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महावीर का अन्तस्तल
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क्षण भर
था कि मैं इतना वीतराग होने पर भी लोग आक्रमण क्यों करने लगते हैं। मेरी अहिंसा का कोई भी प्रभाव उनपर क्यों नहीं पड़ता? क्या मेरी अहिंसा मिथ्या है ? या अहिंसा का सिद्धान्त अकिञ्चित्कर है।
क्षण भर को ही मेरे मन में यह विचार याया और दूसरे ही क्षण समाधान होगया कि-निमित्त कितना भी बलवान हो किन्तु जब तक उपादान में योग्यता न हो तब तक निमित्त कुछ नहीं कर सकता । यही कारण है कि परम आहिंसक के भी शत्रु निकल आते हैं, और स्वार्थवश भ्रमवश वे उन्हें सताते हैं । निमित्त व्यर्थ नहीं है पर वही सब कुछ नहीं है । निमित्त का एकान्त या अपादान का एकान्त, दोनों मिथ्या हैं ।
६३ - दासता विरोधी अभिग्रह १ सत्येशा ९४४३ इ. सं.
जब मैं कौशाम्बी नगरी की ओर आरहा था तब मेरे आगे आगे जो पथिक समूह था उसकी बातें मैंने बड़े ध्यान से सुनी। उससे पता लगा कि यहां के शतानिक गजा ने विजयादशमी के दिन सीमोल्लंघन का उत्सव चम्पा नगरी पर आक्रमण करके मनाया । चम्पा नगरी का दधिवाहन राजा डर के कारण भाग गया । शतानिक ने सेना को आज्ञा दे दी कि जिससे जो लूटते बने वह लूटलो! इस प्रकार सारा नगर.लुट गया। दधिवाहन राजा की रानी और पुत्री भी लुट गई। लुटेरे ने रानी को पत्नी बनाना चाहा, पर यह बात सुनते ही रानी को इतना दुःख हुआ कि वह मानसिक आघात से मर गई। उसकी लड़की वसुमती को लुटेरों ने कौशाम्बी में बेच दिया है । और भी सैकड़ों सुन्दरियाँ वेचकर दासी बना दी गई हैं।