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महावीर का अन्तस्तल.
सकती और सब रहें तो प्रेम आदर स्नेह नहीं रह सकता। वियोग ही स्नेह का सब से बड़ा उद्दीपकं है। यह सब जानते हुए भी पिताजी के वियोग से मैं विषण्ण होगया । पता नहीं मेरी विषण्णता कितनी गहरी और स्थायी होती किन्तु माता जी की विह्वलता ने मेरी विषण्णता को भुलादिया। मुझे और सब कुटु- . स्त्रियों को पिताजी के वियोग का विषाद भूलकर माता जी को । सम्हालने में लगजाना पड़ा। सब लोग तो रोरहे थे पर माता जी की आंखों से न ता आंसू की बूंद निकलती थी न कोई चिल्लाहट, वे कुछ विक्षिप्त सी दिखाई दी और फिर मूञ्छित होगई। पिता जी के मृत शरीर को अन्तिम संस्कार के लिये लेजाते समय माता जी को सम्हालना बड़ा मुश्किल होगया था। .. .. यह संसार का नाटक कितना गहरा है । खिलाड़ी भूलजाता है कि यह नाटक है । मृत्युपर्यन्त उसकी इस भूल में सुधार नहीं होता।
१२- मातृवियोग,. . . . . १७ चिंगा ४६३० इतिहास संवन् ।
सब लोग पिताजी के वियोग के शोक में डूवे थे फिर भी साधारण रिवाज से अधिक शोक प्रदर्शन का कोई काम न कर सके । बल्कि हम सब के शोक की जगह तो माता जी की चिन्ता ने लेलो , सब का शोक घनीभूत होकर माता जी के हृदय में जा बैठा । पिता जी के वियोग के वाद वे रुग्ण शय्या पर ही रहीं, वह रुग्ण शय्या भी आखिर मृत्युशय्या ही सिद्ध हुई। आज सवेरे. सूर्योदय के पहिले उनका देहान्त होगया। . इन बारह तेरह दिनों में देवी ने जो माता जी की सेवा की वह असाधारण थी। माता जी ने पिता जी की जो असाधारण सेवा की थी देवी ने माता जी की सेवा करने में उससे भी