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महावीर का अन्तस्तल
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इच्छा हो न लो। इसमें भगवान की अधिनायकता का प्रश्न ही नहीं है।
जमालि-पर दूसरों की भी तो सुनना चाहिये।
गौतम-जिस प्रकार वैद्य रोगी की बात सुनता है उस तरह सुनी ही जाती है। पर रोगी को वैद्य मानकर नहीं चला जाता।
जमाल-क्या हम रोगी हैं ?
गौतम-हां, जीवन की चिकित्सा कराने के लिये ही तो हम यहां आये हैं। भगवान के ऊपर दया करके नहीं आये है, अपने ऊपर दया करके आये हैं।
जमालि- इसीलिये तो भगवान को घमंड होगया है । वे कहते थे कि मैं अकेला ही सन्तुष्ट हूं। जो मेरा साथ देने में अपना भला समझे, वह साथ दे, जो भला न समझे वह न दे।
गौतम- यह ठीक ही कहा था। भगवान किसी के गले नहीं पड़ते । उनने अन्तरंग बहिरंग तपस्या वर्षों की, और उससे जो सत्य की खोज की वह जगत को देरहे हैं । लेने में जबर्दस्ती नहीं है। जिसे लेना हो ले, न लेना हो न ले। इस बात में तो भगवान की निस्पृहता दिखाई देती है। घमण्ड का इससे क्या
जमालि-पर हम लोगों के शब्दों का कोई मूल्य न रहा।
गौतम-भगवान किस किस के शब्दों का मूल्य करें। जगत में मिथ्यात्वी बहुत हैं इसीलिये क्या मिथ्यात्वियों के शब्दों का मूल्य करके सम्यक्त्व छोड़ दें।
___ जमाल- मैं मिथ्यात्वियों की बात नहीं कहता पर अपने संघ के लोगों की बात कहता हूं।