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महावीर का अन्तस्तल .
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देवी सिर झुकाकर बैठी रहीं। उनकी आंखों में आंसू भर आये और क्षणभर वाद उनने मेरे पैरो पर सिर रखदिया और रोती रोती बोली क्षमा कीजिये देव, में बहुत स्वार्थिनी हूँ. मैंने अपने सुख के लिये जगत के सुखका बलिदान किया है, अपने आंसू बचाने के लिये लाखों प्राणियों के आंसुओं की वैतरणी बनने दी है. अपने आंसुओं की ओट में जगत के आंसू देखने से बचती रही हूँ:। पर अब मैं यह पाप न करूंगी। आयके मागे में बाधान डालेंगी। .. लौकान्तिक धन्य हे माई ! धन्य है !! . इसके बाद लोंकान्तिक चले गये और जाते जाते कह. गये-अब हम जगत का कहेंगे-शान्त हो रे जगत्, धीरज रख रे जगत्, तेरे उद्धार के लिये नया सृष्टा आरहा है, नया तीर्थंकर आरहा है।
. उनके जाने पर मैंने देवी के सिर पर हाथ रक्खा ! अपनी दृष्टि से ही कृतज्ञता प्रगट की । वे अपने उमड़ते हुए आंसुओं को रोक रही थीं। ....
१७-निष्क्रमण : ५ सत्येशा ९४३२ इतिहास संवत् । . . . . कल सन्ध्या को ही मैंने भाई साहब से निष्क्रमण के निश्चय की बात कह दी । और आज तीसरे पहर गृहत्याग करने का कार्यक्रम सूचित कर दिया। इससे एक तहलका मा मचगया। दौड़ी दौड़ी भाभी जी आगई, दासियाँ भी आगई । सब ने मुझे घेर लिया। पर ठिठकीसी रह गई। थोड़ी देर बाद भाभी ने मेरे कंधे पर हाथ रखते हुए कहा-माताजी के लिये तुम कई वर्ष रुके देवर, अपने भैया के लिये भी एक वर्ष रुके, अब क्या अपनी भाभी के लिये छः मास भी नहीं रुक सकते ? क्या भामी का इतना भी अधिकार नहीं ?