अवश्य ही यथाशक्य इप्स अन्याय के विरोध में कुछ प्रयत्न करूंगा।
इस दिग्विजय यात्रा से मेरे मनमें एक विचार यह भी आया कि साधुओं को तो कहीं भी जाने में बाधा नहीं है पर गृहस्थों को दिशाओं में भ्रमण करने की भी मर्यादा लेलेना चाहिये । भ्रमण की मर्यादा से उनकी तृष्णा शान्त रहेगी। इस प्रकार दिग्वत या देशव्रत भी गृहस्थों के व्रतों में शामिल होना चाहिये।
अस्तु, इस भयंकर दासता के विरोध मैंने एक अभिग्रह लिया कि मैं किसी ऐसी दासी के हाथ से ही भिक्षा लूंगा जो कुलीन होने पर भी दासता के चक्र में पड़गई है और किसी कारण काराग्रह क कष्ट भोग रही है । आंसुओं से आंखें भिगोये
. इस अभिग्रह के साथ मैं प्रतिदिन मिक्षा लेने जाने लगा; पर भिक्षा न मिली । पहिले तो किसीको चिन्ता न हुई । पर जब शुद्ध प्रासुक भोजन भी मैंने नहीं लिया तब लोगों का कुतूहल बढ़ा। वे मेरी तरफ अधिक ध्यान देने लगे। मैंने देखा कि गजमार्ग या बड़े बड़े मार्गों में मेरा अभिग्रह पूरा न होगा । संकंटग्रस्त दासियाँ तो घरों के पिछवाड़े भाग में रक्खी जाती है। इसलिये मैं घरों के पिछवाहे भाग की गलियोंमें भिक्षा लेने के
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लिये निकलने लगा । और इसी तरह आज अभिग्रह पूरा हागया ।
आज जब मैं धनावह संठ को हवेली के पिछवाहे भाग से जा रहा था तब मेरे कान में आवाज आई-प्रभु ! यहां दया करो प्रभु ! , मैंने देखा एक अत्यन्त रूपवती युवति मेरी तरफ देखरही है । उसका सिर मुड़ा है, वस्त्र मलिन है. परों में बेड़ी पड़ी है इसलिये चल फिर नहीं सकती, हाथ में टूटा सा सृपा है और उसमें है कुलमाप ( दाल के छिलकों का भोजन)। मैं रुका। मेरे रुकते ही उसने बड़ी आई वाणी से कहा-प्रभु, मं दुर्भाग्य से सताई हुई एक राजकुमारी हूं | आज दाली से भी बुरी अवस्था में हूं । खाने को यह कुल्माप मुझे मिला है, जो आप के योग्य तो नहीं है पर आप अगर इल अभागिनी पर दया कर सकें तो इसे ग्रहण करें।
कहते कहते उसकी आंखों में आंसु आगये। मेरा अभिग्रह पुरा हुआ, मैं करतल पर वह भोजन लेने लगा।
. मेरी ओर लोगों की दृष्टि थी ही। थोड़ी देर में यहां भीड़ इकट्ठी होगई । इतने में घनावह सेठ लुहार को लेकर आया।
मुझे देखते ही वह मेरे पैरों लगा। उसने कहा-मैं चन्दना को अपनी बेटी के समान मानता था। पर मेरी पत्नी को भरम हुआ कि मैं इसे पत्नी बनाना चाहता हूँ। एक दिन किसी दास दासी के निकट में न रहने से इसने पिता सममकर मेरे पैर धोदिये । पैर धोते समय इसके केश लटककर जमीन छुने लगे इसलिये मैने हाथ से इसकी पीठ पर कर दिये । मेरी मूद पत्नी नेदेखा और इसी बात पर सन्देह किया और मुझसे छिपाकर बेटी चन्दना का सिर मुड़ा दिया, बेड़ी डाल दी, और पिछवाद ।
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के इस कमरे में बन्द कर दिया । आज तीन दिन में मुझे पता लगा और तुरन्त ही मैं बेड़ी कटवाने के लिये लुहार को लाने चला गया । मैं अपनी पत्नी की करतूत पर बहुत लज्जित हूं भगवन् 1
इतने में भीड़ में से एक मनुष्य निकला और वन्दना को पकड़कर जोर जोर से रोने लगा । चन्दना भी उसे देखकर रोने लगी। पीछे मालूम हुआ यह दधिवाहन राजा के रणवास का कंचुकी है, चन्दना को इसने गोद खिलाया है । चन्दना का मूल नाम वसुमती है। कंचुकी भी लूट किया गया था पर आज ही छोड़ दिया गया हैं |
यह समाचार शतानिक राजा को मिला । उसकी पत्नी मृगावती को भी पता लगा । मृगावती को मेरे विषय में बड़ी भक्ति होगई थी इसलिये मेरे अभिग्रह को पूर्ण सफल करने के लिये उसने चम्पापुरी में लूटी गई सब स्त्रियों को दासीपन से मुक्त करा दिया |
इस प्रकार मेरा अभिग्रह अन्याय के एक बड़े मारी अंश का परिमार्जन करासका 1
६४ - जीवासेद्धि
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श्रमण विरोधी वातावरण यद्यपि पूरी तरह शांत नहीं हुआ है फिर भी उसमें अन्तर बहुत आगया है । इतना ही नहीं अब श्रमण भक्त ब्राह्मण भी मिलने लगे हैं। साथ ही में यह भी समझ गया हूं कि श्रमण विरोध का ठेका सिर्फ ब्राह्मणों ने ही नहीं लिया है। मेरे ऊपर उपसर्ग करनेवालों में ब्राह्मणेत्तर ही बहुत है ।
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उस दिन पालक ग्राम में भायल नाम का वैश्य मेरे ऊपर नलवार लेकर मारने दौड़ा था जब कि इसके पहिले सुमंगल और सत्क्षेत्र नाम के ग्रामों में वहां के ब्राह्मण क्षत्रियों ने मेरी वन्दना की थी। इसलिये अब श्रमण ब्राह्मण का भेद करना व्यर्थ है। मुझे जो क्रांति करना है उसमें मुझे ब्राह्मण और ब्राह्मणेतर का कोई भेद नहीं करता है । बल्कि अचरज नहीं कि इस कार्य में मुझे ब्राह्मणों से ही अधिक सहायता मिले । . . कुछ भी हो । अब की बार का यह चौमासा मैने चम्पा नगरी के स्वातिदत्त ब्राह्मण की अग्निहोत्रशाला में किया है । एक श्रमण को अपनी यनशाला में चातुर्मास की अनुमति देकर जहां ब्राह्मण ने उदारता का परिचय दिया है वहां मैंने भी ब्राह्मणों से सहयोग का विचार किया है ।
ब्राह्मण ने जगह तो दे दी, पर कोई विशेष आदर व्यक्त नहीं किया। हां ! पूर्णभद्र और मणिभद्र नाम के दो व्यक्ति अवश्य मेरे पास आते हैं और कुछ प्रश्न पूछते हैं । इससे स्वातिदत्त को भी कुछ जिज्ञासा हुई और उसने आत्मा के विषय में पूछा।
मैंने कहा-जड़ तत्व के समान चेतन तत्व भी एक स्वतन्त्र तत्व है उसे आत्मा जीव चेतन आदि किसी भी नाम से कह सकते हैं । वह एक नित्य द्रव्य है।
ब्राह्मण ने पूछा-पर वह है कैसा? . .
मैंने कहा-ब्राह्मण, क्या तुम चाहते हो कि मैं तुम्हें जीव के लिये कोई ऐसी झुपमा दूं जिसे तुम इन्द्रियों से ग्रहण कर सकते हो?
ब्राह्मण ने कहा-हां ।
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महावीर का अन्तस्तल
मैंने कहा-पर यह कैसे सम्भव है ? जिन चीजों का हम इन्द्रियों से ग्रहण कर सकते हैं वे सब जड़ है, रूप रस गधं स्पर्श आदि गुणवाली हैं, जब कि जीव सुन सब से भिन्न है असमें रूप रस गन्ध स्पर्श नहीं है, वह अमूर्तिक है। अमूर्तिक को मूर्तिक के दृष्टांत से कसे समझ सकते हैं। .. ब्राह्मण-तब जीव को कैसे समझा जाय ?
मैंने-उसके गुण से । जीव में एक ऐसा असाधारण गुण है जो संसार के अन्य किसी पदार्थ में नहीं पाया जाता, वह है उसके अनुभव करने की शक्ति, 'मैं हूं' इसका भान । यह भान किसी अन्य पदार्थ में नहीं पाया जाता।
ब्राह्मण-पर ऐसा देखा जाता है कि अलग अलग पदा में जो गुण दिखाई नहीं देते वे मिलने पर दिखाई देने लगते हैं। मद्यके घटकों में जो मादकता दिखाई नहीं देती वह मद्यमें देती है।
मैं-पमा नहीं होता ब्राह्मण, जो जो चीज हम बात है असका कुछ न कुछ नशा हमारे शरीर पर पड़ता ही है । निद्रा आदि उसी के परिणाम है । मद्य का प्रभाव उसी का विकृत और परिवर्द्धित रूप है। ब्राह्मण, प्रत्येक द्रव्य में प्रत्येक गुण की असंख्य तरह की पर्यायें होती है पर नया गुण पैदा नहीं होसकता। अचेतन में चंतना गुण नहीं आसकता । क्या तुम कल्पना कर सकते हो कि जद पदार्थों का कोई ऐसा यन्त्र या कोई ऐसा मिश्रण तैयार होसकता है जो अपने बारे में यह अनुभव करने लगे कि 'मैं हूं'।
ऐसा तो असम्भव है महाश्रमण ।
तब जो यह अनुभव करता है वहीं जीव है और यह. संसार के सब जड़ पदाथों से भिन्न है, यह न किसी के मिलने से बन सकता है न किसीके बिलइने से मिट सकता है। वह
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महावीर का अन्तस्तल
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नित्य है, अज है, अमर है । असे हम देख नहीं सकते, छू नहीं सकते पर अनुभव से समझ सकते हैं, अनुभव से जान सकते हैं । ब्राह्मण-आप महान ज्ञानी है महाश्रमण । यह मेरा परम सौभाग्य है कि आप सरीखे परम ज्ञानी ने मेरे यहां चातुर्मास किया ।
इसके बाद जितने दिन मैं वहां रहा वह ब्राह्मणं प्रतिदिन मेरी पूजा भक्ति करता रहा ।
६५ -- संघ की आवश्यकता
१ चन्नी ९४४३ इ. संवत्
ग्यारह वर्ष से ऊपर मुझे अकेले विहार करते होगये, इस समय में मैंने उग्र तपस्याएँ की, सत्य की अधिक से अधिक खोज की, अहिंसा की उम्र से अग्र साधना की, जिस क्रान्ति के ध्येय से मैंने गृह त्याग किया था उसकी भी पर्याप्त तयारी को, उसके अनुकूल वातावरण निर्माण किया, पर अगर मैं संघ की रचना न करूं और संघ के साथ विहार करने की व्यवस्था न करूं तो लोकसाधना कीट से इतने वर्षों की यह सब साधना व्यर्थ जायगी। मैं अकेला विहार करता हुआ सुख दुख समभावी वनकर अपने को जीवन्मुक बना सकता हूँ परन्तु इतने से समाज में वह परिवर्तन नहीं कर सकता जो परिवर्तन मेरे इस साधनामय या जीवन्मुक जीवन से होना चाहिये | ओर संसार के प्राणियों को जिसकी परम आवश्यकता है ।
बात यह है कि ऐसे लोग बहुत कम हैं जो निष्पक्ष वनकर मेरे ज्ञान से लाभ उठा सकें, मेरी अहिंसकता को समझ सक । साधारण जनता तो मुझे एक भिखारी या कंगाल समझ बैठती है । उसके पास बिना बाहरी प्रदर्शन के संयम और ज्ञान को
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२८]
महावीर का अन्तस्तल
देखने की आंखें ही नहीं हैं । इसलिये कभी कभी बड़ी भयंकर दुर्घटनाएँ होजाती हैं । पहिले भी ऐसी दुर्घटनाएँ कम नहीं हुई । कहीं मुझे चोर सममकर सताया गया, कहीं गुप्तचर समझकर प्रताड़ित किया गया, कहीं भिखारी समझकर अपमानित किया गया। इसमें उन लोगों का विशेष दोष नहीं हैं। जो आंखें उनके पास नहीं हैं उसके लिये वे क्या करें ? चमड़े की आंखों से वे जितना देख सकते हैं उतना वे देखते हैं, उसी के अनुसार व्यवहार करते हैं | इसलिये मुझे प्रारम्भ में ऐसी व्यवस्था करना ही पढ़ेगी जिससे चमड़े की ही आंखोंवाले, भीतर की महत्ता का अन्दाज बांध सकें। बाद में जब मेरी धर्म-संस्था व्यापक होजायगी, और मेरे अनुयायी साधुओं की साधुता से जगत परिचित होजायगा, तब अकेले साधु को देखकर भी लोग उसकी साधुता को समझने लगेंगे, उसकी महत्ता को स्वीकार करने लगेंगे आज तो अधिकांश लोग, मेरी महत्ता तो दूर, मेरी ईमानदारी को भी नहीं समझ पाते, और भ्रमवश ऐसा दुर्व्यवहार कर जाते हैं जिससे वे अन्तिम नरक में जाने लायक पाप बांध जाते हैं । इसमें मैं निरपराध होने पर भी निमिन वन जाता हूं। अब मैं सोचता हैं कि अहिंसा के साधक का इतना ही काम नहीं है कि वह केवल अहिंसा की आत्मसाधना करता रहे किन्तु असे प्रभावना आदि के द्वारा लोक-साधना भी करना चाहिये जिससे विश्व के प्राणियों का पतन रुके, सत्यपथ के दर्शकों का तथा चलनेवालो का मार्ग निष्कंटक हो। पिछले दिनों जो एक महान दुर्घटना होगई उससे इस विषय पर गम्भीर विचार करने की आवश्यकता हुई ।
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चम्पा नगरी का चातुर्मास पूरा करके मैं जृम्भक मेढक पण्मानिग्राम के निकट आया बाहर ठहर गया। वहां एक
आदि ग्रामों में विहार करता हुआ और ध्यान लगाकर मैं गांव के
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मवीर का अन्तस्तल
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ग्वाला आया और मेरे निकट अपने बैलों को छोड़कर गायें दुहने चला गया । इधर बैल चरते चरते अटवी के भीतर घुलगये । जत्र ग्वाला लौटा तब उसने वहां बैल न देखे तब मुझसे पूछाअरे, ओ रे श्रमण, बता मेरे बैल कहां गये ?
मैं अहिंसा की उपेक्षणी साधना के अनुसार मौन ही रहीं । असने दो चार बार कुछ वकझक की । अन्त बोला कि क्या तुझे कुछ सुन नहीं पड़ता ? कान के जो बड़े बड़े छेद हैं, . तो क्या व्यर्थ हैं ? तब इनके दिखाने से क्या फायदा ? - ऐसा कहकर उसने दो लकड़ियाँ लेकर दोनों कानों में ठाक दीं ! अससे मेरे कानों में असह्य वेदना हुई; फिर भी मैं चुप रहा । ग्वाल तो चला गया और मैं विहार करता हुआ अपापा नगरी पहुँचा, और भोजन के लिये सिद्धार्थ वणिक के यहां गया । उसने मुझे भक्ति से भोजन कराया: परन्तु मेरे कानों में खुली हुई लकड़ियाँ देखकर बहुत चकित और दुःखी हुआ । अस समय उसका एक मित्र, जिसका नाम खरक था और जो प्रसिद्ध वैद्य था, वहां भाया हुआ था । उसने भी कानों में खुसी हुई लकड़ियाँ देखो, और दोनों उस बारे में विचार करने लगे 1 इतने में मैं वहां से निकलकर उद्यान में चला आया । पीछे सिद्धार्थ वणिक ओर खरक वैद्य औषध वगैरह लाकर उद्यान में आए । उनने मुझे एक तेल की कुण्डी में बिठलाया और वलिष्ठ पुरुषों के हाथों से मेरे सारे शरीर में इतने जोर जोर से मालिश करवाया कि हड्डियाँ ढीली ढीली होगई। पीछे दो मजबूत संडासियाँ लेकर कानों में खुसी हुई लकड़ियाँ जोर से एक साथ खींची। लकड़ियाँ खून में सन गई थीं। इसलिये जब वे खींची गई तब इतनी भयंकर वेदना हुई कि मेरे मुँह से भयंकर चीत्कार निकल पड़ा । पीछे उन लोगों ने घावों में संरोहिणी औषधि भरी और धीरे धीरे कुछ दिनों में घाव अच्छे हो गये ।
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महावार का अन्तस्तल .
मैं समझता हूँ, मने जीवन में जितने कठोर उपसर्ग सहे अनमें सबसे कटोर यह उपसर्ग था, और आश्चर्य की बात यह है कि करीब बारह वर्ष तक अहिंसा की कठोर साधना करने के बाद भी इस प्रकार का उपसर्ग हुआ था ! पर अब इस प्रकार के उपसंगों की परम्परा बन्द करने लायक परिस्थिति निर्माण करना आवश्यक है। और इसका ठीक उपाय यही हं कि विशाल संघ की रचना की जाय, जिससे इस ग्वाला सरीखे अबोध से अबोध प्राणियों से लगाकर विद्वान् और बुद्धिमान् कहलाने वाले उच्च से उच्च मनुष्यों को वास्तविक ज्ञान का और सच्ची अहिंसा का दर्शन हो सके। मै कुछ महीनों के भीतर ही इस विषय की योजना की तरफ अधिक से अधिक ध्यान दंगा । मेरी. अहिंसा की आत्म साधना अब पूरी हो चुकी है, और ज्ञानसाधना में भी नाममात्र की कमी है, जो कि इने-गिने दिनों में पूरी हो जायगी। इसके बाद संघ-रचना का कार्य शुरू किया जायगा।
६६ - गुणस्थान 1बुधी ९४४४ इतिहास संवत्-~
आज तक मैंने जीवन विकास की जितनी श्रेणियों का अंनुभव किया है चिन्तन मनन किया है उन सब का श्रेणी विभाग आज कर डाला, एक तरह से मेरी आत्म साधना पूरी होगई है, अब उसका मार्ग दूसरों के लिये तैयार करना है। .
१- संसार के साधारण प्राणी. अविवेक और असंयम के शिकार हैं। वे स्वपर कल्याण का मार्ग नहीं देख पाते और न कपाय वासना से पिंड छुडा पाते हैं। ये मिथ्यात्वी प्राणी पहिली. कक्षा में हैं। विद्वत्ता प्राप्त कर लेने पर भी, त्यागी मुनि का वेप ले लेने पर भी, बाहर से शान्त दिखने पर भी भीतरी
र डाला, एक तन मनन किया है की जितनी कि
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। अन्तस्तल
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मालनता इतनी अधिक हो सकती है कि वे मिथ्यात्वीं कहे जास: कते हैं । जिनकी कपाय वासना वर्षों तक स्थायी हो, और जिन्हें कर्तव्य अकर्तव्य का विवेक न हो, चे मिथ्यात्वी हैं ।
२- यह गुणस्थान मुझे कुछ पीछे सूझा । एक प्राणी सचाई पाकर उससे भ्रष्ट भी हो सकता है, और उसके इस पतन का कारण हो सकता है कषाय वासना की तीव्रता । निःसन्देह कपाय की तीव्रता होने पर प्राणो का विवेक या सम्यक्त्व तुरन्त नष्ट होजायगा पर जितने क्षणों तक मिथ्यात्व नहीं आपाया है सुतने क्षण की अवस्था यह गुणस्थान है। यह सम्य. क्त्व से पतन की अवस्था है, पहिली श्रेणी से उत्क्रांति की अवस्था नहीं। इसलिये इसका नाम मैंने सासादन रक्खा है । बासादान का अर्थ है विराधना, एक तरह का विनाश ।
३- यह सम्यस्त्व की ओर झुकी हुई. सम्यक्त्व और मिथ्यात्व के बीच की अवस्था है। यहां कपाय वासना बहुत लम्बी नहीं है पर पूरा विवेक भी नहीं है मिश्रित अवस्था है । इसलिये यह मिश्र गुणस्थान कहलाया।
-जिसने सम्यक्त्व पालिया, और उसके अनुरूप वह कषाय वासना, जो अनन्तं दुर्गाते देती है, इसलिये जिसे मैं अनन्तानुबन्धी कषाय कहता हूं, न रही वह सम्यकवी है। जीवन का वास्तविक विकास यहीं से शुरू होता है । पर व्यवहारोपयोगी संयम इसमें नहीं आपाया, आखिर यह विकास का प्रारम्भ ही है इसलिये इसे असंयत सम्यग्दृष्टि कहता हूं।'
बाल्यावस्था में मैं इसी गुणस्थान में था। इसके पहिले के तीनों गुणस्थान तो मैं दूसरे प्राणियों की अवस्था के ज्ञान से कहता हूं, मनोवैज्ञानिकता के आधार से कहता हूं। सम्भव है में इन अवस्थाओं में से गुजर चुका होऊ पर मुझे उन.अवस्थाओं का .
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महावीर का अन्तस्तल
स्मरण नहीं होरहा हैं। अपनी कपायों की मन्दता तो मुझे जन्मजात मालूम होती हैं, और शैशव में भी मैं हर बात का जिस ढंग से विचार करता था, उससे मालूम होता है कि मुझमें बीज रूप में विवेक भी जन्मजात है । इसप्रकार कहा जासकता है कि मैं अविरत सम्यक्त्व तो जन्म से ही हूं। पर इससे क्या ? वहा से बड़ा महापुरुष जन्म से मिथ्यावी होसकता है और पछि ऊँचे से ऊंचा विकास करके जिन बुद्ध अर्हत वन सकता है, तीर्थकर बन सकता हैं।
गुणस्थान
की अपेक्षा भी कषाय वासना ५ - जब चौथे और मन्द होजाय, व्यवहारोपयोगी संयम भी जीवन में दिखाई देने लगे, पापों से पूर्ण विरति तो नहीं, पर देशविरति होजाय तब देशविति नाम का पांचवां गुणस्थान होगा । इस गुणस्थान मैं परिग्रह का परिमाण तो हैं, बेईमानी नहीं है, पर कौटुम्बिकता जन्म-सम्बन्ध आदि में सीमित है | वह विश्वकुटुम्बी या गुण| एक ईमानदार कुटुम्बी नहीं है या पर्याप्त मात्रा में नहीं है । एक गृहस्थ जैसा होता हैं वैसा है।
६ - बट्टी श्रेणी में साधुता है, विश्वकुटुम्बिता या गुणकुटुम्बिता का भाव हैं, पर साथ में कुछ प्रमाद है । यद्यपि साधारण लोगों की अपेक्षा यह प्रमाद अल्प है और वह स्थायी भी नहीं है पर है अवश्य ।
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७- सातवीं श्रेणी में प्रमाद नहीं रहता इसे अप्रमत्त संयमी या अप्रमत्त विरत कहना चाहिये |
मं मैं दीक्षा लेने के पहिले भी बट्टे सातवें गुणस्थान 'चुका था । उसके बाद भी अभी प्रातःकाल तक में इन गुणस्थानों में रहा हूं ।
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महावीर का जन्तस्तक
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८-२-१०-इसके बाद आज मुझे विकास की कुछ ऐसी अवस्थाओं का अनुभव हुआ है जो बार बार अनुभव में नहीं थाती । उनमें कपाय मन्द से मन्दतर होती जाती है । मैं समझता है कि अगर मुहूर्तभर भी कोई मनुष्य इन अवस्थाओं में से गुजर जाय तो वह अहत होजायगा। हां! मैं यह भी सोचता हूं कि असके अन्तर्मल अगर सिर्फ शान्त हुए हो नष्ट न हुए हों, तो अन्तर्मल के उभड़ने पर उसका पतन अर्हत होने के पहिले ही होजायगा । इस प्रकार की अपूर्व अवस्थाएँ शांतमल से भी होसकती है, क्षीणमल से भी होसकती है, पहिली में पतन निश्चित है दूसरी में अहन्त होना निश्चित है, फिर भी परिणामों की निर्मलता समान है।
यद्यपि वे अवस्थाएँ कषायों के कम होने या छटने से होती है फिर भी प्रारम्भ की अवस्थाओं का नामकरण में कषायों की मन्दता के कारण नहीं, किन्तु आनन्दानुभव के कारण करना चाहता हूं । पहिले मुझे इस बात का बड़ा आनन्द हुआ कि यह अवस्था अपूर्व है अनोखी है इसलिये इसका नाम अपूर्वकरण रखता है। फिर में यह अनुभव करने लगा कि इस अवस्था से 'नहीं लौटना है इसलिये इसका नाम अनिवृत्निकरण रखता है। इसके बाद मुझे मालूम हुआ कि हलके से लोभ को छोड़कर मेरी सब कषायें नष्ट होगई इसलिये इसका नाम सक्षममोह रखता हूं। इसप्रकार ये ८, ६, १०, वे गुणस्थान है जो हरएक को नहीं मिल सकते । साधु होने पर भी साधारणतः मनुष्य छठे सातवे गुणस्थान में ही चकर लगाते रहते हैं । इसके ऊपर उत्तमध्यानी ही पहुँचते हैं। .. ११-१२--दसवें गुणस्थान के बाद मैंने अनुभव किया कि मैं पूर्ण वीतराग होगया हूं । पर यह पूर्ण वीतरागता शान्तमल भी होसकती है और क्षीणमल भी । मेरी वीतरागता क्षीण
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महावीर का अन्तस्तल
मल है, पर किसी की शांत भी हो सकती है, पर वह आगे नहीं बढ़ सकता, असके विकार उमड़ेंगे और वह असंयम की ओर गिरेगा । इसलिये वर्तमान वीतरागता समान होने पर भी शान्त मलवाले का शांतमोह गुणस्थान, और क्षीणमलवाले का अणिमोह गुणस्थान अलग बनाना उचित मालूम होता है । क्योंकि एक से मनुष्य गिरता है दूसरे से चढ़ता है। इस अन्तर के कारण अलग अलग गुणस्थान हैं ।
१३- क्षीणमोह होजाने पर मनुष्य को पूर्ण ज्ञान होजाता हैं । सम्यग्ज्ञान में सब से बड़ी बाधा मोह की है, मोह निकल जाने पर मनुष्य शुद्ध ज्ञानी या केवलज्ञानी होजाता है। सिर्फ थोड़े से ही उपयोग लगाने की जरूरत है । बारहवें गुणस्थान के वाद एकाध घड़ी में ही तेरहवां गुणस्थान होजाता है । यहां पूर्ण निमहता भी हैं पूर्ण ज्ञान भी हैं। इस गुणस्थानचाला जनहित के काम में लगा रहता है। इसलिये मनवचन काय की प्रवृत्ति बहुत अधिक होती है, पर होती है निर्मल | मनवचन कार्य की इस प्रवृत्ति का नाम में योग रखना चाहता हूँ इस प्रकार तेरहवां गुणस्थान सयोग केवली कहलाया ।
२४ -- तेरहवें गुणस्थान में अर्हत जीवन भर रहता है, ' वह जनहित के काम में लगा रहता है । जनहित के लिये जन हित के विरोधियों से संघर्ष करना पड़ता है, यद्यपि इस संघर्ष की कोई कपाय वासना उसके आत्मा में नहीं रहती किन्तु वासना ही क्षणिक तरंगें तो उठती ही है, मुसके आत्मा पर राग द्वेष का रंग नहीं चढ़ता पर उसकी छाया तो पड़ती ही हैं. इसे मैं कपाय नहीं कहूंगा यांग कहूंगा, या शुभ लेश्या कहूंगा पर यह अर्हत में भी अनिवार्य है, क्योंकि उसे जनसेवा करना है फिर भी वह मानना पड़ेगा कि आत्मा की एक ऐसी अवस्था भी हो सकती हैं जब उसमें यह लेश्या भी न हो, छाया भी न हो
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महावीर का अन्तस्नल
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यह अवस्था और भी शुद्ध अवस्था होगी। पर सोचता हूँ कि यह अवस्था मरने के समय कुछ पलों को ही होसकती है उसके पहिल जीवन में नहीं । होना भी न चाहिये, क्योंकि अर्हत् की यदि मनवचन कार्य की प्रवृति बन्द होजाय तो वह बेकार होजाय उसका जीवन दस पांच पल से अधिक टिकता भी कठिन होजाय । इसलिये मैं आदर्श की दृष्टि से कुछ पलों के लिये मनचचन कार्य की प्रवृत्तियों से रहित अवस्था तो मान लेता हूं. पर मान लेता ई केवल मरते समय के लिये, कुछ पलों के लिये, बाकी जीवन भर तो अर्हत को काम करना है, जगत् का उद्धार करना है । वह अंतिम अवस्था चौदहवीं अवस्था-चौदहवां गुणस्थान होगा । उसे अयोग के कहना चाहिये ।
मैं समझता हूं कि इन चौदह गुणस्थानों की रचना करके मैंने जीवन विकास का एक अच्छा कम निश्चित कर लिया हैं । इसी क्रम विवास के आधार पर मुझे दुनिया का उद्धार करना है ६७ - केवलज्ञान
१६ बुधी ९४४४ इ. सं.
सामाजिक और धार्मिक क्रांतिकार को तेरहवे गुणस्थान में अवश्य होना चाहिये जब कि असमें पूर्ण संयम के साथ पूर्ण ज्ञान, जिसे मैं केवलज्ञान कहता हूं, होजाय । मैं अनुभव करता हूं कि मुझे वह केवलज्ञान होगया है । मुझे कर्तव्याकर्तव्य का हित अहित का प्रत्यक्ष दर्शन होरहा है। इसके लिये अब मुझे किसी शास्त्र की या आप्त की जरूरत नहीं है ।
यदि मैं दुनिया को एक नये सत्पथ पर चलाना चाहता हूं तो मुझे घोषित करना चाहिये कि मैं सर्वज्ञ अथात् स्वपर कल्याण के मार्ग का मैं पूर्ण ज्ञाता हूं; मैं आगे पीछे का, भूत 'विष्य का कार्य कारण भाव का प्रत्यक्षदर्शी अर्थात् स्पष्ट
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महावीर का अन्तस्तल
ज्ञाता हूँ।
क्षणभर को मेरे मन में यह विचार आया कि यह तो आत्मश्लाघा है, इसे तो पाप समझता हूं । पर दूसरे ही क्षण मुझे भान हुआ कि यह आत्मश्लाघा नहीं है किन्तु विश्व के कल्याण के लिये आवश्यक सत्य का प्रकटीकरपा है।
अगर कोई सद्वैद्य रोगी से यह कहे कि मैं तो कुछ नहीं जानता समझता, तो इससे वैद्य के विनय गुण का परिचय तो मिलेगा पर क्या इससे रोगी का भला होगा? वैद्य के विषय में रोगी को श्रद्धा न हो तो एक तो वह चिकित्सा ही न कराये और अगर कराये भी, तो उसे लाभ न हो । ऐसी अवस्था में वैद्य अगर इतनी आत्म प्रशंसा कर जाय जिससे रोगी की हानि न हो किन्तु लाभ ही हो, तो वह आत्म प्रशंसा क्षन्तव्य ही नहीं है बल्कि आवश्यक भी है। हां ! लोभवश रोगी को ठगने के लिये आत्म-प्रशंसा न करना चाहिये।
जन समाज के जीवन का जो मैं सुधार और विकास करना चाहता हूं, उसमें सहारे के तौर पर जो मैं दर्शन लोक परलोक आदि की बातें सुनाना चाहता हूं उसके पूर्ण ज्ञाता होने का विश्वास अगर मैं न दिला सकू तो लोग उस पथ पर कैसे चलेंगे? तब यह जगत् नग्क सा बना रहेगा इसलिये तर्थिकर सर्वज्ञ जिन अर्हत के रूप में मेरी प्रसिद्धि हो तो इसमें मैं बाधा न डालूंगा।
एक प्रकार से यह सब झुठ नहीं है। मैं जर तीर्थ की स्थापना कर रहा हूं तब तीर्थकर हूं ही। कल्याण मार्ग का मुझे अनुभव मूलक, स्पष्ट और पूर्ण ज्ञान है इसलिये सर्वज्ञ भी हूं। मन और इन्द्रियों को जीतने के कारण जिन भी है ही, और मेरी राह पर जब लोग चलते है और निस्वार्थभाव से जब मुझे पूज्य मानते है तब अर्हत भी हूं । इसलिये इस रूप में मेरी प्रसिद्धि होना हर
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मावीर का अन्तस्तल
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तरह सत्य है । जाकल्याण की दृष्टि से सत्य है और वस्तुस्थिति की डाटे से भी सत्य है।
एक बात और है। मेरे तार्थ में सचाई का ज्ञान से इतना सम्बन्ध नहीं है जितना निर्मोहता से । बटे गुणस्थान में मनुष्य सत्य महावी होजाता है, हालांकि वस्तुस्थिति की दृष्टि से उसका गेड़ा वहुत ज्ञान असत्य भी होसकता है । निर्माह या." वीतराग होने से मनुष्य सम्यग्ज्ञानी माना जाना चाहिये ।यों. पूर्ण सत्य को कौन पासकता है, वस्तु तो अमुक अंश में अक्षय हैं, अबक्तव्य है।
यद्यपि बाहरी दृष्टि से बहुतसी बातों का ठीक ठीक पता केवलज्ञानी को भी नहीं होता, क्योंकि वह तो मोक्षमार्ग का या तत्वों का सर्वज्ञ है तत्ववाह्य विषयों का सर्वज्ञ नहीं। इसीलिये मैं मानता हूं कि छठे गुणस्थान में मनुष्य असत्य का । पूर्ण त्यागी होजाता है पर असत्य मनोयोग और असत्य वचन . योग तो तेरहवें गुणस्थान में भी होसकता हैं । गुणस्थान की इस चर्चा में मैं इस रहस्य को प्रगट कर दूंगा । पर इसमें एक बाधा है। जब लोग यह मानेगे कि तेरहवे गुणस्थान में भी असत्य मनोयोग और असत्य वचन योग होता है, और मैं तेरहवें गुणस्थान में हूं तव लोगों को मेरे वचनों में सन्देह होगा, और इससे बेचारे आत्मकल्याण से वञ्चित हो जायेंगे। यह ठीक नहीं। ऐसी बात जगत् के सामने रखने का कोई अर्थ नहीं जिससे कल्याण के मार्ग में बाधा पड़ती हो। इसलिये असत्य मनोयांग और असत्यवचन योग अर्हन्त को होते हैं इस बात को छिपाना ही उचित है । यही विधान ठीक है कि असत्य मनोयोग और असत्य वचनयोग वारहवे गुणस्थान तक ही होते हैं।
इस विधान से इस बात का पता तो लगजायगा कि असत्य मन वचन के उपयोग से सत्यमहाव्रत भंग नहीं होता है,
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महावीर का अन्तस्तल
वह भन होता है स्वार्थपरता से. कयाय ने. पक्षपात से । क्षीणकपाय व्याक्त भी अमत्य मनोयोगी आर असत्य वचनयोगी होल. कता है पर इसस व अज्ञानी अर्थात मिथ्याज्ञानी नहीं कहा - जासकता । चरित्र के विषय का मिथ्याज्ञान ही मिथ्यानान है। आर चरित्र के विषय का मिथ्या विश्वास ही मिथ्या दर्शन है। तत्व-बाह्य पदाथों में इनका कोई सम्बन्ध नहीं। इतना सत्य दकर भी रह गुणस्थान से अमत्य वचनयोग अलत्य मनोयोग की बात पर पर्दा डालने से लोग धर्म पर आवश्वास करने से बचे रहेंगे।
यह रहस्य भी माधारण जनता को बताने का नहीं है। मनोवैज्ञानिक चिन्मिा में कुछ रहस्य रखना उचित ही है। अन्यथा चिकित्सा व्यर्थ जायगी।
___अस्तु ! एक तरह से आज मंग आत्मसाधना पूरी होगई। आज से मैं अपने को कवलनानी तथंकर जिन अहन्त बुद्ध घोषित कर दूंगा या करने दूंगा। इस विषय में मैंने अपना मनोवृत्तियों को खूब टटोला है। उनमें या लूटने का या अकल्याणकर महत्वाकांक्षा का पाप कहीं नहीं ह · महत्व स्वीकार करन की जो भावना है वह सिर्फ जगत्कल्याण की दृष्टि म.जगत् को सत्य के मार्ग पर चलान की हाट से । सुसपर भी आवश्यक उपेक्षा है, शिष्टता की मर्यादा भी है।
६८-लोकसंग्रह के लिये १४ तुपी ९४४४ इतिहास संवत्
जो सत्य मैं ढूंई पाया है, जिसे पाकर में केवलज्ञानी होगया है, उस सत्य का यथाशक्य लाभ जगत् को मिल इसका प्रयत्न करना है। एर यह सरल नहीं है, यह वात प्रथम प्रवचन से सिद्ध होगई थी।
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महावीर का अन्तस्तत
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उस दिन जब मैं प्रवचन करने बैठा तो सुनने के लिये बहुत से मनुष्य इकट्ठे होगये । मैंने अपने धर्मतीर्थ का निचोड़ अनेकांत सिद्धांत का विवेचन क्रिया पर सबके सब मूर्ति की तरह बैठे रहे । अन्हें मेरी बात समझमें न आई इसलिय उलने मुझे महान ज्ञानी तो मान लिया पर इससे उनका कुछ लाभ न हुआ।
इसके बाद अनेक स्थानों पर मैंने और प्रवचन किये पर सुनका कोई अर्थ न हुआ। वाणी जैसी विरी वैसी न खिर्ग, क्योकि झेली किसी ने नहीं।
हां! यह बात अवश्य है कि लोग मेरे पास आते हैं, समझमें आये चाहे न आये पर सुनते हैं। इसका एक कारण तो यह है कि पिछले बारह वर्ष में इस प्रदेश में खूब वूमा हूं पर एक तरह से मौन ही रक्खा है | युपदेश का काम नहीं किया । अर मेग मान हटा देखकर, मुझे उपदेश देता हुआ देखकर, बहुत से लोग कुतहल से आने है। आने का दृसग झारण है मेरी भाषा । ब्राह्मण तो बेद सुनाते हैं पर उसकी भाषा लोग समझते नहीं है । मैं ऐसी भाषा बोलता हूं जिसे सब समझें । सरल से सरल ग्रामीण मागधी में ही उपदेश करता हूं। उसमें आसपास के प्रदेशों के जो शब्द मिल गये है उनका भी प्रयोग करता हूं इससे. दूसरे प्रदेशों के लोगों को समझने के लिये भी लुमीता होता हैं। इसप्रकार मैंने अपन उपदेश देने की भाषा शुद्ध मागधी नहीं, अर्धमागधी बनाली है।
फिर भी मैं जो काम करना चाहता हूं वह इस तरह न होगा। लोगों का केवल कुतुहल शान्त होगा, जीवन में क्रांति नहीं। मुझे लोगों के अन्धविश्वास हटाना है, हिंसा बंद करना है धमों में आर दर्शनों में समन्वय करना है, और सब से बड़ी बात यह कि लोगों को यह बताना है कि तुम्हारा सुख तुम्हारी
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महावार का अन्तस्तल
मुट्ठी में है । धन वैभव में, परिग्रह में, असली सुख देखने की चंष्टा करोगे तो असफल रहोगे { असली सुख अपने भीतर है।
पर यह सत्य जो मैं जगत् को देना चाहता है वह कंबल प्रवचनों से न होगा । उसके लिये अनेक तरह की ऐसी योजनाएं करना पड़ेगी जिससे लोग कल्याण मार्ग पर विश्वास कर सकें अच्छी तरह समझसके, आचरण कर सके। इसके लिये पक नया तीर्थ बनाना, और उसकी तरफ लोगों का आकर्षण करना जरूरी है।
क्षणभर का यह विचार मनमें आया कि क्या इससे अमटेंन देगी ? क्या अशांति न होगी। क्या यह यशपूजा का व्यापार न होगा? क्या इसमें एक तरह की आत्मश्लाघा न करना पड़ेगी?
निःसन्दह यवीतराग मनुष्य में ये मब बातें होती है। पर मुझमें ये विकार नहीं है । निरिच्छकता से, योग्य नट की . तरह निर्लिप्तभाव से काम करने से झंझटें नहीं बढ़ती अर्थात् झंझट मनके कार असर नहीं करती, दुखी नहीं करती, तर अशांति कैसे होगी? और यश पूजा आदि की मुझे चिन्ता नहीं है। जगत की सेवा करने से और सफलता प्राप्त करने से यशपृजा मिलती है। मिलना भी चाहिये, क्योंकि इससे अन्य मनुष्य भी जगत्सेवा की तरफ झुकते हैं । यशपूजा देकर जगत सच्चे उपकारकों का बदला उतना नहीं चुभाता जितना नये उपकारक पैदा करने के लिये मार्ग प्रशस्त करता है । सो जगत अपना मार्ग प्रशस्त करे, मैं यश प्रतिष्ठा का दाल न बनूंगा।
जो सत्य मैंने पाया है वह जगत् के कल्याण के लिये जगत को देना है। अगर अशान के कारण मनुष्य झुसे अस्वी. कार करे, ई पं. कारण द्वेष करे, निन्दा करें और असत्य के
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बदले में पूजा प्रतिष्ठा के प्रलोभन उपस्थित करे तो मैं से अस्वीकार कर दूंगा. और यही इस बात की कसौटी होगी कि मैं यशपूजा के व्यापार के लिये नहीं निकला हूं। अपने विषय में आवश्यक सत्य का उल्लेख करना आत्मश्लाघा नहीं है । फिर भी जो यश पूजा या आत्मश्लाघा का प्रदर्शन होगा भी, वह केवल इसलिये कि साधारण जन सत्य की तरफ आकृष्ट हो । ज्ञानियों को तो आर्कषण के लिये ज्ञान ही पर्याप्त है पर साधारण जनता बाहरी प्रभाव यश प्रतिष्ठा आदि से ही आकृष्ट होती है । जब मुझे जन साधारण का भी भला करना है तब इन सब बातों को लेना होगा | निस्वार्थभाव से यह सब मुझे करना ही चाहिये । ree लिये मेरी निम्नलिखित योजना है ।
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१- पहिले कुछ विद्वानों को अपना शिष्य बनाऊं । विद्वानों के शिष्य होने से केवल प्रभाव ही न बढ़ेगा किन्तु सत्य को पाने से अनका अद्धार भी होगा और प्रचार में सुविधा भी होगी।
२- तीर्थ में शामिल होनेवालों का व्यवस्थित संगठन करूं ? और चार संघ की संघटना करूं ।
३- ज्ञान का प्रचार मैं करूं पर संगठन में लाने का काम शिष्यों को साँएँ । क्योंकि इस विषय में मेरी अपेक्षा मेरे शिष्यों का असर अधिक पड़ेगा । जगत् की मनोवृत्ति ही ऐसी है ।
४- आने जाने में प्रवचन करने में कुछ प्रभावकता का परिचय दूं जिससे जन साधारण पर मेरे तीर्थ की छाप पड़े । क्योंकि जन साधारण तक अपना सन्देश पहुँचाने के लिये जैसे मैंने जनसाधारण की बोली- अर्धमागधी को अपनाया उसी तरह जनसाधारण की मनोवृत्ति के अनुसार प्रभावकता के
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तरीके को भी अपनाना पड़ेगा।
- वेदों की तरह अपने प्रवचनों का संग्रह कराना । मैं न रहं किन्तु मेरे प्रवचन व्यवस्थित रूप में रहे तो जगत् शताब्दियों तक उससे प्रेरणा पाता रहेगा । इसलिये प्रवचनपाठी भी तयार करना है। पर लबसे पहिला काम शिष्यों को ढूंढ़ना है ।
६९ - मुख्य शिष्य - १८ टुंगी ९४८४ इतिहास संवत्
इन दिनों धर्मतीर्थ की सबसे बड़ी आवश्यकता पूर्ण होगई। मुझे ग्यारह विद्वान शिप्य मिलगर ! और आश्चर्य यह कि सब के लव ब्राह्मण हैं ब्राह्मणों के विरुद्ध क्रांति करने में ब्राह्मणां का सहयोग शुभतम शकुन है । इन लोगों को संकड़ों वर्षों से अपनी जीभ पर बेदों को सुगक्षत रखने का अभ्यास है. अत्र अस शाक्ते का उपयोग व मेरे प्रवचनों को सुरक्षित रखने में करेंगे । आजकल ब्राह्मणों का झुकाय नवीन सर्जन या क्रांति की तरफ तो नहीं जाता पर सृजित को सुरक्षित रखने, व्यवस्थित रखन, उसे फैलाने और स्थायी बनाने में पर्याप्त है। सजन की अपेक्षा इसका महत्व कम नहीं है। मां की अपेक्षा धात्री की सेवा कम नहीं होती या इतनी कम नहीं होती किं असपर उपेक्षा की जाय।
यबाण मेरे तीर्थ के लिये सहायक तो है ही, साथ ही एक महाल जुगसत्य को प्राप्त करके आर जीवन में निःसंशय वृत्ति पैदा करके इसने अपना कल्याण भी किया है। इसप्रकार इनके जीवन की क्रान्ति स्वपर कल्याणमय होगई है। .
ये लोग इस अपापा नगरी के सोमिट ब्राह्मण के यहां
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यज्ञ करा लिये आये थे । मैंने अपन प्रवचन में वर्तमान यहाँ को आलोचना की । मने देखा कि जनता को यह रुचिकर हुई, इसलिये कुछ और लोग मेरे पास आये । लोगों का प्रवाह इस तरफ बदलता हुआ देखकर इन्द्रभूति गौतम को बड़ा संताप हुआ । तब वह मुझे पराजित करने के विचार से मेरे पास आया । और बोला- भ्रमण. मैंने सुना हकि तुन यज्ञां का विरोध करते हो, और जनता को भी धर्म से विमुख करते हो ।
मैं-धर्म तो धारण पोषण करनेवाला है, पर क्या इन हत्याकांड से धारण पोषण होना है ? निरीह जानवर तो जान से जाते ही है पर पिके काम में भी इससे बाधा पड़ती है । क्या यही धर्म है. क्या यही धारण पोषण है ?
गौतम - जानवर जान मे जाने हैं पर स्वर्ग तो पात हैं 1 वास्तव में यह उनका पोषण ही है । और ऐसा पोषण है जो उन्हें इस जीवन में नहीं मिलता ।
मैं तो ऐसा पोषण खुद न लेकर जानवरों को क्यों दिया जाता है ? यज्ञकती और पुरोहित को चाहिये कि पहिले स्वयं यज्ञमें अपनी और अपने कुटुम्बियों की आहूति है। जब उनके स्वर्ग चले जाने पर भी स्वर्ण में जगह खाली रहे तो जानवरों को बुलाल | गीतम ने कुछ न कहा ।
तब मैंने कहा क्या तुम जानते हो गौतम, कि लोग ऐसा क्यों नहीं करते हैं ?
गौतम - मैं इसका उत्तर नहीं देसकता । आप ही बतायें ! मैं- इसलिये कि न तो इन्हें स्वर्ग पर विश्वास हे न आत्मा के अमरत्व पर ।
गौतम - आत्मा के अमरत्व पर तो मुझे भी सन्देह है : ।
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म-सा मैं जानता हूँ । आत्मा के अमरत्व पर थोड़ा बहुत अविश्वास हुए बिना कोई इसप्रकार के पाप में नहीं फस सकता । गौतम - पर आत्मा पर विश्वास किया जाय तो कैसे किया जाय | मरने पर सब तो यहीं राख होजाता है । बचता क्या है जिसे अमर कहा जाय ?
मैं- यह जाननेवाला अनुभव करनेवाला; सन्देह करनेवाला कौन है ?
गौतम - यह तो पंचभूतों के मिश्रण से पैदा होनेवाली अवस्था विशेष है । अलग अलग भूतों में जो गुग दिखाई नहीं देता वह मिश्रण में दिखाई दे जाता है । मद्य में जो मादकता है वह उसके भिन्न भिन्न घटकों में कहां है ?
·
मैं- है पर अल्प है। भोजन का भी नशा होता है, निद्रा भी एक नशा है पर अल्प है । परस्पर के संयोग से वह वर्गाकार रूपमें बढ़ता है पर असत् का उत्पाद नहीं है । दर्शन शास्त्र का यह मूल सिद्धान्त तो सर्वमान्य है कि सत का विनाश नहीं होता असत् का उत्पाद नहीं होता। यह तो तुम भी मानते होगे गौतम !
गौतम - जी हां ! यह मैं मानता हूं ।
मै- जब कोई द्रव्य पैदा नहीं होता तब कोई गुण भी पैदा नहीं होता । गुणों का समुदाय ही तो द्रव्य है । गुणों की पर्याय बदल सकती हैं, बदलती हैं पर नया गुण नहीं आता । गौतम - आपकी बात कुछ कुछ जच तो रही हैं ।
मैं- अच्छी तरह विचार करने पर पूरी तरह जवजायगी । तुम जरा सोचो कि कोई भी भूत द्रव्य क्या कभी यह अनुभव कर सकता है कि 'मैं हूं, और 'मैं हूं. इस अनुभव के क्या तुम टुकड़े टुकड़े कर सकते हो कि 'मैं हूं, अनुभव का एक टुकड़ा
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पृथ्वी अनुभव करे, एक टुकड़ा जल अनुभव करे, इसी प्रकार एक एक टुकड़ा अग्नि बायु आकाश अनुभव करे ? क्या अनुभव के टुकड़े सम्भव है ?
गौतम-अनुभव के टुकड़े कैसे होसकते हैं ? : महावीर-तत्र इसका मतलब यह हुआ कि किसी एक द्रव्य को ही यह अनुभव करना पड़ता है कि 'मैं हूं, । तव पंच भूतों में वह कौनसा एक भूत है जो अनुभव करता है कि में है। . गौतम-कोई एक भूत ऐसा अनुभव कैसे कर सकता है ?
मैं तब इसका मतलब यह हुआ कि भूतों से अतिरिक्त कोई द्रव्य ऐसा है जो यह अनुभव करता है।
गौतम-अब यह बात तो मानना ही पड़ेगी ?
मैं-जब 'मैं हूं, इसप्रकार अनुभव करनेवाला एक स्वतन्त्र द्रव्य सिद्ध होगया तब सुसका न तो उत्पाद हो . सकता है, न नाश । क्योंकि असत् से सत् बन नहीं सकता,
और सत् का विनाश नहीं हो सकता। उस स्वतन्त्र द्रव्य का नाम ही आत्मा है, जीव है। .. गौतम ने हाथ जोड़कर कहा-आपने मेरे सब. से बड़े संशय को नष्ट कर दिया प्रभु । अब आप मुझे अपना शिष्य समझें।
. इतने में इन्द्रभूति के छोटे भाई अग्निभूति ने कहाअविनश्वर आत्मा के सिद्ध होजाने पर भी यह बात समझ में नहीं आती कि आत्मा बंधा किससे है ? अमूर्तिक अमूर्तिक से बंध नहीं सकता और मूर्तिक अमूर्तिक का बन्ध भी कैसे होसकता है ?
. मैंने कहा-दिव्य दृष्टि को प्राप्त हुए बिना तुम उन कमब.
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धनों का प्रत्यक्ष नहीं कर सकते आग्नभाते, जिनसे यह आत्मा बंधा है, पर अनुमान भी कम विश्वसनीय नहीं होता, क्योंकि वह निश्चित तर्क पर खड़ा होता है, और उस अनुमान से तुम सरलता से जान सकते हो कि आत्मा कर्मबन्धनों से बंधा है। तुम्हारे सन्देह के दो रूप हैं। एक तो यह कि आत्मा बंधा है इसका क्या प्रमाण ? दूसरा यह कि अमूर्तिक पर मूर्तिक का प्रभाव कैसे पड़ सकता है ? पहिले पहिली बात लूं। यह बात तो निश्चित है कि बिना कारण-भेद के कार्यभेद नहीं होता। इस बात को सिद्ध करने की तो जरूरत नहीं ? ।
अग्निभूति-जी नहीं। यह तो सर्वमान्य सिद्धांत है।
मैं तब तुम यह तो देख ही रहे हो कि सब प्राणी एक समान नहीं है। इस विषमता का कारण कोई ऐसा पदार्थ होना चाहिये जो आत्मा से भिन्न हो । मूल में सब जीव समान हैं इसलिये जीव से भिन्न कोई पदार्थ मिले बिना उनमें विषमता नहीं आसकती और जीव से भिन्न जो पदार्थ जीव के साथ लगा हुआ है वही कर्म-न्धन है। इस अकाट्य अनुमान के सामने कर्म बन्धन में सन्देह कैसे रह सकता है ?
आग्नभूति-वास्तव में नहीं रह सकता। फिर भी इतना सन्देह तो है ही, कि अमूर्तिक पदार्थ के ऊपर मूर्तिक का प्रभाव कैसे पड़ सकता है?
मैं-अमूर्तिक में रूप नहीं होता इसलिये उसपर क्या प्रभाव पड़ा क्या नहीं पड़ा यह दिख नहीं सकता, किंतु अमू. र्तिक के गुणों का हमें स्वसंवेदन प्रत्यक्ष तो है ही, यदि उन गुणों पर भौतिक के प्रभाव का पता लगजाय तर यह समझने में कोई बाधा न रहेगी कि मूर्तिक द्रव्य का अनूर्तिक गुणों पर प्रभाव पड़ता है।
अग्निभूति-जी हां! निर्णय का यह तरीका बिलकुल
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wnwr ठीक है।
मैं--तब देखो! क्रोध मान आदि या स्मृति आदि अमूतिक आत्मा के गुण या पर्याये हैं, और उनके उपर मूर्तिक का असर होता है। किसी मूर्तिक पदार्थ को देखकर स्मृति होजाती है या क्रोध मान आदि पैदा होजाते हैं। इतना ही नहीं, मद्यपान आदि से अनेक विपरिणतियाँ होने लगती हैं इससे सिद्ध है कि आत्मिक गुणों पर भौतिक पदार्थ या उनके गुण प्रभाव डालते हैं तत्र कर्म भी प्रभाव डालते हों इसमें क्या आपत्ति है ?
आग्निभूति-अद्भुत है प्रभु आपका तर्क ! अभूतपूर्व है प्रभु आपका तर्क ! मेरा सन्देह दूर होगया । अब आप मुझे अपना शिष्य समझे।
इतने में वायुभुति ने कहा-मैं आर्य इन्द्रभूति अग्निभूति का भाई है प्रभु, मुझे भी आप अपना शिष्य समझे।
मेरा सन्देह तो दोनों आर्यों के सन्देह के साथ ही दर होगया। मैं समझता था कि आत्मा तो शरीर के भीतर पैदा होने वाला एक बुलबुला है जो पैदा होता है और नष्ट होजाता है। पर जब प्रभु ने सत्तर्क के द्वारा आत्मा सिद्ध कर दिया तब बुलबुले का अपमान स्वयं मिथ्या होगया । - इसके बाद व्यक्त ने कहा-परन्तु प्रभु, अभी मेरा समा. धान शंय है । आत्मा पंचभूतों से भिन्न है या अभिन्न यह प्रश्न मेरे सामने नहीं है। मैं कहता हूं यह सव शून्य है, कल्पना है, स्वम है।
___मैंने कहा-व्यक्त, अगर तुम्हें कभी ऐसा स्वप्न आये कि तुम्हारे घर में आग लग गई है और घर जलकर राख होगया है तब भी तुम उसघर से पड़े पड़े स्वप्न देखसकते हो, लेकिन जागृतावस्था में तुम देखो कि घर जलकर राख होगया है तब
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भी क्या तुम घर में पड़े रह सकते हो ? .. व्यक्त- सो कैसे होगा प्रभु ! १. म- जब स्वप्न भी कल्पना है और जागृतावस्था की बटना भी कल्पना है तब इतना अन्तर क्यों होना चाहिये ? अगर अन्तर है तो वह अन्तर असत और सत के सिवाय और क्या है ?
व्यक्त-मेरा सन्देह कुछ कुछ दूर हो रहा है प्रभु ।
मैं- पूरा दूर होजायगा व्यक्त, तनिक और विचार करो कि जब सारे अनुभव कल्पना है, निराधार हैं, तो सब को एक सरीखे अनुभव क्यों नहीं होते ? सब प्राणियों के भिन्न भिन्न अनुभव क्यों होते हैं ?
व्यक्त-निमित्त उपादान भिन्न भिन्न होने से अनुभव भी भिन्न भिन्न होते हैं प्रभु !
मैं-पर जब सब निमित्त कल्पना है. सारे उपादान कल्पना हैं, तब इन निमित्तों और झुपादानों में भेद कैसे हुआ व्यक्त ! सत का अवलम्बन लिये विना असतं भी भिन्न भिन्न कैसे होगा?
व्यक्त नहीं होगा प्रभु. कहीं न कहीं सत् का.अवलम्बन लेना ही होगा । अब मेरा सन्देह पूरी तरह दूर हो गया । अब प्रभु मुझे अपना शिष्य समझें । - इसके बाद सुधर्म ने कहा में आर्य व्यक्त का भाई हूं। प्रभु मुझे सत् असत् या जीव के विषय में कोई सन्देह नहीं है। पर यह मेरी समझ में नहीं आता कि एक जीव मरकर दूसरी योनि में कैसे पैदा होसकता है ? अगर” यत्र के बीज से व्रीहि (धान) नहीं पैदा होसकता तो मनुष्य का आत्मा पशु या पशु
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का आत्मा मनुष्य कैसे बन सकता है । तय कर्म फलं के रूप में दुर्गति सुगति का क्या अर्थ है ?
मैं क्या तुम यह समझते हो सुधर्म, कि यब का कण जब उदर में पचकर विष्टा बनकर मिट्टी होजायगा तब उससे फिर यव का दाना ही बनेगा, व्रीहि का दाना न बन सकेगा ? . .
सुधर्म-मिट्टी तो जो चाहे वन सकती हैं पर यव के दाने से ब्राहे का दाना नहीं बन सकता।
. मैं-आत्मा के बारे में भी ऐसा ही है सुधर्म, मनुष्य की योनि से पशु पैदा नहीं होता, पर जैसे यव और व्रीहि का झुपादान कारण मिट्टी है वह किसी भी धान्य रूप में परिणत होसकती है, उसी प्रकार मनुष्य शरीर से भी पशु पैदा नहीं होता, पर मनुष्य का आत्मा पशु के शरीर के निमित्न से पशु वन सकता है। यदि ऐसा न होता सुधर्म, तो संसार में मनुष्यों की कीटपंतगों की वनस्पतियों की संख्या सदा एक सरीखी रहती, ऋतु या युग के अनुसार इनमें न्यूनाधिकता न होती। . सुधर्म-अब मैं समझगया प्रभु ! अब आप मुझे अपना शिश्य समझे। : - इसके बाद मडिक ने कहा-संसार में ऐसी कोई जगह नहीं है जो खाली कही जा सके, तव जीव जहां भी कहीं रहेगा वह भौतिक परमाणुओं से बंधा ही रहेगा तत्र मोक्ष कैसे होगा?
मैंने कहा-आसपास भौतिक परमाणुओं के रहने पर भी मोक्ष होसकता है भैडिक, अगर उनका असर आत्मा पर न पड़े तो आसपास सुनके रहने पर भी मोक्ष में कोई वाधा नहीं है । एक सराग मनुष्य जिस परिस्थिति में काफी दुःखी होसकता है उसी में वीतराग मनुष्य परमानन्द में लीन रह सकता है । जिस परिस्थिति में सराग बद्ध है उसी में वीतराग मुक्त है
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मुक्ति का सम्वन्ध तो आत्मा की शुद्धता है ।
समझें ।
मँडिक - समगया प्रभु, अब आप मुझे अपना शिष्य
इसके बाद मौर्यपुत्र ने कहा- मैं आर्य मन्डिक का भाई हूं प्रभु | हम दोनों के पिता यद्यपि जुदे जुदे हैं पर भाता एक है । आर्यमंडिक के पिता श्री धनदेव का जब स्वर्गवास होगया तब उनकी और मेरी माता विजयादेवी ने विधवा होने पर धनदेव के मौसेरे भाई मौर्य से विवाह किया। उस विवाह से मैं पैदा हुआ। इस प्रकार हम सवीर्य भ्राता न होने पर भी सहोदर भ्राता अवश्य हैं ।
मैं- जन्म को कोई महत्त्व नहीं है मार्यपुत्र, ज्ञान को महत्व है । सो जब तुम दोनों मेरे शिष्य होजाओगे तब ज्ञान की दृष्टि से सवर्य भराता भी होजाओगे ।
मौर्यपुत्र- ऐसा ही होगा प्रभु, केवल मेरी एक शंका है कि मुझे देव गति समझ में नहीं आती । विशेष कार्य से किसी मनुष्य या मनुष्य समुदायको देव कहना यह तो ठीक है पर मरने के बाद कोई देवगति होती है इस पर कैसे विश्वास किया जाय ? मैं- अमुक अंश में तुम्हारा कहना ठीक है मौर्यपुत्र, व्यव हार में मनुष्यों को ही देव कहा जाता है । पर देवगति भी है और तुम झुसे समझ भी सकते हो ।
मौर्यपुत्र - समझायें प्रभु, मैं समझने को तैयार हूँ ।
मैं- यह तो तुम समझते ही हो कि नीज की अपेक्षा वृक्ष महान होता है ।
मौर्यपुत्र - समझता हूँ प्रभु ।
मैं तब जो कुछ हम पुण्य करेंगे अर्थात बीज बोयेंगे
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उसका फल भी उस त्यागसे महान होगा।
मार्यपुत्र अवश्य होगा।
मैं-अत्र मानला कि किसी मनुष्य ने ऊंचे स ऊंचे भोगों का त्याग कर दिया, इस लोक में जो भी समृद्धि मिल सकता है घह सब सुसने लोक कल्याण में लगादी. तब उसका बढ़ा हुआ फल यहां तो मिल नहीं सकता क्योंकि यहां मिलने लायक ऊंची से ऊंची सम्पत्ति का तो उसने त्याग कर दिया है, उससे ज्यादा फल मिलने के लिये तो कोई दूसरा लोक ही होना चाहिये । जो ऐसा लोक होगा वहीं देवगति है।
मौर्यपुत्र- अहाहा! धन्य है प्रभु ! अश्रुतपूर्व हे प्रभु ऐसा तर्क ! ओपने कितनी जल्दी मेरी आंखें खोलदीं। औंधे को सीधा कर दिया। अब प्रभु मुझे आप अपना शिष्य समझें।
अपित ने कहा- मार्यपुत्र को दिये गये उत्तर से मेरा भी समाधान होगया प्रभु । मैं सोचता था-देव भले ही होते होंगे परन्तु नरक के नारकी होते हों ऐसा नहीं मालूम होता। सुनते हैं कि देव कभी कभी यहां आते हैं परन्तु नारकी तो कभी आत हुए नहीं सुने गये। इसलिये देव गति को तो मैं किसी तरह मानलेता था पर नरक गति को नहीं मानता था । पर आपके अश्रुतपूर्व तर्क ने वह भी मनवा दिया । जो पुण्यफल यहां नहीं मिलसकता उसके लिये जैसे स्वर्ग की जरूरत है उसी प्रकार जो पापफल यहां नहीं मिलसकता उसके लिये नरक की जरूरत है । अब आप मुझे भी अपना शिष्य समझे।
इतने में अचल भ्राता ने कहा-मुझे तो यह समम में नहीं आता कि पुण्यपाप आखिर है क्या पुण्य का फल अगर सुख है तो जगत में संकड़ों पुण्यात्मा मारे मारे फिरते हैं और पापफल अगर दुख है तो सैकड़ों पापी आराम से रहते हैं। तब
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पुण्य पाप कैसे माना जाय ?
मैं- देखो अचलभ्राता, जब कोई वस्तु खाई जाती है तव उसका अच्छा या बुरा परिणाम तुरंत नहीं होता, कुछ समय वाद और कभी कभी वर्षो वाद होता है, यही अवस्था पुण्यपाप की हैं । इस समय जो पुण्य किया जाता है उसका परिणाम समय पाकर होगा; किन्तु पहिले जो पाप किया गया है उसका परिणाम अभी भोगना पड़ता है । यह पुराने पाप का परिणाम
वर्तमान पुण्य का नहीं । पहिले अपथ्य से पैदा होनेवाली बीमारी लंघन करने पर भी धीरे धीरे जाती है, अर्थात् लंघन करते समय भी कुछ दिनों तक बनी रहती है तो इसका मतलब यह नहीं कि वह बीमारी लंबन से पैदा होरही है। पुण्य-पाप के फेल में कभी कम और कभी ज्यादा जो काल का अन्तर पड़ता है उसमें पुण्यपाप फल के विषय में संशय न करना चाहिये ।
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अचलभ्राता- अब मैं समझ गया प्रभु ! अब आप मुझे भी अपना शिष्य समझें ।
इसके बाद मेतार्य ने कहा- मुझे पुण्यपाप के फल में सन्देह नहीं है पर पुण्यपाप का निर्णय कैसे किया जाय ? एक समय में जो काम अच्छा है दूसरे समय में बही बुरा होजाता है-तन अच्छा क्या और बुरा क्या ?
मैं किसी कार्य को सदा के लिये अच्छा या बुरा, पुण्य या पाप नहीं कहते मेतार्य, द्रव्य क्षेत्र काल-भाव का विचार करके जो कार्य अच्छा हो, सबको सुखप्रद हो वह पुण्य और जो सबको दुखप्रद हो वह पाप | रूढ़ि से इस बात का निर्णय नहीं किया जा सकता। हो सकता है कि एक को एक समय जो पुण्य हो दूसरे को अल समय या दूसरे समय वही कार्य पाप होजाय । इससे यह न सममता कि पुण्य पाप अनिश्चित हैं । नहीं, वे
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निश्चित है, पर उनका निश्चय विवेक से करना पड़ता है, अपने मन के परिणाम, तथा फलाफल का विचार करना पड़ता है। .. जसे कभी कोई चीज किसी को पथ्य और किसी को अपथ्य होजाती है इसलिये यह नहीं कह सकते कि पथ्य अपश्य अनिश्चित हैं उसी प्रकार कोई कार्य किसी को पुण्य और किसी को पाप होजाता है इसलिये पुण्य पाप अनिश्चित नहीं होजाते, विवेक से सदा सुनका निश्चय होता है। . .
मेतार्य-बड़ा अच्छा विश्लेषण किया प्रभु आपने । अब आप मुझे भी अपना शिष्य समझे। - इसके बाद प्रभास ने कहा-मुझे, मोक्षप्राप्ति के विषय में पेसा सन्देह है प्रभु, कि पुण्य से स्वर्ग मिलता है पाप से नरक मिलता है तब मोक्ष किससे मिलेगा ? - मैं-अंशुभ परिणति नरक का मार्ग है प्रभास, शुभ परि.
जति स्वर्ग का मार्ग है, किन्तु माक्ष के लिये शुद्ध परिणति चाहिये । शुभ परिणति में दूसरों की भलाई तो होती है पर उसमें मोह रहता है और किसी न किसी तरह की स्वार्थ वासना रहती है, शुद्धपरिणति में केवल विश्वहित की दृष्टि से कर्तव्यभावना रहतो है, निष्पक्षता रहती है इसलिये पीछे किसी तरह का दुष्परिणाम या क्लेश नहीं होता । शुभ और शुद्ध परिणति के कार्यों में विशेप.अन्तर नहीं दिखाई देता किन्तु उसके मूल में रहनेवाली आशा में द्यावापृथ्वी का अन्तर रहता है । शुभ परिणति से लालसाएँ. जागती हैं अन्त में उससे कष्ट भी होता है पर चही कार्य अगर शुद्ध परिणति से किया जाय तो वीतरागता के कारण कोई बुरी प्रतिक्रिया नहीं होती, उससे अनन्त शांति मिलती है।
. . . . . . , ... __... प्रभास-समझ गया प्रभु, में अच्छी तरह समझ गया !
स्वर्ग मोक्ष का भेद भी ध्यान में आगया। अब मैं निसन्देह हूं।
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अयं आप मुझे अपना शिष्य समझें ।
- इसप्रकार आज ये ग्यारह विद्वान मेरे शिष्य होगये हैं। अब सत्य का प्रचार बहुत अच्छे तरीके से होगा। इसने इन विद्वानों का भी झुद्धार हुआ और जगत् का भी उद्धार होगा।
७०- साधासंघ २६ इंगा ९४४४ इतिहा र संरत
कल प्रथम पोरली के बाद चन्दना आई। झुमे यह समाचार मिल गया था कि मैंने तीर्थस्थापना का कार्य प्रारम्भ कर दिया है इसलिये बह शातानिक राजा के प्रयत्न से यहां आगई और आते ही उसने दीक्षा लेने की बात कही । आखिर मुझे साध्वी संघ की स्थापना भी तो करनी है, क्योंकि नागसमाजमें काम करने के लिये साध्वी संघ के विना काम न । चलंगा, तथा नारियों तक मेरा सन्देश पहुंचे बिना क्रांति न होगी। क्योंकि मेरी क्रांति का असर लिर्फ पुरुषों के जीवन या . बाहरी जीवन तक ही नहीं होता है किन्तु घर के भीतर तक पचना है तभी महिमा का सन्दा सफल होगा। घर के भीतर तो नार्गका राज्य है इसलिये वहां तक सन्देश पहुँचना ही चाहिये । उसके लिये साध्वीलंघ तथा प्राविका संघ बनाना होगा।
इसके मिवाय एक बात और है और वह पर्याप्त महत्व की है कि आन्मोद्धार तथा धर्म जैस पुरुष के लिये आवश्यक है वैसे नारी के लिये भी आवश्यक है । आर्थिक दृष्टि से तथा गृह व्यवस्था को दृष्टि से नर नारो का कायक्षेत्र भले ही भिन्न भिन्न हो परन्तु धर्म आत्मविकाल आदि की दृष्टि से दोनों में कोई अन्ता नहीं है, दोनों का स्वतन्त्रता ले इसके लिये प्रयत्न करना चाहिये । इसलिये नारी के लिये साम्बी संघ और श्राविका संघ बनाना आवश्यक है । चन्दना सरीखी लड़की से साध्वी संघ
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का प्रारम्भ हो रहा है यह बहुत अच्छी बात है, क्योंकि वह हर तरह योग्य है। इस छोटीसी उम्र में ही असने जीवन के सुतार चढ़ाव देखलिये हैं इमलिये साध्वी संघ में वह स्थिरता से रह सकेगी, दूसरो को स्थिर रख सकेगी और साध्वी संघ का. संचालन कर सकेगी।
७१ सफल प्रवचन
७ टुगी ६४४१ ई. सं. आज प्रातःकाल के प्रवचन में राजग्रह के बहुत से प्रति. ष्ठित व्यक्ति उपस्थित थे। गजा श्रेणिक थे, गजपुत्र अभय कुमार मेघकुमार नन्दिपेण थे. श्रेष्ठीवर्ग था, सन्नारीवर्ग भी था। आज का प्रवचन दार्शनिक नहीं था.किन्तु धर्मप अर्थात् चारित्ररूप था। दर्शनशास्त्र तो इसी चारित्र या धर्म के लिए है। मन कहा. संसार में चार चीजें बहुत दुर्लभ है। १-मनुष्यत्व, २-सत्यश्रवण, ६-सत्यश्रद्धा, ४-संयम ।
संसार में अनन्त प्राणी दिखाई देरहे हैं उसमें मान्य बहुत थोड़े हैं। यह कहना चाहये कि अनन्त में एकाध प्राणी ही सनुष्य जन्म पापाता है ऐसी हालत में उसकी दुर्लभता का क्या ठिकाना । फिर यह तो मनुप्य शरीर को दुर्लभता हुई । मनुष्य शरीर हाने से ही मनुप्यता नहीं आती । सनुप्यता आती है समझदारी से. विवेक से।
बहुत से प्राणी मनुष्य का शरीर पाकर भी समझदारी नहीं पाते, इसप्रकार मनुष्य शीर पाकर भी मनु यत्व अन्हें दुर्लभ रहता है. तुम्हारे लिये यह प्रसन्नता की बात है कि तुमने - यह अत्यन्त दुर्लभ मनुष्यत्व पालिया है। . . ... पर इतने से भी जीवन लफल नहीं होसकता । जब तक सत्यश्रवण का अवसर न मिल तब तक मनुष्यत्व भी व्यर्थ है।
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महावार का अन्तस्तल .
... ..... यो तो मनुष्य को बहुत कुछ सुनने को मिलता है, और सुनते सुनते कभी कभी वह ऊब भी जाता है फिर भी सत्य सुनने को नहीं मिलता । सत्य यह है कि जिससे जीवन का या सब जीवों का कल्याण हो । पर किस से कल्याण है : किस संस अकल्याण, यह बात द्रव्य क्षेत्र कालभाव का विचार किये बिना नहीं जानी जासकती । लोग हर पुरानी चीज को सत्य मान बैठते हैं। तर्क यह रहता है कि वह किसी जमाने में सत्य थी।
पर पहिले तो यह समझना भूल है कि कोई चीज पुरानी होने से सत्य है । दूसरे अगर कोई पुरानी चीज सत्य भी हो तो वह अपने युग के लिये ही लत्य होसकती है हर युग के लिये नहीं । शास्त्रों के बारे में जब तक इस दृष्टि से विचार न किया जाय तब तक उनसे भी सत्य नहीं मिल सकता । ऐसी हालत में सुनने से क्या लाभ।
दुसरी बात यह है कि लोग सत्य को शिवरूप या कल्याण म.प नहीं देखना चाहत, सुन्दर देखना चाहते हैं। यह ऐसी ही चाह है जैसे कोई औषध को स्वादिष्ट सर चाहे, और स्वादिष्टता से ही औषध की पहिचान करे । इससे अनेक बार भ्रम होता है । इसलिये भी बहुत कुछ सुनने को मिलने पर भी सत्य सुनने को नहीं मिलता। तुम्हारे लिये यह प्रसन्नता की बात है कि तुम्हें सत्य सुनने को मिल रहा है । जो अत्यन्त दुर्लभ है। ...
पर इतने स ही जीवन की सफलता नहीं है, जब तक सत्य पर श्रद्धा न हो तब तक सत्यश्रवणं ऐसा ही है जैसे भोजन तो कर लिया जाय पर पचाया न जाय । श्रद्धा के बिना सत्य को आत्मसात् नहीं किया जासकता। श्रद्धा के बिना ज्ञानका कोई मूल्य नहीं । श्रद्धा होने पर ही यह संमझा जासकता है कि जीव ने कल्याण के मार्ग में प्रवेश किया है, विकास की पहिली श्रेणीपर वह पहुँच गया है । यह श्रद्धा अत्यन्त दुर्लभ है । तुम्हे अवसर
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महावीर का अन्तस्तक
[२६७ .............. मिला है, तुम चाहो तो इस श्रद्धा को पासकते हो। ... पर श्रद्धा के बाद भी उससे आगे बढ़ना चाहिये, अर्थात् संयम का पालन करना चाहिये । पहिली तीनों बातों की मनुष्यत्व, सत्यश्रवण सत्यश्रद्धा-की सार्थकता संयम से ही है। यहीं वास्तव में धर्म है । सारी शाक्ति इसी संयम में लगाना चाहिये।
मुख्य संयम पांच हैं। हर तरह की हिंसा का हर तरह त्याग । मनसे बचन से काय से न हिंसा की जाय, न कराई जाय, न उसका अनुमोदन किया जाय।
. २-झूठवचन का त्याग । दृसरों का अकल्याण करने वाले वचन न बोलना, न बुलवाना, न अनुमोदन करना । ..
३-मन से वचन और काय से न परधन का हरण करना, न कराना, न अनुमोदन करना।
४-मन से वचन से कार्य से ब्रह्मचर्य का पालन करना । ब्रह्मचर्यभंग न खुद करना, न कराना, न अनुमोदन करना। .
५-मनवचन काय से परिग्रह का त्याग करना । धनधान्यादि परिग्रह न रखना, न रखाना, न रखने का अनुमोदन . करना ।
- इन पांच पापों का पूर्ण त्याग करने से मनुष्य का अद्धार होता है, उसे मोक्ष मिलता है, साथ ही जगत् को भी सुख शांति मिलती है। .
इन पांच महाव्रतों के पालन के लिये उच्च श्रेणी के त्याग की जरूरत है, इनका अच्छी तरह पालन श्रमण श्रंमणी ही कर सकते हैं । गृहस्थाश्रम में इनका पालन कठिन है, वर्तमान द्रव्य क्षेत्र कालभाव के अनुसार घर में रहकर कोई अपवाद भए में ही इनका पालन कर सकता है। पर गृहस्थं लोग श्रमणो. पासक बनकर अणुव्रत के रंग में इनका पालन कर सकते हैं। के चलते फिरते. जीवों की हिंसा का त्याग कर अहिंसाणुव्रत का
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पाटन करें, स्थूल झुट न बोले, स्थूल चोरी न करें, व्यभिचार न करें, परिग्रह का परिमाण रक्खें । इस प्रकार जो अणुबनी होगा वह मांस न खाया. मद्यमान न करेगा। श्रमण न होने पर भी मनुष्य बहुत कुछ संयम का पालन कर सकता है और अपन जविन को सफल बनासकता है। ।
मेरे इस प्रवचन का श्रोताओं पर काफी प्रभाव पड़ा। अभय कुमार ने अणुव्रत लिये, सुलसा ने भी अणुटत लिये, राजा अंगिक ने तथा और भी अनेक लोगों ने श्रद्धा प्रगट की। ८टुंगी ९४४४ इ. सं.
___ फल के प्रवचन से प्रेरित होकर राजकुमार मेघ आज श्रमण दीक्षा लेने आया । मालूम हुआ वह माता पिता से विवाद करके अन्त में अन्हें समझार अनुमति लेकर आया है। मैंने उसे श्रण दीक्षा ददी । हां, इसकी मनोवारी सम्हालने के लिये काफो सतर्क रहना पड़ेगा क्योंकि इसका राजकुमारपन उस समभाव के लाने में अड़चन डालेगा जो एक श्रमण के लिये आवश्यक है। खर ! उसकी मनोवैज्ञानिक चिकित्सा में कर लूंगा। मेरे प्रवचनों से प्रेरित होकर राजकुमार भी श्रमण बनने लगे यह शुभ शकुन है।
७२ - मनोवैज्ञानिक चिकित्सा ९टुंगी ९४४८ इतिहास संवत्
श्रमण संघ में कुल जाति का विचार नहीं किया जाता, और न पुराने वैभव का। केवल संयम और ज्ञान का विचार किया जाता है, सत्यप्रचार की उपयागिता का विचार किया जाता है । मेघकुमार श्रेणिक राजा का पुत्र है पर इसीलिये संघ में रसका स्थान कोई विशेष नहीं होजाता। संघ में इन्द्राति पादि उन विद्वानों का स्थान ही बहा रहंगा, जिनने अपनी
सतर्क रहना पड़ेगाहां, इसकी अनुमति लेकर पिता से आज
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विद्वत्ता के बलपर सत्य को चारों ओर फैलाने में अधिक से अधिक सहयोग दिया है। फिर उनसा त्याग भी कितना महान ई ! वे लोग सैकड़ों शिष्यों के गुरु थे, और अधिकांश तो उन्न में भी सुझसे ज्यादा है। इन्द्रभूति मुझसे क्य में आठ वर्ष अधिक है, दूसरे भी अनेक गणधर उम्र में मुझसे बड़े हैं फिर भी भरने को मेरा पुत्र समझते हैं, यह त्याग कितना असाधारण है। इस त्याग के आने राजानों के त्याग का क्या मूल्य है ?
. रात में मेघ कुमार की बडबडाहट मेरे कान में पड़ी थी। वर कल ही दीक्षित हुआ है इसलिये दीक्षापर्याय में सर से छोटा है इसलिये उसका स्थान भी अन्त में रहा, रात में उसका संथारा सब के अन्त में था। रात में पेशाव वगैरह को हर एक साधु उसके पास से गुजरता था, एक का तो पैर भी उसके पैर में लगगया । साधु को पश्चाताप हुआ, पर मेघ कुमार का इससे सन्तोष नहीं हुभा। वह राजकुमार था, इस तरह का अपमान उलने कभी सदा नहीं था। इसलिये अस्पष्ट शब्दों में उसने अपना असंतोष व्यक्त किया। ..
पर मैं नहीं चाहता था कि मेधकुमार दीक्षा लेकर पक ही दिन में चला जाय । इससे मेघकुमार का जीवन ही कलंकित न होजाता लाथ ही संघ की भी मप्रभावना होती तथा दूसरे राजकुमार भी झिझकते।
इसालये मैंने रात में ही निर्णय किया कि जब मेघकपार मेरे सामने असन्तोष व्यक्त करेगा, तब मैं उसकी भनोवैज्ञानिक चिकित्सा करके उसे संयम में दृढ़ करूंगा। इससे उसका भी कल्याण होगा बार जगत का भी कल्याण होगा। : ।
प्रातःकाल जल्दी से जल्दी मेघकुमार मेरे पास आया। प्रणाम करके नीचा सिर करके बैठ गया।
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मैंने कहा- क्यों मेघ, इस जन्म में मनुष्य होकर सत्यश्रवण करके, उसपर श्रद्धा करके भी संयम का बोझ तुमसे नहीं उता ! एक ही रात में तुम घबरा गये ! पर तुम्हें मालूम नहीं है कि तुम किस सहिष्णुता के बलपर राजकुमार हुए हो । मेघकुमार अत्सुकता से मेरी तरफ देखने लगा ।
मैंने कहा- पहिले जन्म में तुम एक हाथी थे। एक वार दावानल लगा तो तुम एक नदी के किनारे मैदान की तरफ भागे, पर तुम्हारे जाने के पहिले चतचर पशुओं से मैदान भर चुका था। बड़ी कठिनाई से तुम्हें खड़े होने को जगह मिली। जब तुम खड़े हुए तो छोटे छोटे पशु तुम्हारे पेट के नीचे खड़े हो गये । पर घमसान बहुत था, जानवर खूब सिकुड़कर बैठे थे। हिलना बुलना तक मुश्किल था । इतने में तुम्हें खुजली उठी और तुमने एक पैर ऊपर झुठाकर खुजाया । पर उस पैर की जगह को खाली देखकर एक शशा उस जगह आ बैठा । तुम चाहते तो पैर रखकर उसे कुचल सकते थे पर दयावश तुमने ऐसा नहीं किया और तुम तीन पैर से ही खड़े रहगये ।
''
वन में आग ढाई दिन रही इसके बाद सब पशु गये और तुमने भी पानी पीने के लिये नदी की ओर बढ़ना चाहा, पर तुम्हारा पैर ढाई दिन तक उठा रहने से अकड़गया था इससे ज्यों ही तुमने चलने की कोशिश की, कि तुम गिर पड़े। भूख प्यास से निर्बल तो तुम हो ही चुके थे, गिरते ही और असमर्थ होगये, पर जीवदया के भाव के साथ तुमने प्राण छोड़े, इसलिये तुम श्रेणिक राजा के पुत्र हुए। तुम प्यासे मरे थे और मेघों की तरफ तुम्हारा ध्यान था इसलिये तुम्हारी मा को मेघों के नीचे अर्थात् वर्षा में घूमने का दोहद हुआ था, इसीलिये जब तुम पैदा हुए तब तुम्हारा नाम मेघकुमार रेकखा गया । एक जीव पर दया के कारण हाथी से तुम राजकुमार होगये । एक
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पशुयोनि में तुम इतनी सहिष्णुता दिखा सके और इतना विकास कर सके पर अब मनुष्य भव में, इतने विवेकी होकर संयमी जीवन का थोड़ासा भी कष्ट तुम से सहा नहीं जाता ?
मेरी बात पूरी होते न होते मेघ चिल्ला पड़ा - प्रभू !!!
सकी दोनों आंखों से आसुओं की धारा बह रही थी । उसने मेरे पैरों पर गिरकर कहा - "क्षमा करो प्रभु! मेरी क्षुद्रता को क्षमा करो। मैं अपने अहंकार को लात मारता हूं, अपनी असहिष्णुता को धिक्कारता हूं अत्र में ऐसी भूल कभी न
करूंगा ।
मैंने उसे धीरज बँधाया । मेघकुमार सच्चा श्रमण बनगया। मेरी मनोवैज्ञानिक चिकित्सा सफल हुई । . ७३ - नन्दीषण की दीक्षा
७ का ९४४४ इ. सं.
अर्हत होने के बाद यह मेरा पहिला ही चातुर्मास था, पहिले वारह चौमासे की सफलता इस चौमासों में दिखाई दी । राजगृह नगर में सत्यश्रद्धा करनेवाले बहुत पैदा होगये हैं और मेरे धर्म का आकर्षण इतना बढ़गया है कि बड़े बड़े राजकुमार भी प्रवज्या लेने को अत्सुक होगये हैं । प्रव्रज्या का बोझ उठाने की पात्रता न होने पर भी वे प्रव्रज्या लेते हैं यहां तक कि रोकने पर भी नहीं रुकते । मैंने प्रारम्भ से ही नियम रक्खा है कि माता पिता और पत्नी की अनुमति लिये बिना किसी को प्रव्रज्या न दी जायगी फिर भी किसी न किसी तरह से लोग इस नियम की पूर्ति करके दीक्षित होजाते हैं । इतना आकर्षण, इतना प्रभाव एक तरह से है तो अच्छा, फिर भी मुझे इसपर नियन्त्रण रखना पड़ेगा क्योंकि मैं नहीं चाहता कि निर्वल लोग या जो भोगाकांक्षा को नहीं जीतपाते ऐसे लोग प्रवज्या ले ।
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नन्दीपण श्रेणिक राजा का एक पुत्र है । मुझे मालूम हुआ है कि वह अत्यन्त विलासी है। उसका भोगकोदय इतना तीव्र है कि उसका शरीर ही ऐसा बन गया है । पर इन दिनों मेरे प्रवचन सुनते सुनते उसपर वैराग्य की छाया पड़गई । और वह किसी तरह अपने पिता से अनुमति लेकर मेरे पास दीक्षा लेने को आया ।
मैंने उसे रोका और अभी दीक्षा न लेने को कहा, पर उसने तो मेरे पास ही अपने कपड़े फेंक दिये और श्रमण वेष लेलिया ।
इसके बाद इन्द्रभूति गौतम ने एकान्त में मुझसे पूछाभगवन् आप सदा श्रमण धर्म का उपदेश देते ह, श्रमण बनने के लिये प्रेरित करते हैं पर आज आपने नन्दीपेण को प्ररज्या लेने से रोका, इसका कारण क्या है प्रभु! ।
मैंने कहा-गौतम, तीन तरह के कामी होते हैं। मन्दकामी, मध्यमकामी, तीरकामी । मन्दकामी मनुप्यों में मैथुन की इच्छा इतनी कम होती है कि तीर निमित्त मिलने पर ही उनकी कामवासना जगती है ऐसे लोग सहज ही श्रमण धर्म का बोझ उठा सकते हैं। ये अगर कोई तपस्या न करें, सिर्फ स्त्रियों के विशेष सम्पर्क से बचते रहे तो इतने से ही उनकी कामवासना शान्त रहेगी । ऐसे लोगों को श्रमण बनाने में कोई बाधा नहीं।
मध्यमकामी मनुष्य पर्याप्त तपस्या करने पर और नारियों के सम्पर्क से बचने पर काम को वश में रख सकता है। सौ में पंचानवें मनुष्य इसी श्रेणी के होते हैं । ये भी श्रमण वनाये जासकते हैं पर इन्हें तपस्या आदि में तत्पर रहना चाहिये ।
तीरकामी मनुष्य अपनी कामवालना को तब तक चशमें नहीं रख सकता जब तक वह जवानीभर पर्याप्त भोग न
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* भोगले । तीर कादय से उसकी शरीर रचना भीतर से ऐसी
होजाती है कि इच्छा करते हुए भी वह कामवासना को जीत . नहीं पाता । तपस्याएँ भी निष्फल जाती हैं ।
नन्दीपेण तीरकामी मनुष्य है यह बात इस डेढ़ माह के परिचय से मैं समझ गया हूं, ऐसी अवस्था में इसका श्रमण बनना ठीक नहीं। इसमें सन्देह नहीं कि वह सच्ची श्रद्धा से श्रमण हुआ है, वह श्रामण्यको पालने की पूरी कोशिश करेगा, तपस्याएँ करेगा, एकान्तवास करेगा पर उसका तीर कामोदय अस कामवासना के दमन में सफल न होने देगा । कई वर्ष भोग भोगने के बाद जब उसके शरीर में कुछ शिथिलता आयगी तभी वह कामवासना को जीत पायगा । इसलिये मैंने उसे रोका था।
अब नन्दीषेण एक वार चरित्रभ्रष्ट तो अवश्य होगा फिर भी उसकी श्रद्धा इतनी बलवान है कि वह सम्यक्त्वभ्रष्ट न होगा और इसी कारण समय आने पर वह फिर संयमी बन जायगा । यही कारण है कि पहिले मने झुसे रोका, फिर जब यह नहीं रुका तब मैंने अपेक्षा की।
गौतम ने हाथ जोड़कर कहा-धन्य है प्रभु आपकी दिव्यदृष्टि, अलौकिक है प्रभु आपका विवेक, असीम है प्रभु आपकी उदारता।
७४-जन्मभूमि दर्शन ६१ मम्मेशी ९४४५ इतिहास संवत् ।
गतवर्ष राजगृह से बिहार कर मैं अपनी जन्मभूमि की तरफ निकला । अनेक गांवों में विहार करता हुआ ब्राह्मणकुंड आया, और बहुसाल चैत्य में ठहरा । क्षत्रियकुंड यद्यपि बहुत दूर नहीं था फिर भी में वहां नहीं टहरा । इसके कई कारण थे ।
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मुख्य यह कि मैं जानना चाहता था कि मेरे जीवन की सफलता के महत्व को मेरी जन्मभूमिवाले स्वीकार करते हैं या नहीं । जन्मभूमि वाले कदाचित् प्यार करते हैं पर महत्व को स्वीकार नहीं करते । पर आज मुझे अस प्यार की जरूरत नहीं है किन्तु महत्व के स्वीकार की जरूरत है जिससे वे लोग मेरे बताये हुए रास्ते पर चलकर स्वपरकल्याण कर सकें ।
ब्राह्मण कुंडपुर में ठहरने का दूसरा कारण यह भी था कि मेरे लिये ब्राह्मणकुण्डपुर और क्षत्रियकुण्डपुर दोनों ही समान हैं । क्षत्रियकुण्डपुर में पैदा होने से मेरा उसके प्रति अधिक पक्षपात या आत्मीयता की भावना हो यह बात नहीं है । मुझे सारा जगत समान है ।
फिर भी आखिर में मनुष्य हूं। जब मैं इस तरफ आया तब मुझे देवी का ध्यान अवश्य आया । सोचता था कि जानेपर पता लगेगा कि इतना लम्बा समय देवी ने किस तरह बिताया होगा । प्रियदर्शना तो अब काफी बड़ी होगई होगी। बल्कि उसका विवाह भी होगया होगा | देवी का और प्रियदर्शना का कैसा व्यवहार रहता है, अपना असन्तोष या उलहना वे किन शब्दों में प्रगट करती हैं, इस तरह मनमें एक तरह की उत्सुकता थी । हालांकि वह किसी रूप में किसीपर प्रगट नहीं होने पाई थी ।
राजग्रह में काफी सफलता प्राप्त करके मैं इस तरफ शीघ्र से शीघ्र आया इसमें एक कारण यह भी था । हालांकि सत्यप्रचार के विरुद्ध न होने से इसमें कर्तव्य विमुखता कुछ न थी ।
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पर यहां आनेपर मेरी सारी उत्सुकता भीतर की भीतर ठंडी होगई । जिसकी मुझे कल्पना तक नहीं थी वही बात सुनने को मिली ।
प्रियदर्शना ज्यों ही मेरे पास आई त्यों ही रो कर पैरों पर
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महावीर का अन्तस्तळ
गिर पड़ी। वह भूलगई कि वह एक महान धर्मगुरु के सामन ह जो वीतराग कहलाता है । उसने 'पिताजी' कहकर आंसू बहाते ) हुए कहा माताजी तो चली गई पिताजी !
VAAAAA
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मैं क्षणभर को स्तब्ध होगया । प्रियदर्शना को सान्त्वना भी न दे सकः ।
उसने कहा- पिताजी, आपके जाने के बाद माताजी ने आपसे किसी न किसी तरह का सम्बन्ध जोड़े रखने की बड़ी कोशिश की, पर आपकी निष्पृहता के कारण वह जुड़ा न रह सका। जब आपने पारिपार्श्वक के रूप में भी किसी को पास रखना मंजूर न किया तब उन्हें बहुत दुःख हुआ । मैं तो छोटी थी, कुछ समझती न थी, पर इतना याद है कि एक रात माताजी रातभर रोती रही थीं और इस तरह रोती रही थीं कि छोटी होने पर भी मुझे भी रातभर रोना पड़ा था । जब मेरी अम्र कुछ बड़ी हुई तब मैं बहुत कुछ समझी ।
पिताजी ! माताजी मुझे हर तरह आराम पहुँचाती थीं, तरह तरह के गहने कपड़े पहिनाती थीं, अच्छा अच्छा खिलातीं थीं पर मैंने कभी अन्हें अच्छा खाते नहीं देखा, मेरे आग्रह पर भी उनने कभी गहने या अच्छे कपड़े नहीं पहिने, और न उन्हें कभी रातभर नींद आई। पिताजी, वादल तो चार माह ही वरसते हैं पर मेरी माताजी की आंखें बारह माह वरसती रहती थीं ।
मेरे विवाह के बाद विदा के समय सुनने कहा था- 'तेरे विवाह से मैं कृतकृत्य होगई बेटी । उनने बाहर जाकर मानव निर्माण का महान कार्य उठाया है और मुझे तेरे निर्माण का कार्य साँप गये थे । उनका कार्य महान है वे असे पूरा करने के लिये अमर हों, पर मैं अपना काम कर चुकी, अब यहां मेरे रहने की द मुझे जरूरत है न संसार को जरूरत है "
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पिताजी, मां की यह बात सुनते ही मेरी तो छाती फटसी गईं । मैं उनसे चिपटकर बड़ी देर तक रोई पर अपने आंसुओ से उनके मन की आग बुझान सकी । इसके बाद सात ही दिनमें मुझे उनके दर्शन मृत्युशय्या पर करना पड़े । जाने के कुछ ही पहिले उनने इतना ही कहा- 'जाती हूं बेटी, जाने के पहिले उन्हें देख न सको ।
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मैंने रोते रोते बहुत कहा- मेरे लिये कुछ दिन और रहो मां ! पिताजी भी किसी न किसी दिन आयेंगे. पर मेरी बात वे सुन न सकीं और चली गई। आप बहुत देर से लौटे पिताजी ! प्रियदर्शना भावावेग में थे, उसकी बातें सुनकर मेरे आसपास बैठे हुए इन्द्रभूति आदि के भी आंसू बहने लगे। बहने को तो मेरे आंसू भी अत्सुक थे, पर मैंने उन्हें वही कठोरता के साथ रोक रक्खा | सोचा यदि आज मेरे भी आंसू बहने लगेंगे तो जगत् के बहते हुए आलुओं को मैं कैसे रोक सकूंगा ।
इसलिये मैंने वात्सल्य और गम्भीरता का समन्वय करते हुए कहा- रो मत बेटी, तेरी मां ऐहिक कर्तव्य पूरा करके गई हैं । अब उसके बाद का स्वपरकल्याणमय जो कर्तव्य तुझे पूरा करना है, जिसके लिये तेरी मां ने तेरा निर्माण किया है, उसे पूरा करने की कोशिश करना !
प्रियदर्शना ने आंसू पोते हुए कहा उसके लिये जो आप आज्ञा देंगे वही करूंगी पिताजी ।
इतने में आई देवानंदा, उसका पति कपमदत्त भी उसके साथ था। देवानन्दा निर्निमेष दृष्टि से मुझे देखती रही, उसके हृदय से मातृस्नेह उमड़ पड़ा, स्तनों में दूध आगया। दूसरे लोगों की तरह वह वंदना करना तो भृलगई और उसके मुँह से सहसा निकल पहा- बेटा !
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महावीर का अन्तस्तल
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मैंने गम्भीरता से कहा-आओ मां । तुम्हारे बेटे ने जो धर्म की कमाई की है वह ग्रहण करो!
देवानन्दा स्त्रियों के समूह में बैंठगई ? तब इन्द्रभूतिने पूछा-भगवन् क्या देवानन्दा आपकी मां है ? ।
मैंने कहां-हां ! एक तरह से मेरी मां ही है । शैशव में इनके शरीर से मेरा पोषण हुआ है, इनने मां की तरह मुझे प्यार भी किया है।
जब मैं पैदा हुआ तब मेरी जननी त्रिशलादेवी को दूध नहीं आया। क्योंकि जननी रुग्ण होगइ थी। तब देवानन्दा ने ही व्यासी दिन तक मुझे दूध पिलाया। और व्याली दिन तक मैं इन्हीं की गोद में रहा । चिकित्सकों का कहना था कि इस रुग्णावस्था में बालक को मां के पास न रहने देना चाहिये। इसलिये में दिनरात देवानन्दा के ही पास रक्खा गया । जननी की बीमारी काफी उग्र थी, उन्हें कोई सुध न रहती थी, किन्तु जब उन्हें सुध आती थी, तब वे बालक के लिये चिल्लाने लगती
थी तब सुनके पास देवानन्दा की नवजात पुत्री रेशमी दुकूल में . लपेटकर रखदी जाती थी इस प्रकार देवानन्दा ने मुझे अपना दूध ही नहीं पिलाया, गर्भ के समान मुझे दिनरात अपनी गोद में ही नहीं रक्खा, किन्तु एक तरह से व्यासी दिनतक शिशुओं की अदलाबदली भी सहन की। इसकारण ले ये मेरी मां बनी। और मां की तरह इनने जीवनभर स्नेह भी किया। - जब एक नैगमेषी नाम के वैद्य की चिकित्सा से मेरी जननी स्वस्थ होगई तब मैं उनके पास रक्खा जाने लगा। मेरे छिन जाने से इन्हें बड़ा दुःख हुआ। ये मालंकारिक भाषा में कहा करती थीं कि नैगमेषी ने व्यासी दिन बाद मेरा गर्भ हरण कर लिया या बदल दिया । बहुत से भोले लोग तो इनकी बात
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से यही विश्वास करते थे और अब भी करते होंगे, कि पहिले में इन्ही के गर्भ में आया था वाद में नेगमेती देव ने हरण करके त्रिशलादेवी के गर्भ में रख दिया था।
अस्तु, किंवदान्तयाँ तो कुछ की कुछ हो ही जाती है पर इसमें सन्देह नहीं कि इन्हें मेरी मां कहलाने का पर्याप्त अधिकार है।
जन्मभूमि में मेरा प्रचार हुआ है । प्रियदर्शना दीक्षित हुई है, उसका पति जमालि भी दीक्षित हुआ है, और भी अनेक क्षत्रिय और ब्राह्मण दीक्षित हुए हैं । प्रचार की दृष्टि से जन्मभूमि दर्शन सफल हुआ है।
७५ - जयन्ती के प्रश्न २८ चन्नी ९४४५ इ. सं.
___ जन्मभूमि की तरह करीब एक वर्ष विहार कर और वैशाली में अपना चौदहवां चातुर्मास पूरा कर वत्स भूमि में आया और अनेक ग्रामों में धर्म प्रचार करता हुआ कौशाम्बी आया और नगर के बाहर इस चन्द्रावतरण चैत्य में ठहरा। . कौशाम्बी इस समय बुद्धिमती और व्यवहार कुशल महिलाओं के लिये कुछ प्रसिद्ध होरही है । शतानिक राजा के शीघ्र मर जाने से उसका पुत्र यहां का राजा झुदयन तो अभी बालक है इसलिये शासन कार्य राजमाता मृगावती चलाती है। मृगावती ने चण्डप्रद्योत सरीखे प्रचंड राजा से अपने राज्य की और शील की रक्षा बहुत चतुरता और साहस के साथ की है । मुगावती की ननद जयन्ती बहुत जिज्ञासु और विदुषी महिला है, आतिथ्य सत्कार में भी यह बहुत प्रसिद्ध है। .
__ आज मेरे प्रवचनमें ये सब महिलाएँ उपस्थित थीं। अंबचन के समाप्त होने पर सब लोग तो चले गये पर जयन्ती
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महावीर का अन्तस्तल
[२७६
रहगई, वह मुझसे कुछ धार्मिक चची करना चाहती थी । अवसर पाकर उसने मुझसे कुछ प्रश्न किये ।
प्रश्न-जीवों की अधोगति क्यों होती है क्या वे भारी होजाते हैं ?
मैं-हिंसा झुठ चोरी कुशील और परिग्रह के पाप से जीव भारी होजाते हैं ?
जयन्ती-तो पुण्यसे भारी क्या नहीं होते ? क्या पुण्य में वजन नहीं होता?
. मैं--जन तो हर एक पुदगल में होता है। पर जैसे दृति (मशक) में हवा भरने से वह पानी में ऊपर तरती है, और मिट्टी पत्थर भरने से डूब जाती है, हालांकि वजन हवा में भी है
और मिट्टी पत्थर में भी है। असी प्रकार पुण्य से जीव ऊपर तैरते हैं और पाप से अधोगति में डूबते हैं।
जयन्ती-अब मैं समझ गई भगवन् ! अब दूसग प्रश्न हैकि कोई कोई जीव साधारण उपदेश से मोक्षमार्ग में लगजाते हैं "और कोई कोई बड़े से बड़े अलौकिक ज्ञानी के समझाने पर भी नहीं समझते. तो इसका कारण क्या है ? समझाने की कमी या जीवा की स्वाभाषिक अयोग्यता .. मैं-इसमें जीवों की स्वाभविक अयोग्यता ही कारण है। जैसे कोई कोई मूंग का दाना कितना ही उबाला जाय वह पकता नहीं, इसमें सुबालनेवाले की कोई कमी नहीं, मूंग के दाने में ही स्वाभाविक अयोग्यता है इसीप्रकार कोई कोई जीव मोक्ष प्राप्त करने की स्वाभाविक अयोग्यता रखते हैं कि वे कितने भी निमित्त मिलने पर मोक्षमार्ग में नहीं लगते । जबर्दस्ती यदि बाहर से लगा भी दिये जायें तो भी उनका मत नहीं बदलता। पेसे प्राणियों को अभव्य कहते हैं। जीवों की भव्यता और अभ
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२८. ]
महावीर का अन्तस्तल
महावा
व्यता स्वाभाविक है । इसमें सद्गुरु भी कुछ नहीं कर सकता।
___जयन्ती-समझगई भगवन्, अब यह बताइये कि सोना अच्छा या जागना?
मैं-जो लोग धर्ममार्ग पर चलते हैं उनका जागना अच्छा, क्योंकि वे जितनी देर तक जागेंगे धर्म करेंगे। और जो जीव पापमार्ग में जाते हैं उनका सोना अच्छा क्योंकि वे जितना आधिक सोयँगे उतने समय तक पाप कार्य से बचे रहेंगे।
जयन्ती-भगवन् सवलता अच्छी कि निर्वलता ?
मैं-पापियों की निर्यलता अच्छी और धर्मात्माओं की सबलता अच्छी । पापी अगर निर्बल होगा तो कम पाप कर पायगा, सरल होगा तो ज्यादा करेगा। धर्मात्मा अगर सबल . होगा तो अधिक धर्म करेगा और निर्वल होगा तो कम धर्म करेगा। इसलिये पापियों का निर्बल होना अच्छा, धर्मात्माओं का सबल होना अच्छा। .
जयन्ती-कर्मठता अच्छी कि आलस्य । ___ मैं-धर्मात्माओं की कर्मठता अच्छी क्योंकि उससे वे धर्म करेंगे, पापियों का आलस्य अच्छा क्योंकि उससे वे पापसे रुकेंगे।
इसीप्रकार जयन्ती ने और भी प्रश्न पूछे और उन सब के अत्तरा से सन्तुष्ट हो उसने दीक्षा ली।
७६- गौतम की क्षमायाचना ८ मुंका ६४४६ इतिहास संवत् . उत्तर कौशल आदि की तरफ विहार कर विदेह के इस वाणिज्यग्राम में मने अपना पन्द्रहवां चतुर्मास किया है। यहाँ आज एक विशप घटना होगई जो कि है तो छोटीसी, किन्तु
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महावीर का अन्तस्तल
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जिसका महत्व काफी है ।
यहां के प्रतिष्टित श्रीमान आनन्द ने मेरे पास श्रावक के बरत लिये हैं। आनन्द स्वयं भी विद्वान ओर ज्ञानी व्याक्त है । उसे अवधिज्ञान भी है जिसके द्वारा वह अमुक अंश में विश्वरचना का म.प जानता है।
आज जब इन्द्रभूति गौतम भिक्षा लेने नगरमें गये तब आनन्द से भी मिले, क्योंकि आनन्द कुछ दिनों से बीमार है इसलिये उसका कुशल समाचार लेना था। इसी समय कुछ धर्म ची भी छिड़ पड़ी। आर आनन्द ने इस प्रकरण में अपने अवधिज्ञान का उल्लेख किया । पर गौतम ने झुसकी बात का निषेध किया। आनन्द ने तीन बार वही नात कही, पर गौतम ने तीनोवार अलका निषेध किया । कोई ने किसी की बात न मानी।
. वहां से आने के बाद प्रतिदिन की तरह जब गौतम ने चर्या निवेदन किया उसमें यह बात भी निकलो, तब मुझे यह वात खटकी । और मुझे मालूम हुआ कि गाँतम ने गलती की है। गृहस्थ भी ऐसा दिव्यज्ञान पासकता है। गौतम ने निषेध कर सत्य का अपलाप तो किया ही है साथ ही संघ में भी वमनस्य के वीज बोये हैं । . .
मैंने यह बात गौतम से कही।
गौतम ने आश्चर्य से कहा-क्या गृहस्थ को दिव्यज्ञान होसकता है भगवन ।
मैं-गृहस्थ को दिव्यज्ञान होने में कठिनाई तो अवश्य है, पर असम्भव नहीं है । असली बात तो विवेक और समभाव है। गृहस्थ को पूर्ण समभावी होने में कुछ कठिनाई होने पर भी वह अंचे से ऊंचा समभावी, और दिव्यज्ञानी होसकता है । कृर्मापुत्र को तो गृहस्थ अवस्था में केवलज्ञान होगया था।
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महावीर का अन्तस्तल गौतम ने आश्चर्य से कहा-केवलज्ञान ! केवल ज्ञान होने पर भी कर्मापुत्र घर में रहे ? किसलिये रहे ?
मैं-माता पिता की सेवा करने के लिये । कूर्मापुत्र माता पिता की एकमात्र सन्तान थे। उन्हें मालूम हुआ कि अंगर में दीक्षा लेलंगा तो माता पिता का या तो अकाल मरण होजायगा अथवा उनका जीवन असहाय होकर अत्यन्त दुःखपूर्ण होजायगा ! इसलिये जब तक माता पिता जीवित हैं तब तक वे घर में रहे। इस बीच धर्म साधना और उच्च समभाव के कारण वे केवलज्ञानी भी होगये, फिरता तक घर में रहे जर तरु माता पिता का देहांत ल होगया।
गौतम-क्या इले मोह नहीं कह सकते भगवनू'
मैं-नहीं। मानव जीवन के आवश्यक कर्तव्यों को पूरा करना मोह नहीं है। माता पिता की सेवा के कारण ही बालक जीवित रहता है और मनुष्य बनता है । इस उपकार का बदला चुकाना आवश्यक है। यह पूर्ण निमांह को भी चुकाना चाहिये। में स्वयं मातापिता के लिये कई वर्ष दक्षिा लेने से रुका रहा था। यद्यपि मैं झुम समय केवलज्ञानी नहीं हो सका फिर भी मैं पर्याप्त निर्मोह था। मोह से मनुष्य के हृदय में ऐसा पक्षपात स्वार्थ अविवेक आजाता है कि वह कर्तव्याकर्तव्य का भान भूल जाता है, जो ऐमा भान नहीं भूलता, वह मोही नहीं कहलाता। हमन इतना बड़ा संघ बनाया है, सब प्रेमभाव से विनय से रहते हैं सेवा करते हैं, इसका यह मतलब नहीं कि हम में मोह है। यह सब निर्मोह रहकर करते हैं। इसीप्रकार निर्मोह रहकर जगत के चे सब काम किये जासकते हैं जो सर्वसुख की नीति के अनुकूल हैं।
गौतम-जब निर्माह रहकर सब अच्छे कार्य किये जास. को है और केवलझान तक पाया जासकता है. तब साधु साध्वी
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महावीर का अन्तस्तल
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संघ की आवश्यकता क्या है ?
मैं दो कारणों से इसकी आवश्यकता है । पहिला कारण यह हैं कि अभी गृहस्थावस्था में ऐसा वातावरण नहीं मिल सकता जिससे सरलता से निर्मोह बनकर रहा जासके । जीवन संग्राम अभी जटिल है, उसकी चोटों से अधिक प्राणी मोही या रागद्वेषी होजाते हैं इसलिये उनकी जीवनचर्या और वातावरण बदलने की आवश्यकता है जिससे वे जीवन शुद्धि की साधता कर सकें। दूसरा कारण यह है कि मनुष्य के जीवन में और समाज में जो क्रांतिकारी परिवर्तन करना है उसके प्रचार के लिये एक ज्ञानी संस्था की जरूरत है, जिसका जनता पर प्रभाव पड़ सके, जिसके सदस्य अधिक से अधिक स्थानों पर पहुँच सकें सदा भ्रमणशील रह सके । गृहस्थ वह कार्य नहीं कर सकता, सन्तान के पालन पोषण तथा भविष्य के लिये उसे समर्थ बनाने में उसकी शक्ति केन्द्रित होजाती है । सर्वसंगत्यागी साधुसंस्था हो यह कार्य कर सकती है । इन दो कारणों से साधु साध्वी संघ की आवश्यकता है । तुम्हीं सोचो, अगर तुम साधु न बने होते तो जो सम्यकत्व चारित्र का प्रचार तुम आज कर रहे हो वह क्या कर सके होते ? पुरानी रूढ़ियों का जाल तोड़ना और वातावरण को बदलना क्या सम्भव था ? जीविका की समस्या ही सागे सचाई खाजाती । साधु रहन से जीविका अब तुम्हें नचा नहीं सकती, तुम्हारे विचारों पर और प्रचार पर प्रत्यक्ष अप्र त्यक्ष कोई अकुंश नहीं डाल सकती । भ्रामरी वृत्ति से तुम कहीं भी गुजर कर सकते हो। किसी व्यक्ति विशेष जाति विशेष या दल विशेष का मुँह ताकने की तुम्हें जरूरत नहीं है । और न इससे तुम्हारे गौरव को धक्का लगता है। गृहस्थ इतना निर्भय, इतना निश्चित, इतना गांग्वशाली साधारणतः नहीं होता, इसलिये आजकल राजमार्ग यही है कि जगत की सेवा के लिये
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.... ... मनुष्य साधु बने, और साधुता को बढ़ाने और टिकाने के लिये साधु संघ का अंग बने ।
गौतम-क्या ऐसा भी समय आसकता है भगवन् कि इस साधुसंस्था की आवश्यकता न रहे । या उसका पिलकुल ही दूसरा रूप हो।
मैं-आसकता है। आचार शास्त्र के विधान द्रव्य क्षेत्र काल भाव के अनुसार बनते हैं। जैसा द्रव्य क्षेत्र काल भाव होता है वैसे साधु संस्था के रूप होते हैं-जीवन शुद्ध और जगत्सुधार के कार्य की मुख्यता से साधुसंस्था की आवश्यकता सदा रहेगी, पर उसके रूप तो बदलते ही रहेंगे। द्रव्य क्षेत्र काल भाव को भुलाकर आज के ही रूप से सदा चिपटे रहना एकांत मिथ्यात्व होगा । और मिथ्यात्व के साथ स्वपर कल्याण नहीं हो सकता । असली वस्तु साधुता है साधुसंस्था नहीं। लाघसंस्था तो साधता का वस्त्र मात्र है। वस्त्र तो ऋतु के अनुसार बदला ही करते हैं । देशकाल के भेद से भी उनमें परि वर्तन होता ही है।
गौतम-आज तो एक बहुत बड़े धर्म रहस्य का ज्ञान हुआ भगवन ! साधुता और साधुसंस्था का विश्लेषण, और गृहस्थावस्था में जीवन विकास आदि की बहुत बाते जानने को मिली । अब में सोचता हूं कि आनन्द के अवधिज्ञान को अस्वी. कार करके मैंने सत्य का विरोध किया है । इसलिये मुझे आनन्द से क्षमायाचना करना चाहिये ।
मैं-करना तो चाहिये। गौतम-तो मैं अभी जाता है। मैं- कुछ ठहर कर भी जासकते हो। गौतम- आपने सिखाया है, भगवन कि मन का विकार
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जितनी देर तक छिपा बैठा रहेगा उतने समय तक वह गुणाकार रूप में बढ़ता जायगा, और पाप बढ़ाता जायगा । मेरी भूल से आनन्द के मन में जो खेद हुआ है उसको जितन अधिक समय तक बना रहने ढुंगा, मेरा अपराध उतना ही बढ़ता जायगा ! इसलिये आज्ञा दीजिये भगवन, मैं शीघ्र क्षमायाचना कर आऊं ! मैं- जिसमें तुम्हें सुख हो वही करो ।
गौतम गये और क्षमायाचना कर आये। मुझे इससे परम सन्तोष हुआ । सोचता हूं कि मेरे संघ का भवन संयम न्याय विनय की नीव पर खड़ा होरहा है ।
महावीर का अन्तस्तल
आनन्द एक श्रावक है, और गौतम एक साधु हो नहीं हैं किन्तु मेरे वाद संघ में उन्हों का स्थान सर्वश्रेष्ठ है | आनन्द की अपेक्षा गौतम का स्थान काफी ऊंचा है कई गुणा ऊंचा है । फिर भी इतने बड़े गणनायक को एक गृहस्थ के घर जाकर क्षमा याचना करने में संकोच नहीं हुआ यह संघ के लिये शांभा की ही बात नहीं है किन्तु जीवन को भी बात है ।
.
इस विषय में मेरा क्या दृष्टिकोण है इसका पता लगते हो गौतम ने बिना किसी संकोच के बिना किसी टालमट्रल के. तुरंत ही पालन किया, यह अनुशासन भी संघ के जीवन को स्वस्थ बनाने वाला है उम्र में मुझमे आठ वर्ष अधिक होने पर भी गौतम की यह नम्रता, यह विनय भक्ति यह अनुशासनप्रियता, इतनी अमूल्य है कि इस संघ का प्राण कह दिया जाय तो अतिशयोक्ति न होगी ।
७७ - स्वाभिमानां शालिभद्र
२४ ईगा ९४४७ ३. सं.
गतवर्ष वाणिज्य ग्राम से निकलकर अनेक नगर ग्रामों
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महावीर का अन्तस्तल
में विहार करता हुआ सोलहवें चातुर्मास के लिये राजगृह नगर आया । यह नगर मेरे तीर्थ के प्रचार का अच्छा केन्द्र बनगया है। यहां धन्य और शालिभद्र ने दीक्षा ली। शालिभद्र के स्वाभिमान ने ही असे दीक्षित किया। वह नहीं चाहता था कि किसी के आगे झुकना पड़े, पर एक बार उसे राजासे मिलने के लिये महलसे नीचे उतरना पड़ा। इसका शालिभद्र के मनपर बड़ा प्रभाव पड़ा। वह किसी ऐसे पद की खोज में था जिले पाने पर राजाओं के सामने न झुकना पड़ । जब उसे पता लगा कि श्रमणों को राजा के सामने नहीं झुकना पड़ता तब वह श्रमण होगया।
समें सन्देह नहीं कि आत्मगौरवशाली व्यक्तियों को श्रामण्य पर्याप्त सुखप्रद है । अन्य इन्द्रियों का आनन्द श्रमणों को भले ही न मिले या कम मिले, पर यह मानसिक आनन्द तो पर्याप्त मिलता है । इसी निमित्त से शालिभद्र का उद्धार होगया।
७८-कालगणना २८ इंगा ९४४७ इ. स.
गौतम ने आज कालगणना सम्बन्धी प्रश्न पूछा । मैंने लौकिक अलौकिक सभी प्रकार की गणना बताई।
समय-काल का सब से सूक्ष्म अंश । यावलिका- असंख्यात समयों की। उच्छ्चास-बहुतसो भावलिसाओं का।
निश्वास- उच्छवास के बराबर समय । भ्वासोच्छ्वास (प्राण )-अच्छ्वास निश्वास मिलाकर।
स्तोक-सात प्राणों का।.. लव-सात स्तोकों का। मुहूर्त-७७ लवों का, या ३७३३ स्लोवालों का। .. यहोरात्र-तीस मुहर्त का
.
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' महावीर का मन्तस्तल
.२८७
::" ...
...ranrnnarwwwwwwww.mor.....
. पप- पन्द्रह अहोरात्र का।: . .. .. मास-दो पस्य का।। - .. ऋतु-दो मास की ,
... अयन-छः मासका।' ....... वर्ष-दो अयन का। '. पूर्वाग-चौरासी लाख वर्षों का।
पूर्व-चौरासी लाख पूर्वागों का।
इस प्रकार अत्तरोत्तर चौरासी लाख चोरासी लाख गुणित होते हुए. बुटितांग, त्रुटित, अडडांग, अडड, अववांव, अवय, हूहूकांग, हृहूक, उत्एलांग, उत्पल, नालेनांग, नलिन, निकु रांग, निकुर, अयुतांग, अयुत, प्रयुक्तांगं प्रयुत, नयुतांग, नयुत, चूलिकांग, चूलिका, पहेलिकांग, प्रहेलिका
इसप्रकार कालगणना है इसके बाद उपमा से असंख्य वर्षों के पल्प और उससे बड़े सागर का परिमाण बताया। . .
- इसके बाद परमाणु या प्रदेश से लेकर शेजन तक क्षेत्र का भी माप बताया।
यद्यपि तीर्थकर का कार्य धर्म का सन्देश देना है और इसी विषय का वह सर्वज्ञ होता है, पर धर्म जीवन के हर कार्य में व्यापक है इसलिये अप्रत्यक्ष रूप में बहुत से विषयों के साथ झुसका सम्बन्ध आजाता है इसलिये तीर्थकर को अन्य विषयों पर भी अपना सन्देश देना पड़ता है। अपने शिष्यों को बहुत वनाना मी आवश्यक है।
... . . ... ७९-कठोर अनुशासन , १ धामा ९४४८ इतिहास संवत् ..
गतवर्ष राजगृह में सोलहवां चानुमास पूरा कर मैंने
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सहावार का अन्तरतल
में बिहार करता हुआ सोलहवें चातुर्मास के लिये राजग्रह नगर आया । यह नगर मेरे तीर्थ के प्रचार का अच्छा केन्द्र बनगया है। यहां धन्य और शालिभद्र ने दीक्षा ली । शालिभद्र के स्वाभिमान मे ही असे दीक्षित किया । वह नहीं चाहना था कि किसी के आगे झुकना पड़े, पर एक बार उसे राजासे मिलने के लिये महलसे नीचे उतरना पड़ा | इसका शालिभद्र के मनपर बड़ा प्रभाव पड़ा । वह किसी ऐसे पद की खोज में था जिसे पाने पर राजाओं के सामने न झुकता पड़ । जब उसे पता लगा कि श्रमणों को राजा के सामने नहीं झुकना पड़ता तब वह श्रमण होगया ।
इसमें सन्देह नहीं कि आत्मगौरवशाली व्यक्तियों को श्रामण्य पर्याप्त सुखप्रद है । अन्य इन्द्रियों का आनन्द श्रमणों को भले ही न मिले या कम मिले, पर यह मानसिक आनन्द तो पर्याप्त मिलता है । इसी निमित्त से शालिभद्र का उद्धार होगया । ७८- कालगणना
२८ दूंगा ९४४७ इ. स.
गौतम ने आज कालगणना सम्बन्धी प्रश्न पूछा । मैंने लौकिक अलौकिक सभी प्रकार की गणना बताई | समय- फाल का सब से सूक्ष्म अंश । नावलिका- असंख्यात समयों की । उच्छ्वास- बहुतसी थावलिकाओं का ।
निश्वास- उच्छ्वास के घरावर समय 1
श्वासोच्छ्वास (प्राण ) - झुच्छ्वास निश्वास मिलाकर ।
स्तोक- सात प्राणों का । लव- सात स्तोकों का ।
मुहूर्त - ७७ लबों का, या ३७१३ स्वासोश्वासों का । अहोरात्र - तीस मुहूर्त का
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महावीर का अन्तस्तल
२७ .
..पप- पन्द्रह अहोरात्र का। ....मास- दो पकष का। .: ऋतु-दो मास की
... . ...... अयन-छः मासका। ....... वर्ष-दो अयन का।
. पूर्वांग-चौरासी लाख वर्षों का। : । पूर्व-चौरासी लाख पूर्वागों का। ।
इसप्रकार झुत्तरोत्तर चौरासी लाख चोरासी लाख गुणित होते हुए, चुटितांग, त्रुटित, अडडांग, अडड, अववांव, अवव, हूहूकांग हहूक, उत्पलांग, उत्पल, नलिनांग, नलिन, निकु रांग, निकुर, अयुतांग, अयुत, प्रयुतांग प्रयुत. नयुतांग, नयुत, चूलि कांग, चूलिका, प्रहेलिकांग, प्रहेलिका
. इसप्रकार कालगणना है इसके बाद उपमा से असंख्य वर्षों के पल्य और उससे बड़े सागर का परिमाण बताया। ..
- इसके बाद परमाणु या प्रदेश से लेकर योजन तक क्षेत्र का भी माप बताया।
यद्यपि तीर्थंकर का कार्य धर्म का सन्देश देना है और इसी विषय का वह सर्वज्ञ होता है, पर धर्म जीवन के हर कार्य में व्यापक है इसलिये अप्रत्यक्ष रूप में बहुत से विषयों के साथ असका सम्बन्ध आजाता है इसलिये तीर्थकर को अन्य विषयों पर भी अपना सन्देश देना पड़ता है। अपने शिष्यों को बहुत बनाना भी आवश्यक है। . .. . ..
७९-कठोर अनुशासन . १ धामा २४४८ इतिहास संवत् ... ...
गतवर्ष राजगृह में सोलहवां चाबुमाल पूरा कर मैंने
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८८ ]
महावीर का अन्तस्तल
हेमन्त के प्रारम्भ में ही चम्पा की ओर विहार किया । चम्पा के पूर्णभद्र चेत्य में ठहरा वहां मुझे सन्देश मिला कि वीतभय नगर - का राजा मुद्दायन चाहता है कि मैं उसके राज्य में विहार करूं और उसे भी दर्शन दूं । यात्रा लम्बी थी फिर भी मैंने अस तरफ विहार किया । उदाय ने पर्याप्त आदर सत्कार किया और स्वयं भी कर लिये पर उसके राज्य के लोग अनुरागी नहीं मालूम हुए। इसलिये राजा को प्रतिबोध देकर मैं अपने शिष्य परिवार सहित लौटा। क्योंकि चातुर्मास करने लायक वहां की परिस्थिति नहीं थी । रास्ते में खाने पीने की बड़ी तकलीफ हुई ! प्रायः सभी साधु भूख प्यास से व्याकुल होगये । और आपस मै खाने पीने के बारेमें चर्चा करने लगे ।
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रास्ते में कुछ गाड़ियाँ जारही थीं, और उनपर तिल लदे हुए थे। साधुओं की आपसी बातचीत से गाड़ीवालों ने समझ लिया कि साधु भूखे हैं । इसलिये उनने कहा- सत्र सन्त हमारे तिलों से भूख शांत करें ।
सब साधुओं की नजर मेरे ऊपर पड़ी । मुझे यह ftaar और निर्बलता अखरी । मैंने सत्र को तिल लेने से मना कर दिया ।
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मैं नहीं चाहता कि साधु कोई ऐसी चीज खाये जो ग्रीजरूप है, आगे खेती के काम आ सकती है। साधु इस तरह घीजरूप वस्तुएं खाने लगेंगे तो खेती के काम में नुकसान पहुँचा. येंगे । अन्हें तो वे ही वीज खाना चाहिये जो गृहस्थों ने अग्निः संस्कार से या पीस कूटकर तैयार करली हो । आज में इन्हें बीजरूप कच्चे तिलों को खाने का आदेश दे दूं तो कल ये कच्चे खेत ही चर डालेंगे | वन्वत एक बार टूटा कि फिर वह रुकता नहीं है। इसलिये मैंने किसी को तिल न खाने दिये ।
आगे बढ़ने पर स्वच्छ पानी के तालाव मिले। साधु
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साध्वी गण प्यास से व्याकुल था । सब की इच्छा थी कि पानी निर्मल है इसलिये पी लिया जाय । एक ने मुझ से पूछा । पर मैंने मना कर दिया |
महावीर का अन्तस्तल
यह क एक दिन का है, पर तालाबों से इस तरह पानी पीने की अनुमति दे दी जाय तो कल से साधु स्वच्छ अस्वच्छ का विचार न कर जिस चाहे तालाब का पानी पीने लगेंगे और तैरने तथा छलने कूदने भी लगेंगे। सारी मर्यादा नए होजायगी ।
यह प्रसन्नता की बात है कि सब साधु साध्वियों ने अनुशासन का पूरी तरह पालन किया ।
८०-देव लोक की अवधि
५ जिन्नी ९४४६ इ. स.
वाणिज्य ग्राम १७ वां चातुर्मास पुग कर मैं बनारस आया यहां के जितशत्रु राजा ने पर्याप्त सम्मान किया । बनारस के ईशान कोण में कोष्ठक चैत्य में ठहरा और अपने मत पर प्रव चन किये। कुछ लोगों ने मेरा प्रवचन स्वीकार किया और गृहस्थोचित करत भी लिये । चुल्लती पिता और उसकी पत्नी श्यामा, और सुखदेव और उसकी पत्नी धन्या, ये दो श्रीमन्त दम्पति इनमें मुख्य रह । फिर भी मैं जैसी चाहता था वैसी सफलता यहां दिखाई नहीं दी । सत्यप्रचार के लिये साधु एक भी न मिला । इसलिये काशीराज्य में थोड़ा विहार कर राजगृह की ओर लौटा और मार्ग में इस आलाभिका नगरी के शंख वन में ठहरा हूं ।
गौतम जब भिक्षा के लिये नगर में गये तब उन्हें मालूम हुआ कि यहां पोग्गल नाम के परिव्राजक का काफी प्रचार है । वह कहता फिरता है कि मुझे अपने दिव्यज्ञान से सारा देवलोक दिखाई देता है । अंतिम देवलोक ब्रह्मलोक है । यस, इतनीसी
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महावीर का अन्तस्तल
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बात को लेकर वह धर्मगुरु बन बैठा है।
गौतम ने जब उसकी बात कही तब मैंने कहा-पोग्गल का कहना ठीक नहीं, उसे अधूरा ज्ञान है, उसे सारे देवलोक का पता ही नहीं।
___ यह बात आलाभिंका के कुछ नागरिकों ने भी सुनी और वे यह बात नगर में कहते गये । फैलते फैलते पोग्गल परिव्राजक के कान में भी यह बात पहुंची । मेरे व्यक्तित्व के प्रभाव के कारण केवल नगरवासी ही नहीं, स्वयं पोग्गल परिव्राजक भी शंकित हो उठा। व्यनित्व का प्रभाव भी वास्तव में बहुत काम करता है।
वह चर्चा के लिये मेरे पास आया और उसके साथ खेकडो नागरिक भी आये ।
उसने मुझसे पूछा-भगवन, मुझे देवलोक दिखाई देता . है और अन्तिम देवलोक ब्रह्मलोक है, पर आप इसे अधूरा मानते है तो बताइये कि ब्रह्मलोक के आगे देवलोक कला है और उसमें क्या प्रमाण है ?
मैंने पूछा-तुम देवलोक को कैसा देखते हो परिव्राजक ?
पोगलं-वहां के सब देव खूब सुखी हैं, देवलोक आन: दमय है। . .
मैं- क्या वहां इन्द्र है ? . पोग्गल-जी हां वहां इन्द्र है।
मै-क्या इन्द्र की सेवा के लिये दास दासी के समान देव भी हैं।
. पोग्गल - जी हां, वहां दासदासी के समान देव भी है। ...
मैं-इन्द्र या उसके कुटुम्बियों की अपेक्षा साधारण प्रजा. जन के समान देवों की और दासदासियों की संख्या कितनी है ? . .:
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महावीर की अन्तस्तल
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पोरंगल इन्द्र और जुसके कुटुम्बियों की अपेक्षा साधारण देवों की और दासदासी के समान देवों की संख्या बहुत अधिक हैं।
मैं तब तो इसका मतलब यह हुआ परिवराजक, कि देवलोक में मुट्ठीभर देव ही सुखी है बाकी असंख्यगुणे देव तो उनके दास दासी के समान हैं, वे दीन हैं पराधीन हैं, उन्हें देवगति का सुख कितनासा ? जिस देवलोक में मुट्ठीभर देव सुखी हो और उनसे असंख्य गुणे देव दास दासी के समान दुःखी हों उस स्वर्ग को तुम अंतिम स्वर्ग कैसे कह सकते हो ? अंतिम स्वर्ग तो वहीं कहा जासकता है जहां सब देव सुखी हो । जब तुम्हें ऐसा देवलोक दिखाई ही नहीं देता जहां सब देव सुखी हो तब तुम कैसे कहते हो कि मुझे अंतिम देवलोक दिखाई देता है ?
पोग्गल - आप ठीक कह रहे हैं भगवन, अब तो मुझे ऐसा. मालूम होता है कि मानों मेरा सारा ज्ञान लुप्त होरहा है, अब तो देवलोक और अंतिम देवलोक का वर्णन आप ही बताइये भगवन् । में- दो तरह के देवलोक हैं परिवराजक, एक कल्पोपपन्न दूसरे कल्पातीत | जहां इन्द्र हैं उनकी प्रजा हैं, दास दासी हैं वे कल्पोपपन्न हैं । वहां मध्यलोक की अपेक्षा कुछ अधिक सुख तो है फिर भी बहुत कम है। क्योंकि परिग्रह की विशालता होने से एक के पीछे बहुत से देवों को दुखी होना पड़ता है । पर ज्यों ज्यों ऊंचे ऊंचे देवलोकों में जाते हैं त्यो त्यो परिग्रह कम होता जाता है इसलिये दूसरे दुखी देवों की संख्या भी घटती जाती है इसप्रकार वारहवें अच्युत देवलोक में नीचे के सब देवलोकों की अपेक्षा अधिक सुख है । इसके बाद ऐसे देवलोक आते हैं जहां सर्व देव समान सुखी हैं। वहां दास दासी आदि कुछ नहीं । न यहां कोई सब का इन्द्र है न कोई किसी इन्द्र की
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महानार का अन्तस्तल
प्रजा, सत्र अहमिन्द्र हैं सभी देव इन्द्र के समान सुखी है, इसलिये अहमिन्द्र कहलाते हैं। उनकी आवश्यकताएँ कम है और वे अपने आप पूरी होजाती हैं, शुसके लिये दास दासियों की जरूरत नहीं होती। ऐसे अहमिन्द्र लोक ही अन्तिम देवलोक हैं। अन्तिम देवलोक का नाम सर्वार्थासार्द्ध है।
. पोग्गल-बहुत ठीक कहा भगवन आपने, बहुत ही तर्फयुक्त कहा भगवन आपने, अब आप मुझे अपना श्रमण शिष्य समझं।
पोगगलपरिव्राजक ने मेरी शिष्यता स्वीकार करली । नागरिकों पर इस बात का बड़ा प्रभाव पड़ा। यहां के सब से पड़े श्रीमन्त चुल्लशतक और झुसकी पत्नी बहुला ने मेरी उपा. सकता स्वीकार की।
८१-चतुाता का उपयोग २८ धामा ९४४१ इ. सं.
अपने अठारहवे चातुर्मास के लिये मैं फिर राजगृह आया।
दो वर्ष पहिले इसी नगर में शालिभद्र नाम के एक धीमन्त युवक ने दीक्षा ली थी। साथ में उसके बहनोई धन्य ने भी दीक्षा ली थी। दो वर्ष बाद वे मेरे साथ फिर राजगृह नगर आये हैं । शालिभद्र की माता भद्रा की गिनती इस नगर के मुन्य श्रीमन्तों में है । वह अवश्य अपने पुत्र से मिलने को उत्सुक होगी और शालिभद्र भी माता से मिलने की सुन्सुकता छिपा न सकेगा, इसलिये यह भिक्षा लेने अपनी माता के घर ही जायगा । इसलिये जव शालिभद्र मेरे पास भिक्षा के लिये नगर में जाने की अनुमति लेन आया तब मैंने सहजभाव से कार्य कारण के नियम का ध्यान रखकर कह दिया, कि आज तुम्हें
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महावीर का अन्तस्तल
[२६३
अपनी माता के हाथ से मिक्या मिलेगी। सारी बातों को देखते हुए यही होना स्वाभाविक था।
पर हुआ उल्टा ही।
दो वर्ष की कठोर तपस्या से शालिभद्र और धन्य के शरीर काले पड़गये हैं, शरीर की हड्डियाँ दिखाई देने लगी हैं. इसलिये जब ये लोग अपने घर भिक्षा के लिये गये तय किसी ने इन्हें पहिचाना भी नहीं । शालिभद्र की माता मेरे पास आने की तैयारी में थी, और अपने बेटे से मिलने के लिये उत्सुक थी। वह अपने वैभव के अनुरूप बड़े ठाठ से अनेक दास दाप्तियों के साथ सजे हुए यान में बैठकर यहां आना चाहती थी। और इस तैयारी में इतनी मन्न थी कि सामने खड़े हुए अपने बेटे और जमाई को भी न पहिचान सकी । न उस घर में उन्हें भिक्या मिल सकी । अन्त में अपने घर के द्वार पर थोड़ी देर खड़े रह. फर वे भूखे ही लौट आये।
रास्ते में एक ग्वालिन मिली जो दही बेचने जारही थी। उसने इन दोनों को भूखा जानकर बड़े प्रेम से दही खिलाया। दही का भोजन कर ये मेरे पास आये।
इनने सारी घटना ज्यों की त्यों सुना कर कहा-मगवन् । आपने तो कहा था कि आज माता के हाथ की भिक्या मिलंगी पर माता ने तो मुझे पहिचाना भी नहीं । भिम्पा तो एक वृद्धा ग्वालिन ने दी। आपका वचन असत्य कैसे हुआ भगवन् ?
मैं काणभर रुका | फिर ध्यानावस्था में जो मैं असंख्य कहानियाँ अपने ज्ञानभण्डार में जमा करता रहा है उनमें से एक कहानी निकालकर प्रकरण के अनुकूल बनाकर सुनाई।
- "इसी राजगृह नगर के पास शालीग्राम में एक गर्गर ग्वालिन रहती थी। किशोरावस्था में ही उसको एक पुत्र हुआ
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महावीर का अन्तस्तल
और उसका पति मर गया। बड़ी गरीबीले उसने पुत्रका पालन किया। ज्यों ही वह दस वर्ष का हुआ कि गांववालों के ढोर चराने जाने लगा। इस तरह गरीबी से उसकी गुजर होने लगी। ... . . ..... एक बार त्यौहार के दिन सब के घर में खीर बनी । यह बालक भी मां से खीर खाने का हठ करने लगा। गरीबी के कारण मां के पास इतना धन नहीं था कि वह अपने पुत्र को खीर खिलासके इससे दुखके मारे वह रोने लगी। जब पड़ा. सिनों को उसके रोने का कारण मालूम हुआ तब सब ने थोड़ा
थोड़ा दूध दिया। तब उसने खीर बनाई। कई घरों से दूध . .मिलने के कारण बहुत दूध होगया इसलिये बहुतसी . खीर बनी।
उसने लड़के के थालमें बहुतसी खीर परोसदी और वह दूसरे काम में लगगई । इतने में एक साधु भिक्षा मांगता हुआ वहां आया । साधुको भूखा और दुर्वल देखकर बालक को दया आगई और उसने थाली की सारी खीर साधुको आर्पित कर दी।
पर और भी खीर बहुन थी, और उसने खूब खाई। इतनी अधिक कि असे वह पचा न सका । अजीर्ण से बीमार हुया और मर गया। । पर साधुको दिये हुए दान के प्रभाव से वही बालक भद्रा सेठानी के यहां शालिभद्र नामका पुत्र हुआ। उस शालिभन्द्र को उसकी इस जन्म की मां ने साधुवेप में न पहिचाना, पर पहिले जन्म की ग्वालिन मां ने पहिचाना। .... .
इसलिये आज जो तुम्हें भिक्षा मिली है वह मां के हाथों ही मिली है। निःसन्देह वह इस जन्म की मां नहीं है। पूर्वजन्म.' की मां है।"
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महावीर का अन्तरतळ
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मेरी इस चतुरता का शालिभद्र और धन्य पर काफी प्रभाव पड़ा । धर्म के ऊपर उनकी श्रद्धा और दृढ़ हुई ।
८२ - अनेकांत का उपयोग
१९ धामा ९४४९ इ. सं..
आज राजा श्रेणिक दर्शनों को आये थे। उनके चेहरे पर चिन्ता की रेखाएँ थीं। जो कि वृद्धावस्था के कारण पढ़ी हुई झुर्रियों से अलग दिखाई दे रही थीं। मैंने जब कारण पूछा तब कहा- मैं पंडितों के मारे परेशान है। इनके वाद विवादों ने राज्य की सारी शान्ति नए करदी है। इनके नित्य अनित्य द्वैत-अद्वैत से जगत का कवं क्या भला होगा कौन जाने, पर आये दिन जो मार-पीट और हत्याएँ होती रहती हैं उससे यह राज्य ही नरक चना जारहा है ।
मैंने पूछा- आखिर बात क्या है ?
.
श्रेणिक ने कहा- इस नगर में कुलकर नाम का एक नित्यवादी पंडित है और मृगाक्ष नामका अनित्यवादी पंडित भी है । दोनों के पास शिष्यों की सेनाएँ हैं । एक दिन दोनों सदलवल मार्ग में ही वाद-विवाद करने लगे । कुलकर ने मृगाक्ष की नाक पर इतने जोर से मुक्का मारा कि मृगाक्ष की नाक से खून बहने लगा। मेरे पास न्याय के लिये मामला आया और जब मैंने पूछा तो कुलकर ने कहा- मैंने मारने के लिये नहीं मारा, अपने पक्ष की सचाई बताने के लिये मारा था । क्योंकि मृगाक्ष का कहना था कि नाश होना वस्तुका स्वभाव है, स्वभाव परनिमितक नहीं होता। इसके विरोध में जो मैंने युक्तियाँ दीं वह मृगांक्ष ने मानी नहीं। तब मैंने मुक्का मार कर सिद्ध कर दिया कि और कोई नाश परनिमित्तक मानो या न मानों पर मुक्के से होनेवाला नाश तो परनिमित्तक मानोगे हो ।
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मृगाक्षजी से मैंने पूछा कि आप इसका उत्तर दें तो उनने कहा कि ऐसा उत्तर तो कलतक मिल सकेगा। पर रात में उनने कुलकर के बेटे की हत्या करदी । और दूसरे दिन न्यायसभा में आकर कहा कि मैंने कुलकर के तर्क का उत्तर दिया है। क्योंकि कुलकर नित्यवादी है, ये किसी वस्तु का नाश नहीं मानते, इसलिये इन्हें सन्तोष रखना चाहिये कि इनके वेटे का नाश नहीं हुआ, और नाश हुआ है तो ये अपने पक्ष को छोड़दें, और मेरे द्वाग हुए पुत्रवध को मेरे पक्ष की युक्ति समझें।
मुझे वह मामला स्थगित करना पड़ा।
इसी तरह एक दूसरा मुकद्दमा भी है। इसमें वादी प्रभाकर देव शर्मा हैं जो अद्वतवादी हैं प्रतिवादी है आचार्य कालिक, जो एक ऐतवादी पण्डित हैं । कौलिक ने अद्वैतवाद की निःसारता यताने के लिये प्रभाकर की पत्नी के साथ व्यभिचार किया। और कहा कि यादि अद्वत सत्य है तो स्वपत्नी पर पत्नी का भेद क्यों ? इसके उत्तर में प्रभाकर देव ने कौलिक का सिर फोड़ दिया और कहा कि द्वैतवाद के अनुसार शरीर और आत्मा जुदे जुदे तत्व हैं, इसलिये सिर फोड़ने से कौलिक की कुछ भी हानि नहीं हुई है।
आखिर मुझे यह मुकदमा भी स्थगित करना पड़ा है। समझ में नहीं आता कि इन लोगों को कैसे ठिकाने लगाया जाय, और नीति की रक्षा कैसे की जाय? .
श्रेणिक की यह किंकर्तव्यविमूढ़ता देखकर मैंने कहा-यदि चेचारा पंडित अपने एकान्त पक्षपर इसीप्रकार दृढ़ हैं और उसे व्यवहार में भी लाते हैं तब आप उन्हें न्यायोचित दण्ड दें। यदि वे अपने सिद्धांत में इसी प्रकार दृढ़ हैं तब उन्हें मृत्युदण्ड भोगने में भी आपत्ति न होना चाहिये । क्योंकि मृत्युदण्ड पाने पर भी कुलकर की नित्यता में कोई अन्तर न आयगा, और मृगाक्ष तो क्षणिक
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बाद के अनुसार प्रतिसमय मर ही रहा है, इसलिये उसे भी मरने में कोई आपत्ति न होगी । प्रभाकर देव के लिये मृत्युदण्ड माया ही होगा, और कौलिक को तो शरीर से सम्बन्ध ही क्या है ? जब कि आपका दण्ड शरीर पर ही प्रभाव डालनेवाला है । इस प्रकार दण्ड सुनाकर आप आठ दिन का उन्हें अवसर दीजिये । देखिये फिर आठ दिन में क्या होता है ।
२३ धामा ९४४९ ई. सं.
आज वे चारों पंडित मेरे पास आये थे । उनके साथ राजा के पहिरेदार भी थे । उनसे मालूम हुआ कि उन्हें चार दिन में मृत्युदण्ड दिया जायगा । उन्हें पहिरे के भीतर रहकर अमुक क्षेत्र में आने जाने की और मिलने जुलने की स्वतन्त्रता है। ये मृत्युदण्ड से दुखी थे, और बचने के लिये मेरी शरण में आय थे ।
मैंने कहा- जब आप लोग अपने अपने सिद्धांत में पक्के हैं, और आपके सिद्धांतों के अनुसार मृत्युदण्ड से कुछ परिवर्तन नहीं होता तब आप लोग मृत्युदण्ड से डरते क्यों हैं ?
उनने कहा- भगवन्, हम भूल में हैं । परन्तु समझ में नहीं आता कि हमारी भूल क्या है ? तर्क हमें धोखा देरहा है । मैं- तर्क धोखा नहीं देता, मनुष्य स्वयं अपने को धोखा देता है । लोग तर्क को अपने अहंकार का दास बनाना चाहते हैं इससे धोखा खाते हैं। तर्क का अधूरा उपयोग किया जाता है । इसलिये व्यवहार में आकर वह लँगड़ाकर गिर पड़ता हैं । तर्क कहता है कि सत् का विनाश नहीं होता, इसलिये वस्तु नित्य है । परन्तु जीवन में और मै जो अन्तर है, एक को मृत्यु चाहते हैं, और दूसरे से डरते हैं, इसका भी तो कुछ कारण है । इससे यही मालूम होता है कि वस्तु एक अंश से नित्य है और
हम
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एक अंश सें अनित्य, एक अंश से समान या अभिन्न है और दूसरे अंश से विशेष या भिन्न । इस प्रकार वस्तु तो अनेकधर्मात्मक है, और आप लोग एक ही धर्म को पकड़कर रह जाते हैं, इससे व्यवहार में असंगति आजाती है और इसका फल आप लोग देख ही रहे हैं। . ___इसके बाद मैंने अन्हें अनेकांत सिद्धांत पर विस्तार से समझाया।
पंडितों ने कहा-अब हम अपनी भूल अच्छी तरह से समझ गये गुरुदेव । अव हम इस सचाई को पाकर मर भी जायँ तो भी समझेंगे कि घाटे में नहीं हैं।
इतने में राजा श्रेणिक आपहुँचे । मैने कहा राजन् , आपका काम हो चुका, इनको प्राणदण्ड मिल चुका और इनका पुनर्जन्म भी होगया।
श्रेणिक ने आश्चर्य से पूछा-यह क्या रहस्य है भगवन ।
मैंने कहा-रहस्य कुछ नहीं हैं सीधी बात है । जो एकांतवादी कुलकर, मृगाक्ष, प्रभाकर और कौलिक एकांतवाद के कारण अपना और जगत् का अकल्याण कर रहे थे वे मर चुके, अब उनन स्याद्वादी बनकर नये रूप में जन्म लिया है अब इन्हें दण्ड देने की क्या जरूरत ? जब पापी का पाप मरगया तव पापी कहां रहा. जिसे दण्ड दिया जाय ? .
श्रेणिक-- बहुत ठीक किया भगवन आपने । आपका न्याय एक राजा के न्याय से बहुत ऊंचा है बहुत कल्याणकारी है ।
___८३--परिचित को ईर्ष्या १७ सत्येशा ६४५० इ. सं.
आईक मुनि ने गोशालक के साथ हुई चची का विव___रण दिया । मेरे बढ़ते हुए प्रभाव से गोशालक का हृदय ईयां
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कल्पना न
छोड
! उसने मोबद सकता
से अशान्त हो गया है । वह छः वर्ष मेरे साथ रह चुका है। प्रारम्भ में झुसे मेरे विषय में बड़ी भक्ति थी पर जब उसने देखा कि मैं उसके ऐहिक स्वार्थ के लिये उपयोगी नहीं हूं तर उसने साथ छोड़ दिया । उस समय असे कल्पना नहीं थी कि किसी दिन मेग प्रभाव बढ़ सकता है, मेरा सत्यसन्देश फैल सकता है । उसने मुझे एक तरह से साधारण मनुष्य समझकर छोड़ दिया था । पर आज साधारण को असाधारण रूप में देखना पड़ रहा है, और अपनी. उस भूलको वह सममाना नहीं चाहता है। ... . . यह रोग प्रायः सभी परिचितों में होता है । विकास के पहिले अधिक परिचितों का होना भी एक दुर्भाग्य है । क्योंकि उस समय के जितने अधिक परिचित होंगे ईर्ष्यालुओं की संख्या भी उतनी अधिक होगी । इसलिये अविकास के बारह वर्षों में मैंने किसी से परिचय बढ़ाने का प्रयत्न नहीं किया, पर यह गोशाल प्रारम्भ से ही परिचय में आगया इसलिये यह सब से बड़ा ईर्ष्यालु बन बैठा है ।
___ यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है । मनुष्य पहिले पहल किसी दूसरे मनुष्य से जिस रूप में परिचित होता है प्रायः असी रूप में उसे वह जीवनभर देखना चाहता है । अगर कोई दसरा मनुष्य एक दिन अपने बराबर का या नाममात्र के अन्तर का हो, और पीछे वह अधिक विकसित होजाय, अपनी योग्यता तथा व्यक्तित्व से उसकी योग्यता और व्यक्तित्व इतना अधिक बढ़जाय जितने की उसे भाशा नहीं थी तो इस बात में उसे अपमान का अनुभव होता है और इस कारण वह दूसरे मनुष्य की महत्ता अस्वीकार करता है और साथ ही वह अस्वी. कारता उचित समझी जाय इसलिये वह दूसरे के व्यक्तित्व को गिराने की पूरी चेष्टा करता है, निन्दा करता है, इच्छापूर्वक
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महावीर का अन्तस्तल -
सुपेक्षा करता है | अगर योग्यता की निन्दा नहीं कर सकता तो योग्यता की सफलता में दुरभिसन्धि की कल्पना करके उसकी निन्दा करता है । यह है तो बुरी बात पर साधारण मनुष्यों में प्रायः पाई जाती है । गोशाल ने भी श्रर्द्रक के साथ छेड़छाड़ करके अपनी इसी मनोवृत्ति का परिचय दिया ।
उसने आईक से कहा- आर्द्रक, जरा सुनो तो । तुम्हारे धर्माचार्य श्रमण महावीर पहिले तो बड़े एकांतप्रिय और मौनी रहते थे, और अब यह क्या तमाशा मचा रखा है कि बड़ी बड़ी साधुमण्डली और सभाओं में बैठकर उपदेश फटकारते हैं. लोगों को प्रसन्न करते हैं, अब वे इस धन्धे के चक्कर में क्यों पड़गये ?
आईक - यह धन्धा नहीं हैं श्रमण, किन्तु जिस सत्य का प्रभुने साक्षात्कार किया है उसे जगत को देने का झुपकीर है।
गोशाल - बहुत दिनों बाद सूझा यह उपकार । पर ऐसे चहुरूपिया का कौन सा जीवन ठीक समझा जाय ? पहिले का एकांतमय निर्दोष जीवन या आजकलका कोलाहलपूर्ण अशान्त जीवन | मैं तो समझता हूं कि उनका पहिला जीवन ही पवित्र था, अगर वे झुससे ऊब न जाते तो बहुत कल्याण करते. !
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आईक - कल्याण तो उनका होगया, अब तो जगतकल्याण की बारी है । झुनकी एकांत साधना जगत कल्याण के लिये ही तो थी, जब साधना हो चुकी तब उसके द्वारा जगतकल्याण न करते तो उनकी साधना व्यर्थ होजाती । एक आदमी अकेले में बैठकर भोजन पका सकता है पर खिलाने के लिये तो भोजन के परिमाण के अनुरूप अधिक मनुष्य बुलाता ही है। प्रभु ने जो अनन्त - ज्ञान का भंडार पाया है उसका वितरण वे मनुष्य
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मात्र को कर रहे हैं इसमें बुराई क्या है ? और धंधा किस
बात का
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गोशाल - यदि तुम्हारे धर्माचार्य ऐसे ही समर्थ ज्ञानी तो सब के साथ उन अतिथिशालाओं में क्यों नहीं ठहरते हैं, सम्भवतः जानते हैं कि सब में ठहरने से चर्चा होगी और उन्हें निरुत्तर होना पड़ेगा ।
आईक - क्या हास्यास्पद वात करते हो श्रमण, किसान झाझखाड़ों में बीज नहीं वोता अच्छी जमीन में बीज बोता ह, इसका यह कारण नहीं है कि किसान की कुल्हाड़ी झाड़ झंखाड़ों को काट नहीं सकती ? पर काट करके भी वहां डालागया वीज निष्फल जायगा इसलिये वह साफ खेतों में बीज डालता है । प्रभु ने जो सत्य पाया है वह मल्लयुद्ध करने के लिये नहीं, किंतु जगत का कल्याण करने के लिये । इसलिये कल्याणेच्छु जनता को वे सत्यका सन्देश देते हैं । यो कोई कैसा ही प्रश्न या प्रश्न - जाल करे वे असे असी तरह निर्मूल कर देते हैं जैसे किसान अन्न के पौधों के बीच में ऊगे हुये खास फूस को उखाड़ फेंकता है ।
*
यह सुनकर गोशालक मुँह मटकाकर चला गया । और आईक ने आकर वह विवरण मुझे सुनाया ।
मनुष्य - प्रकृति कैसी आश्चर्यजनक है । जो गोशाल मेरे साथ अत्यन्त विनीत था, लाड़ प्यार के बच्चे के समान बना हुआ था, समय समय पर मेरी प्रशंसा के पुल बांधता था. आज कितना कृतघ्न और निंदक बनगया है । मेरे पास से ली हुई ज्ञान सामग्री को तोड़-मरोड़कर ऊपर से नाममात्र का ननुनच लगाकर अपनी छाप लगाता है । अपनी तुच्छता पर तो महत्ता की छाप लगाता है, और पूर्वपरिचित होने के कारण मेरी प्रगट महत्ता को अस्वीकार करता है |
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पर वह कितना भी कृतघ्न बने, कितना भी ज्ञानचार वने वास्तविक महत्ता उसे न मिलेगी, जीवन के अन्त में असे पछताना पड़ेगा । समान क्षेत्र में काम करने वाले परिचित लोग श्र ईर्ष्यालु बनकर इसी प्रकार सत्य-विद्राही बन जाते हैं ।
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८४ - मृगावती की दीक्षा
मम्मेशी ६४५९ इतिहास संवत्
अपना १९ वां चातुर्मास भी मैंने राजगृह में किया । फिर आलभिका होते हुए कौशाम्बी पहुँचा जहां मृगावती आदि ने दीक्षा ली, और इससे हजारों मनुष्यों की हत्या बचगई ।
अज्जयिनी का राजा चंडप्रद्योत मृगावती के सौन्दर्य से आकृष्ट होकर कौशाम्बी पर चढ़ आया था । इसी समय मृगावती का पति शतानिक राजा अतिसार से बीमार होकर मर गया था। राजकुमार उदयन छोटा था । मृगावती ने छल से कहा कि अभी तो मैं नवविधवा हूं इसलिये शादी नहीं कर सकती, और राजकुमार भी छोटा है इसलिए नगरी नहीं छोड़ सकती, पर नगरी की रक्षा का प्रबन्ध होजाय तो मैं तुमसे विवाह कर लूंगी, तब तक वैधव्य को भी काफी दिन हो जायेंगे इसप्रकार लोकलाज़ से भी रक्षा होगी। चंडप्रद्योत मृगावती की इन बातों में आगया और उसने चारों तरफ का कोट मजबूत करा दिया और नगर में खाद्यान्न का संग्रह भी अच्छा करवा दिया। तब मृगावती ने उसे धुतकार दिया और उज्जयिनी से गड़बड़ी के समाचार आने से असे वापिस जाना पड़ा ।
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परन्तु मृगावती को पाने का इरादा उसने न छोड़ा । मृगावती की चालाकी से भी वह क्रुद्ध होगया था। इसलिए बड़ी भारी सेना लेकर उसने फिर नगर घेर लिया और इसी अवसर पर मैं कौशाम्बी पहुँचा । चण्डप्रद्योत मेरे दर्शन को भी आने लगा ।
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Param
इस समाचार से चतुर मृगावती ने आत्मरक्षा का उपाय हूँढ़ निकाला । सुसने नगर के फाटक खोल दिये और बालक राजकुमार को लेकर मेरे दर्शन को आई । चण्डप्रद्योत भी वहीं बैठा था । इस अवसर को लक्ष्य में रखकर, और चण्डप्रयोत को पाप से निवृत्त करने के लिये मन प्रवचन किया
बहुत से पुरुष सौन्दर्य के आकर्षण में पड़कर जिस किसी स्त्री की तरफ खिंच जाते हैं और स्त्री की भावना का खयाल नहीं रखते । पर वे यह नहीं सोचते कि जिस स्त्री पर वे वलात्कार करना चाहते हैं वह पहिले जन्म की मां भी होस. कती है, बहिन भी होसकती है, पुत्री भी होसकती है। और नारी के ऊपर अत्याचार करने से अगले जन्म में उन्हें भी नारी चनकर अत्याचारों का शिकार बनना पड़ सकता है। इस विषय में एक श्रीमन्त सुनार की कथा है
चम्पा नगरी में एक धनी सुनार रहता था। वह अत्यन्त कामुक तथा सौन्दर्य लोलुपी था। जिस किसी सुन्दर स्त्री को देखता, पैले के बलपर शादी कर लेता। इसप्रकार उसके पास पांचसो पत्नियां होगई । वह प्रतिदिन एक एक स्त्री को अपने पास बुलाता था। इसप्रकार बहुत दिनों बाद स्त्री का नम्बर आता था । इसलिये सुसे सन्देह रहता था कि ये स्त्रियाँ व्यभिचारिणी न होजायँ इसलिये उनको वह भीतर बन्द रखता था और दरवाजे पर पहरा देता था । दिनको भी कहीं न जाता था। एक दिन किसी जरूरी काम से उसे बाहर जाना पा, नेचारी स्त्रियों को कुछ स्वतन्त्रता मिली और उस दिन सुनने खूब ऊधम मचाया। सुनार जब आया तो उसे स्त्रियों को ऊधम करते देखकर बड़ा क्रोध आया और एक स्त्री को पकड़ कर उसने उसे इतना मारा कि वह बेहोश होकर मरगई : वालो स्त्रियों ने जब यह देखा तब उन्हें बड़ा क्रोध आया और सबने
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मिलकर उस सुनार को मार डाला । और अन्त में असकी लाश के साथ स्वयं भी जल मरी । मरकर वे सब की सब पुरुर हुई और सुनार मरकर स्त्री हुआ और जिस स्त्री को असने माग था वह स्त्री असका भाई हुई।
वे सब स्त्रियाँ डकैत हुई । और लुनार की आत्मा जो स्त्री बनी थीं वह कुलटा होगई । एक बार सुन पांचसी डकैतो ने नगर लूटा और उस कुलटा को भी लूट लेगये । सब डाकुओं ने उस कुलटा के साथ बलात्कार किया इससे वह नरकर दुर्गात में गई । इसप्रकार उस सुनार को नारी के प्रति अत्याचार करने से जन्म जन्म तक फल भोगना पड़ा । इसलिय हरएक पुरुष को चाहिये कि वह पुरुषत्व के मद में आकर नारियों को उनकी झुचित इच्छा के विरुद्ध बन्धन में न डाले अन्यथा कर्मप्रकृति का अमोघ दण्ड उसे भोगना पड़ेगा।
मेरा प्रवचन सुनकर रानी मृगावती झुठी और उसने निवेदन किया कि मैं राजा चण्डप्रद्योत की अनुमति से साध्वी दीक्षा लेना चाहती हूं और आशा करती हूं कि बालक राजकु मार उदयन के राज्य की रक्षा राजा चण्डप्रद्योत करेंगे।
सव पर मेरे प्रवचन का रंग जमा हुआ था, ऐसे वातावरण में चण्डप्रयोत इनकार नहीं कर सकता था। उसने गनी मृगावती को अनुमति दी और सुदयन के राज्य की रक्षा का भी वचन दिया।
___ इस प्रकार एक बड़ा युद्ध टलगया और दो राज्यों में स्थायी मैत्री होगई।
८५--शव्दालपुत्र २४ सत्येशा ६४५२ इ. सं.
कौशाम्बी के आसपास भ्रमण कर में बीसवां चातुर्मास
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बिताने के लिये वैशाली गया। वहां से उत्तर विदेह की तरफ जाकर मिथिला काकन्दी आदि की ओर विहार किया, काकन्दी में धन्य सुनक्षत्र आदि को दीक्षा दी। उसके बाद पश्चिम की ओर विहार कर श्रावस्ती आदि होता हुआ लौटकर पोलासपुर आया । वहां शब्दालपुत्र नाम का एक श्रीमन्त कुम्हार रहता है, यह भाजीविकोपासक वनगया है। मेरे साथ रहते रहते जीवन के अधूरे अध्ययन से गोशाल में जो देववाद समागया था झुसी के आधार से इसने एक तीर्थ खड़ा कर लिया है । और उस तीर्थ में बड़े बड़े श्रीमन्त भी सम्मिलित होगये हैं। देववाद में वृथा आत्मसन्तोप को पर्याप्त अवकाश होने से हर तरह के मनुप्य चले जाते हैं । कायर और परिवही लोग तो विशेष रूप में चले जाते हैं । कायरों को अपनी कायरता छिपाने का, और बहुपरिग्रहियों को अपनी वैधानिक लूट छिपाने का, दैववाद अच्छा सहारा है।
कायर तो यह सोचते हैं कि मनुष्य के हाथ में है ही क्या, जो कुछ भाग्य में बदा है और पहिले से नियत है वह अवश्य होगा इसलिये कुछ करने धरने की बात व्यर्थ है । इस. प्रकार कायरों को अपनी कायरता की कोई लज्जा नहीं रहती।
श्रीमन्त लोग धन के लिये जो पाप करते हैं, उसके लिये भी वे देववाद के कारण लज्जित नहीं होते । वे सोचते हैं, जो कुछ होरहा है उल में अपना क्या अपराध ? यह सब तो पहिले से नियत था । हजार पुरुषार्थ करके भी में इसे बदल नहीं सकता था। तब जो हुआ या होरहा है उसका उत्तरदायित्व मेरे ऊपर क्या है ?
इसप्रकार देवबाद जीवन सुधार का शत्रु है और पापियों को पाप छिपाने के लिये सहारा है । इसलिये बहुत से
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कायर, तथा श्रीमन्त लोग देववादी नियतिवादी या आजीवक वनजाते हैं ।
कहने को तो यह कह दिया करते हैं कि इससे हमें शांति मिलती है, और सचमुच उन्हें शांति का अनुभव होता है, यही शांति खरीदने के लिये वे दैववादियों या नियतिवादियों को पूजा भेंट दिया करते है । पर यह शांति नहीं है जड़ता है । जीवन का घोर पतन है ।
एक मनुष्य मरकर अगर झाड़ होजाय तो उसकी संवेदन शक्ति घट जायगी, उसे जीने मरने की, कर्तव्य अकर्तव्य की. कोई चिन्ता न रहेंगी। कहा जासकता है कि मनुष्य मरकर वृक्ष होगया तो बड़ी शांति का अनुभव हुआ, पर क्या इस जड़ता को शांति कह सकते हैं ?
एक मनुष्य मद्य पीकर नशे में चूर होजाय, तो उसे भी कोई चिन्ता न रहेगी, और वह कहेगा कि मुझे बड़ी शांति का अनुभव हुआ, पर क्या यह जड़ता शांति है ?
मनुष्य अपने उत्तरदायित्व को भूल जाय, अपने पापभय या पतनमय जीवन में भी शांति सन्तोष का अनुभव करने लगे तो उसके लिये यह आशीर्वाद की वात नहीं, किंतु वड़े से बड़े अभिशाप की बात होगी । देववाद या नियतिवाद का प्रचार करनेवाले लोग मनुष्यों पर इसी तरह अभिशाप की वर्षा कर रहे है । भले ही ये इसके लिये कैसा भी अच्छा नाम क्यों न दे देते हाँ ।
बेचारा शव्दालपुत्र इसी देववाद का शिकार होकर आजीवक बन गया है । मैंने सोचा - यह महर्द्धिक है अगर इसका उद्धार होजाय तो इसके साथ बहुतों का उद्धार होजायगा ।
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इसमें सन्देह नहीं कि शब्दालपुत्र भन्न है । वह मेरे पास अन से ही आया, फिर भी उसने भट्टता दिखाई और अपनी भाण्डशाला में ठहरने का मुझे निमन्त्रण दिया । और मैंने भी उसे स्वीकार कर लिया ।
भाण्डशाला में सैकडों लोग काम करते थे । कोई मिट्टी लाता था, कोई साफ करता था, कोई लानता था, कोई चक्रपर घुमा घुमाकर भाण्ड बना रहा था, कोई सुखाने के लिये रख रहा था | शब्दालपुत्र अन सत्र का निरीक्षण कर रहा था । मैंने अससे कहा - शब्दालपुत्र. तुम्हारे यहाँ जो इतने भाण्ड बनते हैं वे सब तुम्हारे प्रयत्न से बनते हैं या आपसे आप वनजाते हैं । आखिर इतने आरम्भ समारम्भ का उत्तरदायित्व किस पर ?
शब्दालपुत्र ने शुक्र की तरह रटा हुआ पाठ सुना दियासव नियतिवल से बनते है भगवन् ! सब पदार्थ नियत स्वभाव हैं, उसमें निमित्त क्या कर सकता है ? निमित्त आखिर पर है, पर अगर स्त्र में कुछ करने लगे, घुसने लगे, तो पदार्थ का स्वभाव ही नष्ट होजाय अर्थात् पदार्थ ही न रहे । इसलिये जो कुछ होता है वह अपने स्वभाव के अनुसार स्वयं नियतियल से होता है, पुरुष प्रयत्न या परानमित्त से कुछ नहीं होता । इसलिये इस आरम्भ समारंभ का उत्तरदायित्व किसी पर नहीं है । या उन्हीं पदार्थों पर है जिनमें वह परिवर्तन होरहा है, जो उन क्रियाओं के उपादान कारण हैं ।
मैं- अगर कोई पुरुष लगुड़ लेकर ये सब भाण्ड फोड़ने लगे, या तुम्हारी स्त्री के ऊपर बलात्कार करने लगे तो सच कहो शव्दालपुत्र, क्या तुम इन कुकार्यों का उत्तरदायित्व अपर न डालकर, नियति पर डालोगे ? उसे किसी तरह का दंड न दोगे, इसे नियति कार्य मानकर शांत रहोगे ?
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शब्दालपुत्र कुछ रुका, फिर वाला - शांत तो न रह सकूंगा भगवन: अले पूरा दंड दूंगा, पीहूंगा या प्राण ही लैलूंगा ।
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मैं इसका तो तात्पर्य यह हुआ कि तुम उसे उसके कार्य का उत्तरदायी मानोगे । पर जब हर एक कार्य नियत हैं तो उसे उत्तरदायी क्यों मानना चाहिये ? क्या नियतिवाद का यही अर्थ है कि मनुष्य अपने पापको नियतिवाद के नाम पर ढकदे और दूसरे के पापों का बदला देने के लिये नियतिवाद को भुलादे । शब्दालपुत्र, अगर तुम नियतिवाद मानकर चलो तो जीवन में कितने पाद चल सकते हो, और जगत की व्यवस्था किस प्रकार कर सकते हो ?
शव्दालपुत्र- नहीं कर सकता प्रभु में अत्र समझाया कि नियतिवाद एक तरह की जड़ता की राह है. दम्भ है, अपने पापमय और पतनमय जीवन के उत्तरदायित्व से बचने के लिये एक ओट है | यह बहुत बड़ी आत्मवञ्चना और परवञ्चना है प्रभु । मैं- आत्मवञ्चना से अपनी आंखों में धूल झोंकी जासकती है शव्दालपुत्र, परवञ्चना से जगत् की आंखों में धूल झोंकी जासकती है, पर जगत की कार्य कारण व्यवस्था की आंखों धूल नहीं झोंकी जासकती । नियतिवाद की ओट लेकर जो आलसी कायर अकर्मण्य बनेगा वह निगोद वनस्पति आदि दुर्गातियों में जायगा । जो नियतिवाद की ओट लेकर पापी बनेगा, पाप छिपायगा वह तरक आदि दुर्गतियों में जायगा । वह निय तिवादी था इसलिये परलोक में अपनी जड़ता और पापशीलता के उत्तरदायित्व से न बच पायगा ।
शब्दालपुत्र- नहीं बच पायगा प्रभु, सचमुच नहीं वचपायगा | अब मैं आपका शरणागत हे प्रभु, मुझे आप अपने
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JAAAMAA
महावीर का अन्तस्तल
उपासक रूप में ग्रहण करें ।
रख दिया ।
यह कहकर शब्दालपुत्र ने अपना सिर मेरे पैरों पर
३०९
८६ - पत्नी का अपमान
६ लुंगी ९४५३ इतिहास संवत्
पोलासपुर से भ्रमण करता हुआ इक्कीसवां चातुर्मास विताने के लिये वाणिज्यग्राम आया इसके बाद मगध की ओर विहार कर राजगृह आया। यहां कुछ पार्श्वापत्यों को अनेकांत दृष्टि से लोक अलोक का वर्णन सुना या । महाशतक ने भी यह वर्णन सुना और इससे वह बहुत प्रभावित हुआ। तब उसने श्रमणोपासक दीक्षा ली ।
राजगृह में प्रचार की दृष्टि से मैं बहुत दिन ठहरा और अपना बाईसवां वर्षावास भी राजगृह में किया ।
कल मुझे समाचार मिला कि महाशतक ने प्रोपधशाला मैं बैट बैठे अपनी पत्नी को नरक जाने का अभिशाप दिया है | यह ठीक नहीं हुआ । पति पत्नी को एक दूसरे के प्रति आदर का व्यवहार करना चाहिये । तथ्यपूर्ण बात भी कटुता के साथ नहीं कहना चाहिये । खासकर प्रोपघशाला में तो चित्त बहुत शांत रखना चाहिये। यह माना कि रेवती ने प्रशाला में जाकर पति से काम याचना की थी । यह याचना अनवसर और अस्थान में थी, फिर भी इस कारण से महाशतक को अपने मनका सन्तुलन नहीं खोना चाहिये था।
मैंने गौतम को बुलाकर कहा- गौतम, तुम महाशतक के पास जाओ और कहो कि 'तुमने एक श्रमणोपासक होकर और प्रोपधशाला में बैठकर पत्नी को जो गाली दी वह ठीक नहीं किया। इसका तुम्हें प्रायश्चित्त करना चाहिये ।
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३१०]
महावीर का अन्तस्तल
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___ गौतम के द्वारा मेरा सन्देश पाकर महाशतक ने प्रायश्चित किया । और इस बात के प्रति कृतज्ञता प्रगट की कि भग. वान अपने शिप्य की जीवन शुद्धि का बड़ा ध्यान रखन है ।
८७- स्कन्द परिव्राजक १८ चन्नी ६४५३ इतिहास संवत्
राजगृह से वायव्य दिशा में विहार करता हुआ कचगला नगरी के छत्रपलास चत्य में ठहरा । यहां स्कन्द परिव्राजक मिलने आया।
स्कन्द का इन्द्रभूति से पुराना परिचय था । वह जिज्ञासु था । उसके कुछ प्रश्न थे
उसने पूछा-लोक सान्त है या अनन्त ?
मैंने कहा-द्रव्य और क्षेत्र की दृष्टि से सान्त है। परन्तु काल और भाव की दृष्टि से अनन्त है।
स्कन्द-और जीव ?
मैं-जीव भी द्रव्य क्षेत्र की दृष्टि से सान्त है और काल भाव की दृष्टि से अनन्त ।
स्कन्द-और मुक्ति ?
मैं-मुक्ति भी द्रव्य और क्षेत्र की दृष्टिसे सान्त है और कालभाव की दृष्टि से अनन्त ।
स्कन्द-भगवन् , मरण कौनसा अच्छा ?
मैं-पंडित मरण अच्छा, बालमरण वुरा । जो मरण जीवन के कर्तव्य पूर्ण कर, जीवन को निष्पाप रखकर शान्ति के साथ होता है, जिसमें मृत्यु का भय नहीं होता, किन्तु अपना कर्तव्य करके विदा लेने का भाव होता है वह पण्डित मरण है। किन्तु जो मरण जीवन को पापमय बनाकर आशा तृष्णा ले रोते और
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महावीर का अन्तस्तक
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दुःखी होते हुए होता है वह बाल मरण है, वह बुरा है।
. स्कंद को इससे बहुत सन्तोप हुआ। उसने कहा-भगवन्, में पंडित मरण मरना चाहता है इसलिये आपके शिष्यत्व में श्रमण धर्म स्वीकार करता हूं। ____ मैंने कहा-जिसमें तुम्हें सुख हो वही करो।
८८-जमालिकी जुदाई २७ चिंगा ६४५४ इ. सं.
छत्रपलास चैत्य से निकलकर में श्रावस्ती आया । काष्टक चाय में ठहरा । यहां नान्दनीपिया तथा उसकी पत्नी आश्विनी और सालिहीपिया और उसकी पत्नी फाल्गुणी ने उपासकता स्वीकार की । वहां से विदेह की तरफ प्राया और वाणिज्य ग्राम में तेईसवां वर्षावास पूर्ण किया । वहां से ब्राह्मणकुंड आया। यहां आज एकान्त में जमाल मेरे पास आया और. बोला-अब मैं अपने संघ के साथ अलग विहार करना चाहता हूं भगवन् !
मैं सो किसलिये ? ?
जमालि-इसालये कि संघ में मेरा उचित मान नहीं है। मैं आपका जमाई हूं, कुलीन हूं, ज्ञानी हूं, पर मुझे अभी तक केवली घोषित नहीं किया गया, न गणधर का पद दिया गया।
में केवली होने का सम्बन्ध अपने आत्मविकास से है, मेरी नातेदारी से नहीं। और गणधर होने के लिये विशेषमात्रा में श्रम और लगन चाहिये।
जमालि-तो मेरे आत्मविकास में क्या कमी है ?
मैं-अपने को केवली धोपित कराने के लिये जो ला मेरे ऊपर इतना जोर डाल रहे हो यही कमी क्या कम है ।केवली
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३१२] महावीर का अन्तस्तल इस तरह अपने गुरु के सामने मांग पेश नहीं करता। - जमालि-मांग न करूं तो क्या करूं ? आपने मुझे कोई चीज अपने आप दी है ? आपने गौतम की हजार वार प्रशंसा की, मेरी एक बार भी की ? यश सन्मान स्नेह आप गौतम के ऊपर उड़ेलते रहते हैं, पर मुझे कभी पूछते भी हैं ?
मैं--गौतम की सेवाएँ जितने यश सन्मान के योग्य हैं गांतम को उतने की भी पर्वाई नहीं है इसलिये मुझे उसकी पर्वाह करना पड़ती है । पर तुम्हें जितना मिलना चाहिये उतना या उससे कुछ अधिक तुम अपने आप ले लेते हो तर वच ही स्या रहता है जो तुम्हें दूं।
जमालि-आपको मेरी योग्यता का पता नहीं है भगवन्. मैं तार्किक है, वक्ता हूँ निर्माता हूँ, गौतम तो रटने में ही होश्यार है। फिर भी आपने उन्हें गणधर बना रक्खा है और मेरी अवहेलना की है।
में-तुम जिसे गौतम की अयोग्यता समझ रहे हो वह गौतम की अयोग्यता नहीं संघसेवा है। गौतम श्रुतकी रक्षा करना चाहते हैं और तुम उसपर अपने नाम की छाप लगाने के । लिये विकृत करना चाहते हो। - जमालि के चेहरे पर लज्जा और रोष दोनों का मिश्रण पुतगया। क्षणभर चुप रहकर वह वोला-आप जो चाहे समः झिये । पर मैं अव इस संघ में रह नहीं सकता।
मैं-चुप रहा। जमालि-चलागया। २८ चिंगा ९४५४ इ. सं. आज गौतम से मालूम हुआ कि कल जमालि मेरे पास
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महावीर का अन्तत्तल
३१३]
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से गौतम के पास गया था और गौतम को भड़काने की, विद्रोही बनाने की पूरी चेष्टा की थी। उसने गौतम से कहा था. अब मैं वाहर जारहा है। जो सत्य मुझे चाहिये था वह मैंने ले लिया । अब मैं यहीं कैद होकर नहीं रुक सकता, में आगे बढुंगा।
गौतम-वांत तो अच्छीसी कह रहे हो जमालि, बताओ तो वह कौनसा सत्य है जिसे पाने के लिये तुग संघ छोड़ रहे हो और जो तुम्हें यहां नहीं मिल रहा है । और भगवान् के सन्देश में वह कौनसा असत्य है जो तुम्हें खटक रहा है।
जमालि-सब से बड़ी खटकनेवाली बात है भगवान की अधिनायकता । आवश्यकता इस बातकी है कि संघमें सब का अधिकार हो । सब की वात सुनी जाय और बहुमत से निर्णय हो । अकेले भगवान की ही न चलना चाहिये सब की चलना चाहिये । राजनतिक क्षेत्र में मगध में गणतन्त्र है जिसमें सभी का अधिकार है तब धार्मिक क्षेत्र में क्यों नहीं?
गौतम-धार्मिक क्षेत्र एक पाठशाला के समान है जहां सत्यासत्य के बारेमें अध्यापक की बात मानी जायगी छात्रों के वहुमत की नहीं । अथवा धार्मिक क्षेत्र चिकित्सालय के समान है जहां चिकित्सा के निर्णय में वैद्य की बात मानी जायगी रोगियों के बहुमत की नहीं । हां! रोगी अस वद्य से चिकित्सा कराने न कराने के लिये स्वतन्त्र है, छात्र अध्यापक से पढ़ने न पढ़ने के लिये स्वतन्त्र है। राजनीति में यह बात नहीं है । मनुष्य को राज्य का हुक्म मानना अनिवार्य है इसलिये राज्य के बारे में उसका मताधिकार भी जन्मसिद्ध है । पर भगवान का शिष्य बनना अनिवार्य नहीं है जिससे वहां जन्मलिद्ध मताधिकार मिलजाये । यह तो राजी राजी का सौदा है । इच्छा हो लो, न
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३९४]
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इच्छा हो न लो। इसमें भगवान की अधिनायकता का प्रश्न ही नहीं है।
जमालि-पर दूसरों की भी तो सुनना चाहिये।
गौतम-जिस प्रकार वैद्य रोगी की बात सुनता है उस तरह सुनी ही जाती है। पर रोगी को वैद्य मानकर नहीं चला जाता।
जमाल-क्या हम रोगी हैं ?
गौतम-हां, जीवन की चिकित्सा कराने के लिये ही तो हम यहां आये हैं। भगवान के ऊपर दया करके नहीं आये है, अपने ऊपर दया करके आये हैं।
जमालि- इसीलिये तो भगवान को घमंड होगया है । वे कहते थे कि मैं अकेला ही सन्तुष्ट हूं। जो मेरा साथ देने में अपना भला समझे, वह साथ दे, जो भला न समझे वह न दे।
गौतम- यह ठीक ही कहा था। भगवान किसी के गले नहीं पड़ते । उनने अन्तरंग बहिरंग तपस्या वर्षों की, और उससे जो सत्य की खोज की वह जगत को देरहे हैं । लेने में जबर्दस्ती नहीं है। जिसे लेना हो ले, न लेना हो न ले। इस बात में तो भगवान की निस्पृहता दिखाई देती है। घमण्ड का इससे क्या
जमालि-पर हम लोगों के शब्दों का कोई मूल्य न रहा।
गौतम-भगवान किस किस के शब्दों का मूल्य करें। जगत में मिथ्यात्वी बहुत हैं इसीलिये क्या मिथ्यात्वियों के शब्दों का मूल्य करके सम्यक्त्व छोड़ दें।
___ जमाल- मैं मिथ्यात्वियों की बात नहीं कहता पर अपने संघ के लोगों की बात कहता हूं।
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महावीर का अन्तस्तल
. [३१५
गौतम-संघ में क्या मिथ्यात्वी नहीं होते ? जहां जो भूल करता है वहां वह झुतने अंश में मिथ्यात्वी ही है । अगर x वे मिथ्यात्वी अपनी बात पर बड़जायँ तो सत्य की तो वुट्टी बुट्टी • लुटजाय ।
जमालि- पर एक आदमी जितनी भूल कर सकता है उतनी भूल बहुत आदमी नहीं कर सकते।
गौतम-हम संघ में जितने आदमी हैं उन सब को वह सत्य क्यों नहीं सूझा जो अकेले भगवान को सझ गया था । हम सब बहुत थे फिर भी भूल में थे, और भगवान अकेले थे फिर भी सत्यमय थे। जांच परखकर हम सब भगवान की तरफ झुके । क्या अब भी सन्देह है कि हम सब के सत्य की अपेक्षा भगवान का सत्य कितना महान है ? क्या बहुमत के आधार पर, हम वह सत्य पासकते थे ? इसलिय तो भगवान जनमत की पर्वाह नहीं करते, जनहित की पर्वाह करते हैं।
जमालि-जनहित की पर्वाह तो मैं भी करता हूं।
गौतम-न तुम जनमत की पर्वाह करते हो न जनहित की, न सत्य की । तुम्हें पर्वाह है अपने गुरु की सम्पत्ति चुरा. कर उसपर अपने नाम की छाप मारने की । पर इससे सत्य की भयंकर अवहेलना होगी। सोने को पीतल के नाम से बाजार में वेचना मूर्खता है। भगवान का सत्य तुम सरीखे लोगों का सत्य कहलाकर बाजार में लाया जाय इससे बढ़कर सत्य की विडं. बना क्या होगी?
जमालि-भगवान का नाम ऐसा क्या बड़ा है ?
गौतम-नाम किसी का बड़ा नहीं होता । काम से नाम वड़ा हो जाता है। भगवान ने जो सत्य की खोज का महान कार्य किया सुसी से उनका नाम बड़ा हो गया । उनका माल
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चुरा कर कोई कितनी भी कोशिश करे उसकी चोगी आज नहीं तो कल खुल ही जायगी ।
जमालि - अच्छा, जाने दो गौतम, तुम्हें दासता ही पसन्द है तो तुम दास वन रहो, मैं स्वतन्त्र बलूंगा, जिन बलूंगा, तीर्थकर बनूंगा। अब मैं जाता हूँ ।
गौतम -- जाओ । पर याद रक्खो कि कृतघ्न और चोर अपने को धोखा भले देले पर जगत को कभी धोखा नहीं देसकते; और महाकाल को तो धोखा दे ही नहीं सकते ।
जमालि मुँह विगाड़कर चला गया ।
गौतम के मुँह से यह सब समाचार सुनकर मुझे कुछ तो खेद हुआ और कुछ दया आई। बेचारा जमालि अहंकार का शिकार होकर अपना जीवन नष्ट कर रहा है । और बेचारी प्रियदर्शना भी भ्रम में पड़कर मिथ्यात्व का शिकार हुई है । वह भी असी के साथ चली गई है । मेरी पुत्री होकर भी प्रियदर्शना इतनी जल्दी सत्यभ्रष्ट हुई यह इस बात की निशानी है कि जीवन में कुल जाति या वंश का कोई मूल्य नहीं है ।
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८९ - गोशाल का आक्रमण
४ चन्नी ९४५, इ.सं.
हुए
श्रावस्ती से निकलकर वत्स भूमि में विहार करते कौशाम्बी आया। वहां से काशी देश में भ्रमण कर राजगृह आया । यहां गुणशिल चैन्य में चौवीसवां चातुर्मास किया ।
इस वर्ष नेहास और अभय आदि का देहान्त होगया । राजगृह से चम्पा आया । अब यह राजधानी वन गई है ।
राजा श्रोणिक के देहावसान के बाद कुणिक ने इसे राजधानी बना लिया है | श्रेणिक के साथ कुणिक ने जो दुर्व्यवहार किया,
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महावीर का अन्तस्तल
जिस में श्रेणिक की मृत्यु होगई, उससे कुणिक बहुत बदनाम होगया, इसलिये राजगृह नगर में रहना भी कुणिक के लिये बहुत कठिन होगया था ।
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अस्तु, कुणिक ने मेरा स्वागत किया और बहुत अधिक किया। इस बहाने से भी कुणिक अपने कलंक को कम करना चाहता था । कुणिक के भतीजों ने यहां दीक्षा भी ली ।
चम्पा से काकन्दी नगरी होते हुए विदेह गया और मिथिला में पच्चीवां वर्षावास किया । इन दिनों वैशाली में कुणिक और चेटक के बीच महाभयंकर युद्ध चलरहा था, जिसमें लाखों आदमी मारे गये थे । फल दिये बिना यह उन्माद शान्त होनेवाला नहीं था इसलिये अंगदेश की तरफ विहार किया । परन्तु फिर लौटा और मिथिला में ही छबीसवां चार्तुमास किया । इसके बाद वैशाली के निकट होकर श्रावस्ती आया । ईशान कोण के इस कोएक चैत्य में फिर ठहरा हूं ।
आज गौतम भिक्षा के लिये नगर में गये थे। वहां से समाचार लाये हैं कि इस नगर में हालाहला कुम्हारिन की भाण्डशाला में गोशाल सदलवल ठहरा हुआ है और नगर में चर्चा है कि आजकल श्रावस्ती में दो जिन दो सर्वज्ञ या दो afकर ठहरे हुए हैं। लोग गोशालक को भी जिन सर्वज्ञ या तीर्थकर समझते हैं । नियतिवाद की स्वपरवञ्चना में बहुत से लोग फस गये हैं ।
।
गौतम ने मुझ से पूछा कि क्या सचमुच गोशालक तीर्थकर या सर्वज्ञ है ?
तब मुझे गोशालक की सारी बातें कहना पड़ीं कि किस तरह यह शिष्य रूप में मेरे साथ रहा, विपत्ति से ऊबकर किस तरह उसने साथ छोड़ा, किस तरह वह अधूरे अनुभवों के आधार
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३९८ ]
महावीर का अन्तस्तल
से नियतिवादी बना, आदि । वह एक गोशाला में पैदा हुआ था इसलिये उसका नाम गोशालक हुआ और मंखलि नामक एक मंत्र ( भिक्षुक) का पुत्र होने से मैखलिपुत्र कहलाता है । न वह सर्वज्ञ है न तीर्थकर ।
ये सब बातें जनता ने भी सुनी । ५ चन्नी ९४५७ ई. सं.
आज भिक्षा से लौटकर श्रमण आनन्द ने कहा कि गोशाल रास्ते में मिला था और मुझसे कहता था कि 'तेरे धर्माचार्य को बहुत लोभ और तृष्णा है। उसने काफी यश प्रतिष्ठा प्राप्त करली है फिर भी उसकी तृष्णा शान्त नहीं होती इसलिये जहां तहां मेरी निन्दा करता फिरता है। इसलिये तू जा और कहदे कि मैं आता हूं और उसे भस्म करके मिट्टी में मिलाता हूं । मेरी मन्त्रशक्ति का उसे पता नहीं है पर अब लग जायगा "
यह कहकर आनन्द चिन्तित होकर मेरी तरफ देखने लगा, फिर कहा कि क्या गोशालक में saat मंत्रशक्ति है कि वह किसी को नए करदे ?
मैंने कहा- हाँ आनन्द ! गोशालक में मंत्रशक्ति हैं और असके प्रभाव से साधारण मनुष्य मर भी सकता है पर अर्हन्त पर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ सकता । इसलिये तुम सब मुनियों से कहदो कि जब गोशालक यहां आवे तब उससे कोई न करे, तर्क वितर्क न करे, जो कुछ कहना सुनना होगा- मैं
कह सुन लुंगा ।
आनन्द ने यह समाचार सब मुनियों से कह दिया । थोड़ी देर बाद गोशाल अपने भिक्षुओं की सेना लेकर आगया और मुझसे थोड़ी दूर ठहर कर बोला
" तुम मेरी खूब निन्दा कर रहे हो काश्यप कि तुम्हारा शिष्य है, मंखलिपुत्र |
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महावीर का क्षन्तस्तल
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तुम क्या इन बातों लैकड़ों लोग अभी सामान पीछे चलते
मैं--छः वर्ष तक मेरे साथ रहकर से भी इनकार करते हो गोशालक ! ऐसे जीवित हैं जिनने व तुम्हें मेरे अनुचर के चलते देखा है ।
गोशालक- -भूल रहे हो काव्य, वह गोशालक तो मर
| चुका |
मैं- पर तुम्हारे कहने से संसार की आंखें धोखा नहीं खासकतीं ।
गोशालक - आंखें सिर्फ शरीर को देख सकती हैं काश्यप. आत्मा को नहीं । यह शरीर वही है जो तुम कहते हो, पर असके भीतर जो आत्मा है वह दूसरा ही है । मेरा नाम उदावी कुण्डियायन है । मोक्षगामी जीव को अपने अन्तिम भव में सात शरीर बदलना पड़ते हैं । मेग पहिला शरीर सुदायी कुण्डियायन था । राजगृह के मण्डित कुक्षि चैत्य में वह शरीर छोड़कर मैंने ऐणेयक के शरीर में प्रवेश किया। इसके बाद । अखंडपुर नगर के चन्द्रावतरण चैत्य में ऐणेयक का शरीर छोड़ कर मल्लराम के शरीर में प्रवेश किया । चस्पा नगरी में अंगमंदिर चैत्य में मल्लराम का शरीर छोड़कर माल्यमंडित के शरीर में प्रवेश किया। इसके बाद वाराणसी नगरी के काम महावन में माल्य मंडित का शरीर छोड़कर रोह के शरीर में प्रवेश किया । उसके बाद आलभिका नगरा के पत्रकालय चैत्य में रोह का शरीर छोड़कर भारद्वाज के शरीर में प्रवेश किया। इसके बाद वैशाली नगरी के कोण्डियायन चैत्य में भारद्वाज का शरीर छोड़कर अर्जुन के शरीर में प्रवेश किया। इसके बाद श्रावस्ती में हलाहला कुम्हारिन की भाण्डशाला में अर्जुन का शरीर हो. कर गोशालक के शरीर में प्रवेश किया। अब तुम जान गये हांग
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३२०]
महावीर का अन्तस्तल ~.wommmmmm • काश्यर कि मैं कौन हूं। मैं तुम्हारा शिष्य गोशालक नहीं. किन्तु उदायी कुण्डियायन हूं।
मैं-अपने को और अपनी कृतघ्नता को छिपाने के लिये है खूब कहानी गढ़ी गोशाल तुमने । सम्भव असम्भव का विवेक भी न रहा । पर क्या इस तरह सन के एक नहीं सात तन्तुओं से कोई चोर छिप सकता है ? __गोशालक-काश्यप तुम बहुत धृष्ट होगये हो । मालूम होता है कि अब तुम्हारी मौत आगई है।
गोशालक के ये शब्द सर्वानुभूति श्रमण से न सुन गये। उनने कहा---
गोशालक महाशय, इतने कृतघ्न न वनो । एक भी धर्म घचन सुनकर सज्जन जन्मभर कृतज्ञ रहते हैं और तुम वर्षों प्रभु के साथ रहे, उन्हीं से सब कुछ सीखा, उन्हीं की पूंजी से यह नई दुकानदारी खड़ी की और अब अन्हीं का ऐसा अपमान करते हो! कुछ ता लाज शर्म रखना चाहिये ।
सर्वानुभूति की बात से गोशाल का क्रोध भड़का, और उसने प्रचण्ड मुद्रा बनाकर, मनमें कुछ मन्त्र पढ़कर अपने दाहिने हाथ की मुट्ठी इस तरह चलाई मानों ज्वाला फेंकी हो और कहा वस तू इसी क्षण मरजा।
सर्वानुभूति इससे घबरागये और हाय खाकर जमीन पर गिर पड़े। - इसके बाद गोशालक ने मुझ और भी अधिक मात्रा में विचित्र विचित्र गालियाँ देना शुरू की । मैं शांति से सहता रहा परन्तु श्रमण सुनक्षत्र से ये गालियाँ न सुनीगई इसलिये उनने गोशाल को काफी फटकारा, पर गोशाल ने उन्हें भी सर्वानुभूति की तरह जमीन पर गिरा दिया।
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महावीर का अन्तस्तल
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इस के बाद भी वह बकझक करता ही रहा और बोलाकाश्यप, देखा मेरा प्रभाव, तेरे चेलों को देखते देखते मिट्टी में , मिला दिया अब भी तू मुझे अपना शिष्य कहेगा ।
मैं जो वस्तुस्थिति है वह तो कहना ही पड़ेगी।
यह सुनकर उसने उसी तरह मंत्र पढ़कर मेरे ऊपर भी ज्याला छोड़ने का नाट्य किया । पर मैं न घबराया न हिला, बालक मुसकराया । और इसके बाद हलका सा प्रतिनाट्य करते हुए कहा-देख गोशाल, तेरी दिव्य ज्वाला मेरे पास आई परन्तु वह लौटकर तरे ही ऊपर आघात करने चली गई है । देख तेरे शरीर में धीरे धीरे जलन बढ़ने लगी है।
मेरी दृढ़ता से तथा शब्दों से गाशाल घयगया । फिर भी बोला-काश्यप, तू मेरी दिव्य ज्वाला से बीमार होकर छः __ महीने में मर जायगा ।
मैं-मैं जब मरूंगा तब मरूंगा; पर गोशाल, तृ सात दिन में ही मर जायगा । क्योंकि जो भयंकर ज्वाला तूने मेरे ऊपर छोड़ी थी वह लौटकर तेरे ही भीतर घुसगई है।
मेरी बात से गोशाल शंकाकुल हुआ, व्याकुल हुआ, वह कांपने लगा।
तब मैंने अपने सव शिष्यों से कहा-थए तुम लोग गोशाल के साथ तर्क वितर्क कर सकते हो. मुसका मुंह बन्द कर सकते हो, इसकी शक्ति क्षीण होगई है। शिप्यों ने जब उसके साथ तर्क वितर्क किया तब वह घबराकर चलागया। पर उसपर मेरा मनोवैज्ञानिक प्रभाव इतना पड़ चुका था कि वह अन्त. र्दाह का अनुभव करने लगा।
६चन्नी ९४५७ इ. सं. - कल गोशाल के साथ जो झगड़ा हुआ उसकी चर्चा
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महावीर का अन्तस्तल
नगर में गली गली फैली। प्रत्येक चौराहे पर यह बात थी कि दो जिनों में खूर लदाई हुई है, एक दूसरे ने मरजाने के अभि. शाप दिये हैं।
लोगों की इन बातों से मनमें कुछ अशांति है । ८ चन्नी ९४५७
समाचार मिला है कि गोशाल बीमार पड़गया है और पागल भी होगया है। उसके शिष्य गण उसके पागल प्रलाप के अच्छे अच्छे अर्थ करके उसका पागलपन ढक रह हैं।
१३ चन्नी ६४५७
समाचार मिला है कि गोशाल का देहान्त होगया । सुनते है कि अन्त समय में उसे पश्चात्ताप हुआ था और उसके मुंह से यहां तक निकला था कि 'मैं मिथ्यावादी हूं पापी हूं कृतघ्न हूं गुरुद्रोही हूं मेरी लाश को रस्सी से बांधकर श्रावस्ती की सब सड़कों पर घसीटकर घुमाना चाहिये ।” सुनते हैं कि एक कमरे में श्रावस्ती का चित्र बनाकर उसके शिष्यों ने उसकी यह आज्ञा पूरी करदी है । और बाद में बड़े से बड़े समारोह के साथ उसकी अन्तक्रिया की है।
गोशाल के जीवन की दुर्घटना मेरे जीवन की सव से बड़ी दुर्घटना है। आज तक कोई दुर्घटना मुझे विचलित नहीं कर सकी, पर उस दिन गोशाल के साथ चर्चा में मन कुछ विचलित हुआ पर थोड़ी ही देर बाद सम्हल गया। अब मैं गोशाल के विषय में पूर्ण समभावी होगया हूं। उसके जीवन पर एक तटस्थ की दृष्टि से विचार कर सकता हूं | उसने जो मेरे साथ दुर्व्यवहार किया और अपने जीवन की कमजोरी ढाकने के लिये शरीरान्तर प्रवेश का जो मिथ्यासिद्धांत निकाला वह अच्छा नहीं किया । पर मरते समय पश्चात्ताप करके उसने अपने पाप
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बहुत कम करलिया ।
उसने जो मिथ्यात्व का प्रचार किया उससे उसे अनेक दुर्गतियों में भ्रमण करना पड़ेगा पर उसने जो पश्चात्ताप किया उससे उसकी सद्गति ही हुई है ।
गोशालक की मृत्यु के बाद जब गौतम ने मुझसे पूछा कि गोशालक मरकर कहां गया ? तब मैंने कह दिया कि बारहवें अच्युत देवलोक में गया है
इससे उन लोगों को कुछ आश्चर्य हुआ । पर गोशालक की सद्गति से भी अधिक आश्चर्य हुआ उन्हें मेरी वतिरागता का अद्वेष वृत्तिका । ऐसे भयंकर शत्रु की सद्गति की बात वीतराग ही कह सकता है |
९० - मेरी बीमारी
४ धामा ९४५८ इतिहास संवत्
यद्यपि मैं पर्याप्त स्थिरचित्त हूं, और यही कारण है कि जमाल और प्रियदर्शना के जाने की चोट और गोशाल के दुर्व्यवहार की चोट सहगया है फिर भी इन घटनाओं के विचार में कभी कभी रातरात नींद नहीं आती इसलिये पिछले छः माह से मैं बीमार रहता हूं । पित्त ज्वर भी है और खून के दस्त भी लग रहे हैं। मैं चाहता हूं कि यह बीमारी बिना दवा के ही अच्छी होजाय । आज तक मैने कभी दवा नहीं ली । खान पान के संयम से ही नीरोग होगया हूं । अगर उन्निद्रता की शिकायत न होती तो यह बीमारी भी अच्छी होगई होती । अस्तु आज नहीं तो कल ठीक हो ही जायगी ।
पर मेरी इस बीमारी की चर्चा चारों ओर फैल गई है। कुछ लोग तो यह कहने लगे हैं कि गोशालक की भविष्यवाणी सत्य सिद्ध होगी और महावीर का देहान्त इस मेडियग्राम के
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महावीर का अन्तस्तल
चैत्य में ही होजायगा।
यह बात मेरे प्रिय शिष्य सिंह मुनि के कान पर पड़गई। असके मन में विचार आया कि यदि यह बात सत्य होजाय तो संसार क्या कहेगा ? इस विचार से ही उसका दिल दहल झुठा और वह फूट फूट कर रोने लगा।
मन उसे समझाया कि मेरी मृत्यु अभी दूर है। तुम इसकी चिन्ता न करो। धैर्य रक्खो।
सिंहमुनि-कब तक धर्य रक्खू भगवन्, छः महीने होगये पर आपकी बीमारी नहीं जाती, न आप कोई औषध लेते हैं। आप औषध लीजिये, नहीं तो मैं अनशन करूंगा।
मैं-इस कारण से तुम्हें अनशन न करने दूंगा सिंह, मैं औपध लूंगा। जाओ रेवती के यहां एक विजीरा पाक है वह ले जाओ! असके लेने से मेरी बीमारी दूर होजायगी। सिंह वह पाक ले आया और मैंने वह पाक लिया है।
९१-प्रियदर्शना का पुनरागमन १४ धामा ६४१८ इ. सं.
गौतम को इघर बहुत दिनों से उदास देखता हूं। आज जब मेरे पास गौतम आये तब मैंने कहा-मैं बहुत दिनों से तुम्हें उदास देखता हूँ ! अब तो मेरा स्वास्थ्य भी सुधर रहा है। फिर उदासी का कारण क्या हैं ?
गौतम-भंते, जमालि का विद्रोह देखकर मेरा मन वेचैन रहता है और भार्या प्रियदर्शना ने भी जमाल का साथ दिया यह देखकर तो रोना आता है। संघ की अगर अभी से यह दुर्दशा होने लगेगी तो आगे न जाने क्या दुर्दशा होगी?
मैं सत्य के मार्ग में किसी की दुर्दशा नहीं होती गौतम, दुर्दशा उन्हीं की होती है जो सत्य से भ्रष्ट होते हैं ।
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गौतम - पर जमालि तो सत्य से भ्रष्ट होकर भी तीर्थकर चन रहा है । सुनते हैं अमने नया सिद्धान्त भी निकाल लिया है । कहता है - जब तक कोई क्रिया पूरी न होचुके तत्र तक उसे हुई न कहना चाहिये । क्रियमाण को क्रियमाण और हुई को हुई कहना चाहिये ।
मैं- यद्यपि यह सत्य है फिर भी व्यवहार को भुलाकर है । जो सत्य व्यवहार में न सुतरे वह सत्य किसी काम का नहीं | पर यह जमालि का मतभेद हुआ नहीं है किन्तु उसने मतभेद पैदा किया है । वह मतभेद के कारण अलग नहीं हुआ, किन्तु अलग होने के कारण मतभेद बनाया ।
गौतम - असके पास जो कुछ पूंजी है सब आपकी दी हुई है, और आज भी लेता रहता है और असी को औंधासीधा करके या नाममात्र का ननु नच लगाकर वह अपने नामसे चला रहा है । वह प्रथम श्रेणी का नामचोर और कृतघ्न है ।
मैंने - दुर्भाग्य बेचारे का ! जो ईमानदारी से बहुत कुछ पासकता था वह वेईमानी से मृगतृष्णा के पीछे पड़ा है । महाकाल तो सब साफ कर देगा । जिस नाम के लिये वह यह सब पाप कर रहा है वही नाम बदनाम होजायगा । महाकाल असे चोर और कृतन्न रूप में जगत के सामने रखेगा ।
गौतम आश्चर्य भंते, जमालि इतना निकट सम्बन्धी होकर भी आपको न समझा ।
मैं निकट सम्बन्धी था इसीलिये तो न समझा। गौतम, एकाध अपवादात्मक घटना को छोड़कर ज्ञातिजन किसी तीर्थकर या जनसेवक को नहीं पहिचान पाते, न उसके प्रति ईमानदार रहते हैं । उसे लूटना, विश्वासघात करना, उसका अपमान करना वे अपना अधिकार समझते हैं ।
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महावीर का अन्तस्तल
गौतम - कितना दुःखदाई तथ्य है यह । मैं- पर उतना ही अपेक्षणीय भी हैं। क्योंकि इस से सत्यविजय में कोई बाधा नहीं पड़ती । तीर्थंकर या क्रांतिकारी इन बातों की पर्वाह नहीं करता ।
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गोतम भंते, आपके द्वारा होनेवाली सत्यविजय को जगत् देखे या न देखे पर मैं तो आपकी विजय को देख रहा हूं और अपना जीवन सफल बना रहा हूं ।
इतने में आई प्रियदर्शना । उसके पैर धुलधूसरित थे । वह कई कोस चलकर आई हो इस प्रकार थकी हुई मालूम होती श्री । आते ही वह पैरोंपर गिरकर बोली- क्षमा कीजिये प्रभु मुझको, दुर्भाग्य से में मिथ्यात्व के चक्कर में पड़गई थी, पर श्रावक शिरोमणि ढंक ने मेरी भूल दूर करदी |
गौतमने आश्चर्य से पूछा- ढंक ने ? यह क्या बात है -
आये !
सुदर्शना आज सवेरे मेरी साड़ी में आग लगगई । देखते ही मैं चिल्लाई- मेरी साड़ी जलगई । तब ढंक श्रावक ने कहा -- आये अपने सिद्धांत के अनुसार झूठ क्यों बोल रही हो । साड़ी जली कहां है जलरही हैं। क्रियमाण को कृत कहने से आपको मिथ्यात्व का दूषण लग जायगा |
टंक की बात सुनकर मैं स्तब्ध होगई । लोचने लगीजिस सिद्धान्त का और जिस भाषा का मैं जानमें अनजान में दिनरात व्यवहार करती है उसी का विरोध करके मैं गुरु द्रोहिणी बनी ? इस विचार से पश्चात्ताप से मेरा हृदय जलने लगा और उसे शांत करने के लिये मैं दौड़ी चली आरही हूं ।
गौतम ढंक का ग्राम तो यहांसे दो योजन से भी अधिक दूर है | आजही चलकर आप आग ! क्या गोचरी नहीं ली ?
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महावीर का अन्तस्तल
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. प्रियदर्शना-गोचरी कैसे लेती आचार्य ? जब तक भीतर पाप का मल भरा हुआ था तब तक जानबूझकर अन्न का अपचन - कैसे करती?
. गौतम की आंखें हश्रुओं से भरगई। उनके मुँहसे कुछ आवाज न निकली। प्रियदर्शना ने मुझसे कहा-अब में प्रायश्चित्त चाहती हूं प्रभु।
मैंने कहा-अपनी भूल का सच्चा ज्ञान होजाना, झुसे स्वीकार कर लेना और उससे निवृत्त होजाना यही सब में बड़ा प्रायश्चित्त है और यह सब तूने ले लिया है । _ प्रियदर्शना-नहीं प्रभु, मेरा अपराध महान है, मैंने संघ को पूरी क्षति पहुंचाई है। एक हजार आर्यिकाओं को मार्ग से गिराया है, आपकी पुत्री होने के गौरव का पूरा पूरा दुरुपयोग किया है। इसलिये में पूरा प्रायश्चित्त चाहती हूं, जिससे मेरे पाप
धुलजाएँ।
गौतम-आयें, पहिले तो तुम गुरुदेव से पिताजी कहती थी अव प्रभु कहती हो, यह भी प्रायश्चित्त है क्या?
प्रियदर्शना-आचार्यजी, मैं अयोग्य हूं। मैंने गुरुदेव को पिताजी कहने का गौरव पाया था पर उसे सम्हाल न सकी। इसलिये अब मैं उन्हें प्रभु ही कहती हूं। आपको आचार्य कहंगी, आर्या चन्दना को पूज्य मानूंगी, अपने पास की आर्याएँ उनके अधीन कर दूंगी। यह तो इसलिये कि मैं अयोग्य हूं, पर इससे मेरा प्रायश्चित्त नहीं होजाता।
मैं-पर यह तो तूने आवश्यकता से अधिक प्रायश्चित्त कर लिया है।
प्रियदर्शना-तो आप एक भिक्षा देने की कृपा करें ! मैं-वह क्या?
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महावीर का अन्तस्तल
प्रियदर्शना- मेरे ऊपर आपकी वात्सल्य दृष्टि जो पहिले थी वही फिर चाहती हूं ।
यह कहकर प्रियदर्शना मेरे पैर पकड़कर फचक फत्रककर रोने लगी ।
मैंने उसके सिरपर हाथ रखकर कहा- बेटी, मेरी वात्सल्य दृष्टि तो सारे संसार पर है, फिर तू तो प्रायश्चित्त करके पवित्र बन चुकी है। मुझे प्रभु कहने की कोई जरूरत नहीं है। मुझसे तू पिता ही कहाकर । प्रभु पिता से अधिक नहीं होता । ९२ - केशी गौतम संवाद
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२२ चन्नी ९४५८ इतिहास संवत्
मैडियाग्राम से मिथिला गया और वहां सत्ताइसवां वर्षावास पूर्णकर श्रावस्ती आया और कोष्टक चैत्य में ठहरा । इन्द्रभूति अपने शिष्यों सहित बहुत पहिले ही यहां आचुके थे और उने तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ के अनुयायी आचार्य केशी श्रमण को चर्चा में सन्तुष्ट कर मेरे अनुयायिओं में शामिल कर दिया था । इन्द्रभूति का यह प्रयत्न अत्यन्त महत्वपूर्ण है । इन्द्रभूति ने ही सारी घटना सुनाई उससे मालूम हुआ कि
इन्द्रभूति स्वयं केशी के पास र्तिदुकोद्यान में गये थे । उस समय अन्य तीर्थवाले साधु और ग्रहस्थ भी थे। केशी ने गौतम का आदर किया ।
केशी ने गौतम से पूछा अभी तक तो धर्म चार रूप था पर आपके तीर्थंकर ने पांच रूप क्यों कर दिया ? ब्रह्मचर्य क्यों चढ़ा दिया ?
गौतम ब्रह्मचर्य के बिना श्रमण संस्था ठीक तरह से कार्य नहीं कर सकती । ब्रह्मचर्य के भंग होने से जीवन पर तथा श्रमण संस्था पर दुष्प्रभाव पड़ता है पर लोग यह कहकर वच
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महावीर का अन्तस्तल
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जाना चाहते हैं कि इसमें किसी धर्म का खण्डन नहीं होता । न हिंसा होती है, न झूठ, न चोरी, न परिग्रह । फिर दोप क्या है ? इसलिये धर्म के पांच भेद करना आवश्यक है । देशकाल के अनुसार धर्म का विवेचन और भेद प्रभेद करना पड़ते हैं। - केशी- ठीक है। यह कारण समझमें आया, पर नग्न वेष क्यों चलाया ?
गौतम-वेप तो लोगों को यह विश्वास कराने के लिये है कि यह साधु है । सो नग्न वेपसे भी यह बात मालूम होजाती - ह। यो वेप कल्याण का साधक नहीं है, कल्याण का साधक तो
दर्शन ज्ञान चारित्र ही है । इसलिये वेष बदलने से कोई हानि नहीं है । सुविधानुसार कोई भी वेप नियत किया जासकता है।
केशी-ठीक है, किसी भी वेप से काम चल सकता है। महत्व वेप को नहीं, किन्तु आत्मशुद्धि को है, पर यह आत्मशुद्धि हो कैसे ? आत्मा में हजारों विकार पार्श्वप्रभु ने बताये हैं पर एक साथ उन्हें कैसे नष्ट किया जाय इसका क्रम हमें नहीं मालूम । आपके तीर्थकर ने क्या इसका कोई क्रम बताया है ?
गौतम बताया है। पहिले मिथ्यात्व को नष्ट करना चाहिये । क्योंकि यही सब अनर्थों की जड़ है । इसके बाद क्रोधमान माया लोभ इन चार कपायों को जीत लेना चाहिये । इन पांचों के जीत लेने पर पांच इन्द्रियों वश में होजाती हैं। इन दस के जीत लेने पर हजारों वश में होजाते हैं। ... . केशी-ठोक है । यह क्रम योग्य है। पर यह मिथ्यात्व छूटे कैसे ? मनुप्य संस्कारों के और परिस्थिति के बन्धनों में बँधा हुआ है, उससे वह स्वतंत्र कैसे बने ? _ गौतम-अपनी वस्तुका राग और पराई वस्तुमा हे छोड़ देने से यह भी छूट जाता है। अगर मनुष्य यह सोचले कि
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महावीर का अन्तस्तल
अपना कौन और पराया कौन ? अनन्त भवों में भ्रमण करते हुए सब अपने और पराये हुए हैं पर कोई अपना न रहा, तो राग और मिथ्यात्व आदि दूर हो जायँ ।
केशी - ठीक है, पर हृदय में एक ऐसी लता है जिसमें विषफल लगाही करते हैं उसे कैसे उखाड़ा जाय ? श्रमण जीवन भी उस लता को उखाड़ नहीं पाता ।
गौतम - श्रमणता का फल स्वर्गीय भोग नहीं लेकिन आत्मा से पैदा हुआ स्वतन्त्र अनंत सुख है । स्वर्गीय भोगों की तृष्णा छोड़ देने से वह लता उखड़ जाती है ।
केशी - फिर भी आत्मा में एक तरह की ज्वालाएँ उठा ही करती हैं। उन्हें कैसे शांत किया जाय ।
गौतम - महावीर प्रभुने इन कपाय ज्वालाओं को शान्त करने के लिये विशाल भूत का निर्माण किया है शील और तपों का विधान किया है उससे इन कपाय ज्वालाओं को शांत किया जासकता है ।
केशी - पर तप हो कैसे ? यह दुष्ट घोड़े के समान मन स्थिर रहे तब तो ।
गौतम - महावीर प्रभुने मनोनिग्रह करने के लिये जो धर्मशिक्षा दी है उससे मन वश में हो सकता है ।
केशी - लोक में इतने कुमार्ग है कि धर्म शिक्षा पाना और ठीक निर्णय करना अत्यन्त कठिन है ।
गौतम - महावीर प्रभुने मार्ग और कुमार्ग का इतने विस्तार से वर्णन किया है कि उसे सुन लेने के बाद मनुष्य राह भूल नहीं सकता ।
केशी - पर एक और बड़ी कठिनाई हैं । राह कुराह का ज्ञान हो भी जाय पर सुससे लाभ क्या ? आखिर जाना कहां है
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अन्तस्तल
इसका भी तो पता होना चाहिये । जगत तो प्रवाह में वह रहा है, यह प्रवाह जीवन को कहां बहा ले जायगा इसका क्या ठिकाना ? ऐसी कोई जगह तो नहीं मालूम होती जहां प्रवाह न पहुँचे ।
__ गौतम है, पानी में एक द्वीप ऐसा है जहां प्रवाह का डर नहीं है, वह मोक्ष है।
केशी-पर यह शरीर रूपी नौका उस द्वीप तक पहुँगी कैसे ? इस में तो छेद ही छेद हैं इससे तो पाप ही होते . रहते हैं ।
गौतम-महावीर प्रभुने उन आश्रवों को रोकने के उपाय वताये हैं जिनसे शरीर रहने पर भी पाप आत्मा में नहीं आपाते। आश्रव के रोक देने पर शरीर रूपी नौका पानी में रहने पर भी पानी से नहीं भरती । पापमय हिंसामय संसार में रहने पर भी प्राणी पाप से लिप्त नहीं होता।
केशी-पर निष्पाप बनकर आखिर यह आत्मा कहां रहेगा, यह संशय बना ही रहता है।
गौतम सबसे अच्चस्थान पर, मोक्ष में। : केशी-आपकी बातों से बड़ा सन्तोष होता है महाभाग । जगत में आज बड़ा अंधेरा फैला हुआ है । कोई ध्येये स्पष्ट नहीं है । वितण्डावादों से बिलकुल शिशिलता आरही है । सब अंधेरे में टटोल रहे हैं। भाज तो किसी महाप्रकाश की जरूरत है।
गौतम-सूर्य के समान जिनेन्द्र महावीर का उदय हो चुका है। अब सारा अंधकार दूर होजायगा।
केशी-मानता हूं महाप्राण, मैं आपकी बातों को मानता हूं। आपकी बातों से मुझे बड़ा सन्तोप हुआ है और बड़ी आशा पैदा हुई है। अब में भी महावीर प्रभु को तीर्थकर स्वीकार करता हैं और उनके घर्म को अंगीकार करता है।
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महावीर का अन्तस्तल
गौतम की यह विजय वास्तव में बहुत बड़ी विजय है इससे मुझे बहुत सन्तोप हुआ और मैंने गौतम को शावासी दी।
९३-सामायिक पर आक्षेप २४ मम्मेशी ९४३० इ. सं.
श्रावस्तीसे पश्चिम तरफ विहार करके शिवराजर्षि को • दीक्षित किया। फिर मोका की तरफ विहार किया और अपना अट्ठाइयां वर्षावास वाणिज्यग्राम में पूर्ण कर विहार करता हुआ राजगृह के गुणशिल चैत्य में ठहरा हूं। यह नगर धर्मतीर्थों का अखाड़ा बना हुआ है। मेरे अनुयायी यहां पर्याप्त हैं पर दूसरों के अनुयायी भी कम नहीं है । खण्डन मण्डन और उपहास चला करता है । आज इन्द्रभूतिने कहा कि आजीवक लोग अपने श्रमणोंसे पूछते हैं कि 'जब एक श्रमणोपासक सामायिक में सब का त्याग कर देता है उसलमय यदि उसका कोई भाण्ड चोरी चलाजाय तो श्रमणोपासक उसे दूड़ेगा या नहीं ? यदि दूड़ेगा तो यह कैसे कहा जासकता है कि सामायिक के समय वह सर्व. संगत्यागी है, आजीवकों के इस प्रश्न का क्या अत्तर दिया जाय ? '
मैं-श्रमणोपासक की क्रियाएँ श्रमणता की शिक्षा के लिये है इसलिए शिक्षाव्रत कही जाती हैं । सामायिक में बैठा हुआ श्रमणोपासक सर्वसंग के परित्याग का अभ्यास करता है, पर श्रमण सरीखा ममत्वहीन हो नहीं जाता है। इसलिए जितनी देर श्रमणोपासक सामायिक करता है उतनी देर शांत रहेगा, हानिलाम का विचार न करेगा, पर सामायिक समाप्त होते ही सुसके सारे सम्बन्ध ज्यों के त्यों चालू होजायंगे। .
गौतम को इस स्पष्टीकरण से सन्तोप हुआ।
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९४-- राज्य को दुलत्ती १० चन्नी ६४६० इ. सं.
राजगृह में अन्तीसवां ववाल विताकर मैं चम्पा नगरी की ओर झुसके उपनगर पृष्टचम्पा में ठहरा। यहां के राजा शाल ने मेरा अपदेश सुनकर श्रमण होने की इच्छा प्रगट की । वोला-में छोटे भाई को राज्य का भार सम्हलाकर दीक्षा लूंगा। पर जब छोटे भाई महाशाल को गव्य दिया जाने लगा तब उसने भी राज्य को अस्वीकार कर दिया। इस प्रकार बेचारे राज्य पर दुलत्तियां पड़ने लगी । न उसे शाल रखने को तैयार, न महाशाल लेने को तैयार।
मुझे इससे बड़ा सन्तोप हुआ।
भोग और लालसा से जगत में बंद होते हैं, पाप होते है । इस द्वन्द से भोग सामग्री नष्ट ही होती है । और लालसा. वालों का भी जीवन नष्ट और अशांत होता है । अगर लोग यह तृष्णा छोड़द तो द्वन्द बन्द होजाय। सभी शांति के साथ अधिक भोग प्राप्त कर सके । स्वर्ग और नरक इसी जीवन में पास पास है पर मनुष्य तृष्णा और और अज्ञान से स्वर्ग को ठुकराता है और नरक निर्माण करता है । शाल और महाशाल सरीखे लोग राज्य को दुलत्तियाँ लगाकर सिद्ध कर देते हैं कि असली सुख का श्रोत कहां है।
अन्त में राज्य लेने को जब कोई राजी न हुआ तम । उसने अपने भानेज को राज्य देकर प्रारज्या ग्रहण की।
९५- सोमिल प्रश्र १० अंका ६४६१ इ. सं.
पृष्टचम्पा से चम्पा आया । पूर्णभद्र चैत्य में टहरा। यहां श्रमणोपासक कामदेव की कट सहि गुता निर्भयता, मटूट
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साधना के समाचार मिले । मैंने उसे शाबासी दी। इसी तरह तपस्या करने के लिये श्रमण श्रमणियों को प्रेरित किया। चम्पा से दशाणपुर होता हुआ विदेह भूमि में इस वाणिज्य ग्राम में ठहरा हूं।
यहां सोमिल ब्राह्मण बहुत विद्वान है। वह अपने शिष्य परिवार सहित मेरे पास आया, और कुछ प्रश्न पूछे ।
'सोमिल-आपके धर्म में यात्रा क्या है ?
मैं-स्वाध्याय ध्यान आदि के द्वारा ज्ञान जगत् में भ्रमण करना यही यात्रा है।
सोमिल-आपके यहां भोग क्या है ?
मैं-दो तरह के भोग हैं । इन्द्रियभोग तो यह है कि इन्द्रियां वश में रक्खो जिससे किसी भी तरह के विषयसे कोई कष्ट न होने पावे और अनिन्द्रिय भोग यह है कि क्रोध मान माया लोम का त्याग करो जिससे मनमें किसी तरह की अशांति
बाद न होने पाया जिससे मन वह है कि क्रोध
सोमिल- आपके यहां स्वास्थ्य क्या है ?
मैं- संयम और तप से शरीर में विकार नहीं जमने पाते है इससे शरीर नीरोग रहता है यह स्वास्थ्य है।
सोमिल-आप निर्दोष विहार कसे करते हैं-मैं ऐसी जगह नहीं ठहरता जहां ठहरने से दूसरों की उचित सुविधाओं में बाधा हो, यही मेरा निदोंप विहार है।
सोमिल- आप एक हैं या अनेक ?
मैं- आत्मद्रव्य दृष्टिसे एक, गुण पर्याय या कार्य दृष्टि से अनेक।
सोमिल-आप नित्य हैं या अनित्य ? में-द्रव्य दृष्टि से नित्य, पर्याय दृष्टिसे अनित्य ।
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: सोमिल-मुझे बहुत सन्तोप हुआ। मैं श्रमण तो नहीं
बन सकता पर आप मुझे अपना उपासक समझे । : मैंने कहा-जिसमें तुम्हें सुख हो वही करो।
९६-श्रमणोपासक परिव्राजक २१ जिन्नी ६५६२ इ. सं.
तीसवां वर्षावास मैंने वाणिज्यग्राम में ही किया । और भ्रमण करता हुआ काम्पिल्यपुर आया। यहां अम्मड परिव्राजक रहते हैं । सातसा परिव्राजक इनके शिष्य है । इन सरने मेरा धर्म स्वीकार कर लिया है फिर भी बाहर से ये परिव्राजक वेप में ही रहते हैं।
अम्मड की बहुत प्रतिष्ठा है, इन्हें. अनेक तरह की ऋद्धियाँ परात हैं।
श्रमणोपासक होजाने पर भी गौतम को उनके धर्म में कुछ सन्देह हुआ और अम्मड के बारे में गौतम ने पूछा।
मैंने कहा-अम्मड का भीतरी और बाहरी आचार बहुत शुद्ध है। उनन सम्यक्त्व भी पाया है और बारह व्रतों का पालन भी करते हैं। यही तो धर्म है। अगर वे परस्परागत वेप को नहीं छोड़ते तो इससे उनके पुण्यमय जीवन में कोई अन्तर नहीं आता। गौतम को मेरी बात ले सन्तोष हुआ।
९७ -गांगेय १२ बुधी ९४६३ इ. सं. इकतीसवां वर्षावास वैशाली में बिताया और काशी
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आदि देशों का विहार कर ग्रीष्मकालमें फिर विदेह भूमि लौटा। वाणिज्य ग्राम के दूतीपलास चत्य में ठहरा हूं। आज गांगेय नामक एक पित्य श्रमण ने नरक आदि गतियों क बारेमें तथा प्राणियों की उत्पत्ति क बारे में बहुत प्रश्न किये । प्रश्नों के अत्तरों से सन्तुष्ट होकर उसने पूछा
आप ये बातें किस आधार से कहते हैं ? क्या शास्त्र के आधार से?
मैं-नहीं, शास्त्र के आधार की केवली को जरूरत नहीं होती।
गांगेय-तो तर्क के आधार से ? में-नहीं, हेतु न मिलने से तर्क का आधार भी नहीं है । गांगेय-तो इन्द्रिय प्रत्यक्ष से ?
मैं-देशान्तरित होने से ये इन्द्रिय प्रत्यक्ष के भी विषय नहीं है।
गांगेय तब कैसे ? मैं-भीतर के दिव्यानुभव से, मानस प्रत्यक्षसे ।
गांगेय को इससे सन्तोप हुआ ओर उसने पार्थापत्यों की परम्परा छोड़ मेरे धर्ममें दक्षिा लेलो ।
९८- गौतम प्रश्न
३ सत्येशा ६४६४ इ. सं वैशाली में बत्तीसवां वर्षावास विताकर भ्रमण करता हुआ राजगृह आया । गुणशील चत्य में ठहरा । आज यहां गौतम ने दूसरे दर्शनों से तुलना करते हुए मेरे विचार जानना चाहे ।
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इसलिये पूछा
गौतम-कोई कोई लोग कहते हैं कि शील श्रेष्ठ हैं कोई कोई कहते हैं त श्रेष्ठ है । इस विषय में आपका क्या विचार है ?
मैं-जो इतवान् नहीं किन्तु शीलवान है वे देशाराधक (एक अंश के रूपमें धर्म की आराधना करने वाले ) हैं । जो शीलवान नहीं रुतवान है वे देश विराधक है। जिनके पास दोनों है वे सर्वाराधक हैं। जिनके पास दोनों नहीं हैं चे सर्वविराधक हैं।
गौतम-बहुत से लोग जीव और जीवात्मा को अलग अलग मानते हैं। इस विषय में आपका क्या विचार है ?
म-जीव और जीवात्मा दोनों एक हैं।
गौतम-कोई कोई कहते हैं कि केवली के शरीर में यक्षावेश होजाय तो वे भी असत्य बोल सकते हैं, आप क्या कहते हैं ? . मैं-ज्ञानियों के यक्षावेश नहीं होता।
९९-- पञ्चास्तिकाय २७-जिन्नो ९४६४ इ. सं.
राजगृह से पृष्टचम्पा गया, वहां पिठर गांगलि आदि की दीक्षाएँ हुई। वहां से फिर राजगृह लौटकर गुणशिल चैत्य में उहरा।
याज मददुक आया और उसने कहा कि मुझे रास्तेमें कालोदायी आदि अन्यतीर्थिक मिले थे । झुनने मुझसे पञ्चास्तिकाय का स्वरूप पूछा। मैंने बताते हुए कहा- इनमें एक चेतनकाय है और बाकी चार अचेतनकाय । एक पुद्गल-मूर्तिक है, बाकी अमूर्तिक है।
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___ उनने कहा-किसी को मूर्तिक बताना किसी को अमूर्तिक बताना, किसीको चेतन कहना किसी को अचेतन, यह क्या बात है ? क्या तुम इन्हें देखसकते हो ?
मैं ( मददुक ) नहीं देखसकता.। वे-फिर मानते क्यों हो?
मैं- तुम हवा को देखे विना हवा मानते हो कि नहीं, गंधपरमाणु को देखे बिना गंधपरमाणु मानते हो कि नहीं ? लकड़ी के भीतर आग छिरी रहती है जो दिखती नहीं है फिर भी तुम मानते हो कि नहीं?
वे लोग निहत्तर होगये।
मैंने मददुक से कहा-ठीक निरुत्तर किया मददुक तुमने। हर एक श्रमण और श्रमणोपासक कों हेतु तर्क के साथ बात करना चाहिये । ऐसी बात नहीं करना चाहिये जिसका सयुक्तिक उत्तर न दिया जासके । तुमने अपनी योग्यता के अनुसार ठीक उत्तर दिया मदुक ।
११ अंका ९४६५ इ. सं..
राजगृह में तीसवां वर्षावास विताकर आसपास भ्रमण कर श्रीष्मकाल में फिर राजगृह आया । आज गौतम जव भिक्षा लेकर लौट रहे थे तब कालोदायी ने गौतम को रोककर पञ्चास्ति. काय सम्बन्धी प्रश्न पूछा । गौतम ने अतिसंक्षेप में यस्पट उत्तर दिया। कहा-हम अस्ति को नास्ति नहीं कहते, नास्ति को आस्ति नहीं कहते। तुम लोग स्वयं विचार करो जिससे रहस्य समझ सको।
कालोदायी को इससे सन्तोष नहीं हुआ इसलिये गौतम के थोड़ी देर बाद वह मेरे पास आया । और पंचास्तिकाय
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का खुलासा मांगा, और प्रमाणित करने का आग्रह किया । संवेदन तुम्हें होता है
महावीर का अन्तस्तल
मैंने कहा - सुख दुःख का
कालोदायी ?
कालोदायी -- जी हां !
मैं- यही जीवास्तिकाय का संवेदन है। अब इसको सिद्ध करने के लिये तो प्रमाण की जरूरत न रही ।
कालोदायी - ठीक है ।
मैं- रूप रस गन्ध स्पर्श वाला भौतिक जगत् तुम देखते ही हो जो जड़ है । यही पुद्गलास्तिकाय है । यह प्रत्यक्ष सिद्ध है इसे भी सिद्ध करने की जरूरत नहीं है ।
कालोदायी- यह भी ठीक है ।
मैं- जितने पदार्थ गतिमान होते हैं उनको कोई न कोई निमित्त जरूर होता है। जैसे पार्थक को पंथ । इसीप्रकार सारे गतिमान पदार्थों की गति में जो सामान्य निमित्त है वही धर्मास्तिकाय है । वह लोक व्यापक है । वह किसी भी इन्द्रिय का विषय नहीं है, अमूर्त्तिक है ।
कालोदायी- यह भी ठीक है ।
मैं- जो पदार्थ गतिमान है सुनको जब तक कोई रोकनेवाला न मिले वे नहीं रुकते । चाहे पृथ्वी से रुके, या जलसे, या वायुसे, किसी न किसी से वे रुकेंगे । तत्र जो सब गतिमान पदार्थों को रोकने में निमित्त कारण है वही अधर्मास्तिकाय है ।
कालोदायी- यह भी ठीक है ।
मैं- हर एक पदार्थ अपनी स्थिति के लिये कोई न कोई
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आधार चाहता है । साधारणतः पृथ्वी सब का आधार मानाजाता है पर जो पृथ्वी जल आदि सभी द्रव्यों का आधार है वह आकाशास्तिकाय है।
कालोदायी- यह बात भी ठीक ही मालूम होती है भंते । आपका पथ बहुत युक्तियुक्त मालूम होता है भंते ! कृपाकर अब आप अपने तीर्थका विशेष प्रवचन करें।
मैने अपने धर्म का विस्तार से विवेचन किया। इससे कालोदायी दीक्षित होगया।
१००-भेदभाव का बहाना १६ बुधी ६४६५ इ. सं.
नालन्दा के एक धनिक लेप के हस्तियाम उद्यान में टहरा हूँ । गष्मि ऋतु के लिये यह मुद्यान बहुत अच्छा है। इसके पास में एक उदक शाला ( स्नान गृह ) भी है। तीर्थकर पार्श्वनाथजी का अनुयायी एक उद्दक नाम का श्रमण भी ठहरा है। याज गौतम से उसकी बातचीत हुई। मनुष्य भेदभाव बनाये रखने के लिये जान में या अनजान में किस प्रकार बहाने दूँद लता है, जानकर आश्चर्य होता है। जहां भेद का कोई कारण नहीं होता वहां भी मनुष्य हास्यास्पद भेद बना लेता है । उद्दक ने भी इसी प्रकार के भेद की कल्पना कर रक्खी थी। उसने गौतम से कहा
आप लोग श्रमणोपासक को इस प्रकार प्रतिज्ञा कराते है-"राजदंड देने के अतिरिक्त मैं किसी त्रसजीव की हिंसा न फर्मगा" इस प्रतिज्ञा के अनुसार यह स्थावर जीव की हिंसा करता है। पर स्थविर भी कभी बस रहा होगा इस दृष्टि से स्थावर भी त्रस है और स्थावर की हिंसा में प्रतिज्ञाभंग का दोप लगता है इसलिये प्रतिज्ञा में ऐसा शब्द डालिये कि त्रस.
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महावीर का अन्तस्तल
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भूत जीवों की हिंसा न करूंगा ।
गौतम ने कहा- आयुष्मन्. इस निरर्थक शब्दाडंवर का कोई अर्थ नहीं। जो सभूत है वहीं त्रस कहलाता है, जो त्र रूप नहीं हुआ है उसे त्रस नहीं कहा जाता है ।
पर उदक अपना हठ छोड़ने को तैयार न हुआ । इतने में दूसरे पार्श्वपत्य स्थिविर आगये । उनले गौतम ने पूछाआर्यों, अगर कोई मनुष्य ऐसी प्रतिक्षा लेले कि मैं अन गार साधुओं को नहीं मारूंगा और फिर वह ऐसे किसी व्यक्ति को मारता है जो कभी अनगार साधु था पर आज साधुता छोड़ चुका है। तो क्या असकी प्रतिज्ञाभंग होगी ?
स्थविर - नहीं, इनसे प्रतिज्ञाभंग न होगी, जब वह मनुष्य अनगार है ही नहीं, तब उसमें प्रतिज्ञा भंग का कारण
क्या रहा ।
इस प्रकार अनेक उदाहरण देकर गौतम ने समझाया । पर उद्दक न समझा और चलने लगा । तब गौतम ने उसे रोका और फिर समझाया तव वह समझा और पार्श्वनाथजी का धर्म छोड़कर मेरे धर्म को अंगीकार किया ।
३ सत्येशा ६४६ इ. सं.
नालन्दा में चौंतीसवां चातुर्मास बिताकर विदेह के वाणिज्यग्राम आया। यहां सुदर्शन सेठ को उसके पूर्वभव की कथा सुनाकर प्रभावित किया जिससे वह दीक्षित होगया । पैंतीसवां चातुर्मास वैशाली में बिताया ।
इसके बाद कौशल की ओर विहार कर फिर विदेह लौटा और छत्तीसवां चातुर्मास मिथिला में बिताया । वहां से विहार कर राजगृह के गुणशिल चैत्य में ठहरा हूं ।
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यहां कुछ अन्य तार्थिकों ने मेरे स्थविर शिष्यों पर आक्षेप किया कि तुम लोग अदत्त ग्रहण करते हो, क्योंकि जिस समय दाता कोई चीज देता है वह चीज जब तक तुम्हारे पात्र में नहीं आजाती तब तक तुम्हारी नहीं है। बीच के समय में वह दीयमान है दत्त नहीं । जो दत्त नहीं वही तुम लेते हो इसलिये अदत्तग्राही कहलाये।
- साम्प्रदायिकता के मोह में पड़कर मनुष्य किस प्रकार के हास्यास्पद आक्षेप करने लगता है इसका यह नमूना है।
अस्तु, स्थविरों ने उत्तर दे दिया कि दाता के हाथ से छूटने पर वह हमारी होजाती है। हम दीयमान को भी दत्त मानते हैं।
बस, इस उत्तर से बेचारे अन्यतीर्थिक निरुत्तर होगये । कैसे वालोचित परश्नोत्तर ! ४ धामा ९४६९ इ. सं.
सेंतीसवां वर्षावास राजगृह में बिताकर तथा शुसके बाद मगध में ही बिहार कर फिर राजगृह आकर गुणशिल चंत्य में ठहरा हूं।
गत वर्ष दीयमान और दत्त की चची में जो अन्यतीर्थिक निल्तर हुए थे उनने उसके आने का वक्तव्य सोचविचार लिया है । अब अपनी बात जमाये रखने के लिये वे कहने लगे है कि. दीयमान दत्त नहीं होसकता, चलमान चलित नहीं होसकता। क्योंकि दीयमान यदि दत्त होजाय तो दान की क्रिया बन्द होजाना चाहिये, चलमान यदि चलित होजाय तो चलने की क्रिया वन्द होजाना चाहिये ।
वे लोग नीचा दिखाने के लिये किस प्रकार बाल की
निस्तार हुए थे बात जमाये रखनमान चलित
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खाल निकालने की निरर्थक कोशिश करते हैं कि आश्चर्य होता हैं । अस्तु मैंने भी जैसे को तैसा उत्तर देदिया । मैंने कहा-
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कोई पदार्थ चलमान तभी कहलाता है जब कि थोड़ा बहुत चल चुका हो । जो बिलकुल नहीं चला वह चलमान नहीं कहला सकता | इसलिये चलमान जितने अंश में चल चुका है उतने अंश में चलित कहलाया । इसलिये चलनान चलित भी है । नहीं तो वह चलमार्न नहीं कहला सकता ।
बेचारे अन्यतीर्थिक फिर निरुत्तर होगये । १०१ - जीव कर्तृत्व
११ जिन्नी ६४७० इ. स.
अतीसवां चातुर्मास नालन्दा में बिताकर विदेह में विहार करता हुआ मिथिला आया । यहां गौतम ने एक प्रश्न का खुलासा कराया कि जगत् के सत्र कार्य कार्यकारण की परम्परा के अनुसार होते हैं फिर जीव पुण्यपाप कैसे करता है ? इसमें जीव का उत्तरदायित्व क्या है ।
गतवर्ष कालोदायी ने भी कुछ इसी ढंग का प्रश्न पूछा था ।
मैंने कहा - कार्यकारण की परम्परा में जीव का कर्तृत्व भी शामिल है । पर जड़ पदार्थों की अपेक्षा जीव में विशेषता हैं। जड़ पदार्थों में कारणत्व तो है पर कर्तृत्व नहीं । जीव की यह बड़ी भारी विशेषता है कि वह कर्ता है । उसमें ज्ञान इच्छा और प्रयत्न है ।
ज्ञान की कमी से तथा असंयमवृत्ति से जीव पाप करता हैं और पर्याप्त ज्ञान तथा संयम वृत्ति से जीव पुण्य, करता है । गौतम - पुण्य का फल सुख है और पाप का फल दुःख
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है, और हर एक जीव सुख चाहता है और दुःख नहीं चाहता तब वह पाप क्यों करता है ? कैसे करता है ? सुखके लिये वह पुण्य ही क्यों नहीं करता ?
मैं – सम्यक्त्व या स्वत्य का दर्शन न होने से ऐसा होता है गौतम | जैसे जब कोई मनुष्य स्वादिष्ट किन्तु अपथ्य भोजन करता हूँ तब अन्त में रोगी होकर दुःखी होता है । प्रवृत्ति तो उसकी स्वाद के सुख के लिये हुई थी परन्तु भविष्य में वह अपथ्य आधिक दुःख देगा इस सत्य का अनुभव उसे नहीं था । सत्यदर्शन की इस कमी से वह सुख की लालसा में दुःख पैदा
कर गया ।
एक वीमार आदमी दुःस्वादु औषध लेता है । औषध से उसे सुखानुभव नहीं होता किन्तु जानता है कि इसका परिणाम अच्छा होगा, इस सत्यदर्शन से वह सुख की लालसा में दुःख भी उठा जाता है ।
अगर प्राणी सर्वहित का ध्यान रखे सर्वकाल के हितपर ध्यान रक्खे तो वह पाप न करे । पर इस सम्यक्त्व की कमी से प्राणी पाप करता है ।
गौतम - क्या यह सम्यक्त्व और संयम प्राप्त करना प्राणी के वश की बात है ?
मैं- हां ! वश की बात है। जब तक प्राणी संज्ञी नहीं होता तब तक वह इस दिशा में प्रगति नहीं कर सकता, पर जब संक्षी होजाता है तब उसमें विवेक की मात्रा प्रगट होने लगती है, दूरदर्शिता आने लगती है, इसका उपयोग करना प्राणी के चश की बात है । इसलिये वह उत्तरदायी हैं । जह पदार्थों के समान वह कार्यकारण की परम्परा ही नहीं है किन्तु उसमें कर्तृत्व का, ज्ञान इच्छा प्रयत्न का सम्मिश्रण भी हुआ है ।
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इसीलिये जीव को विशेषतः मनुष्य को भवितव्य के भरोसे या कार्यकारण परम्परा के भरोसे अकर्मण्य या अनुत्तरदायी न बनना चाहिये, किन्तु उन्नति के लिये प्रयत्न करना चाहिये।
१०२-तत्व अतत्व १० चिंगा ११६७२ इ. सं.
मिथिला में उन्तालीसवां चातुर्मास विताकर विदेह में विहार किया और फिर चालीसवां चातुर्मास भी मिथिला में बिताया। वहां से मगध की तरफ विहार कर राजगृह के गुण
शिल चैत्य में ठहरा । यहां अग्निभूति वायुभूति का देहान्त पर होगया । अव मेरे गणवरों में इन्द्रभूति और सुधर्मा ही वच रहे हैं।
- मेरा शरीर भी कुछ शिथिल हो चला है पर जगदुद्धार का कार्य तो अन्त समय तक करना ही है।
मैंने इकतालीसवां चातुर्मास राजगृह में बिताया।
इन दिनों गौतम ने मुझ से ऐसे बहुत से प्रश्न पूछे जिनका मोक्षमार्ग से सम्बन्ध नहीं है। जैसे सूर्य और चन्द्र तथा तारों की स्थिति गति, विश्व रचना, युगपरिवर्तन, परमाणुओं की रचना, झुनका बन्ध विघटन तथा रासायनिक परिवर्तन
आदि । यहां तक कि राजगृह में जो उष्ण जल के स्रोत वहते हैं । उनका कारण भी पूछा।।
इन दिनों में गौतम के इन सब प्रश्नों के उत्तर बहुत विस्तार से देता रहा हूं। और गौतम के लिये वे सन्तोष-जनक भी हुए हैं । पर आज मैंने गौतम से इस विषय में एक रहस्य की बात कही।
मैंने कहा-गौतम इस बात का ध्यान सदा रखना है कि
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जगत में जितनी जानकारी हैं सब को तत्वज्ञान नहीं कहते । अधिक से अधिक जानकारी प्राप्त करना चाहिये पर यह न भूलना चाहिये कि तत्वज्ञान के सिवाय अन्य बातों के ज्ञान में है कुछ भूल होजाय तो भी सम्यक्त्व में क्षति नहीं पहुँचती।
गौतम-तत्वज्ञान से क्या तात्पर्य हैं भन्ते ।
मैं-तत्व तो मैं तुम्हें बताचुका हूं कि तत्व सात हैं। मूल तत्व तो स्व और पर है। इसे आत्म और अनात्म भी कह सकते है। इसके बाद यह जानना होता है कि जीवनमें वे कोन कोन से विचार और आचार हैं जिनसे दुःख आता है यह आश्रव तत्व है । दुःस के बन्धन में आत्मा किस तरह बंधा रहता है यह बन्ध तत्व है। श्राश्रव के रोकने के उपाय को संवर कहते हैं। बन्धनों फो धीरे धीरे कम करने या हटाने को निर्जरा कहते हैं और बन्धनराहित अवस्था का नाम मोक्ष है। इसमें अनन्त सुखका ( श्रोत भीतर ले उमड़ने लगता है।
जो ज्ञान साक्षात् या परम्परा से इस तत्वज्ञान का निवार्य अंग बन जाता है, वह महत्वपूर्ण है, उसी पर सम्क्त्व या सत्य निर्भर है वाकी ज्ञान इतना महत्व नहीं रखता । वह सच हो तो ठीक ही है, न हो तो इससे सम्यक्त्व तत्वज्ञता आदि में घका नहीं लगता। अहंत तत्वों का प्रत्यक्षदर्शी और सर्वदर्शी होता है।
इन दिनों तुमने जो अनेक प्रश्न पूछे हैं जैसे विश्वरचना, ज्योतिर्मण्डलकी गति, अप्ण जल के झरने आदि उनकी जानकारी बुरी नहीं है पर यह ध्यान रखना कि वे तत्वज्ञान रूप नहीं हैं। उनकी जानकारी सच झुठ होने से मोक्षमार्ग के ज्ञानमें, तत्व. ज्ञता में अईतपनमें कोई बाधा नहीं आती।
गौतमने हाथ जोड़कर कहा-बहुत ही आवश्यक रहस्य बतलाया प्रभु आपने।
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१०३-निर्वाण - २८ धनी ११६७३ इ. सं. - राजगृह से विहार कर मैं अपाए। नगरी आया। पिछले . कुछ दिनोंसे प्रचार और प्रवचन की मात्रा बढ़ादी थी क्योंकि मुझे मालूम होने लगा था कि मेरा शरीरवास इस वर्ष समाप्त होजायगा । इसलिये जितना अधिक मला कर जाऊं उतना ही अच्छा ।
__आज राजा हस्तिपाल के समाभवनमें प्रहर भर रात जाने तक प्रवचन करता रहा। .
इन्द्रभूति गौतम को देवशर्मा को झुपदेश देने के लिये पासके गांव में भेजदिया है । सम्भव यही है कि गौतम के आने के पहिले ही मेरी विदा होजायगी । गौतम को इससे दुःख तो वहुत होगा पर अच्छा ही है। उसमें इससे आत्म निर्भरता भी आयगी।
.. सब लोगों को शयन करने की मैंने अनुमति दी है। आधी रात्रि वीत भी चुकी है। ऐसा मालूम होता है कि सूर्योदय होने के पहिले मेरा महाप्रस्थान होजायगा।
__याज मुझे पर्याप्त सन्तोप है । जर्जावन की अन्तिम रात्रि तक मैंने कार्य किया। इससे कहना चाहिये कि अर्हत को बुढ़ापा नहीं आता।
जिस क्रांति को लक्ष्य करके मैंने घर छोड़ा था उसमें वहुत कुछ सफलता मिली है। जगत में अहिंसा का-दया का, प्रचार पर्याप्त हुआ है, इससे लाखों प्राणियों की रक्षा हुई है, लाखों जीवन शुद्ध हुए हैं।
व्यापारी तो पूंजी के दूने होने को भी बढ़ा लाभ लम. झता है. फिर मैं तो हजारों गुणा होगया हूं।
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पर अगर इतनी सफलता न मिलती तो ? तो क्या अपने ध्येय पर अटल रहता ? मैं अन्त समय में बिलकुल अल भाव से कह सकता हूं कि तो भी अटल रहता । मैंने जो किया झुसका भीतरी आनन्द इतना था, कि बाहरी सफलता निष्फ लता की पर्वाह ही नहीं थी ।
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यही तो मेरा मोक्ष था ।
मैंने वह पाया और दूसरों को दिया ।
संसार के प्राणियो । मैंने तुम सब का भला चाहा है और सीके लिये दिनरात प्रयत्न किया है ।
द्रव्य क्षेत्र काल भाव के अनुसार सब जीध स्वपर कल्याण के कार्य में लगे, लगे रहें यही मेरी शुभाकांक्षा है, यही मेरी विश्वमंत्री है, यही मेरी वीतरागता है ।
जगत् में शान्ति हो ! चित् शान्ति हो ! अच्छा, अब विदा ।
वर्धमान - महावार
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म. महावीर और सत्यसमाज
महावीर के अन्तस्तल में महावीर स्वामी का जीवन चरित ही नहीं है, ससूचे जैन धर्म का मर्म भी है और साथ ही धर्म संस्थाओं के स्वरूप पर भी सच्चा प्रकाश पड़ता है। कोई महान से महान व्यक्ति और महान से महान धर्म संस्था भी समाज के कल्याण के लिये है, जगत के सुधार के लिये और उसकी समस्याओं को हल करने के लिये है, और यही उसके अच्छे बुरे या जीवित मृत की कसौटी है व अन्तस्तल को पढ़ने से उस युग की समस्याओं का और उन्हें हल करने के लिये म. महावीर के घोर प्रयत्नों का पता लगता है । तप त्याग विश्वहितैपिता और दिनरात की सेवा के कारण हृदय कृतज्ञता से और विनय से भर जाता है। परंतु म. महावीर के प्रति कृतज्ञ रहते हुए भी हम म. पार्श्वनाथ के प्रति भी कृतज्ञ रहते है हालांकि दोनों तीर्थंकर होने से दोनों के अपने अपने तीर्थ थे । महावीर स्वामी के तीर्थ में म. पार्श्वनाथ का तीर्थ समागया, द्रव्यक्षेत्र काल भाव के अनुसार स्वतन्त्र रूप में आवश्यक क्रांति हुई, पर मान्यता दोनों की रही । जैन धर्म का यह सफल प्रयोग इस बात की निशानी है कि क्रान्ति होजाने पर भी, भिन्न भिन्न तीर्थकर होजाने पर भी, नये पुराने की विनय भाक्त समान भाव से रक्खी जासकती है । अनेकांत सिद्धांत का यह बहुत सुन्दर व्यावहारिक रूप था, बड़ी से बड़ी सार्थकता थी।
- म. पार्श्वनाथ के निर्वाण के बाद सिर्फ पौने दो सौ वर्ष वर्ष में म. महावीर का जन्म होता है । इसप्रकार दोनों के न काल में अधिक दूरी है न क्षेत्र में अधिक दूरी, उन दोनों के युगों में वैज्ञानिक प्रगति की दृष्टि से भी कोई विशंप अन्तर नहीं है।
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फिर भी दोनों के अलग अलग तीर्थ हैं। अब उस युग को बीते ढाई हजार वर्ष होगये हैं, क्षेत्रीय सम्बन्ध पहिले से सैकड़ों गुणा बढ़गया है सारी पृथ्वी का एक सम्बन्ध होगया है । पिछली कुछ शताब्दियों में जो वैज्ञानिक प्रगति हुई है वह पहिले के हजारों वर्षों की प्रगति से भी बीसों गुणी है ।
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इन सब बातों का जब हम विचार करते हैं तब कहना पड़ता है कि मगध और उसके आसपास के इलाके को ध्यान में रखकर ढाई हजार वर्ष पहिले बने हुए धर्म तीर्थ से अब काम नहीं चल सकता। खासकर जब कि इस लम्बे समय में वह तीर्थ जीर्ण शीर्ण होगया है । अब तो झुसके उत्तराधिकारी के रूप में किसी नये तीर्थ की जरूरत है ।
वह है सत्यसमाज | अब वैज्ञानिक साधनों ने सारी पृथ्वी से सम्बन्ध जोड़ दिया है, भौतिक विज्ञान, मनोविज्ञान, प्राणिविज्ञान, विश्वरचना आदि के क्षेत्र में विशाल सामग्री इकट्टी कर दी है, पुरानी मान्यताएं टूट चुकी है, नये सिद्धान्त उनका स्थान लेचुके हैं । धर्म और विज्ञान के मिलाने का पुराना तरीका चेकार पड़गया है नये तरीके से उनके समन्वय की जरूरत आपड़ी है । राजनति और अर्थशास्त्र के रूपमें जमीन आसमान का फर्क पैदा होगया है । इन सब बातों का ध्यान रखकर ही नये तथिं की जरूरत है । सत्यसमाज ने इन सब समस्याओं को युगानुरूप और वैज्ञानिक ढंग से सुलझाया है। इसके चौबीस सूत्र जीवन के तथा समाज के हर सवाल पर प्रकाश डालते हैं । सत्यसमाज में जैनधर्म के अनेकान्त का फैला हुआ विकसितरूप साफ दिखाई देता है ।
सत्यलमाज, हिन्दू मुसलमान जैन बौद्ध ईसाई, आदि सभी का समन्वय करता है । ३६३ मतों का समन्वय करने वाले
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अनेकान्त का यह आधुनिक और व्यवहारिक रूप है । यो दुसरे धर्मतीर्थों के राम आदि देवों को जैतधर्म ने अपनाया ही है, उन्हें केवली आदि मानकर सांस्कृतिक समन्वय का पूरा प्रयत्न किया है। सत्यसमाज उसी नीति का व्यापक और व्यवस्थित रूप है । ऐसी हालत में यदि अधिकांश जैन लोग सत्यसमाज को अपनाये तो वे सच्चे और आधुनिक जैनधर्म को, या जैन धर्म के नये अवतार को अपनायँगे।
मनुष्य जिस वातावरण में शैशव से पलता है वह उसी. का पुजारी होजाता है, सो पूजा करने में, कृतज्ञता प्रगट करने में वुराई नहीं है; परन्तु जैसे बाप दादों की पूजा करते हुए भी धन के लिये बाप दादों से भिन्न लाधन अपनाता है, जिसमें लाभ होता है वही करता है, उसी प्रकार पुराने र्थिकरों और तीर्थों की पूजा करते हुए भी धर्म के लिये आधुनिक तीर्थ को अपनाना चाहिये । सत्यसमाज आधुनिक धर्म तीर्थ है, इसमें इस युग की सभी समस्याओं का समाधान है । महावीर स्वामी यदि आज आते तो वे भी इसीसे मिलते जुलते सन्देश देते। और झुनका दृष्टिकोण यही होता। .
हरएक 'धर्मसंस्था दुनिया को सुखी बनाने के लिये आती है। भीतर बाहर से हरतरह सुखी बनाने का कार्यक्रम बनाती है । जैनधर्म के अनुसार जव यहां भोगभूमि का युग था अर्थात समाज की कोई समस्या नहीं थी तब यहां कोई धर्म नहीं था। जब समस्याएं पैदा हुई, दुःख बढ़ा, तब कुलकर तीर्थकर आदि आये । इससे मालूम होता है कि जीवन की तथा समाज का समस्याओं का हल करना ही हर एक धर्म का कार्य है और यही उसकी कसौटी है। जैनधर्म ने अपने युग में यही किया और काफी सफलता मिली । अव युग आगे वदला है, आगे बढ़ा है, जटिल और कुटिल हुआ है, उसके लिये युग के
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vwran...Avirowenniumnnnnn....~~~ArvinAMunnarwww
अनुरूप नये कार्यक्रम की जरूरत है। वह सत्यसमाज के चौवीस जीवन सूत्रों के रूप में दिया है
चोवीस जीवन सूत्र ये हैं। १-विवेकी ( सम्यक्त्वी) बनो।
२-सर्वधर्म समभावी (अनेकांत सिद्धांत को इस युग के अनुरूप काम में लाने वाले ) बनो।
३-सर्व जाति समभावी बनो । ४-नर नारी समभावी बनो। ५-अहिंसा का पालन करो। ६-सत्य बोलो। ७-ईमानदार अर्थात अचौर्य व्रतधारी बनो। ८-शील का पालन करो।
-दुर्व्यसन (जूआ धूम्रपान शराव आदि छोडो)
१०-अपने निर्वाह के लिये उपयोगी श्रम करो। ( दूसरों की मिहनत के भगेसे अपनी गुजर न करो। किसी की कोई सेवा लो तो उसके बदले में ऐसी सेवा भी उसी के अनुरूप दो जिससे उसका भ..ा हो।)
११-अतिपरिग्रह न रक्खो । १२-अतिभोग न करो।
१३-मन तन आदि से हर तरह बलवान और गौरवशाली बनो।
१४-स्वतंत्र बनो । (संयम और सहयोग का बन्धन रहे, पर किसी को कोई गुलाम बनाकर राज्य न करे, शासन न चलावे ।
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१५-शान्त सभ्य बनकर शिष्टाचार का पालन करो।
१६-पुरुषार्थ को महत्ता दो। देव अपना काम करता __ रहे तुम झुसकी चिन्ता न करो। .
१७-संसार का स्वभाव अन्नतिशील मानो. अवनति को वीमारी समझो और उन्नति की भाशामें सदा काम करत रहो।
१८-सेवाभावी सदाचारी और योग्य व्याक्तियों के हाथमें शासन कार्य सोपो।
१९-न्यायले निर्णय होने दो, पशुवल या युद्ध से नहीं। युद्धों को गैरकानूनी ठहराओ ।
२०.नीति का विरोध न करके भौतिक सुखसाधनों की वृद्धि करो।
२१--मनुष्य मात्र की एक भाषा और एक लिपि बनाओ। २२ मनुष्य मात्र का एक राष्ट्र वनाओ। २३-सारे संसार में कौटुम्बिकता लाने की कोशिश करो। २४-कर्मयोगी बनो।
ये चौबीस जीवन सूत्र लत्यसमाज के प्राण है । अधिः कांश जैनधर्म से मेल खाते हैं, कुछ युग के अनुसार जोड़े गये हैं परन्तु मानव मात्र के लिये जरूरी है । जैन लोग इन्हें जैनधर्म का परिवर्तित और परिवर्धित संस्करण समझकर इन्हें थपनायें । अन्तस्तल पढ़कर सत्यामृत सत्येश्वरगीता जविनसूत्र, सत्यलोकयात्रा आदि ग्रन्थ पढ़े। सम्प्रदायों में छिन्न भिन्न हुए जैनधर्म को आधुनिक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से समझने के लिये जैनधर्म मीमांसा पढ़ें। यह सब साहित्य पढ़ने से तथा विवेक. पूर्वक विचार करने से उन्हें सत्यसमाजी बनना जरी मालूम
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होगा । और वे स्वपर कल्याण के मार्ग में आगे बढ़ेंगे। , उसके लिये जैनधर्म छोड़ने की जरूरत नहीं है पर सत्यसमाज में शामिल होकर सच्चे जैनत्व से नाता जोड़ने की जरूरत है।
आशा है इस अन्तस्तल को पढ़ने से पाठकों का ध्यान इस ओर जायगा। टुंगी १६६५३ इतिहास संवत्
सत्यभक्त २८-८-१३
सत्याश्रम वर्धा
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