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महावीर का अन्तस्तल
इसके उत्तर में मेरी आंखो ने क्या कहा, वह माताजी तो क्या स्वयं मेरी समझ में भी नहीं आया । माताजी के अनुरोध का मेरे लिये मूल्य था, देवी के अधिकार का भी मेरे लिये मूल्य था, पर इस जगत के अधिकार का मूल्य ? शिवकेशिनियों के अधिकार का मूल्य ? तड़पते हुए लाखों पशुओं के आंसुओं का मूल्य ? उनकी चिल्लाहट का मूल्य ? अन्धविश्वास में फँसे हुए मानव जगत की मौन पुकार का मूल्य ? स्वर्ग की सामग्री से नरक का निर्माण करनेवाले मूद मानव-जगत को सुपथ में ले जाने के लिये सत्य की पुकार का मूल्य ? इन सब महामूल्यों का उत्तर मेरे पास कुछ न था। यही कारण है कि माताजी की दृष्टि से अपनी दृष्टि न मिला सका।
___ माताजी चली गई । वात्सल्य की सर्वश्रेष्ठ और सर्व. सुन्दर प्रतिमा टूट गई। मेरे विरागी हृदय में भी थोड़ी देर के लिये हाहाकार मचगया ।
आज दिन में कई बार भूला हूँ। वार बार पैर माताजी के कक्ष की ओर बढ़े हैं और फिर प्रयत्न पूर्वक याद करके चौकना पड़ा है-अरे! माताजी तो है ही नहीं, मैंने ही तो उनके शरीर का दाह संस्कार किया है।
जीवनकी आन्तरिक रचना भी कितनी जटिल है । भावनाओं के पूर में बुद्धि और विवेक के निर्णय तो बह ही जाते है, पर आंखों देखी बात के संस्कार भी कुछ समय को लुप्त होजाते हैं । यही कारण है कि मेरे पैरों ने मुझे कई बार धोखा दिया है और मेरी सूखी आंखें भी आज बरसातकी वापी. बनी हुई हैं।