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महावीर का अन्तरतल
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मैंने कहा- पर जब तक दृसका दुख अपना दुग्व न बनजायगा तब तक हम उसे दूर करने का गहरा प्रयत्न कसे कर सकते हैं ? दूसरों के दुख में हम जितने अधिक दुखी होंगे परो. पकार क लिये उतना ही अधिक हमारा प्रयत्न होगा। गहरी वेचनी के विना प्रयत्न भी गहग नहीं हो सकता । सुदर्शना के कष्ट को दूर करने के लिये तुम जितना प्रयत्न कर सकती हो क्या उतना ही प्रयत्न किसी दूसरी लड़की के लिये कर सकती हो ? . देवी क्षणभर रुकी फिर बोलीं-नहीं कर सकती।
में- इसका कारण यही तो हैं कि सुदर्शना के कष्ट में जितनी वचैनी तुम्हें हो सकती है उतनी दूसरे के कष्ट में नहीं। देवी-आप ठीक कहते हैं।
. फिर मैने चेहरे पर जरा सुसकराहट लाते हुए कहाअब तो तुम मेरी वेचैनी का कारण समझ गई होगी।
शिष्टतावश देवी ने भी मुसकरा दिया पर मुझे यह समझने में देर न लगी कि मुसंकगहट के रंग के नीचे चिन्ता का रंग था जो कि मुसकराहट के रंग से गहरा था। कुछ देर चिंता करके देवी ने कहा-आपका कहना ठीक है फिर भी मनुष्य अधिक से अधिक आत्मकल्याण ही कर सकता है, जगत को सुधारने की चिन्ता करके भी क्या होगा? जग तो अपार है हम असकी चिन्ता करके भी पार नहीं पासकते । फिर अपना ही कल्याण क्यों न करें ?
देवी की यह तार्किकता देखकर मुझे आश्चर्य न हुआ। बात यह है कि देवी ने भांप लिया है कि मेरा पथ सर्वस्व के त्याग का है और इससे बचने के लिये वे अपनी सारी शक्ति लगाती है, वुद्धि पर भी जोर डालती हैं इसीलिये वे ऐसी युक्ति देसी । पर मैंने अपने पक्ष - समर्थन के लिये कहा