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महावीर का अन्तस्तल
पहुंचने पर गोशाल ने मेरे साथ आने से इनकार कर दिया बोला-आपके साथ रहने से मुझे बहुत संकटों में पड़ना पड़ता है।
मैंने कहा-जैसी तुम्हारी इच्छा। .: गोशाल अलग होगया । श्रमण ब्राह्मण संघर्ष के कष्ट उसे अपह्य होगये थे। पर वह नहीं जानता कि यही तो सत्य-विजय . का माग है।
३९ - दुःख निमन्त्रण हेय . २४ सत्येशा ९४३७ इतिहास संवत्
मनुष्य में दुश्व सहने की शक्ति होना चाहिये, जिसमें कष्ट सहिष्णुता नहीं है वह तपस्वी नहीं बन सकता, और न पूरी . तरह लोकहित के कार्य में लगसकता है। पर जो लोग जानबूझ कर दुःख को निमन्त्रण देते हैं वे ठीक नहीं करते। वे समझते हैं कि दुख सहन से ही तप होजायगा दुःख सहने की अपने जीवन के लिये या लोकहित के लिये क्या उपयोगिता है इसका विचार नहीं करते। कई लोग चारों तरफ अंगीठी जलाकर उष्णता सहने का प्रदर्शन करते हैं, कोई ठंडे से ठंडे जल में नहाकर ठंडी हवा में बैठते है। जो लोग प्रदर्शन के लिये यह सब करते हैं चे तो दम्भी वंचक हैं पर जो लोग दुःख को ही धर्म समझकर दुःख सहते है और दुःख को निमन्त्रण देकर धर्म होने का भ्रम करते हैं वे भी मिथ्यात्वी हैं। इन वाहगे तों से न तो मात्मा का उद्धार होसकता है न लोकहित होसकता है। असली . तप तो भीतरी तप हैं। अपने दोषों को देखना दूसरों की सेवा करना चिन्तन मनन करना आदि भीतरी तप हैं | बाहर्ग तपों की सार्थकता भीतरी तपों की प्राप्ति में है.। कोरे बाहरी तप किसी काम के नहीं। बल्कि कमी कभी वे वदा अनर्थ कर जाते हैं।