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महावीर का अतस्तल
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यकीय पड़ा थाहा चुका
. २१ मुंका ९४२७ ई. सं. आज चित्त बड़ा खिन्न है । घूमता हुआ आज गोवर गांव की तरफ चला गया था। मालूम हुआ कि वहां यज्ञ हो चुका है। चारों तरफ हड़ियां और मांस विखरा पड़ा था । यज्ञ में हजारों जानवर मारे गये थे। मनुष्य की यह कैसी निर्दयता है। बेचारे निरपराध पशुओं की वह हत्या करता है और सिर्फ स्वाद के लिये हत्या करता है, अन्यथा देश में अनाज की कमी नहीं है अब तो कृषि कार्य इतना बढ़ गया है कि अनाज की कमी पड़ ही नहीं सकती.फिर भी मनुष्य जीभ के लिये ऐसी इत्याएँ करता है । और इससे बड़े दुःख की बात यह है कि वह इन हत्याओं को पाप नहीं समझता, इन्हें धर्म का रूप देता है, कै.सा भयंकर दम्भ है ! कितना विशाल मिथ्यात्व है ! सोचता हूँ असंयम की अपेक्षा भी मिथ्यात्व धर्म का बड़ा दुश्मन है। असंयमी का असंयम छिपने के लिये ओट नहीं पाता पर मिथ्यात्वी का असंयम छिपने के लिये धर्म क भी नाम की ओट पाजाता है। इसलिये उसे हटाना असम्भव होजाता है। . .
मैंने उनमें से एक आदमी से पूछा-तुम लोग धर्म के .. नाम पर ऐसे मूक प्राणियों की हत्या क्यों करते हो? तुम्हें अपनी इस निर्दयता पर लज्जा नहीं आती ? पर उसने काफी निर्लज्जता से कहा-इसमें निर्दयता क्या है ? हम तो एक तरह से दया करके ही पशुओं का यज्ञ में वलिदान करते हैं । बलि. दान से वे पशुयोनि से छूट जाते हैं और स्वर्ग चले जाते हैं। यहां वे घास खाते है वहां अमृत पीते हैं, यज्ञ में, मरने के सिवाय और उनका कल्याण क्या होसकता है ?
. उसकी इस दम्भपूर्ण निर्लज्जता या क्रूरता पर और ईन सब पापों पर आवरण डालनेवाले महापाप मिथ्यात्व पर मुझे