SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 255
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अन्तस्तल [२२५ जिसका त्यागकर वह त्यागी-तपस्वी बना है। इससे वैभव विलास मिल सकता है, पर यह देवी वृत्ति नहीं आसुरी वृत्ति है। ऐसे लोग देवराज का पद नहीं पासकत, मोक्ष नहीं पासकते, कदाचित् असुरराज ही बन सकते हैं । में अपने त्याग-तप को आत्मशुद्धि का, मोक्ष का और जगत के उद्धार का अंग बनाना चाहता हूं । मुझे तो देवराज का पद भी इसके आगे तुच्छ मालूम होता है । मैं ऐसा जगत बनाना चाहता है जिसमें देवराज और असुरराज सब सच्चे त्यागी तपस्वियों के आगे नतमस्तक रहें, भक्तिभय से ओतप्रोत रहें, और त्यागी के आगे शक्ति वैभव अधिकार के प्रदर्शन करने का साहस न कर सके, बलिक स्थायीरूप में शान्ति की ओर झुकें । १८ चिंगा ९४४२, इ. सं. आज मैं शौच के लिये ईशान कोण की ओर गया था। लौटते समय मैंने देखा कि एक वट वृक्ष के नीचे एक तापस लेटा हुआ है और चार पांच ग्रामीण उसके आसपास बैठे हुए है। मेरे कानों में आवाज आई कि अब महाराज एक दो दिन से अधिक जीवित नहीं रह सकते । कोई अन्यसाधारण घटना समझकर मैं झुल ओर मुड़ा । मुझे आया हुआ देखकर ग्रामीण एक और हट गये । तापस का शरीर अस्थि पंजरला रहगया था । कुछ सोच समझकर में झुलके पास वैउगया । और पृछाक्या आपने आजीवन अनशन लिया है' तपस्वी बहुत निर्बल होगया था। ध्वनि झुलकी बहुत . धीमी होगई थी। इसलिये सिर हिलाकर उसने तुरंत स्वीकृति दी, फिर कुछ देर में शक्तिसंचयं करके उसने मुँह से भी 'हां' कहा। उसकी निर्वलता देकर मेरी इच्छा बात करने की नहीं
SR No.010410
Book TitleMahavira ka Antsthal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyabhakta Swami
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1943
Total Pages387
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy