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महावीर का अन्तम्तल
करके निकला ही था कि जनता की एक भीड़ वहां कुतुहल से पहुंच गई । क्योंकि मेरे अनशन की तपस्याओं ने जनता में एक कुतुहल पैदा कर दिया है । मैं कहां आहार लेता हूं इस विषय में भी जनता के मन में एक प्रकार का कुतूहल रहने लगा है।
में तो भोजन लेकर चला आया, पर जनता उस नये सेठ की बड़ी प्रशंसा करने लगी. और करने लगी मेग गुणगान भी । अब सेठ को ज्ञान हुआ कि मैंने किसी बड़े तपस्वी को भिक्षा दी है। सम्भवतः ऐसी रद्दी भिक्षा देने के कारण वह मन ही मन पछताने भी लगा। इतने में एक मनुष्य ने कहा- सेठ जी, धन्य है आपको, जो ऐसे महान तपस्वी का आहार आपके यहां हुआ । तपस्वीराज को क्या भोजन दिया था आपने ? . सेठ झूठ बोलने में काफी चतुर था । उसने बिना संकोच के कहा-बढ़िया खीर खिलाई थी।
धन्य है ! धन्य हैं ! की ध्वनि चारों ओर गुजगई। धीरे धीरे यह चर्चा सारे नगर में फैलगई । जर्णि श्रेष्ठी ने भी सुनी। उसे बहुत खेद हुआ।
तीसरे पहर वह मेरे पास आया । नवीन श्रेष्ठी के यहां आहार लेन आदि की सब बातें सुनाते हुए उसने कहा-प्रभु, मैं बड़ा अभागी है । आपके चरणों से मेरी झोपड़ी पवित्र न होपाई।
मैंने मुसकराते हुए कहा-पर मन तो पवित्र होगया।
सेठ ने कुछ उत्तर न दिया । खेद के चिन्ह उसके चेहरे पर दिखाई दे रहे थे।
मैंने कहा-नवीन श्रेष्ठी को मिलनेवाली प्रशंसा तुम्हें न मिल पाई, क्या इस बात का खेद होरहा है ? . सेट ने कहा-जब आपको निमन्त्रण दिया था उस समय