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महावीर का अन्तस्तल
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प्रारम्भ में थोड़ी वर्षा हुई थी पर इधर वर्षा न होने में गर्मी बहुत बहुत पड़ने लगी है और जमीन में घास भी नहीं दिखाई देती है इसलिये गाया ने झोपड़ियों का सूखा घास चरना ही शुरु कर दिया। दूसरे तापलों ने तो गायों को हकालदिया इम लिये उनकी झोपड़ियाँ वचगई पर मेरी झोपड़ी चरली । मैं अपने विचारों में इतना मग्न था कि मुझे पता ही न लगा कि झोपड़ी गायों ने चरली है। उसका छप्पर वर्षाऋतु के लिये उपयुक्त नहीं रहगया है।
मैंने सोचा तो यही था. कि इस टूटे छप्पर के नीचे ही वर्षाकाल निकाल दूंगा। मैं ठण्ड गरमी के समान वर्षा के कष्ट सहने में भी अपने को निष्णात बना लेना चाहता हूँ। पर बात कुछ दूमरी ही होगई। वाहर कुलपति की शिष्य मण्डली मेरे विषय में जो चर्चा कर रही थी वह सुनकर मैं चौंका. वे लोग जानबूझकर इतने जोर से बोल रहे थे कि मैं सुनलूं।
एक वोला-वस ! अब आश्रमम एक ही मुनिराज आये हैं जिनने सब आश्रमवासियों को अपना दास समझ रखा है।
. दुसरा हँसते हुए बोला-भाई वे मुनिराज दीर्घ तपस्वी हैं, इतने कि उनके तपस्तेज से गांयें भी नहीं डरती और उनकी झोपड़ी चर जाती हैं।
तीसरा वोला-चर न जायँ झोपड़ी, दीर्घ तपस्वी जी को क्या पर्वाह, हम लांग दास जो विद्यमान हैं, बार वार वनादिया करेंगे, आखिर वे कुलपति जी के लाइले जो कहलाये।
चौथे को यह व्यंग्यविनोद अपर्याप्त मालूम हुआ, उसने तर्जनीभाषा में कहा-होगा कुलपति का लाड़ला, इससे क्या हमारे सिर पर सवार होगा। हम कुलपति जी से स्पष्ट कह देते हैं कि ऐसे भोंदू मुनिको यहां रखने से क्या लाभ ? वह मुनि है तो क्या हम लोग मुनि नहीं हैं ?