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महावीर का अन्तस्तल
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तो डर के मारे छिपगये और यह गर्जन करता हुआ इन्द्र के
सामने पहुँचा और बोला-रे देवेन्द्र मेरे रहते तुझे इस इन्द्रासन 2 पर बैठने का क्या अधिकार है ? तृ थासन छोड़दे अन्यथा मैं तुझे नीचे गिरा दूंगा।
. इन्द्र कुछ तो चाकेत हुआ, कुछ क्रुद्ध हुआ, उसने तुरंत असुरेन्द्र के ऊपर अपना वडर छोड़ा । हजारों विजलियों से भी अधिक तेजस्वी उस वर को देखकर असुरेन्द्र घबराया और उसे देखते ही भागा। सब देव असकी हँसी उड़ाने लगे। पर जब इन्द्र को मालूम हुआ कि असुरराज मेरी तरफ भाग रहा है तब वह घबराया । और वज्र को पकड़ने के लिये वह भी पीछे पीछे दौड़ा । अन्त में असुरराज अपना छोटा रूप बनाकर मेरे पैरों के बीच में आवठा, वजर थोड़ी दूर पर. आपाया था कि इन्द्र ने उसे पकड़ लिया । इन्द्र ने मुझे नमस्कार किया और कहा-प्रमु, धृष्ठता क्षमा करें ! मुझे पता नहीं था कि वह आपका भक्त है। अब में इसे क्षमा करता हूं। यह कहकर इन्द्र चला गया : जाते जाते उसने मुझे बार बार प्रणाम किया।
इसके बाद मेरी नींद खुलगई ।
स्वप्न पर मुझे कुछ आश्चर्य नहीं हुआ। दो दिन से जैसे विचार मेरे मन में चक्कर लगा रहे हैं उसके अनुसार ऐसे स्वप्न थाना स्वाभाविक हैं । लोक प्रचलित सुरासुर विरोध की कथाओं के संस्कार भी इसमें कारण है।
मुझे इस सुरासुर विरोध से कोई मतलब नहीं, पर मैं यह अवश्य चाहता हूँ कि संसार में शक्ति वैभव और आधिकार से अधिक तप त्याग सेवा और ज्ञान का प्रभाव हो । वे देवेन्द्र हो या असुरेन्द्र, दोनों ही सच्चे तपस्वीयों के वश में रहें । अर्थात् तामसी और राजसी शाक्तियाँ सात्विकी शक्तियों के आगे झुकी रहें।