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महावीर जीवन के ही आचार विचार का व्यवस्थित किया हुआ रूप है । जैनधर्म की कुछ बातें काफी पुरानी है, कुछ म. पार्श्व नाथ के सम्प्रदाय की हैं। परन्तु म. महावीर तीर्थकर थे इसलिये न तो वे किसी पुराने तीर्थंकर के अनुयायी थेन अपने अनुभव और विचार के सिवाय वे किसी अन्य शास्त्र को प्रमाण मानते थे । उनके विचार किसी शास्त्र से मिलजायं तो भी ठीक, नहीं तो इसकी उन्हें पर्वाह नहीं थी ।
यो तीर्थकर भी पुराने लोगों से कुछ न कुछ सीखते तो हैं ही, मानव समाज की प्रगति पुराने लोगों की ज्ञान सामग्री का सहारा लेकर आगे बढ़ने से हुई है। तीर्थंकर के कार्य और विचार भी इसके अपवाद नहीं है । पर तीर्थकर की विशेषता यह है कि परीक्षक के तौर पर वह सारी सामग्री की जांच करता है अपने अनुभवों से मिलाता है, जो ठीक मालूम होती है लेता है जो युगवाह्य या समयवाह्य मालूम होती है उसे छोड़ता है, और देश काल के अनुकूल नया सर्जन करता है । म. महावीर के घर में चाहे म. पार्श्वनाथ का धर्म चलता रहा हो चाहे श्रमण परम्परा का कोई और अविकसित रूप, म. महावीर उसे प्रमाण मानकर नहीं चले । उस सामग्री से उनने अपनी बुद्धि का संस्कार जरूर किया और उसका उपयोग नवनिर्माण के लिये जगत रूपी खुले हुए महान ग्रंथ को पढ़ने में भी हुआ, पर उसे पढ़कर उनने देश काल के अनुकूल आचार विचार का नया ही तीर्थ बनाया । वही जैनधर्म, जैनतीर्थ, या जैनसम्प्रदाय कहलाया । इसलिये जैन धर्म का जो रूप ढाई हजार वर्ष पहिले था वह उन्हीं के विचारों का परिणाम था। आज जैनधर्म में कुछ विकृति भी आगई है पर उसका मूल आचार विचार म. महावीर की ही देन है ।
जो लोग यह समझते हैं कि अनादि से अनन्त काल के लिये जैन धर्म का एक रिकार्ड बना हुआ है जिसे हरएक तीर्थ