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-: महावीरावतार :
यद्यपि न किसी को ज्ञात रहा तू कब कैसे प्राजावेगा । अन्धी आँखों के लिये सत्यका पदरज अञ्जन लावेगा ॥ अज्ञानतिमिरको दूर हटाकर नवप्रकाश फैलावेगा ।
रोते लोगों के अश्रु पोंछ गोदीमें उन्हें उठावेगा ॥ १ ॥ तो भी अपना अञ्चल पसार अवलाएँ ऊची दृष्टि किये। करती थीं तेरा ही स्वागत अञ्चल में स्वागत-पुष्प लिये ॥ अधिकार छिने थे सव उनके उनको कोई न सहारा था।
था ज्ञात न तेरा नाम मगर तू उनका नयन-सितारा था । पशुओं के मुखसे दर्दनाक आवाज़ सदैव निकलती थी। उनकी श्राहांसे जगत् व्याप्त था और हवा भी जलती थी ॥ भगवती अहिंसा के विद्रोही धर्मात्मा कहलाते थे ।
भगवान सत्यके परम उपासक पदपद ठोकर खाते थे । पशुओं का रोना सुनकरके पत्थर भी कुछ रो देता था। पर पढ़े लिखे कातिल मूल्का वज्र हृदय रस लेता था।
था उनका मन मरुभूमि जहाँ करुणारस का था नाम नहीं । __
थे तो मनुष्य पर मनुष्यता से था उनको कुछ काम नहीं ॥ शूद्रोंको पूछे कौन जाति-मद में ड्वे थे लोग जहाँ।
वे प्राणी हैं कि नहीं इसमें भी होता था सन्देह वहाँ ॥ . उनकी मजाल थी क्या कि कानमें ज्ञानमन्त्र पाने पावें ।
यदि आवे तो शीशा पिघलाकर कानोंमें डाला जावे ॥ था कर्मकांडका जाल बिछा पड़ गये लोग थे बंधन में।
था आडम्वरका राज्य सत्यका पता न था कुछ जीवन में। .. ले लिये गये थे प्राण धर्म के थी बस मुर्दे की अर्चा ।
सद्धर्म नामपर होती थी वस' अत्याचारों की चर्चा ॥