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________________ [ १९७ लिये नाव नहीं चलाते, जीविका के लिये नाव चलाते हैं। उनकी अनुमति लिये विना उनकी नौका का उपयोग करने का मुझे क्या अधिकार था ? महावीर का अन्तस्तल मैं इन्हीं विचारों में लीन खड़ा था कि नानिकों के भीतर हलचल मची। एक सेनापति नासैनिकों को साथ लिये हुए घाट पर उतरा। उसके स्वागत के लिये नाविक लोग हाथ जोड़कर आगे बढ़े। पर सेनापति की दृष्टि अकस्मात् मुझ पर पड़ी। उसने तुरंत ही मुझे प्रणाम किया और कहा - प्रभु, आप किधर पधार रहे हैं ? आपने मुझे पहिचाना कि नहीं ? मैं निषेध सूचक मुद्रा में उसे देखता रहा । उसने कहा- प्रभु, मैं शंख गणराज का भानेज हूँ । झुस दिन मामाजी के साथ मैं भी आपकी वन्दना को आया था । बहुत श्रादमी होने से आपने मुझे पहिचान नहीं पाया । मेरा नाम चित्र है । मैं स्वीकारता के रूप में मुसकराया । उसने कहा- पर आप इस तरह गरम बालुका में क्यों खड़े हैं ? मैं कुछ कहूं इसके पहिले सबके सब नाविक मेरे पैरों पर गिर पड़े और दीनता से वोले- क्षमा कीजिये प्रभु, हम जानवरों ने आपको पहिचान नहीं पाया । चित्र ने पूछा- क्या बात है ? नाविकों के मुखिया ने हाथ जोड़कर कहा- हमें मालूम नहीं था इसलिये अन्य यात्रियों की तरह हमने प्रभु से भी तराई मांगी। चित्र ने भौंहे चढ़ाकर कहा- प्रभु को नग्न दिगम्बर देखकर भी तुमने उतराई मांगी ? और इसीलिये प्रभु को रोका ?
SR No.010410
Book TitleMahavira ka Antsthal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyabhakta Swami
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1943
Total Pages387
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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