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महावीर का अन्तरतल
तैयारी करना है कि जिससे कोई मनुष्याकार जन्तु मनुष्यता का अपमान न कर सके ।
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ओह ! शिवकेशी के ये शब्द मुझे अभी तक चुभ रहे हैं कि " दया करके मुझे मनुष्य न समझिये मुझे पशु समझिये । उसके घाव देखने के लिये जब मैंने उसके शरीर को हाथ लगाया तब उसने कहा कि मुझे न छूइये ! मैं चांडाल हूँ। तब मैंने कहा- आखिर मनुष्य तो हो ?
उसने कहा- " मुझपर दया कीजिये ! मुझे मनुष्य न समझिये ! में मनुष्य नहीं कहलाना चाहता । अगर पशु होता तो कान में वेद जाने से न मेरा सिर फोड़ा जाता, न में अछूत कहलाता। कोई जानवर अछूत नहीं कहलाता, सिर्फ मनुष्य. हा अछूत कहलाता है " कितने मर्म की बात कही है उसने, सचमुच मनुष्य मनुष्य से घृणा करके कितना अधम होगया है !
कुछ
वैदिक धर्म इतना विकृत होगया है कि उसे अब धर्म ही नहीं कहा जासकता । उसने मनुष्य की मनुष्यता छीनली है, को उसने पशु और कुछ को उसने नारकी बना दिया है । शिवकेशी की चिकित्सा करने के लिये जब मैंने वैद्यको बुलाया तव वैद्यने घाव देखने के लिये उसे छूना स्वीकार न किया । दूर से दवा बताकर चलागया । मेरा पद व्यक्तित्व आदि भी उससे यह काम न करासका मेरे पद व्यक्तित्व आदि से भी बढ़कर उसके पास शक्ति थी लोकमत की । किसी ने वैद्यकी लापर्वाही को अनुचित न समझा ।
मैंने जब भाई नन्दिवर्धन से इसका जिक्र किया तो उनने भी कहा- वह चांडाल को कैसे छूता ?
तात्पर्य यह कि पाप आज मनुष्य समाज का सहज स्वभाव वन गया है शासक-शक्ति इसका कुछ बिगाड़ नहीं कर सकती । मैं राजा या सम्राट वनकर भी इस दिशा में कुछ नहीं कर सकता । जगत की सेवा के लिये जंगलमें जाना पड़ेगा, महलों में रहने से न चलेगा । पर यह सब हो कैसे ? और कब ?