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महावीर का अन्तस्तल
रोते ही लगा, विलाप करने लगा-" में बड़ा अभागी हूँ, आज मेरे द्वार से महाश्रमण भूखे लोट जाने वाले हैं। धिक्कार ह मरी इस सम्पत्ति को ! जिससे महाश्रमण का आहार भी नहीं होसकता; धिकार है मुझे ! जो घर आये हुए महाश्रण को भोजन भी नहीं दे सकता। मेरे जन्मसे क्या लाभ? मैं पैदा होते ही क्यों न मरगय। !'' इस के बाद वह हिलक हिलक कर रोने लगा । उसके बच्चे भी रोने लगे, और पत्नी भी रोने लगी मुझे ऐसा मालूम हुआ मानों में रुदन के समुद्र में डूब जाउँगा ।
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मैंने इस रुदन समुद्र में तैरने के लिये हाथ चलाने के समान हाथ उठाकर धीरज रखने का संकेत किया। और जब वे सब के सब मेरी ओर उत्सुकता से देखने लगे तंत्र मैने कहातुम लोग दुःखी न होओ ! मैं तुम्हारे यहां से निराहार नं जाऊंगा। यह ठीक है कि इन थालों में रक्खा हुआ भोजन मैं नहीं सकता, और अपने लिये नया भोजन भी तैयार नहीं करा सकता, पर गुड़ लेकर पानी पलिकता हूँ, दूध हो तो दूध भी लेंसकता हूँ ।
नागसेन की पत्नी बोली- तो दूध लें देवार्य, मलाई लै देवार्य, हमें भाग्यवान बनायें दवार्य ।
मैने कहा - मलाई रहने दे बाई, दूध ही ले आ । इन्द्रियों की पूजा नहीं करना है शरीर को ईंधन देना हैं ।
अन्त में मैंने दूध लिया | दूध इतना स्वादिष्ट और गाढ़ा था कि उसे शरीर का ईधन ही नहीं कहा जासकता, इन्द्रियों की पूजा सामग्री भी कहा जासकता है । पर मैंने इन्द्रियों की पूजा नहीं की, ईधन समान समझकर ही उसे लिया।
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मरे भोजन लेलेने से उन सब को बड़ा सन्तोष हुआ । अतिथि गण भी धन्य धन्य कहने लगे । कोई कोई 'अहोदान अहोarr' बोलने लगे । नागसेन तो प्रसन्न होकर कहने लगा- आज मेरे घर में जैसी वसुधारा हुई वैसी कभी नहीं हुई, कभी नहीं हुई ।