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महावीर का अन्तस्तल
ज्ञाता हूँ।
क्षणभर को मेरे मन में यह विचार आया कि यह तो आत्मश्लाघा है, इसे तो पाप समझता हूं । पर दूसरे ही क्षण मुझे भान हुआ कि यह आत्मश्लाघा नहीं है किन्तु विश्व के कल्याण के लिये आवश्यक सत्य का प्रकटीकरपा है।
अगर कोई सद्वैद्य रोगी से यह कहे कि मैं तो कुछ नहीं जानता समझता, तो इससे वैद्य के विनय गुण का परिचय तो मिलेगा पर क्या इससे रोगी का भला होगा? वैद्य के विषय में रोगी को श्रद्धा न हो तो एक तो वह चिकित्सा ही न कराये और अगर कराये भी, तो उसे लाभ न हो । ऐसी अवस्था में वैद्य अगर इतनी आत्म प्रशंसा कर जाय जिससे रोगी की हानि न हो किन्तु लाभ ही हो, तो वह आत्म प्रशंसा क्षन्तव्य ही नहीं है बल्कि आवश्यक भी है। हां ! लोभवश रोगी को ठगने के लिये आत्म-प्रशंसा न करना चाहिये।
जन समाज के जीवन का जो मैं सुधार और विकास करना चाहता हूं, उसमें सहारे के तौर पर जो मैं दर्शन लोक परलोक आदि की बातें सुनाना चाहता हूं उसके पूर्ण ज्ञाता होने का विश्वास अगर मैं न दिला सकू तो लोग उस पथ पर कैसे चलेंगे? तब यह जगत् नग्क सा बना रहेगा इसलिये तर्थिकर सर्वज्ञ जिन अर्हत के रूप में मेरी प्रसिद्धि हो तो इसमें मैं बाधा न डालूंगा।
एक प्रकार से यह सब झुठ नहीं है। मैं जर तीर्थ की स्थापना कर रहा हूं तब तीर्थकर हूं ही। कल्याण मार्ग का मुझे अनुभव मूलक, स्पष्ट और पूर्ण ज्ञान है इसलिये सर्वज्ञ भी हूं। मन और इन्द्रियों को जीतने के कारण जिन भी है ही, और मेरी राह पर जब लोग चलते है और निस्वार्थभाव से जब मुझे पूज्य मानते है तब अर्हत भी हूं । इसलिये इस रूप में मेरी प्रसिद्धि होना हर