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महावीर का अन्तस्तल
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जांघों पर आगया।
मैंने पीठ पर हाथ फेरते हुए कहा-तुम्हाग मतलब समझता हूँ दो ! पर पहिले शास्त्रीय प्रश्न का शास्त्रीय उत्तर हो देता हूँ।
कार्यकारण की परम्परा की नृष्टि है और हरएक कार्य के लिये निमित्त और उपादान दो कारणों की जनरत है । अगर दो में से एक भी कम होजाय तो कार्य न हो । सुपि रुकजाय अर्थात् नष्ट होजाय । प्राणि सृष्टि में नारी उपादान है. पुन्य निमित्त । तब दो में से एक के बिना कैसे काम चलता?
यह तो हुई तत्वज्ञान की बात और हुई वृष्टि की अनिवायंता । पर सृष्टि के सौन्दर्य और रस की दृष्टि से भी नग्नारी
आवश्यक है, यह बात कहने की तो जरूरत भी नहीं मालम हानी। . मेरी बात सुनकर देवी चुप रहो । इसलिये नहीं कि मेरी बात से उन्हें सन्ताप होगया किन्तु सिर्फ इसलिये कि अधिक उत्तर प्रत्युत्तर करने से कहीं मेरा अविनय न होजाय । किन्तु मैं उनके मन की बात समझता था, इसलिये उन्हें बोलने के संकोच में न डालकर मैंने कहा
अब तुम कहोगी कि यदि ऐसा है तो कुछ लोग संसार के इस सौन्दर्य को नष्ट करने की या रसं को सुखाने की बात क्यों करते हैं ? वे क्यों दुनिया से भागकर निमित्त उपादान का सहयोग तोड़ते हैं ? यही है न तुम्हारे मनकी बात?
देवी ने सिर उठाया और करुणा मिश्रित मुसकुराहट के साथ सिर हिलाकर स्वीकारता प्रगट की।
मैंने कहा-यही मैं तुम्हें समझाना चाहता है। आज संसार का यह रस लुट चुका है, सौन्दर्य नष्ट होचुका है । ग्ल . और सौन्दर्य का पौधा उगे और फूले फले, इसके लिय मुझे