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महावीर का अन्तस्तल
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मुझे इस प्रशंसा की तनिक भी कल्पना नहीं थी । उस समय तो मैं यही सोच रहा था कि जीवन की पवित्रता का चरमरुप * बनाने के लिये, और जगत् में सुख शांति का साम्राज्य स्थापित करने के लिये जो आप महान तपस्या कर रहे हैं असपर श्रद्धांजलि चढ़ाना मेरा कर्तव्य है । इसी कर्तव्यभावना से मैं अपने को कृतकृत्य बनाना चाहता था । पर जब लोगों के मुँह से नवीन श्रेष्ठी की प्रशंसा सुनी तब मेरा ध्यान इस तरफ गया और मन चल विल होगया ।
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मैंने कहा- अगर इस बात से मन विचल न होता तो तुम अर्हत् होगये होते । पर अब तुम सिर्फ इन्द्रासन के ही अधिकारी रहगये ।
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सेठ मुसकराकर रह गया ।
मैंने कहा- सेठ ! तुम अर्हत् नहीं होपाये पर नवीन श्रेष्ठी की अपेक्षा तुमने असंख्यगुणा पुण्य कमाया है ।
सेठ बहुत सन्तुष्ट हुआ। और प्रणाम करके चला गया । नवीन श्रेष्ठी पापी है, वह झूठ बोलकर भी प्रशंसा लूटना चाहता है, भिक्षा भी अपमान से देता हैं और वह भी रही से रद्दी, फिर भी देता है यह पुण्य का प्रारम्भ है । पाप से लगा हुआ विलकुल नीची श्रेणी का पुण्य है यह । जीर्ण श्रेष्ठी जो पुण्य करता है वह कर्तव्य की प्रेरणा से । किसी ऐहिक स्वार्थ की लालसा से नहीं । यह पुण्य की पराकाष्ठा है । अगर पीछे पीछे इसका मन प्रशंसा की बात से चल विचल न होता तो यह शुभोपयोग न रहकर शुद्धोपयोग वनजाता | थोड़ी सी अशुद्धि मिलजाने से यह आश्रवरूप होगया, नहीं तो मोक्ष रूप होता । इसप्रकार इस घटना से अशुभ शुभ और शुद्ध की सीमा रेखाएँ बड़ी अच्छी तरह से बनगई । शुभत्व के दोनों किनारों का स्पष्टीकरण होगया |