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भरता, तृष्णा का मुँह माप कर अगर सुतनी ही माप की चीज उसमें भग्दी जाय तो तृष्णा का मुँह उससे चौगुना फैल जाता हैं. हम भरते जायँगे वह फैलता जायगा । विचित्र अनवस्था है ! परं जगत् के प्राणी इस नहीं समझते, वे तृष्णा का मुँह भग्ने की निरर्थक चेष्टा दिनरात करते रहते हैं यहां तक कि अपनी तृष्णा का मुँह भरने के लिये वे दूसरों का जीवन होम देते हैं. अनके पेट की रोटी तक छीन लेते हैं, उनकी जीवन शक्ति को चूस डालते हैं, इसीसे जगत में हिंसा है, झूठ है, चोरी है, ज्याचार है और अनावश्यक संग्रह है ।
महावीर का अन्तस्तल
तृष्णा के कारण मनुष्य अपने को सदा प्यासा अनुभव करता हैं और दूसरे के कष्ट को नहीं देखता । इच्छापूर्त्तिका आनन्द क्षणभर ही ठहरता है, दूसरे ही क्षण फिर ज्यों की त्यों पास लग आती है, ज्यों का त्यों दुःख आजाता है, इसप्रकार सफलता भी निष्फलता में परिणत होजाती है तृष्णा को मारे बिना कोई सच्ची सफलता नहीं पा सकता । तृष्णा को अगर मार दिया जाय तो स्वर्ग की जरूरत न रहे और मोक्ष घट घट में विराजमान होजाय ।
मैं इस मोत को पाना चाहता हूँ, सिर्फ पाना ही नहीं चाहता, किन्तु मोक्ष का मार्ग जगत् को बताना चाहता हूँ और बताना ही नहीं चाहता, मोक्ष के मार्ग पर दुनिया को चलाना भी चाहता हूँ ।
साचा करता हूँ. सोच रहा हूँ यह सब कैसे हो ? इसके लिये मुझे कुछ करना है, कुछ क्या बहुत करना है. जीवन खपाना है । पच्चीस वर्षकी उम्र हो चुकी है, पिछले दिन इन्हीं विचारों में या भीतरी तैयारी में बीते हैं पर न जाने अभी कितने दिन और बीतेंगे । कुटुम्बियों के प्रति भी मेरा उत्तरदायित्व है उसे कैसे पूरा करूं, उनसे कैसे छी लुं, समझ में नहीं आता । अभी तक मेरे