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है तब सिर फोड़ने से आत्मा का क्या बिगड़ा ?
कितने मूर्ख और अविवेकी हैं ये पण्डित ! कैसी विवेकशून्य एकांत दृष्टि है इनकी, असंयम अत्याचार अनीति पर धर्म और दर्शन का कैसा' आवरण डालते हैं वे ? फिर भी इन्हें देखकर जनता किंकर्तव्यविमूह है। जनता इन ही संस्कृत मात्रा समझती नहीं, उस भाषा में कुछ भी घोलकर ये जनता पर अपने पांडित्य की धाक जमाते हैं। ये मोघजीवी ( हरामखोर ) पृथ्वी के भार हैं। पृथ्वी का यह भार किसी भी तरह उतना चाहिये । दर्शनों के इन झगड़ों को दूर करने के लिये एकांत दृष्टि का त्याग जरूरी है, अनेकांत सिद्धांत ही इस मिथ्यात्व को नष्ट कर सकता है | वह एक ऐसी कुंजी है जिससे साधारण जनता भी कर्तव्य अकर्तव्य, संत्य असत्य का निर्णय कर सकती है !
हां! धर्म और ज्ञान को जनता के पास पहुँचाने के लिये जनता की भाषा में बोलना पड़ेगा । पण्डितों की दुर्बोध संस्कृत का त्याग करना पड़ेगा । मागधी या आसपास की अन्य बोलियों से मिली मागधी अर्थात् अर्ध मागधी में शास्त्र वनांना पड़ेंगे, तभी सर्वसाधारण जनता धर्म के मर्म को समझेगी और इन मोघजीवी पण्डितों की पोल खुलेगी। धर्म के नामपर होनेवाला अधर्म का तांडव नंट होगा ।
पर यह सब हो कैसे ? कहने से तो हो ही न जायगा वल्कि ऐसी बातें मुंह से निकलते ही चारों तरफ से इतना विरोध होगा कि उसे सह सकना कठिन होगा, मुझे नहीं तो कुटुम्बियों को अवश्य ।
महावीर का अन्तस्तल
इन सब समस्याओं की पूर्ति के लिये मुझे अपने जीवन में पर्याप्त क्रांति करना होगी । पर कब उसका समय आयगा ? कैसे मैं वह क्रांति करूंगा ? कुछ कह नहीं सकता। मन ही मन बेचैनी बढ़ रही हैं ।