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________________ महावीर की अन्तस्तल २९१ ] पोरंगल इन्द्र और जुसके कुटुम्बियों की अपेक्षा साधारण देवों की और दासदासी के समान देवों की संख्या बहुत अधिक हैं। मैं तब तो इसका मतलब यह हुआ परिवराजक, कि देवलोक में मुट्ठीभर देव ही सुखी है बाकी असंख्यगुणे देव तो उनके दास दासी के समान हैं, वे दीन हैं पराधीन हैं, उन्हें देवगति का सुख कितनासा ? जिस देवलोक में मुट्ठीभर देव सुखी हो और उनसे असंख्य गुणे देव दास दासी के समान दुःखी हों उस स्वर्ग को तुम अंतिम स्वर्ग कैसे कह सकते हो ? अंतिम स्वर्ग तो वहीं कहा जासकता है जहां सब देव सुखी हो । जब तुम्हें ऐसा देवलोक दिखाई ही नहीं देता जहां सब देव सुखी हो तब तुम कैसे कहते हो कि मुझे अंतिम देवलोक दिखाई देता है ? पोग्गल - आप ठीक कह रहे हैं भगवन, अब तो मुझे ऐसा. मालूम होता है कि मानों मेरा सारा ज्ञान लुप्त होरहा है, अब तो देवलोक और अंतिम देवलोक का वर्णन आप ही बताइये भगवन् । में- दो तरह के देवलोक हैं परिवराजक, एक कल्पोपपन्न दूसरे कल्पातीत | जहां इन्द्र हैं उनकी प्रजा हैं, दास दासी हैं वे कल्पोपपन्न हैं । वहां मध्यलोक की अपेक्षा कुछ अधिक सुख तो है फिर भी बहुत कम है। क्योंकि परिग्रह की विशालता होने से एक के पीछे बहुत से देवों को दुखी होना पड़ता है । पर ज्यों ज्यों ऊंचे ऊंचे देवलोकों में जाते हैं त्यो त्यो परिग्रह कम होता जाता है इसलिये दूसरे दुखी देवों की संख्या भी घटती जाती है इसप्रकार वारहवें अच्युत देवलोक में नीचे के सब देवलोकों की अपेक्षा अधिक सुख है । इसके बाद ऐसे देवलोक आते हैं जहां सर्व देव समान सुखी हैं। वहां दास दासी आदि कुछ नहीं । न यहां कोई सब का इन्द्र है न कोई किसी इन्द्र की "
SR No.010410
Book TitleMahavira ka Antsthal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyabhakta Swami
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1943
Total Pages387
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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