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महावीर का अन्तस्तल
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. प्रियदर्शना-गोचरी कैसे लेती आचार्य ? जब तक भीतर पाप का मल भरा हुआ था तब तक जानबूझकर अन्न का अपचन - कैसे करती?
. गौतम की आंखें हश्रुओं से भरगई। उनके मुँहसे कुछ आवाज न निकली। प्रियदर्शना ने मुझसे कहा-अब में प्रायश्चित्त चाहती हूं प्रभु।
मैंने कहा-अपनी भूल का सच्चा ज्ञान होजाना, झुसे स्वीकार कर लेना और उससे निवृत्त होजाना यही सब में बड़ा प्रायश्चित्त है और यह सब तूने ले लिया है । _ प्रियदर्शना-नहीं प्रभु, मेरा अपराध महान है, मैंने संघ को पूरी क्षति पहुंचाई है। एक हजार आर्यिकाओं को मार्ग से गिराया है, आपकी पुत्री होने के गौरव का पूरा पूरा दुरुपयोग किया है। इसलिये में पूरा प्रायश्चित्त चाहती हूं, जिससे मेरे पाप
धुलजाएँ।
गौतम-आयें, पहिले तो तुम गुरुदेव से पिताजी कहती थी अव प्रभु कहती हो, यह भी प्रायश्चित्त है क्या?
प्रियदर्शना-आचार्यजी, मैं अयोग्य हूं। मैंने गुरुदेव को पिताजी कहने का गौरव पाया था पर उसे सम्हाल न सकी। इसलिये अब मैं उन्हें प्रभु ही कहती हूं। आपको आचार्य कहंगी, आर्या चन्दना को पूज्य मानूंगी, अपने पास की आर्याएँ उनके अधीन कर दूंगी। यह तो इसलिये कि मैं अयोग्य हूं, पर इससे मेरा प्रायश्चित्त नहीं होजाता।
मैं-पर यह तो तूने आवश्यकता से अधिक प्रायश्चित्त कर लिया है।
प्रियदर्शना-तो आप एक भिक्षा देने की कृपा करें ! मैं-वह क्या?