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महावीर का अन्तस्त्रल
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. महाग्द्र गांव के बाहर ठहरा हुआ था कि रात्रिके पहिले पहर में वहां एक सार्थ आकर ठहरगया, पिछले पहर ठंड आधिक पड़ने से अन लोगों ने ज ह जगह आग जलाई । और सुर्योदय के पहिले ही आग को जलती छोड़कर चल दिये। मैदान में घास सर जगह था और वह सूत्र गया था इसलिये उप्लके सहारे आग फैलने लगी। जगह जगह आग जलाई गई थी इस. लिय फैलते फैलते वह मेरे चारों तरफ फैल गई । गोशाल चिल्लाया और भाग जाने की प्रेरणा की, पर एक तो ऐसे साधा. ग्ण से संकट से डर कर भागना ठीक नहीं मालूम हुआ, दूसरे भागने का गस्ता बन्द ही होगया था क्योंकि मेरे चारों तरफ आग फेलगई थी, तीसरे जहां मैं खड़ा था उसके चारों तरफ हाथ हाथ तक घाल नहीं था और फिर मैं नग्न था, कपड़ा होता तो आग कपड़े को पकड़कर सुझे सिर तक जला सकती थी, इन सब बातों से में स्थिर रहा । यों भी मृत्युंजय वनने के लिये मेरा दृढ़ रहना ही ठीक था। आग मेरे पास तक आई, ज्वालाओं की
उष्णता मे मेरे पैरों में वेदना हुई पर मैंने उपेक्षा ही की । थोड़ी . देर में आने शान्त होगई। पर मैं इस बात का विचार करने
लगा कि मनुष्य अपनी लापर्वाही से दूसरों का कितना नुकसान कर जाता है । प्रत्येक पथिक का यह उत्तरदायित्व है कि जहां से जाय वहां कोई ऐसा कार्य न कर जाय जिससे पीछे रहने या पीछे आनेवालों को कष्ट हो । देखकर उठाना. देखकर रजा देखकर मल सुत्र निक्षेपण करना आदि प्रत्येक पथिक या प्रत्येक व्यक्ति का आवश्यक और प्रथम कर्तव्य होना चाहिये में अपनी साधु संस्था में इस विषय के नियम अनिवार्य कर दूंगा।