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________________ २६२ ] पुण्य पाप कैसे माना जाय ? मैं- देखो अचलभ्राता, जब कोई वस्तु खाई जाती है तव उसका अच्छा या बुरा परिणाम तुरंत नहीं होता, कुछ समय वाद और कभी कभी वर्षो वाद होता है, यही अवस्था पुण्यपाप की हैं । इस समय जो पुण्य किया जाता है उसका परिणाम समय पाकर होगा; किन्तु पहिले जो पाप किया गया है उसका परिणाम अभी भोगना पड़ता है । यह पुराने पाप का परिणाम वर्तमान पुण्य का नहीं । पहिले अपथ्य से पैदा होनेवाली बीमारी लंघन करने पर भी धीरे धीरे जाती है, अर्थात् लंघन करते समय भी कुछ दिनों तक बनी रहती है तो इसका मतलब यह नहीं कि वह बीमारी लंबन से पैदा होरही है। पुण्य-पाप के फेल में कभी कम और कभी ज्यादा जो काल का अन्तर पड़ता है उसमें पुण्यपाप फल के विषय में संशय न करना चाहिये । महावीर का अन्तस्तल अचलभ्राता- अब मैं समझ गया प्रभु ! अब आप मुझे भी अपना शिष्य समझें । इसके बाद मेतार्य ने कहा- मुझे पुण्यपाप के फल में सन्देह नहीं है पर पुण्यपाप का निर्णय कैसे किया जाय ? एक समय में जो काम अच्छा है दूसरे समय में बही बुरा होजाता है-तन अच्छा क्या और बुरा क्या ? मैं किसी कार्य को सदा के लिये अच्छा या बुरा, पुण्य या पाप नहीं कहते मेतार्य, द्रव्य क्षेत्र काल-भाव का विचार करके जो कार्य अच्छा हो, सबको सुखप्रद हो वह पुण्य और जो सबको दुखप्रद हो वह पाप | रूढ़ि से इस बात का निर्णय नहीं किया जा सकता। हो सकता है कि एक को एक समय जो पुण्य हो दूसरे को अल समय या दूसरे समय वही कार्य पाप होजाय । इससे यह न सममता कि पुण्य पाप अनिश्चित हैं । नहीं, वे
SR No.010410
Book TitleMahavira ka Antsthal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyabhakta Swami
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1943
Total Pages387
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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