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महावी. का अन्तम्नल
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महाराय जी डाल तो ऐसा करते हैं मानो आप तीर्थकर बनने वाले हो।
अरे गाय तो सम्हलती नहीं तीर्थ क्या सम्हलेगा और क्या रनेगा?
__ वह तीर्थकर बने चाहे भगवान, अपनी दम पर बने । हमारे ऊपर सवार होकर नहीं।
___ इस प्रकार पर्याप्त आलोचना होने के बाद वे लोग कुलपति के पास गये । योड़ी देर में कुलपति आगये । बोले
वल, यह क्या बात है ? तुमसे झोपड़ी की भी रक्षा न हुई ? तुम्हारे पिता ना चारों आश्रमों की रक्षा करते थ । दुष्टों को दंड देना और अनधिकार चेष्टा रोकना ता तुम्हारा व्रत होना चाहिये । तुम्हारे पिता की मित्रता के नाते मैं विशेप कुछ नहीं कहता पर आने से ऐसा प्रमाद न होना चाहिये। - कुलपति ने जो कहा ठीक ही कहा । आश्रमकी व्यवस्था की दृष्टि से उन्हें ऐसा ही कहना चाहिये था । फिर भी मैं यह सोचता है कि यहां रहने से न में इन्हें कुछ दे सकृंगा, न मैं इनसे कुछ लेसबुंगा । मेरे जीवन का ध्येय, मेरी महत्ता ये समझ नहीं सकते । मेरे तीर्थकरत्व का ये मजाक उड़ाते हैं। ये नहीं जानते कि इसीके लिये तो में अहर्निश तैयारी करता रहता हूँ, तपस्या . करता रहता हूँ, अनुभव बटोरता रहता हूँ, वितर्क और विचार में लीन रहता हूँ । गायों की रखवारी करने की मुझे फुरसत कहां है ?
पहिले मैं सोचता था कि कुलपति पूर्वपरिचित होने से सहायक होगा पर अब यह सोचता हूँ कि पूर्वपरिचित जन ही विकास में सब से बड़ी बाधा है । यह ठीक ही है | अपने साथी या परिचित को आगे बढ़ते देखकर पीछे रह जाने का अपमान सहने को कौन तैयार होगा ? उनकी तो चेष्टा ही यही होगी कि