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मंदावीर का अन्तस्ल
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पहिले तो देवी की इच्छा कक्षके बाहर जान की हुई पर दासी ने जो वर्णन किया था उससे उनमें उन्हें देखने की उत्सुकता भी पैदा हुई । इसलिये वे बैठी रहीं ।
कुल आठ सजन थे। देखने से ही मालूम होता था कि ये लोग विद्वान होंगे, विचारशील होंगे। गृहस्थों सरीखा वेप नहीं था, पर श्रमणों या वैदिक साबुओं सरीखा भी वेप नहीं था । यथास्थान बैठने के बाद परिचय करने से मालूम हुआ कि ये लोग एक तरह के राजयोगी हैं। किसी तरह की कोइ बाह्य तपस्या नहीं करते, बड़े ही स्वच्छ परिमार्जित ढंग के कपड़े पहिनते हैं फिर भी ऐसे, जिनसे विलास या विटत्व न मालूम हो ! आजन्न ब्रम्हचारी रहते हैं, किसी राजदवार आदि में कभी नहीं जाते । शास्त्र का मनन चिन्तन आदि ही करते रहते हैं । जो पहिले नम्बर पर बैठे थे उन सारस्वतजी ने यह सब परिचय दिया। दूसरे आदित्यजी ने बताया कि इस गणतन्त्र के बाहर राजतन्त्र में वे रहते हैं । गणतन्त्र की सीमा से पांच गव्यूति दूर पर ब्रम्हलोक नाम का एक नगर है, अस नगर के बाहर आठों दिशाओं में आठ आश्रम हैं । हम लोग नहीं आश्रमों में रहते हैं । बाकी छः के नाम थे वह्नि, अरुण, गर्दतोय, तुपित, 1 अध्यावाध, अरिए | सब के अलग-अलग आश्रम थे
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उनके आश्रमों में स्त्रियाँ नहीं होती, शिष्य नहीं होते, . सभी वयस्क आर विद्वान ब्रह्मचारी होते हैं। किसीसे कोई विशेष सम्बन्ध नहीं रखते । किसी उत्सव में शामिल भी नहीं होते ।
उनका परिचय पाकर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई और मन में आश्चर्यपूर्ण यह जिज्ञासा भी हुई कि जब ये किसी श्रीमान या शासक से मिलने नहीं जाते यहां तक कि प्रजा के किसी उत्सव सम्मिलित नहीं होते तब मेरे पास आने की कृपा क्यों की ? यह बात मैंने उनस पूछी भी ।