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________________ ८८] महावीर का अन्तस्तल - ~ ~ ~ - ~ ~ - ~ ~ ~ -~~ . - ~ मैं- पर अव इस तरह दौड़े आने की क्या आवश्यकता थी कांका ? काका कुछ गम्मीर होगये और गहरी सांस लेकर, सिर मटकाते हुए बोले - कुमार तुम्हें क्या बताऊं ? अगर न आता तो ब्राह्मणी खाने भी न देती। . मरे हृदय को एक धक्का सा लगा । सचमुच निर्धनता इतना बड़ा पाप है कि उसमें प्रेम सहानुभूति सज्जनता शिष्टता आदि गुण नहीं पनप सकते । सम्पत्ति के एक जगह इकट्ठे होजाने से जो जगत में निर्धनता फैलती है उससे मनुष्यों को ही भूखों नहीं मरना पड़ता, किन्तु मनुष्यता को भी भूखों मरना पड़ता है। मेरे मन में ये विचार कुछ तूफान सा मचाये हुये थे कि सोम काका ने कहा-कुमार अब ऐसा अपाय करो कि लौटने पर ब्राह्मणी की फटकार न सहना पड़े। मैं-तुम देख तो रहे हो काका कि मैं एक निष्परिग्रह श्रमण हूँ। सोम-पर मेरे लिये तो तुम अब भी राजकुमार हो कुमार! मैं तुम्हारी इस वत्सलता के लिये साधुवाद, पर इस वत्सलता की राजकुमारता से वह धन तो नहीं टपक सकता जो काकी का मुंह वन्द कर सके। ब्राह्मण का चेहरा उतर गया। सारे शरीर का पर्साना तो सूख गया था पर अब ऐसा मालूम होने लगा कि आंखों को पसीना आजायगा। कुछ क्षण रुककर ब्राह्मण ने दीर्घ उच्छ्वास के साथ पूछा-तो क्या में खाली हाथ जाऊं? ओह, ब्राह्मण के चेहरे पर कितनी दनिता थी, कितनी
SR No.010410
Book TitleMahavira ka Antsthal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyabhakta Swami
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1943
Total Pages387
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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