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महावीर का अन्तस्त्ल
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१३ - भाई जी का अनुरोध
६ चन्नी ९४३० इ. सं.
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करीब दो सप्ताह तक घर में काफी भीड़ रही। जिन लोगों को पिता जी के स्वर्गवास के समाचार मिल थे वे सहानुभूति प्रगट करने आये पर बहुतों के आने के पहिले तो माताजी का भी देहान्त होगया इसलिये उन्हें कुछ दिन और रुकना पड़ा । हमारे दुहरे दुःख के कारण उनकी सहानुभूति भी दुहरी हुई ! चेटक राजा तो न जाने कितनी बार सहानुभूति प्रगट करते थे । वे बार बार गहरी सांस लेकर कहते थे त्रिशला मुझसे पहिले ही चली जायगी इसकी किसे आशा थी। वह सच्ची सती थी । सिद्धार्थ के पीछे ही चली गई। उन दोनों का प्रेम इन्द्र और शची से भी बढ़कर था ।
मेरे ऊपर तो अनका अटूट वात्सल्य मालूम होता था । अगर मैं जरा छोटा होता तो शायद वे मुझे गोद में ले लेकर धूपते । बार बार कहते - तुम्हारे चेहरे में मुझे त्रिशला का चेहरा दिखाई देता है । तुम्ही तो मेरे आश्वासन हो ।
उनकी सहानुभूति तथा अन्य ज्ञातृजनों के स्नेह के कारण मुझे एकान्त मिलना दुर्लभ हो गया था, फिर भी मुझे एकांत निकालना पड़ता था। खासकर देवी के लिये |
यद्यपि मामीजी देवी का बहुत दुलार करती थीं । फिर भी देवी की वेदना को वे न समझ सकती थीं । सास के मरने पर किसी बहू को जितना दुःख होसकता है उससे अधिक दुःख की कल्पना उन्हें नहीं थी उसी के अनुपात में वे सहानुभूति प्रगट करती थीं पर वाकी पूर्ति मुझे करना पड़ती थी । परिस्थिति ने शोक की मानों अदलाबदली कर दी थी । माताजी मरी थीं मेरी, देवा की तो सासूजी मरी थी, पर मुझे व्यवहार ऐसा