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महावीर का अन्तस्नल
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यह अवस्था और भी शुद्ध अवस्था होगी। पर सोचता हूँ कि यह अवस्था मरने के समय कुछ पलों को ही होसकती है उसके पहिल जीवन में नहीं । होना भी न चाहिये, क्योंकि अर्हत् की यदि मनवचन कार्य की प्रवृति बन्द होजाय तो वह बेकार होजाय उसका जीवन दस पांच पल से अधिक टिकता भी कठिन होजाय । इसलिये मैं आदर्श की दृष्टि से कुछ पलों के लिये मनचचन कार्य की प्रवृत्तियों से रहित अवस्था तो मान लेता हूं. पर मान लेता ई केवल मरते समय के लिये, कुछ पलों के लिये, बाकी जीवन भर तो अर्हत को काम करना है, जगत् का उद्धार करना है । वह अंतिम अवस्था चौदहवीं अवस्था-चौदहवां गुणस्थान होगा । उसे अयोग के कहना चाहिये ।
मैं समझता हूं कि इन चौदह गुणस्थानों की रचना करके मैंने जीवन विकास का एक अच्छा कम निश्चित कर लिया हैं । इसी क्रम विवास के आधार पर मुझे दुनिया का उद्धार करना है ६७ - केवलज्ञान
१६ बुधी ९४४४ इ. सं.
सामाजिक और धार्मिक क्रांतिकार को तेरहवे गुणस्थान में अवश्य होना चाहिये जब कि असमें पूर्ण संयम के साथ पूर्ण ज्ञान, जिसे मैं केवलज्ञान कहता हूं, होजाय । मैं अनुभव करता हूं कि मुझे वह केवलज्ञान होगया है । मुझे कर्तव्याकर्तव्य का हित अहित का प्रत्यक्ष दर्शन होरहा है। इसके लिये अब मुझे किसी शास्त्र की या आप्त की जरूरत नहीं है ।
यदि मैं दुनिया को एक नये सत्पथ पर चलाना चाहता हूं तो मुझे घोषित करना चाहिये कि मैं सर्वज्ञ अथात् स्वपर कल्याण के मार्ग का मैं पूर्ण ज्ञाता हूं; मैं आगे पीछे का, भूत 'विष्य का कार्य कारण भाव का प्रत्यक्षदर्शी अर्थात् स्पष्ट
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