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महावीर का अन्तस्तल
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हुआ है कि श्रमण विरोधी वातावरण बहुत कुछ शांत होगया है । यही कारण है कि इधर दस ग्यारह माह से मेरे ऊपर कोई अपसर्ग नहीं हुआ । और अब लोग मेरा आदर एक राजपुत्र के नाते नहीं किन्तु एक श्रमण के नाते करने लगे हैं । यद्यपि अभी मैं तीर्थकर नहीं बन पाया हूँ फिर भी लोग मरी बातों का थोड़ा बहुत पालन करने लगे हैं । और पालन न करने पर पश्चात्ताप भी करने लगे हैं ।
आज शालिशीर्ष गांव का भद्रक नामका युवक मेरे पास आया और हाथ जोड़कर बोला- भगवन् मैंने आपके सामने मांस खाने का निश्चय प्रगट किया था पर विवशता के कारण मैं उस निश्चय पर दृढ़ न रह सका ।
मैं- ऐसी क्या विवशता थी भद्रक ! शालिशीर्ष ग्राम में शालि दुर्लभ होजाय और मांस सुलभ होजाय ऐसा तो हो नहीं
सकता ।
भद्रक- सो तो नहीं हो सकता, पर बीमारी में वैद्य ने कहा तुम अगर अंडा न खाओगे तो तुम्हारी रक्तहीनता दूर न होगी । इसलिये मैं अंडा खाने लगा और जब अंडा खाने लगा तब मुर्गी भी खाने लगा !
*मैं - शाकाहार से भी रक्तवृद्धि होसकती थी भद्रक । यह एक कुसंस्कार है कि मांस के बिना रक्तवृद्धि नहीं हो सकती । गाय महिष अश्व, हरिण आदि जानवर पूर्ण शाकाहारी हैं पर इनमें रक्त की कमी नहीं होती तब मनुष्य को ही उस आपत्ति का सामना क्यों करना पड़ेगा ? अस्तु, अंडा लेलिया सो लेलिया, यद्यपि सका लेना भी हिंसा है, त्याज्य है, पर उसके लेने से तुम मुर्गी क्यों लेने लगे ?
भद्रक - मुर्गी और मुर्गी का अंडा एक ही बात है
भगवन् !