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महावीर का अन्तस्तल
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तुम्हारी साधना में बाधा नहीं डालना चाहता । आज से जब तक मैं गृहस्थाश्रम में हूँ तव तक कायोत्सर्ग ध्यान आदि तक ही मेरा अभ्यास सीमित रहेगा। .. मेरी इस सहज स्वीकृति से देवी अप्रतिम सी होगई । यद्यपि उनने सन्तोष व्यक्त किया किंतु भीतरी आत्मग्लानि के चिन्ह मुखमण्डल पर मलके विना न रहे । जिसे वे अपना सहज अधिकार समझती हैं वह चीज भी उन्हें मांगने से मिली, आंसू बहाने से मिली, इसकी वेदना भी उन्हें होने लगी।
और शायद उन्हें इस बातकी भी लज्जा आने लगी होगी कि प्रियदर्शना की आट में उनने आत्मरक्षा की है। यद्यपि में जानता हूँ कि यह बात नहीं है।
फिर भा जीवन के विषयमें मेरे सटिकोण और देवी के दृष्टिकोण में बहुत अन्तर है। उनकी सहज रुचि यह है कि जीवन के भौतिक आनन्द भोगते हुए, भोजन में चटनी की तरह बीच बीचमें कुछ परोपकार भी कर दिया जाय, इससे भी कुछ आनन्द ही बढ़ेगा। धर्म अर्थ काम इन तीन तक ही उनकी रुचि है,मोक्ष को या तो वे समझती ही नहीं या निकम्मा समझती हैं । परिणाम यह होता है कि जगत के प्रतिकूल होनेपर उनके हृदयमें हाहाकार मच जाता है। जब कि मेरी रुचि यह है कि जगत अनुकूल हो या प्रतिकूल, अपना सुख अपनी मुट्ठी में रहना चाहिये । प्रतिकूल से प्रतिकूल पारीस्थति की भी हमें पर्वाह न करना चाहिये ।
अस्तु, जब तक गृहस्थाश्रम में हूँ तब तक वहां की मर्यादा का ख्याल रखना भी जरूरी है। वह युग अभी दूर है, अतिदर है, जव गृहस्थाश्रम में भी मोक्ष के दर्शन होने लगेंगे। उस युग के लाने की मैं चेष्टा करूँगा, इस तरह के चित्र भी खीचूंगा, जिससे इस सत्य को लोग समझे, पर अभी तो वह दुर्लभ है। और मेरी साधना तो उस रूप में हो ही नहीं सकती। मुझे तो अपना