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महावीर का अन्तस्तल
मुक्ति का सम्वन्ध तो आत्मा की शुद्धता है ।
समझें ।
मँडिक - समगया प्रभु, अब आप मुझे अपना शिष्य
इसके बाद मौर्यपुत्र ने कहा- मैं आर्य मन्डिक का भाई हूं प्रभु | हम दोनों के पिता यद्यपि जुदे जुदे हैं पर भाता एक है । आर्यमंडिक के पिता श्री धनदेव का जब स्वर्गवास होगया तब उनकी और मेरी माता विजयादेवी ने विधवा होने पर धनदेव के मौसेरे भाई मौर्य से विवाह किया। उस विवाह से मैं पैदा हुआ। इस प्रकार हम सवीर्य भ्राता न होने पर भी सहोदर भ्राता अवश्य हैं ।
मैं- जन्म को कोई महत्त्व नहीं है मार्यपुत्र, ज्ञान को महत्व है । सो जब तुम दोनों मेरे शिष्य होजाओगे तब ज्ञान की दृष्टि से सवर्य भराता भी होजाओगे ।
मौर्यपुत्र- ऐसा ही होगा प्रभु, केवल मेरी एक शंका है कि मुझे देव गति समझ में नहीं आती । विशेष कार्य से किसी मनुष्य या मनुष्य समुदायको देव कहना यह तो ठीक है पर मरने के बाद कोई देवगति होती है इस पर कैसे विश्वास किया जाय ? मैं- अमुक अंश में तुम्हारा कहना ठीक है मौर्यपुत्र, व्यव हार में मनुष्यों को ही देव कहा जाता है । पर देवगति भी है और तुम झुसे समझ भी सकते हो ।
मौर्यपुत्र - समझायें प्रभु, मैं समझने को तैयार हूँ ।
मैं- यह तो तुम समझते ही हो कि नीज की अपेक्षा वृक्ष महान होता है ।
मौर्यपुत्र - समझता हूँ प्रभु ।
मैं तब जो कुछ हम पुण्य करेंगे अर्थात बीज बोयेंगे